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कुरुक्षेत्र, जून 2008
आज सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या अत्यन्त तीव्रता से बढ़ रही है, अतः जल की माँग का बढ़ना भी स्वाभाविक ही है, परन्तु हमें अपनी इस धारणा को बदलना चाहिये कि जल का असीमित भण्डार है और वह खत्म नहीं होगा, क्योंकि जल का भण्डार सीमित है और इसी का परिणाम है कि प्रत्येक वर्ष सम्पूर्ण विश्व का बहुत बड़ा भू-भाग रेगिस्तान व बंजर भूमि में तब्दील होता जा रहा है।पेयजल और स्वच्छता का चोली-दामन का साथ है। जल न केवल जीवन की मूलभूत आवश्यकता है बल्कि वह सभी के लिए स्वास्थ्य सम्बन्धी लक्ष्य प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण भी है। इस तथ्य पर दृष्टिपात करना भी अत्यन्त आवश्यक है कि सामान्य रोगों में लगभग 80 प्रतिशत रोग असुरक्षित पेयजल के कारण होते हैं। वैश्विक सन्दर्भ मंं हर व्यक्ति को पर्याप्त और स्वच्छ पेयजल सुविधाएँ प्राप्त करने का अधिकार है, परन्तु सवाल यह उठता है कि वह अपने लक्ष्य को कहाँ तक प्राप्त कर पाता है? भारतीय ग्रामीण सन्दर्भ में भारत के प्रत्येक गाँव में उचित सफाई व्यवस्था व पेयजल आपूर्ति सुविधाओं का होना भी नितान्त आवश्यक है। इन दोनों का अभाव राष्ट्रीय स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव डालता है।
भारत सरकार ने ग्रामीण स्वच्छता और पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु समय-समय पर सकारात्मक दिशा में प्रयास भी किये हैं। इन प्रयासों के बावजूद अधिकतर गाँवों में स्वच्छता व्यवस्थाएँ आज भी दयनीय स्थिति में है। अनुमानित ग्रामीण घरों के मात्र 20 प्रतिशत की पहुँच में ही स्वच्छता सुविधाएँ व पेयजल आपूर्ति की उपलब्धता कही जा सकती है। सरकार ने इसी कारण एक सुधारात्मक कार्यक्रम के माध्यम से सम्पूर्ण देश के गाँवों को एक समान नीति के अन्तर्गत लाने की योजना बनाई है जिसे समग्र स्वच्छता अभियान कहते हैं।
सरकार तो सम्पूर्ण देश में स्वच्छता कार्यक्रमों को बढ़ावा देने व जल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु कृत संकल्प है और इस हेतु बजट में भी लक्ष्य को देखते हुए आवश्यक धन बढ़ोतरी निरन्तर की जाती रही है। वर्ष 2008-09 के बजट में भी इन मदों में अपेक्षित व्यय का प्रावधान किया गया है।
सरकार तो ग्रामीण स्वच्छता और पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु प्रयासरत है और निरन्तर विकास भी इन दोनों मदों में देखने को मिलता है परन्तु अभी भी वह लक्ष्य दूर दिखाई देता है। जिस दिन ग्रामीण सन्दर्भों में स्वच्छ जल आपूर्ति के सम्बन्ध में निश्चितता की स्थिति को प्राप्त किया जा सके और इसका सबसे बड़ा कारण जमीनी स्तर पर विभिन्न सरकारी योजनाओं का लक्ष्य व उद्देश्यों के अनुसार व्यवहारिक रूप में क्रियान्वयन न होना और ग्रामीण लोगों का सरकारी योजनाओं व अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ होना है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें दोनों ही प्रथम पंचवर्षीय योजना के क्रियान्वयन के समय से ही ग्रामीण जनता को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने का प्रयास करती रही हैं। सभी योजनाओं में केन्द्र सरकार द्वारा प्रदत्त भारी मात्रा में सहयोग व अनुदान अर्थात राज्य को ऋण दिये जाने के बावजूद जलापूर्ति लाखों ग्रामीण लोगों के लिए अभी अधूरा स्वप्न ही है। 40 वर्षों की अवधि के भीतर 90 प्रतिशत ग्रामीण जनता के लिए पेयजल उपलब्ध कराने सम्बन्धी शुरुआती नीति प्रायः विफल ही रही, क्योंकि अधिकतर गाँव इन योजनाओं के अन्तर्गत ही नहीं आ पाये। बहरहाल, 1972-73 (चौथी पंचवर्षीय योजना) के दौरान ही ग्रामीण जलापूर्ति की समस्या पर गम्भीर ध्यान दिया गया व तत्कालीन सरकारों ने विभिन्न कार्यक्रमों के तहत विभिन्न नीतियों और योजनाओं को अंजाम दिया।
सभी गाँवों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की पहली विफलताओं को देखते हुए भारत सरकार ने 1972-73 में त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना शुरू की। इसमें अपनी उद्देश्य पूर्ति हेतु कुछ निर्धारित मानदण्डों के अनुसार पेयजल की सुविधा के साथ ग्रामीण स्थानों को भौतिक रूप से सम्मिलित किये जाने पर ध्यान दिया गया तथा व्यवहारिकता को अपनाने पर बल दिया गया। यह रणनीति दो आयामी थी—
1. उद्देश्य पूर्ति के दृष्टिकोण से समस्या — ग्रामों की पहचान करना।
2. समस्या ग्रामों के सम्मिलन को त्वरित गति प्रदान करना।
समस्या ग्राम अर्थात समस्याग्रस्त अथवा विचाराधीन गाँवों में इन योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु केन्द्र सरकार ने राज्यों और संघ शासित प्रदेशों को शत-प्रतिशत सहायता स्वरूप अनुदान दिया। त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना को बहरहाल पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम आरम्भ किये जाने के साथ ही वापस ले लिया गया। विशाल निवेश के बावजूद इस योजना के अन्तर्गत प्रगति असंतोषजनक पायी गई। उक्त योजना को नई कार्य नीति के साथ 1977-78 में फिर से लागू किया गया। यह योजना राज्य सरकारों द्वारा क्रियान्वित की जाती है। अब उनके पास कार्यक्रमों का नियोजन, अनुमोदन और क्रियान्वयन के समुचित अधिकार है।
ग्रामीण क्षेत्रों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की विशालकायिता और अनिवार्यता को पहचान कर त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना को राष्ट्रीय पेयजल मिशन 1986 का रूप दे दिया गया जिसको 1991 में नया नाम राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन दे दिया गया। इस मिशन के तहत पूर्ववर्ती योजनाओं को ध्यान में रखकर कुछ बड़े सुधार किये गये ताकि भारत में जल के क्षेत्र में सातत्य अर्थात निरन्तरता कायम की जा सके। इस कार्यक्रम को दो श्रेणियों में बाँटकर अमली जामा पहनाया गया। (1) मुख्य योजनाएं (2) प्रोत्साहित व सहायतापरक क्रिया-कलाप।
पेयजल आपूर्ति मुहैया कराने सम्बन्धी राष्ट्रीय मानदण्डों के अनुसार व्यापक निवेशों और यथेष्ट व्याप्ति के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति बिगड़ती जा रही है। इस स्थिति पर काबू पाने के लिए सरकार ने इस क्षेत्र हेतु संस्थानिक वित्त प्रबंध की संकल्पना को अपनाया है, जिसका उद्देश्य है अतिरिक्त संसाधनों की सुलभता बढ़ाना और अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना यथा आपूर्ति प्रेरक होने के बजाय अब माँग प्रेरित हो जाना। यह एक विश्व बैंक समर्थित योजना थी, जिसके तहत मुख्य रूप से नीतिगत सुधारों को लागू किया गया। यह योजना सतत स्वास्थ्य एवं स्वच्छता हित लाभ पहुँचाने हेतु एक विशेष पैकेज एवं नीति सुधार प्रक्रिया के समर्थन में अभिकल्पित की गई है।
स्वजल 7.1 करोड़ डॉलर वाली एक सात वर्षों (1996-2003) समुदाय एवं माँग प्रेरित जल एवं स्वच्छता परियोजना थी जो 4 खण्डों में तत्कालीन उत्तर प्रदेश राज्य के उत्तराखण्ड एवं बुन्देलखण्ड क्षेत्रों में 19 जिलों के 1000 गाँवों में शुरू की गई थी, ताकि वह अन्य परम्परागत आपूर्ति प्रेरित सेवा-सुपुर्दगी मॉडलों के मुकाबले अपने सातत्य एवं श्रेष्ठता का प्रदर्शन कर सके।
लगता है कि निकट भविष्य में युद्ध पानी के लिए लड़े जाएँगे। सम्पूर्ण विश्व में फैल रही जल प्रबन्धन की मुख्य समस्याओं का कारण है - गैरपारदर्शी और बिना भागीदारी प्रक्रिया वाली अनुपयुक्त नीति और विनियम। इनकी वजह से बहुतायत वाले क्षेत्रों में भी पानी का जल स्तर निरन्तर घटता जा रहा है। जल स्रोत सूख रहे हैं तथा उनके सूखने का खतरा निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
हमें बुनियादी आवश्यकताओं की निरन्तरता को बनाये रखने के प्रति अति शीघ्र जागरूक होने की आवश्यकता है। सम्भवतः यह आज सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख चुनौती है जिसमें वैश्विक वैज्ञानिक ज्ञान व आधुनिकतम संसाधन दोनों को अपनाये जाने की तीव्र आवश्यकता है।
आज हम बिना सोचे-समझे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते जा रहे हैं और आवश्यकता से अधिक उनका इस्तेमाल कर रहे हैं, परन्तु यह नहीं सोच रहे हैं कि उनका भण्डार सीमित है। अगर हम जल के ही दृष्टिकोण से देखें तो उसका उपयोग निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। विश्व की लगभग 7 अरब जनसंख्या उपयोग करने योग्य कुल जल में से 54 प्रतिशत का उपयोग वर्तमान में कर रही है। अगर भविष्यगामी आँकड़ों पर गौर करें और माना जाये कि प्रति व्यक्ति जल की खपत भविष्य में भी ऐसी ही बनी रहेगी तो आगामी 20 वर्षों में सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख भयानक जल संकट उत्पन्न होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
यदि हम विश्व स्तर पर दृष्टि डालें तो जल के कुल उपयोग में से 69 प्रतिशत कृषि में 23 प्रतिशत उद्योगों में तथा मात्र 8 प्रतिशत ही घरेलू कार्यों में लगता है।
अगर विश्व समुदाय को जल संकट से उबरना है और सुखद भविष्य की कल्पना करनी है तो जल संवर्धन कार्यक्रम और उसके उचित व आवश्यक प्रयोग को व्यवहारिक रूप में अपनाना होगा व अनावश्यक भू-जल दोहन पर तत्काल रोक लगानी होगी। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जितने जल का प्रयोग किया जाता है उसका कुछ भाग विभिन्न जल संचयन माध्यमों द्वारा जमीन के अन्दर पहुँचाया जाये, इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बरसात के जल का संचयन उचित प्रकार से किया जाये व भूमि से अनावश्यक जल की निकासी को रोका जाये तभी जल स्तर को थोड़ा बहुत बढ़ाया जा सकता है।
आज सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या अत्यन्त तीव्रता से बढ़ रही है, अतः जल की माँग का बढ़ना भी स्वाभाविक ही है, परन्तु हमें अपनी इस धारणा को बदलना चाहिये कि जल का असीमित भण्डार है और वह खत्म नहीं होगा, क्योंकि जल का भण्डार सीमित है और इसी का परिणाम है कि प्रत्येक वर्ष सम्पूर्ण विश्व का बहुत बड़ा भू-भाग रेगिस्तान व बंजर भूमि में तब्दील होता जा रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व को एकजुट होकर जल संकट पर गहन आत्म-मन्थन करना चाहिये व प्रत्येक जागरूक इंसान को इसे बचाने व अनावश्यक बर्बाद न करने का संकल्प लेना चाहिए।
(लेखक मॉडर्न स्कूल ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज कॉलेज, गाजियाबाद में अध्यापन कार्य में संलग्न हैं।)
भारत सरकार ने ग्रामीण स्वच्छता और पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु समय-समय पर सकारात्मक दिशा में प्रयास भी किये हैं। इन प्रयासों के बावजूद अधिकतर गाँवों में स्वच्छता व्यवस्थाएँ आज भी दयनीय स्थिति में है। अनुमानित ग्रामीण घरों के मात्र 20 प्रतिशत की पहुँच में ही स्वच्छता सुविधाएँ व पेयजल आपूर्ति की उपलब्धता कही जा सकती है। सरकार ने इसी कारण एक सुधारात्मक कार्यक्रम के माध्यम से सम्पूर्ण देश के गाँवों को एक समान नीति के अन्तर्गत लाने की योजना बनाई है जिसे समग्र स्वच्छता अभियान कहते हैं।
सरकार तो सम्पूर्ण देश में स्वच्छता कार्यक्रमों को बढ़ावा देने व जल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु कृत संकल्प है और इस हेतु बजट में भी लक्ष्य को देखते हुए आवश्यक धन बढ़ोतरी निरन्तर की जाती रही है। वर्ष 2008-09 के बजट में भी इन मदों में अपेक्षित व्यय का प्रावधान किया गया है।
तालिका-1: स्वच्छता कार्यक्रम व पेयजल आपूर्ति हेतु 2008-09 के बजट में व्यय का ब्यौरा | |
मद | बजट में स्वीकृत धनराशि |
स्वच्छता अभियान | 1200 करोड़ रुपये |
पेयजल (राजीव गाँधी पेयजल मिशन) | 200 करोड़ रुपये |
ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन | 12,050 करोड़ रुपये |
सरकार तो ग्रामीण स्वच्छता और पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु प्रयासरत है और निरन्तर विकास भी इन दोनों मदों में देखने को मिलता है परन्तु अभी भी वह लक्ष्य दूर दिखाई देता है। जिस दिन ग्रामीण सन्दर्भों में स्वच्छ जल आपूर्ति के सम्बन्ध में निश्चितता की स्थिति को प्राप्त किया जा सके और इसका सबसे बड़ा कारण जमीनी स्तर पर विभिन्न सरकारी योजनाओं का लक्ष्य व उद्देश्यों के अनुसार व्यवहारिक रूप में क्रियान्वयन न होना और ग्रामीण लोगों का सरकारी योजनाओं व अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ होना है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें दोनों ही प्रथम पंचवर्षीय योजना के क्रियान्वयन के समय से ही ग्रामीण जनता को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने का प्रयास करती रही हैं। सभी योजनाओं में केन्द्र सरकार द्वारा प्रदत्त भारी मात्रा में सहयोग व अनुदान अर्थात राज्य को ऋण दिये जाने के बावजूद जलापूर्ति लाखों ग्रामीण लोगों के लिए अभी अधूरा स्वप्न ही है। 40 वर्षों की अवधि के भीतर 90 प्रतिशत ग्रामीण जनता के लिए पेयजल उपलब्ध कराने सम्बन्धी शुरुआती नीति प्रायः विफल ही रही, क्योंकि अधिकतर गाँव इन योजनाओं के अन्तर्गत ही नहीं आ पाये। बहरहाल, 1972-73 (चौथी पंचवर्षीय योजना) के दौरान ही ग्रामीण जलापूर्ति की समस्या पर गम्भीर ध्यान दिया गया व तत्कालीन सरकारों ने विभिन्न कार्यक्रमों के तहत विभिन्न नीतियों और योजनाओं को अंजाम दिया।
त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना
सभी गाँवों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की पहली विफलताओं को देखते हुए भारत सरकार ने 1972-73 में त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना शुरू की। इसमें अपनी उद्देश्य पूर्ति हेतु कुछ निर्धारित मानदण्डों के अनुसार पेयजल की सुविधा के साथ ग्रामीण स्थानों को भौतिक रूप से सम्मिलित किये जाने पर ध्यान दिया गया तथा व्यवहारिकता को अपनाने पर बल दिया गया। यह रणनीति दो आयामी थी—
1. उद्देश्य पूर्ति के दृष्टिकोण से समस्या — ग्रामों की पहचान करना।
2. समस्या ग्रामों के सम्मिलन को त्वरित गति प्रदान करना।
समस्या ग्राम अर्थात समस्याग्रस्त अथवा विचाराधीन गाँवों में इन योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु केन्द्र सरकार ने राज्यों और संघ शासित प्रदेशों को शत-प्रतिशत सहायता स्वरूप अनुदान दिया। त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना को बहरहाल पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम आरम्भ किये जाने के साथ ही वापस ले लिया गया। विशाल निवेश के बावजूद इस योजना के अन्तर्गत प्रगति असंतोषजनक पायी गई। उक्त योजना को नई कार्य नीति के साथ 1977-78 में फिर से लागू किया गया। यह योजना राज्य सरकारों द्वारा क्रियान्वित की जाती है। अब उनके पास कार्यक्रमों का नियोजन, अनुमोदन और क्रियान्वयन के समुचित अधिकार है।
राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन
ग्रामीण क्षेत्रों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की विशालकायिता और अनिवार्यता को पहचान कर त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना को राष्ट्रीय पेयजल मिशन 1986 का रूप दे दिया गया जिसको 1991 में नया नाम राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन दे दिया गया। इस मिशन के तहत पूर्ववर्ती योजनाओं को ध्यान में रखकर कुछ बड़े सुधार किये गये ताकि भारत में जल के क्षेत्र में सातत्य अर्थात निरन्तरता कायम की जा सके। इस कार्यक्रम को दो श्रेणियों में बाँटकर अमली जामा पहनाया गया। (1) मुख्य योजनाएं (2) प्रोत्साहित व सहायतापरक क्रिया-कलाप।
स्वजल परियोजना
पेयजल आपूर्ति मुहैया कराने सम्बन्धी राष्ट्रीय मानदण्डों के अनुसार व्यापक निवेशों और यथेष्ट व्याप्ति के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति बिगड़ती जा रही है। इस स्थिति पर काबू पाने के लिए सरकार ने इस क्षेत्र हेतु संस्थानिक वित्त प्रबंध की संकल्पना को अपनाया है, जिसका उद्देश्य है अतिरिक्त संसाधनों की सुलभता बढ़ाना और अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना यथा आपूर्ति प्रेरक होने के बजाय अब माँग प्रेरित हो जाना। यह एक विश्व बैंक समर्थित योजना थी, जिसके तहत मुख्य रूप से नीतिगत सुधारों को लागू किया गया। यह योजना सतत स्वास्थ्य एवं स्वच्छता हित लाभ पहुँचाने हेतु एक विशेष पैकेज एवं नीति सुधार प्रक्रिया के समर्थन में अभिकल्पित की गई है।
स्वजल 7.1 करोड़ डॉलर वाली एक सात वर्षों (1996-2003) समुदाय एवं माँग प्रेरित जल एवं स्वच्छता परियोजना थी जो 4 खण्डों में तत्कालीन उत्तर प्रदेश राज्य के उत्तराखण्ड एवं बुन्देलखण्ड क्षेत्रों में 19 जिलों के 1000 गाँवों में शुरू की गई थी, ताकि वह अन्य परम्परागत आपूर्ति प्रेरित सेवा-सुपुर्दगी मॉडलों के मुकाबले अपने सातत्य एवं श्रेष्ठता का प्रदर्शन कर सके।
वैश्विक जल संकट
लगता है कि निकट भविष्य में युद्ध पानी के लिए लड़े जाएँगे। सम्पूर्ण विश्व में फैल रही जल प्रबन्धन की मुख्य समस्याओं का कारण है - गैरपारदर्शी और बिना भागीदारी प्रक्रिया वाली अनुपयुक्त नीति और विनियम। इनकी वजह से बहुतायत वाले क्षेत्रों में भी पानी का जल स्तर निरन्तर घटता जा रहा है। जल स्रोत सूख रहे हैं तथा उनके सूखने का खतरा निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
हमें बुनियादी आवश्यकताओं की निरन्तरता को बनाये रखने के प्रति अति शीघ्र जागरूक होने की आवश्यकता है। सम्भवतः यह आज सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख चुनौती है जिसमें वैश्विक वैज्ञानिक ज्ञान व आधुनिकतम संसाधन दोनों को अपनाये जाने की तीव्र आवश्यकता है।
तालिका-2: जनसंख्या तथा जल की उपलब्धता में देश की स्थिति | ||
वर्ष | जनसंख्या (करोड़ में) | जल की उपलब्धता (घन मीटर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति) |
1947 | 40 | 5,000 |
2000 | 100 | 2,000 |
2025 | 139 | 1,500 |
2050 | 160 | 1,000 |
आज हम बिना सोचे-समझे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते जा रहे हैं और आवश्यकता से अधिक उनका इस्तेमाल कर रहे हैं, परन्तु यह नहीं सोच रहे हैं कि उनका भण्डार सीमित है। अगर हम जल के ही दृष्टिकोण से देखें तो उसका उपयोग निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। विश्व की लगभग 7 अरब जनसंख्या उपयोग करने योग्य कुल जल में से 54 प्रतिशत का उपयोग वर्तमान में कर रही है। अगर भविष्यगामी आँकड़ों पर गौर करें और माना जाये कि प्रति व्यक्ति जल की खपत भविष्य में भी ऐसी ही बनी रहेगी तो आगामी 20 वर्षों में सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख भयानक जल संकट उत्पन्न होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
यदि हम विश्व स्तर पर दृष्टि डालें तो जल के कुल उपयोग में से 69 प्रतिशत कृषि में 23 प्रतिशत उद्योगों में तथा मात्र 8 प्रतिशत ही घरेलू कार्यों में लगता है।
अगर विश्व समुदाय को जल संकट से उबरना है और सुखद भविष्य की कल्पना करनी है तो जल संवर्धन कार्यक्रम और उसके उचित व आवश्यक प्रयोग को व्यवहारिक रूप में अपनाना होगा व अनावश्यक भू-जल दोहन पर तत्काल रोक लगानी होगी। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जितने जल का प्रयोग किया जाता है उसका कुछ भाग विभिन्न जल संचयन माध्यमों द्वारा जमीन के अन्दर पहुँचाया जाये, इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बरसात के जल का संचयन उचित प्रकार से किया जाये व भूमि से अनावश्यक जल की निकासी को रोका जाये तभी जल स्तर को थोड़ा बहुत बढ़ाया जा सकता है।
तालिका-3: विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली जल की खपत में वृद्धि | ||||||
क्षेत्र | 1990 | 2000 | 2025 | |||
घन कि.मी. | कुल खपत का प्रतिशत | घन कि.मी. | कुल खपत का प्रतिशत | घन कि.मी. | कुल खपत का प्रतिशत | |
कृषि | 460 | 83.3 | 630 | 84 | 770 | 73.3 |
घरेलू | 25 | 4.5 | 33 | 4.4 | 52 | 4.95 |
उद्योग | 15 | 2.7 | 30 | 4.0 | 120 | 11.4 |
ऊर्जा | 19 | 3.4 | 27 | 3.6 | 71 | 6.76 |
अन्य | 33 | | 30 | | 37 | |
कुल | 552 | | 750 | | 1050 | |
आज सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या अत्यन्त तीव्रता से बढ़ रही है, अतः जल की माँग का बढ़ना भी स्वाभाविक ही है, परन्तु हमें अपनी इस धारणा को बदलना चाहिये कि जल का असीमित भण्डार है और वह खत्म नहीं होगा, क्योंकि जल का भण्डार सीमित है और इसी का परिणाम है कि प्रत्येक वर्ष सम्पूर्ण विश्व का बहुत बड़ा भू-भाग रेगिस्तान व बंजर भूमि में तब्दील होता जा रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व को एकजुट होकर जल संकट पर गहन आत्म-मन्थन करना चाहिये व प्रत्येक जागरूक इंसान को इसे बचाने व अनावश्यक बर्बाद न करने का संकल्प लेना चाहिए।
(लेखक मॉडर्न स्कूल ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज कॉलेज, गाजियाबाद में अध्यापन कार्य में संलग्न हैं।)