सारांश
भारत में प्रचुर मात्रा में जल स्रोत हैं, परंतु उनका नियोजन और संचालन ही उनका भविष्य निर्धारित कर सकता है। विश्व की जनसंख्या का तो 17% भारत में है परंतु विश्व के मात्र 4% स्वच्छ पेय जल के स्रोत हमारे देश में हैं। हमारे आर्थिक विकास को बढ़ाने में और हमारे नागरिकों के जीवन स्तर को उठाने में जल का ही महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे देश के कृषि क्षेत्र में जल के उचित नियोजन की कमी है। उदाहरण के लिए हमारे जिन क्षेत्रों में पानी की कमी है वहाँ पर भी चावल और गन्ने जैसी फसल पाई जाती है जिन्हें बड़े पैमाने पर पानी की आवश्यकता होती है। प्रति एक किलो चावल को उगाने में पंजाब, बिहार की तुलना में तीन गुना और पश्चिम बंगाल की तुलना में दुगना पानी प्रयोग कर रहा है। इसके लिए प्रयुक्त जल का 80% तो भूजल से ही दोहा जाता है। आज भारत जिस बासमती चावल का निर्यात कर रहा है, अपरोक्ष रूप से उसकी कीमत 10 ट्रिलियन लीटर पानी के बराबर है।
यदि आज आवश्यकता है तो परम्परागत तरीके से नदी, तालाब, झील, जलाशय और कुओं को संवर्धित करने की और उन्हें पुनर्जीवित करने की। भूगर्भीय जल का दोहन करने के साथ-साथ आधुनिक तकनीक से उसके स्तर पर भी नजर रखनी पड़ेगी और केवल खेती के लिए प्रयोग में आने वाले जल के व्यय का अलग से आंकलन करना होगा। नल-कूपों से पानी निकालने के साथ-साथ उनको फिर से कैसे रिचार्ज किया जाए, इसका नियोजन भी आवश्यक है। कम पानी वाले इलाकों में उसके अनुकूल फसल लगाकर और कपास तथा गन्ने की खेती को हतोत्साहित करके तथा उसके स्थान पर ऐसी अन्य वैकल्पिक फसलें, जैसे टमाटर, खरबूजा, विभिन्न प्रकार की फलियाँ, जिनको कम पानी की आवश्यकता होती है, को लगाकर जल-नियोजन किया जाना चाहिए।
हमारे किसान एक फसल की पैदावार में चीन, इजराइल और अमेरिका के किसानों की तुलना में तीन से पांच गुना अधिक पानी इस्तेमाल करते हैं। हमारे किसानों की गणना, फसल में इस्तेमाल किये जाने वाले जल की तुलना में पैदावार की उत्पादकता की दक्षता में विश्व में सबसे कम दक्षता वाले देशों में होती है। इस प्रकरण का एक सुझाव यह हो सकता है कि ऐसी फसलों, जैसे ज्वार, बाजरा, रागी, उर्द, अरहर, चना और मूंग, जिनमें प्रचुर मात्रा में प्रोटीन है और पानी भी कम लगता है, को उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाए और स्थानीय प्रबंधन करके स्कूलों में मिड-डे मील के लिए इन सभी प्रोटीन-युक्त अनाज और दालों को इस्तेमाल के लिए उपलब्ध कराकर उन्हें उनकी इस पैदावार के लिए अधिकतम कीमत दी जाए।
Abstract
Natural resources in India are aplenty, but the proper planning and management can determine their future. While 17% of the population of the world is in India but only 4% of the fresh water sources are in our country. Water is essential to increase our economic development and to raise the social strata of our citizens. It is worth to emphasize that, in the agriculture sector of our country, proper planning of water usage is much to be improved. For example, in the regions where there is scarcity of water, we find the crops like rice and wheat, which require water on a large scale. For growing one kilogram of rice, Punjab is using three times of water in comparison to Bihar and twice as much as of West Bengal and for this purpose 80% of the water is exploited from ground. Today, the Basmati rice, which is exported by India, is indirectly costing us equivalent to 10 million litres of water.
There is a necessity to revive rivers, ponds, lakes, reservoirs and wells in a conventional manner. Along with exploiting ground water, we will also have to keep watch on its level and will have to separately assess the expenditure of water in agriculture through modern techniques. Along with lifting water from the bore well, how to recharge them again is an urgent issue. By adopting appropriate crops and by discouraging farming of cotton and sugarcane in water scarce areas, and in its place farming of other alternative crops like tomato, melon, various types of beans, which require less water, there is good scope for efficient farming.
Our farmers are using three to five times more water to produce one crop compared to the farmers of China, Israel and America. When we talk about the yields of productivity as compared to the water used in the farming, our farmers are counted among the lowest in the world. One suggestion could be to encourage the farmers to grow crops, such as millets, various types of pulses and gram, which are high in protein and use less amount of water be given maximum price for this yield by using local distribution of all these rich protein cereal and pulses for mid-day meal in the schools.
1.0 परिचय
जल मानव अस्तित्व और उन्नति के लिए एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। पानी हमारे ग्रामीण और शहरी समुदायों के लिए स्वच्छता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पानी एक महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन भी है। यह कृषि के सभी रूपों और अधिकांश औद्योगिक उत्पादन प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक है। पानी पारिस्थितिकी तंत्र और विभिन्न पर्यावरणीय प्रक्रियाओं में भी सहायक होता है। यह औद्योगिक अपशिष्टों और घरेलू मल के समावेश के लिए भी आवश्यक है। पानी को व्यापारिक रूप में पर्यटन और परिवहन के रूप में इस्तेमाल करने का काम अभी शेष ही है।
आज दुनिया भर में मीठे-पानी (पीने योग्य पानी) के संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। वृहद परिप्रेक्ष्य में तो दुनिया भर में मीठे पानी की कुल उपलब्धता एक स्तर पर नियत बनी हुई है परंतु एक सूक्ष्म परिप्रेक्ष्य में, जलवैज्ञानिक संतुलन में परिवर्तन, अति-दोहन और मीठे पानी के भंडार के बढ़ते प्रदूषण के कारण कई क्षेत्रों और इलाकों में मीठे पानी की आपूर्ति कम हो रही है। कई तीसरी-दुनिया (ऐसे देश जो शीत युद्ध के समय न तो नाटो के साथ थे और न ही सोवियत गुट के साथ) के देश पहले से ही पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्यान्न उत्पादन, पारिस्थतिकी संतुलन की सुरक्षा और राष्ट्रों के बीच शांति बनाए रखने की राह में पानी की कमी एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ रही है।
भारत इस संकट का अपवाद नहीं है। बढती हुई जनसंख्या ने, जोकि जल्द ही 1.5 बिलियन को छूने वाली है, अत्यधिक जल प्रयोग वाली कृषि और तेजी से होते हुए शहरी औद्योगीकरण ने मीठे पानी के संसाधनों पर भारी दबाव डाला है। जल की बढ़ती समस्याएं पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन, सामाजिक स्थिरता और आर्थिक विकास के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। भारत में सदियों से सिंचाई, पीने और घरेलू जल आपूर्ति के लिए जल की सामुदायिक प्रबंधन की स्वदेशी प्रणाली अस्तित्व में थी। औपनिवेशिक शासन के दौरान पारंपरिक समुदाय आधारित जल प्रबंधन में एक भारी तब्दीली देखी गई। अंग्रेजों ने बड़े बैराजों और नहरों का निर्माण तो किया, लेकिन सिंचाई प्रणाली पर प्रबंधन की जगह शासन का दबाव रहा।
अविभाजित भारत में 15.2 मिलियन हेक्टेयर नहर द्वारा सिंचित भूमि को मिलाकर, 28.2 मिलियन हेक्टेयर कुल सिंचित भूमि थी। देश के विभाजन ने कई सिंचाई स्रोतों को पाकिस्तान को खो दिया। 1949-50 के दौरान देश का खाद्यान्न उत्पादन लगभग 62 मिलियन टन था। कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने और भोजन में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए एक के बाद एक कई पंचवर्षीय योजनाओं में सिंचाई के विकास के क्षेत्र में बड़े निवेश को प्राथमिकता दी गई। कई बड़ी, मध्यम और लघु सिंचाई योजनाओं का निर्माण किया गया। नतीजतन, कुल सिंचित क्षेत्र 1991 में 46.2 मिलियन हेक्टेयर हो गया जिससे 1995 तक खाद्यान्न उत्पादन 2.42 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि के साथ 180 मिलियन टन पहुँच गया। सिंचित क्षेत्र में विस्तार के कारण ही 1964-65 से 1970-71 के दौरान खाद्य-अनाज उत्पादन 3.3 प्रतिशत की उत्कृष्ट दर से बढ़ा।
भारत में, विशेषकर शहरी क्षेत्रों में, पिछले कुछ दशकों से जनसंख्या में वृद्धि के कारण, भोजन तथा घरेलू पानी की जरूरत बढ़ने से और इसी के साथ-साथ औद्योगिक विकास होने से उत्पादन तथा अपशिष्टों के निकास हेतु पानी की मांग में तेजी से वृद्धि हुई है। सतह और भूजल के दोहन के माध्यम से मांग के साथ तालमेल बनाए रखने के लिये आपूर्ति कई गुना बढ़ गई है। नतीजतन, भूजल संसाधनों का कई शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में अत्यधिक दोहन हुआ, जिससे बड़े पैमाने पर जल-स्तर, भूजल की गुणवत्ता और अच्छे भूजल की उपलब्धता में भारी गिरावट आई है। बढ़ते हुए औद्योगिक अपशिष्ट और महानगरीय अपशिष्ट से मीठे पानी की आपूर्ति तेजी से प्रदूषण के खतरे में आ रही है।
यह स्थिति लगातार अभूतपूर्व रूप से बढ़ती गई है। स्वतंत्रता के बाद 1951 में देश में प्रति व्यक्ति मीठे पानी की उपलब्धता 5177 घन मीटर प्रतिवर्ष थी। देश में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक जल उपलब्धता जनसंख्या में वृद्धि के कारण उत्तरोत्तर कम हो रही है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए पानी की औसत वार्षिक प्रति व्यक्ति उपलब्धता, 2001 की जनगणना, 2011 की जनगणना और वर्ष 2025 तथा 2050 के लिए जनसंख्या के अनुमान के अनुसार तालिका-1 में इस प्रकार हैः
यह शोधपत्र जल के एक विश्लेषणात्मक अवलोकन को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। पत्र दो खण्डों में विभाजित है; एक खंड चुनौतियों, मुद्दों तथा संकटों और दूसरा उससे निपटने के वैकल्पिक मार्गों का विश्लेषण प्रदान करता है।
2.0 भारत में जल सम्बंधित संकट
भारत का भौगोलिक स्वरुप इस प्रकार का है कि इसका एक भाग जिस समय सूखे की मार झेलता हो उसी समय दूसरे हिस्से में बाढ़ का प्रकोप होता है। उसी प्रकार किसी भाग की भूमि और जलवायु कृषि के लिए बहुत अच्छी है तो किसी भाग की भूमि कृषि के लिए बिलकुल ही विपरीत। देश के प्रमुख जल संकटों को हम आगे के भाग में देख सकते हैं।
2.1 प्राकृतिक आपदाएं
पानी की कमी और उपलब्धता दोनों ही मौसमी एवं सामयिक कारकों पर निर्भर करती है। मौसमी स्थितियां, किसी क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों के साथ मिलकर, देश के जल-परिदृश्य को काफी प्रभावित करती हैं। इन्हीं विशेष भू-आकृतिक विशेषताओं के चलते भारत विभिन्न भू-भौतिकीय खतरों से घिरा हुआ है। भारत का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा छोटे-बड़े भूकम्पों की आशंकाओं से ग्रसित है। 12 प्रतिशत भाग बाढ़, 8 प्रतिशत चक्रवात और 60 प्रतिशत सूखे के खतरे से घिरा है। यहाँ उदाहरण के तौर पर उड़ीसा, असम और उत्तराखंड जैसे राज्यों को देख सकते हैं। उपयुक्त संगठनात्मक प्रणाली की कमी, अनुचित भूमि प्रबंधन, उच्च जोखिम वाले इलाकों में बढ़ती बस्तियों के कारण इन आपदाओं के आर्थिक और मानवीय प्रभाव बढ़ रहे हैं। निरंतर प्राकृतिक और मानवजनित आपदाएं अर्थव्यवस्था के लिए एक गंभीर बाधा हो सकती हैं। वर्ष 2009 में ही भारत को, जल और मौसम संबंधी आपदाओं के कारण लगभग 121.14 बिलियन रू. का नुकसान हुआ था जोकि पूरे विश्व की चौथी सबसे बड़ी राशि थी। महाराष्ट्र में 2003 के सूखे और 2005 की बाढ़ में, कृषि और ग्रामीण विकास के 2002-07 के निर्धारित बजट (152 बिलियन) से अधिक पैसा (175 बिलियन) खप गया।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारी और अनियमित वर्षा कई राज्यों में बाढ़ का एक कारण है। लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल के साथ अन्य राज्यों में जलप्रलय के तहत, उनकी बाढ़ प्रबंधन प्रणाली पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यह आपदा उसी समय, क्षेत्र में स्थित बांधों से पानी छोड़ने के कारण बढ़ जाती है, जब लगातार बारिश हो रही हो। विभिन्न बांधों से पानी छोड़ने के कुप्रबंधन ने महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली और सतारा जिलों में बाढ़ से युद्धस्तर पर बचाव करने योग्य स्थिति उत्पन्न कर दी। जब बाढ़ शुरू हुई उस समय क्षेत्र में तीन बड़े बाँध-कोयना, राधानगरी और वारणा लगभग 100% भर गए थे। उसके पहले तक उनसे कोई पानी नही छोड़ा गया। यदि पानी पहले से ही छोड़ना शुरू किया गया होता तो भारी बारिश के दौरान उनके पास पर्याप्त जगह होती। यहाँ पर हम 2018 में केरल की भीषण बाढ़ को याद कर सकते हैं जिसने वहाँ की पहाड़ी इलाकों के जन जीवन और अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। इस दिशा में बाढ़ की स्थिति से निपटने के लिए एक केन्द्रीय नियम नीति की अति आवश्यकता है।
2.2 भूतल जल की संभावित क्षमता में गिरावट
हालांकि, हमारे द्वारा प्राकृतिक अपवाह के उपयोग का स्तर बहुत कम है, लेकिन बहुत से ऐसे कारण हैं कि आगे के लिए उनका प्रयोग सीमित ही है। पहला कारण तो यह कि लगभग सभी व्यवहारिक स्रोत पहले से ही शोषित और काफी गहनता से प्रयोग किये जा रहे हैं। भविष्य में इनके शोषण की सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत बहुत अधिक होगी। बड़े बांधों के निर्माण के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर समुदायों का विस्थापन हुआ और वे अपने पारंपरिक आजीविका के स्रोतों और अवसरों से वंचित हुए। मौलिक मानवाधिकार, बराबरी और सामाजिक न्याय के मुद्दे जो विकास के इस स्वरुप में निहित हैं, विस्थापन जैसे छोटे मुद्दे की तुलना में कहीं अधिक गंभीर हैं। बुनियादी बात यह है कि जो लोग विकास के फल प्राप्त करते हैं, वे वो लोग नहीं होते जिनको कीमत चुकानी पड़ती है। ऐसा भी पाया गया है कि बड़े-बड़े जल-विद्युतीय पॉवर प्लांटो के आस-पास के क्षेत्र बिजली से वंचित रह जाते हैं जबकि उन तक यह सुविधा सबसे पहले पहुंचनी चाहिए। इसका एक उदहारण चित्र-1 में प्रदर्शित मणिपुर का लोकतक जल-विद्युत पॉवर प्लांट है जहाँ आज भी उसके पास के क्षेत्र बिजली से वंचित हैं।
चित्र-1: लोकतक जल-विद्युत पॉवर प्लांट और आस-पास के परिवेश का एक दृश्य
दूसरा कारण यह कि भारत में बड़ी जल परियोजनाएं तेजी से पर्यावरणविदों और सामाजिक न्याय कार्यकर्ताओं की जांच के दायरे में आ रही हैं। बड़े बाधों से पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन को होने वाले खतरे अच्छी तरह से जाने-बूझे हुए हैं। पारंपरिक रूप से समझा जाता है कि बड़े बाँधों के बड़े पैमाने पर जलमग्न होने से नकारात्मक पर्यावरणीय परिणाम होते हैं, जबकि सिंचाई के सकारात्मक पर्यावरणीय और पारिस्थितिक प्रभाव की अनदेखी की जाती है। तीसरा कारण यह कि बड़ी जल परियोजनाओं के लिए पूँजी की उपलब्धता भी सवालों के घेरे में है। बड़ी बाँध परियोजनाओं के सामाजिक और पर्यावरणीय परिणामों के बारे में जागरूकता बढ़ने से कई अंतर्राष्ट्रीय सहायता प्राप्त एजेंसियां सार्वजनिक निगरानी में लगी हुई हैं। इससे भारत में बड़ी बाँध परियोजनाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तिया सहायता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
एक ओर जहाँ 1991 में प्रति हेक्टेयर जलग्रहण क्षेत्र के लिए औसत वार्षिक उपलब्धता अधिकतम 20000 मी3 और न्यूनतम 2000 मी3 थी (चित्र-2), वही उपलब्धता 2025 तक अधिकतम 10000 मी3 और न्यूनतम 400 मी3 से भी कम रह जाएगी (चित्र-3)।
2.3 मौजूदा योजनाओं की क्षमता में कमी
भारत में बड़े जलाशय वाली योजनाओं के सामने गंभीर समस्याएं हैं। जलग्रहण क्षेत्र में तेजी से मिट्टी का कटाव और इसके बाद जलाशयों का तेजी से बहना जल विज्ञानियों के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। प्रायः मृदा अपरदन और गाद (सिल्टेशन) की वास्तविक दर गणना किये गए अनुमानों की तुलना में बहुत अधिक होती है। उदाहरण के तौर पर, साबरमती नदी पर बने धरोई जलाशय के लिए नियोजन के समय पर गाद की अनुमानित दर 1.6 एमसीएम थी। लेकिन 1994 में हुए सर्वे में पाया गया कि गाद लगभग 10 एमसीएम प्रतिवर्ष की दर से हो रही थी। इसका परिणाम जलाशय की घटती भंडारण क्षमता के रूप में सामने आता है। इसके अतिरिक्त नहरों से अत्यधिक जल रिसाव और सिंचित खेतों में ख़राब जल-निकासी के कारण कई नहर संचालित क्षेत्रों में जलभराव और लवणता की व्यापक समस्या पैदा हो रही है। लम्बे समय तक जलभराव और लवणता कृषि भूमि की उत्पादकता में गिरावट का कारण बनते हैं और उसे बंजर भूमि में बदल देते हैं। आज, पंजाब और हरियाणा के कुछ क्षेत्र, जो लवणता और जलभराव से पीडि़त हैं, घटती हुई उत्पादकता दिखा रहे हैं।
2.4 प्राकृतिक मीठे पानी की क्षीण होती आपूर्ति
आज, विकासशील देशों में जल-प्रदूषण एक बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि मानव कल्याण और आर्थिक विकास पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। भारत में यह उदार आर्थिक नीतियों के माध्यम से हुए औद्योगीकरण के पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक दुष्परिणाम के रूप में सामने आया है। जल आपूर्ति की उपलब्धता पर उद्योगों का कई गुना प्रभाव पड़ा है। उद्योग, श्रम की मांग के फलस्वरूप प्रवासी आबादी उत्पन्न करते हैं जिससे नए शहरी केंद्र और मलिन बस्तियां बनती हैं। उद्योग अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं। सघन आबादी भी घरेलू मल के रूप में भारी मात्रा में अपशिष्ट उत्पन्न करती है। प्रायः उद्योग अपने उपचारित, अनुपचारित या आंशिक रूप से उपचारित अपशिष्ट को नदियों में ही बहाते हैं जोकि मीठे पानी की उपलब्धता को प्रभावी रूप से कम करता है। घरेलू और नगरपालिकाओं के अपशिष्ट भी बहती धाराओं में अपना रास्ता तलाशते हैं!
भारत में नदियों का प्रदूषण काफी व्यापक है। सेंट्रल बोर्ड फॉर प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ़ वाटर पॉल्यूशन द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, 1979 की शुरुआत में ही, औद्योगिक कचरे के अंधाधुंध निपटान के कारण सभी 14 प्रमुख नदियों के बड़े हिस्से दूषित हो गए थे। समस्या की गंभीरता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ये नदियाँ देश की 82 प्रतिशत आबादी को सुविधा देती हैं। भारत की सबसे पवित्र नदी, गंगा नदी के किनारे स्थित उद्योग और कस्बे, प्रतिदिन करीब 1700 मिलियन लीटर अपशिष्ट का नदी में बहाव करते हैं। इससे नदी के जैविक और रासायनिक प्रदूषण का स्तर खतरनाक रूप से बढ़ रहा है।
2.5 भूमिगत जल का अति दोहन
भूमिगत जल संसाधन भारत में अति दोहन के संकेत दिखा रहे हैं। लेकिन भूमिगत जल के राष्ट्रीय स्तर के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार रिचार्ज हो सकने वाले भूमिगत जल का केवल 30 प्रतिशत भाग ही अब तक प्रयोग किया गया है। हालाँकि, ये आंकड़े भारत के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी इलाकों के भूजल अधिशेष क्षेत्रों से प्रभावित हैं। लम्बे समय तक असीमित अक्षय प्राकृतिक संसाधन के रूप में देखे जाने वाले भूमिगत जल की आपूर्ति पर खतरा अब तेजी से स्पष्ट हो रहा है। यह संसाधन कई क्षेत्रों में पहले से ही अतिदोहित है। उत्तर गुजरात के जलोढ़ क्षेत्रों में जल स्तर में गिरावट और कच्छ तथा सौराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में समुद्री जल का घुसना सर्वविदित है। राजस्थान, पंजाब, तमिलनाडु और कर्नाटक के कई हिस्सों में भूजल स्तर के गिरने की समस्याएं देखी ही गई हैं।
भूजल के अतिदोहन में बहुत से कारक योगदान करते हैं। भू-स्वामी के पास पूरा अधिकार है कि वह अपनी भूमि के नीचे उपस्थित जल का कैसे उपयोग कर रहा है। पम्पिंग किये गए जल की मात्रा पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य से, भूमिगत जल सूखे के समय एक बफर भंडार की तरह काम करता है। यह बफर भंडार उस समय फसलों को बचने के काम आता है जब कम अथवा बिलकुल भी वर्षा न हुई हो। लम्बे कालखण्ड में, यह स्थिति खाद्य सुरक्षा और सूखे के प्रतिरोध के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती है।
भारत के कई हिस्सों में भूजल की गुणवत्ता में भी गिरावट देखी जा रही है। देश के 184 जिलों में फ्लोराइड की मात्रा 1.5 पीपीएम की अनुमेय सीमा से अधिक है जिससे 25 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित हैं। पूर्वी और उत्तर-पूर्वी इलाकों में आयरन अधिकांशतः 0.3 पीपीएम की अपनी सीमा से ऊपर है। यहाँ तक कि आर्सेनिक जैसा जहरीला तत्व भी प0 बंगाल के कई जिलों को प्रभावित कर चुका है। असम में स्थित को पिली जलाशय में सल्फर युक्त पानी की वजह से पूरा जल-जीवन खतरे में है।
चित्र-4 में देखा जा सकता है कि लाल रंग से प्रदर्शित पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु के क्षेत्र भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन कर चुके हैं।
3.0 भारत का जल संकटः स्थायी समाधान की आवश्यकता
प्रमुख भारतीय शहरों, विशेष रूप से चेन्नई में पानी की अत्यधिक कमी ने भारत में पानी की कमी के मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। हालांकि विशेषज्ञ, पर्यावरणविद और गैर-सरकारी संगठन लंबे समय से इस संकट के बारे में बता रहे थे परन्तु वे तब तक सफल नहीं हुए जब तक बड़े शहरों में नल सूखने शुरू नहीं हो गए। नीति आयोग ने जून 2018 में समग्र जल प्रबंधन सूचकांक नामक एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें यह स्वीकार गया कि देश इतिहास के सबसे बुरे जल संकट से पीडि़त है और लगभग 600 मिलियन लोग या लगभग 45 प्रतिशत भारतीय आबादी गंभीर जल तनाव से ग्रसित है। इसके अलावा रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि 2020 तक 21 भारतीय शहरों में भूजल समाप्त हो सकता है (जोकि अधिकाँश भारतीय शहरों में पानी का मुख्य स्रोत है), और 2030 तक लगभग 40 प्रतिशत आबादी के पास पीने के पानी की कोई सुविधा नहीं होगी। पानी की किल्लत के कारण 2050 तक भारत की जीडीपी का 6: नुकसान होगा। इस रिपोर्ट के जारी होने के ठीक एक साल बाद सरकार ने 2024 तक सभी ग्रामीण घरों में पीने का साफ़ पानी उपलब्ध करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य की घोषणा की है जोकि सराहनीय है।
3.1 कृषि और सिंचाई के स्वरुप में जरूरी बदलाव
कृषि, औद्योगिक और घरेलू, सिंचाई में लगभग 90% ताजे पानी की निकासी की जाती है। इसलिए देश में जल प्रबंधन की दिशा में किसी भी गंभीर प्रयास को कृषि सिंचाई के प्रबंधन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। भारत की वार्षिक कृषि जल निकासी चीन और अमरीका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया में सबसे अधिक है। तालिका-2 से पता चलता है कि चीन, जिसके पास भारत की तुलना में सिंचाई के लिए बड़ा क्षेत्र है, कृषि प्रयोजनों के लिए काफी कम पानी निकाला जाता है।
सिंचित क्षेत्रों में नहर द्वारा सिंचाई की हिस्सेदारी में गिरावट आई है और भूजल सिंचाई अब कुल सिंचित क्षेत्र के आधे से अधिक भाग में देखी जाती है। भूजल अतिदोहन की यह अधिकता देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में अधिक है। इसके अलावा भूजल का उपयोग पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में धान और गन्ना जैसी कुछ सबसे अधिक पानी वाली फसलों की खेती के लिए किया जाता है। चावल, जोकि भारत की मुख्य खाद्य फसल है, एक किलोग्राम के लिए 3500 लीटर पानी की खपत करता है।
पंजाब, जो चावल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, पूरी तरह से चावल के उत्पादन के लिए भूजल पर निर्भर है। हालांकि राज्य भूमि उत्पादकता के मामले में अच्छा है लेकिन जल उत्पादकता में पूर्वी राज्यों से पीछे है। एक किलोग्राम चावल का उत्पादन करने में पंजाब को बिहार और पश्चिम बंगाल से दो से तीन गुना अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है। राज्य खरीद नीति और बिजली पर सब्सिडी पंजाब के किसानों के चावल के उत्पादन को लाभकारी बनाती है जबकि बिहार, प0 बंगाल, असम और त्रिपुरा जैसे राज्यों में, जो बारिश के मामले में बेहतर हैं, इस प्रकार के प्रोत्साहनों की कमी है। भारत चावल के एक प्रमुख निर्यातक के रूप में उभरा है जिसका अर्थ है कि भारत जैसा जल-संकट से जूझता देश वास्तव में प्रतिवर्ष लाखों लीटर पानी का निर्यात कर रहा है! गन्ने की कहानी भी इसी समान है जो कि महाराष्ट्र में एक और अधिक पानी की फसल है। महाराष्ट्र में किसान भूजल का उपयोग करके गन्ने की खेती करते हैं क्योंकि उन्हें चीनी मिलों द्वारा विपणन का आश्वासन दिया जाता है जबकि बिहार जो गन्ने के उत्पादन के लिए अधिक उपयुक्त है, देश के कुल गन्ने के उत्पादन का केवल 4% उत्पादन करता है।
राज्य सरकारों को पानी की कमी वाले क्षेत्रों में दलहन, बाजरा और तिलहन जैसी कम पानी उपयोग वाली फसलों की खेती को प्रोत्साहित करना चाहिए और विशेषकर चावल को केवल जल-समृद्ध क्षेत्रों में ही उगाया जाना चाहिए। फसल के दोषपूर्ण स्वरुप के अलावा, कृषि में जल उपयोग दक्षता भी बहुत कम है। बाढ़ सिंचाई, भारत में सिंचाई का सबसे सामान्य रूप है, जिससे पानी की बहुत अधिक हानि होती है।
सबसे पहले तो देश के उत्तर-पश्चिमी और मध्य भाग में, जो पानी के लिए गंभीर रूप से तनावग्रस्त हैं, चावल और गन्ना जैसी अधिक जल प्रयोग वाली फसलों की खेती को बंद कर देना चाहिए। किसानों को बाजरा जैसी फसल, जिसमें बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है, की तरफ स्थानांतरित करने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। दूसरा, राज्य समर्थन के साथ ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली का प्रसार तेजी से करना चाहिए। तीसरा, उप-सतही सिंचाई, रिज-फरो विधि से बुवाई, सटीक खेती इत्यादि नयी कृषि प्रथाओं, जो कि जल उपयोग को कम करने की क्षमता रखती हैं, को भी अपनाया जाना चाहिए (चित्र-5 व 6)।
जल के सामान्य और कृषि में उपयोग को अनुकूलित करने में इजराइल दुनिया के लिए उदहारण है। इजराइल में माइक्रो इरीगेशन का विकास हुआ और धीरे-धीरे दुनिया भर में फैला। यही वह तकनीक है जिसमें भारतीय कृषि का चेहरा बदलने की क्षमता है। इस प्रकार के समाधानों को व्यापक रूप से अपनाने और सभी को उपलब्ध कराने के लिए सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्यों को और अधिक आक्रामक प्रचार के साथ, और माइक्रो इरीगेशन पर किसानों के लिए सब्सिडी प्रक्रिया को सरल बनाकर करना होगा। जल प्रबंधन के क्षेत्र में अच्छी तरह से स्थापित इजराइल ने सिंचाई के लिए अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग करने के लिए एक खाका तैयार किया है। इजराइल अपने घरेलू अपशिष्ट जल का 80% कृषि उपयोग के लिए पुनर्नवीनीकरण करता है जिससे कृषि में प्रयोग किये जाने वाले जल का 50% हिस्सा तैयार होता है। इसी के साथ वहाँ पानी की बर्बादी को कम करने के लिए ड्रिप सिंचाई को प्रभावी रूप से लागू किया गया है जिसमें पानी को अलग-अलग पौधों की जड़ों तक या तो मिट्टी की सतह पर या फिर सीधे पाइप और उत्सर्जक के माध्यम से जड़ों तक धीरे-धीरे रिसने दिया जाता है।
3.2 नदियों को परस्पर जोड़ना
नदियों को परस्पर जोड़ने का कार्यक्रम एक राष्ट्रीय महत्व का कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम का मिशन सूखा प्रवण तथा वर्षा-सिंचित क्षेत्र में जल की उपलब्धता को बढ़ाकर जल वितरण में संतुलन सुनिश्चित करना है। जल संसाधन मंत्रालय द्वारा तैयार की गई राष्ट्रीय संदर्शी योजना (एनपीपी) के अंतर्गत एनडब्ल्यूडीए ने क्षेत्रीय सर्वेक्षण और जांच तथा व्यापक अध्ययन के आधार पर अंतर बेसिन अंतरण हेतु हिमालयी नदी घटक के अंतर्गत 14 लिंक और प्रायद्वीपीय नदी घटक के अंतर्गत 16 लिंकों (चित्र-7) की पहचान की है।
इस कार्यक्रम के पूरी तरह लागू हो जाने से 35 मिलियन हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होगी, जिसमें समग्र सिंचाई क्षमता 140 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 175 मिलियन हेक्टेयर हो जाएगी और बाढ़ नियंत्रण, नौवहन, जलापूर्ति, मातिस्यिकी, लवणता तथा प्रदूषण नियंत्रण इत्यादि लाभों के अतिरिक्त 34000 मेगावाट विद्युत् का उत्पादन भी होगा जोकि बहुत महत्वपूर्ण है।
3.3 वाहितमल उपचार एवं पुनः उपयोग
मलजल प्रशोधन या घरेलू अपशिष्ट जल प्रशोध, अपवाही और घरेलू दोनों प्रकार के अपशिष्ट जल और घरेलू मलजल से संदूषित पदार्थों को हटाने की प्रक्रिया है। इस प्रकार से उपचारित जल को फिर से घरेलू लॉन या उद्यानों में प्रयोग के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है और तो और इस जल को किसी प्रकार की खाद की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। इसके अतिरिक्त घरेलू स्तर पर हम अनेक ऐसे उपाय कर सकते हैं जिससे जल को कुछ प्रतिशत तक हम अपने ही स्तर पर बचा सकते हैं। इसी प्रकार का एक घरेलू उपाय चित्र-8 में दिखाया गया है जिसमे हाथ धोने के पानी को पुनः फ्लश के रूप में प्रयोग किया जा रहा है।
3.4 वर्षा जल संचयन
वर्षा जल संचयन वर्षा के जल को किसी खास माध्यम से संचय करने की प्रक्रिया है। इस जल संरक्षण पद्धति का अभ्यास दुनिया भर में व्यक्तिगत घरों, अपार्टमेंटों, पार्कों, कार्यालयों और मंदिरों में भी आसानी से किया जा सकता है। आमतौर पर इसके लिए सतही फैलाव तकनीक अपनाई जाती है (चित्र-9) क्योंकि ऐसी प्रणाली के लिए जगह प्रचुरता में उपलब्ध होती है तथा पुनर्भारित जल की मात्रा भी अधिक होती है। शहरी क्षेत्रों के लिए छतों से वर्षा जल संचयन अधिक उपयुक्त है जिसे बाद में पाइप के द्वारा भूमि अथवा टैंक में भेज दिया जाता है (चित्र-10)।
3.5 नल से जल: जल जीवन मिशन
अगले पाँच वर्षों में गाँव के प्रत्येक घर के नल में पानी सुनिश्चित करने के लिए सरकार एक नयी योजना की तैयारी में है। योजना के अंतर्गत 14 करोड़ घरों के लिए जल जीवन मिशन जल्द ही शुरू किया जायेगा। योजना के अनुसार जिन गाँवों में जल की गुणवत्ता अच्छी है वहाँ गाँव स्तर पर ही जल की आपूर्ति की जाएगी और जिन इलाकों में जल की गुणवत्ता अच्छी नहीं है वहाँ पर कई गाँवों के एक समूह का निर्माण करके किसी अन्य गाँव से पानी क¨ पाइप के माध्यम से वहाँ तक पहुँचाया जायेगा और इसका क्रियान्वयन तथा रख-रखाव ग्राम पंचायत जैसे संगठन करेगे। बाड़मेर जैसी मरुभूमि में इसी तरह 150 गाँवों में पानी पहुँचाया जा रहा है। इस पूरे मिशन में लागत एक समस्या बन सकती है क्योंकि आज पूरे देश के केवल 18% घरों में ही पाइप के माध्यम से जल-पूर्ति होती है।
4.0 निष्कर्ष
लगातार बढती पानी की मांग के इस युग में, किसानों को आवश्यकता है कि वे ड्रिप सिंचाई और ऐसे अन्य नवीन तरीकों को अपनाएँ और ऐसी फसलों की खेती करें जिनमें पानी की कम जरूरत पड़ती है। हमें पानी की कीमत आंककर उसे खरीदने के लिए दाम निर्धारित करना पड़ेगा। परन्तु जब तक जन-जागृति नहीं होगी तब तक इस विषय में चर्चा करना उपयुक्त नहीं है। सरकार की पहल इस दिशा में सराहनीय है, इसके बाद ही हम पानी की कीमत लगाने के विषय में स¨च सकते हैं। परन्तु इसके लिए जन-भागीदारी अत्यावश्यक है। हमारा विकास और खुशहाली तभी हो सकती है जब हम नीतिबद्ध तरीके से सक्षमतापूर्वक जल-संवर्धन को नियोजित करेंगे। हमें ऐसे भारत की जरूरत है जिसे जल का अभाव न हो। व्यक्तिगत तौर पर प्रत्येक नागरिक को जल-संरक्षण की नीति अमल में लानी पड़ेगी जिसके लिए जन-जागृति अभियान अत्यंत आवश्यक है।
कृतज्ञता
लेखक, सक्रिय हिंदी कार्यान्वयन कार्यक्रम के अंतर्गत इस शोधपत्र को तैयार करने में निरंतर प्रोत्साहन के लिए डॉ. (श्रीमती) व. वि. भोसेकर, निदेशिका, केन्द्रीय जल और विद्युत अनुसन्धान शाला, पुणे के अत्यंत ऋणी हैं। डॉ. रा. गो. पाटिल, वैज्ञानिक ‘‘ई’’, केन्द्रीय जल और विद्युत अनुसन्धान शाला, पुणे के प्रोत्साहन और सहायता के लिए लेखक आभार व्यक्त करते हैं।
References:
• P.M. Abdul Rahiman and others, 2012, “Loktak Jheel aur uski god mein basi sanskriti”, Jalvani 19thEdition, Central Water & Power Research Station, Pune
• M. Dinesh Kumar and Vishwa Ballabh, 2000, “Water Management Problems & Challenges in India”
• UNICEF Report (2013), Water in India: Situation & Prospects
• Water Budget of India: Water Resources System Division, National Institute of Hydrology, Roorkee
• Niti Aayog Report, 2018, “Composite Water Management Index” Websites of:
• Hydrology & Water Resources Information System for India
• Central Water Commission
• India Water Portal
• Jal Shakti Ministry, Water Resources, River Development & Ganga Rejuvenation Department: jalshakti-dowr.gov.in
• Observer Research Foundation
• Central Ground Water Board