उत्तराखण्ड का पर्वतीय क्षेत्र भले ही प्राकृतिक जल-स्रोतों से परिपूर्ण हो, लेकिन कभी भी इनके संरक्षण की कवायद नहीं हुई। अफसर और नेता मंचों से प्राकृतिक जल-स्रोतों को बचाने के दावे जरूर करते हैं। लेकिन दावों की हकीकत सिफर ही रही है। उत्तराखण्ड राज्य गठन के दौरान कुछ विभागों ने जरूर वर्षाजल संरक्षण सहित ऐसी ही अन्य योजनाओं पर कार्य किया, लेकिन जिस तेजी से योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ीं, उसी तेजी से प्राकृतिक जल-स्रोत भी सूखते चले गये। नतीजा, आज पहाड़ में भी लोग टैंकर के भरोसे गुजर कर रहे हैं। इस भयावह तस्वीर के बीच इन दिनों कोटद्वार क्षेत्र में एक नई तस्वीर उभर कर सामने आई है। यहाँ क्षेत्र के कुछ युवा बगैर किसी सरकारी इमदाद के दम तोड़ रहे प्राकृतिक जल-स्रोतों को बचाने में जुटे हुए हैं।
गढ़वाल के प्रवेश द्वार कोटद्वार से पहाड़ के सफर की शुरुआत जिस गिवई पुल से होती है, उसी पुल के ठीक सामने मौजूद पहाड़ी बीते कई वर्षों से भूस्खलन की चपेट में है। कोटद्वार क्षेत्र के लोग इस पहाड़ी को गिवई पहाड़ी कहते हैं। वर्ष 2015 में इस पहाड़ी का स्वरूप तेजी से बदला, जिसका कारण भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पहाड़ी की तलहटी में मौजूद थ्रस्ट सेक्टरों को बताया। हालांकि, पहाड़ी को बचाया कैसे जाएगा, इसका न तो भूगर्भ वैज्ञानिकों ने कोई उपाय सुझाया और न वन महकमें ने ही इस पहाड़ी को आबाद करने की सोची। ऐसे में कोटद्वार के युवाओं की संस्था वॉल अॉफ काइंडनेस ने गिवई पहाड़ी का सर्वें करने के बाद इसे हरा-भरा करने की कवायद शुरु की। इसी क्रम में संस्था ने पहाड़ी पर मौजूद दो ऐसे प्राकृतिक जल-स्रोतों को संजोना शुरू किया, जो अन्तिम साँसें गिन रहे थे।
चाल-खाल प्रणाली के तहत इन युवाओं ने गिवई पहाड़ी में दोनों जल-स्रोतों पर चाल-खाल खुदवाई। नतीजा, सूखी पहाड़ी में पानी नजर आने लगा। योजना के अगले चरण में युवाओं ने इस पहाड़ी पर पौधे लगाने के लिये गड्डे खुदवाने का कार्य शुरू किया है। पहाड़ी के समतल हिस्से में फलदार पौधे लगाने की योजना है, जबकि तीव्र ढाल पर रामबाँस उगाया जाएगा। ताकि पहाड़ी पर भूस्खलन न हो।
जल स्रोतों का होता था पूजन
उत्तराखण्ड में जल संरक्षण की परम्पराएँ पूर्व में काफी समृद्धशाली रही हैं। जल संरक्षण की व्यवस्था पूर्व से ही पारम्परिक व सामाजिक व्यवस्था में शामिल थी। विवाह संस्कार में दूल्हा-दुल्हन अपने गाँव के जल-स्रोत की पूजा करने के साथ ही उसके संरक्षण की शपथ भी लेते थे। वक्त के साथ स्रोत पूजन की यह परम्परा समाप्त हो चली है। साथ ही गाँवों में प्राकृतिक जल-स्रोत सूखते जा रहे है।
कई प्राकृतिक स्रोत किये चिन्हित
संस्था के संस्थापक मनोज नेगी बताते हैं कि उन्होंने कोटद्वार-दुगड्डा के मध्य करीब 30 ऐसे प्राकृतिक स्रोत चिन्हित किये हैं, जो दम तोड़ चुके थे। इन स्रोतों के आस-पास चाल-खाल खोदकर पानी को बचाने की कवायद की जा रही है। बताया कि तमाम स्रोत वन क्षेत्र में हैं, जिनकी तलाश के लिये वन महकमे का सहयोग लिया जा रहा है। बताया कि सत्तीचौड़ में पुनर्जीवित किये गये पेयजल स्रोत पर हाथी व अन्य जंगली जानवर आने लगे हैं, जो सुखद संदेश है।
Source
दैनिक जागरण, 15 जून, 2018