जलशोथ (Dropsy) शरीर की कुल या कुछ गुहाओं (cavities), या ऊतकों, में हुए द्रवसंग्रह को कहते हैं। जब यह त्वक् तथा अधस्त्वक् के एकाध स्थान में मर्यादित होता है, तब उसे शोफ (Oedema), जब बहुत विस्तृत होता है तब उसे देहशोथ (Anasarca), जब मस्तिष्क नलियों (ventricles) तथा जालतानिका गुहा (arachnoid cavity) में होता है, तब उसे 'जलशीर्ष' (Hydrocephalus), जब फुफ्फुसावरण में होता है तब उसे 'वक्षशोफ' (Hydrothorax), जब परिहृत्कला में होता है तब उसे 'जलपरिहृद' (Hydropericardium) और जब पर्युदर्या (Peritoneum) में होता है तब उसे 'जलोदर' (Ascites) कहते हैं।
जलशोथ रोग नहीं लक्षण है, जो शरीर के नैसर्गिक कार्य के अतियोग का परिणाम है। शरीर में कोशिकाओं से लसीका बराबर बाहर निकलकर, शरीरपोषण का कार्य कर, सबकी सब शिराओं तथा लसीकावाहिनी (Lymphatics) द्वारा रक्त में वापस चली जाती है, इकट्ठी नहीं होती। इसका इकट्ठी होना ही 'जलशोथ' है। शोथयुक्त (inflammatory) संचित द्रव के विकारों का अंतर्भाव जलशोधजन्य विकारों में नहीं किया जाता।
जलशोथ के द्रव का संघटन स्थान के अनुसार जितना बदलता है, उतना कारण के अनुसार नहीं बदलता। इस जल का विशिष्ट गुरुत्व 1.008 से लेकर 1.018 तक होता है। इसके खनिज लवण सब बातों में रक्त के खनिज लवणों के समान होते हैं, इनमें स्थान और कारण के अनुसार कोई अंतर नहीं पाया जाता। कारण की अपेक्षा स्थान का प्रभाव ऐल्ब्यूमिन लेशमात्र होता है परंतु वक्षशोफ तथा जलोदर के द्रव में यह बहुत अधिक रहता है और वृक्कविकारजन्य द्रव की अपेक्षा हृद्विकारजन्य द्रव में इसकी मात्रा अधिक होती है। देखने में जलोदर का द्रव प्राय: वर्णहीन होता है, थोड़ा रक्तयुक्त होने पर हरिद्वर्ण या रक्तवर्ण, थोड़ा पित्तयुक्त होने पर पीतवर्ण और वसापायस (Chyle) युक्त होने पर पारदर्शी, पारभासी (translucent) या दूधिया रहता है।
जलशोथ का सामान्य कारण भौतिक (mechanical) है, जिसमें शिरागत रक्तसंचरण की बाधा से रक्तचाप (Blood presure) मर्यादा से अधिक बढ़ता है। यह चापवृद्धि प्रसूता के श्वेत पाद (Phlegmasia alba dolens) में शिरा में रक्त जमने से; अपस्फीत (varicose) शिराओं में रक्तसंचरण की मंदता से; ऐन्यूरिज़म (Aneurysm), अर्बुद (Tumor) इत्यादि में शिराओं पर बाहर से दबाव पड़ने से होती है। हृद्रोग, वृक्करोग इत्यादि में होनेवाले जलशोथ के रोगजनन (Pathogenesis) के कारण अधिक जटिल होते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता है कि हृद्रोग में लसीका का अवशोषण पूर्णतया न होने से वृक्करोग में, लसीका का निस्रवण (exudation) अधिक होने से और पीलिया (Chlorosis) एवं मधुमेह में रक्त के विषैलेपन से जलशोथ होता है। देहशोथ मुख्यतया हृद्रोग, वृक्कविकार, कभी कभी वसामय (lardaceous) अपजनन, क्वचित् मधुमेह और रक्तक्षीणता से होता है।
सब हृद्रोगों की प्रवृत्ति धमनीगत रक्तचाप की घटाकर शिरागत रक्तचाप को बढ़ाने की ओर होती है और जब शिरागत रक्तचाप अधिक बढ़ता है, तब देर तक खड़े या लेटे रेने पर पैर, पीठ, फुफ्फुस इत्यादि निम्नस्थ अंगों में प्रथम जलशोथ प्रकट होकर धीरे धीरे अन्य अंगों पर फैलता है। वातस्फीति (Emphysema), तंतुमयता (Fibrosis) इत्यादि फुफ्फुस के कुछ रोग शिरागत रक्तसंचार में बाधा उत्पन्न करके ठीक हृद्रोग के समान जलशोथ उत्पन्न करते हैं। वृक्कविकार में हृदयगत धमनी तनाव बढ़ने के कारण कोशिकाओं द्वारा होनेवाले अत्यधिक लसीका निस्रवण से जलशोथ उत्पन्न होता है और साथ साथ यदि हृद्रोग न हो तो शोथ सर्वप्रथम आँखों पर दिखाई देता है।
तीव्र जलशोथ में पैर तथा उदर का वेधन (puncture) करके जल निकाला जाता है। वृक्कविकारजन्य जलशोध को छोड़कर शुष्काहार द्वारा भी निर्जलीकरण (dehydration) कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त लक्षणानुसार स्वेदल (diphoretic), मूत्रल (diuretic) या विरेचक औषधियों द्वारा भी चिकित्सा की जाती है।
महामारी जलशोथ (Epidemic dropsy), जलशोथ से भिन्न है। 1877 ई. में सर्वप्रथम कलकत्ते में इसका उत्पात हुआ, इसके पश्चात् अन्य स्थानों में यह फैला। सत्यानाशी (Argemone mexicana) के तेल का सेवन इसका प्रधान और चावल का सेवन इसका सहायक कारण है। सत्यानाशी के तेल की सरसों के तेल के साथ मिलावट की जाती है और इस मिलावटी सरसों के तेल के सेवन से जलशोथ की महामारी उत्पन्न होती है। इसमें सर्वप्रथम पैरों पर जलशोथ दिखाई देता है, जो रोग बढ़ने पर ऊपर फैलता है, किंतु चेहरा प्राय: बच जाता है। शोथ के अतिरिक्त, ज्वर, जठरांत्रशोथ (Gastro-enteritis), शरीर में दर्द, त्वचा में सुई चुभने की सी पीड़ा तथा जलन, विविध स्फुटन इत्यादि लक्षण होते हैं। मृत्यु प्राय: हृदय या श्ववसन के उपद्रवों से अचानक होती है। (भास्कर गोविंद घाणेकर)
जलशोथ रोग नहीं लक्षण है, जो शरीर के नैसर्गिक कार्य के अतियोग का परिणाम है। शरीर में कोशिकाओं से लसीका बराबर बाहर निकलकर, शरीरपोषण का कार्य कर, सबकी सब शिराओं तथा लसीकावाहिनी (Lymphatics) द्वारा रक्त में वापस चली जाती है, इकट्ठी नहीं होती। इसका इकट्ठी होना ही 'जलशोथ' है। शोथयुक्त (inflammatory) संचित द्रव के विकारों का अंतर्भाव जलशोधजन्य विकारों में नहीं किया जाता।
जलशोथ के द्रव का संघटन स्थान के अनुसार जितना बदलता है, उतना कारण के अनुसार नहीं बदलता। इस जल का विशिष्ट गुरुत्व 1.008 से लेकर 1.018 तक होता है। इसके खनिज लवण सब बातों में रक्त के खनिज लवणों के समान होते हैं, इनमें स्थान और कारण के अनुसार कोई अंतर नहीं पाया जाता। कारण की अपेक्षा स्थान का प्रभाव ऐल्ब्यूमिन लेशमात्र होता है परंतु वक्षशोफ तथा जलोदर के द्रव में यह बहुत अधिक रहता है और वृक्कविकारजन्य द्रव की अपेक्षा हृद्विकारजन्य द्रव में इसकी मात्रा अधिक होती है। देखने में जलोदर का द्रव प्राय: वर्णहीन होता है, थोड़ा रक्तयुक्त होने पर हरिद्वर्ण या रक्तवर्ण, थोड़ा पित्तयुक्त होने पर पीतवर्ण और वसापायस (Chyle) युक्त होने पर पारदर्शी, पारभासी (translucent) या दूधिया रहता है।
जलशोथ का सामान्य कारण भौतिक (mechanical) है, जिसमें शिरागत रक्तसंचरण की बाधा से रक्तचाप (Blood presure) मर्यादा से अधिक बढ़ता है। यह चापवृद्धि प्रसूता के श्वेत पाद (Phlegmasia alba dolens) में शिरा में रक्त जमने से; अपस्फीत (varicose) शिराओं में रक्तसंचरण की मंदता से; ऐन्यूरिज़म (Aneurysm), अर्बुद (Tumor) इत्यादि में शिराओं पर बाहर से दबाव पड़ने से होती है। हृद्रोग, वृक्करोग इत्यादि में होनेवाले जलशोथ के रोगजनन (Pathogenesis) के कारण अधिक जटिल होते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता है कि हृद्रोग में लसीका का अवशोषण पूर्णतया न होने से वृक्करोग में, लसीका का निस्रवण (exudation) अधिक होने से और पीलिया (Chlorosis) एवं मधुमेह में रक्त के विषैलेपन से जलशोथ होता है। देहशोथ मुख्यतया हृद्रोग, वृक्कविकार, कभी कभी वसामय (lardaceous) अपजनन, क्वचित् मधुमेह और रक्तक्षीणता से होता है।
सब हृद्रोगों की प्रवृत्ति धमनीगत रक्तचाप की घटाकर शिरागत रक्तचाप को बढ़ाने की ओर होती है और जब शिरागत रक्तचाप अधिक बढ़ता है, तब देर तक खड़े या लेटे रेने पर पैर, पीठ, फुफ्फुस इत्यादि निम्नस्थ अंगों में प्रथम जलशोथ प्रकट होकर धीरे धीरे अन्य अंगों पर फैलता है। वातस्फीति (Emphysema), तंतुमयता (Fibrosis) इत्यादि फुफ्फुस के कुछ रोग शिरागत रक्तसंचार में बाधा उत्पन्न करके ठीक हृद्रोग के समान जलशोथ उत्पन्न करते हैं। वृक्कविकार में हृदयगत धमनी तनाव बढ़ने के कारण कोशिकाओं द्वारा होनेवाले अत्यधिक लसीका निस्रवण से जलशोथ उत्पन्न होता है और साथ साथ यदि हृद्रोग न हो तो शोथ सर्वप्रथम आँखों पर दिखाई देता है।
तीव्र जलशोथ में पैर तथा उदर का वेधन (puncture) करके जल निकाला जाता है। वृक्कविकारजन्य जलशोध को छोड़कर शुष्काहार द्वारा भी निर्जलीकरण (dehydration) कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त लक्षणानुसार स्वेदल (diphoretic), मूत्रल (diuretic) या विरेचक औषधियों द्वारा भी चिकित्सा की जाती है।
महामारी जलशोथ (Epidemic dropsy), जलशोथ से भिन्न है। 1877 ई. में सर्वप्रथम कलकत्ते में इसका उत्पात हुआ, इसके पश्चात् अन्य स्थानों में यह फैला। सत्यानाशी (Argemone mexicana) के तेल का सेवन इसका प्रधान और चावल का सेवन इसका सहायक कारण है। सत्यानाशी के तेल की सरसों के तेल के साथ मिलावट की जाती है और इस मिलावटी सरसों के तेल के सेवन से जलशोथ की महामारी उत्पन्न होती है। इसमें सर्वप्रथम पैरों पर जलशोथ दिखाई देता है, जो रोग बढ़ने पर ऊपर फैलता है, किंतु चेहरा प्राय: बच जाता है। शोथ के अतिरिक्त, ज्वर, जठरांत्रशोथ (Gastro-enteritis), शरीर में दर्द, त्वचा में सुई चुभने की सी पीड़ा तथा जलन, विविध स्फुटन इत्यादि लक्षण होते हैं। मृत्यु प्राय: हृदय या श्ववसन के उपद्रवों से अचानक होती है। (भास्कर गोविंद घाणेकर)
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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
अन्य स्रोतों से
संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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