बीस साल पहले जनवरी 1999 में उत्तराखंड में 1100 से 1200 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में बर्फबारी हुई थी, लेकिन इसके बाद यहां के लोगों ने कभी इन क्षेत्रों में बर्फबारी नहीं देखी। जलवायु परिवर्तन के कारण बीस साल बाद जनवरी 2019 में 1100 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों जैसे उत्तरकाशी, देहरादून में राजपुर से थोड़ी ऊपर और मसूरी के निचले इलाकों में भी बर्फबारी हुई। मौसम विज्ञान का मानना है कि पश्चिमी और पूर्वी विक्षोभ के एक साथ टकराने के कारण अच्छी बारिश और बर्फबारी हुई। पर इसका नकारात्मक असर ब्रह्मकमल पर इसलिए पड़ा क्योंकि ब्रह्कमल को खिलने के लिए 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान चाहिए होता है, लेकिन अधिक बर्फबारी के कारण अनुकूल तापमान न मिलने से 30 वर्ष में पहली बार इस बार सावन में ब्रह्मकल नहीं खिला।
उत्तराखंड में बर्फबारी ने इस साल बीते 20 वर्षो का रिकाॅर्ड तोड़ दिया था। मैदानी इलाकों के लोगों व पर्यटाकों के लिए बर्फबारी रोमांच लेकर आई, तो वहीं पहाड़ के दूरस्थ गांवो के लिए परेशानी का सबब बन गई। 2019 की शुरूआत से मार्च माह तक बर्फबारी व पहाड़ की वादियों में बर्फ का आनंद लेने के लिए भारी संख्या में पर्यटकों ने पहाड़ों का रुख किया। पर्यटक जिस वक्त मसूरी, धनौल्टी, नैनीताल सहित असपास के पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी का आनंद ले रहे थे, उस समय पहाड़ के कई गांवों में जन-जीवन अस्त व्यस्त था तथा सड़के, स्कूल और बाजार कई दिनों तक बंद रहे थे। केदारनाथ और हेमकुंड साहिब में 20 फीट तक बर्फ जम गई थी, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण किसी के लिए आफत तो किसी के लिए रोमांच बनी बेवक्त और अधिक बर्फबारी ग्लेशियरों के लिए वरदान साबित हुई। इससे उत्तराखंड के करीब 3500 ग्लेशियर रिचार्ज हो गए, लेकिन दैवीय गुणों के कारण उत्तराखंड का राज्य पुष्प कहे जाने वाले ‘ब्रह्मकमल’ का अस्तित्व जलवायु परिवर्तन के कारण संकट में पड़ गया। यही कारण है कि अनुकूल वातावरण न मिलने के कारण 30 वर्षों में पहली बार इस वर्ष सावन में ब्रह्मकमल नहीं खिला।
ब्रह्मकमल एस्टेरेसी कुल का पौधा है और सूरजमुखी, गोभी, गेंदा, डहलिया, कुसुम और भृंगराज इसके परिवार के पुष्प हैं। ब्रह्मकमल का वैज्ञानिक नाम साउसिव्यूरिया ओबलावालाटा (Saussurea obvallata) है। हिमालय, उत्तरी बर्मा, दक्षिण व पश्चिम चीन में ये पाया जाता है। माना जाता है कि ब्रह्मकमल से ही भगवान ब्रह्मा की उत्पत्ति हई थी और वह ब्रह्मकमल पर ही विराजमान रहते हैं। कई लोग ये भी मानते हैं कि जिस पर भगवान ब्रह्मा विराजमान हैं, वो राष्ट्रीय पुष्प कमल है और जो ब्रह्मा के हाथ में है, वहीं ब्रह्कमल है। इसलिए भगवान ब्रह्मा का कमल होने के कारण इसे ब्रह्मकमल कहा जाता है, लेकिन अलग-अलग राज्यों में इसे भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे - हिमाचल प्रदेश में दूधाफूल, कश्मीर में गलगल और उत्तर प्रश्चिम भारत में बरगनडटोगेस। यह मुख्यतः 3 से 5 हजार मीटर की ऊंचाई पर ही पाया जाता है और भगवान शंकर का बेहद प्रिय होने के कारण केदारनाथ और बद्रीनाथ में ब्रह्मकल चढाने की परंपरा है। हालाकि ब्रह्मकमल भगवान शिव के अन्य धामों में भी चढ़ाया जाता है।
ब्रह्मकमल अपने दैवीय गुणों और अलौकिक विशेषताओं के कारण हिमालयी फूलों का सम्राट कहा जाता है, जो जुलाई से सितंबर माह में ही साल में केवल एक बार खिलते हैं और ये केवल रात के समय कुछ देर के लिए ही खिलते हैं। मान्यता है कि ब्रह्मकमल को खिलते हुए देखने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है और खिलने के दौरान ब्रह्मकमल से निकलने वाले पानी को अमृत समान बताया गया है। महाभारत काल में भी ब्रह्मकमल का उल्लेख मिलता है। जब द्रोपदी कोरवों द्वारा किया गया अपमान भूल नहीं पा रही थी और वन की यातनाएं उन्हें कष्ट प्रदान कर रही थी। वनवास के दौरान एक दिन जब द्रोपदी ने पानी में बहते ब्रह्मकमल को देखा तो उन्हें अध्यात्मिक शांति का अनुभव हुआ और वे उसे पाने के लिए व्याकुल हो गई। द्रोपदी के लिए ब्रह्मकमल लेने पांडव पुत्र भीम गए। इस दौरान बद्रीकाश्रम से कुछ पहले ‘‘हुनमान चट्टी’’ पर भीम की मुलाकात हनुमान से हुई और हुनमान ने भीम के शक्तिशाली होने के घमंड को चूर-चूर किया। इसके बाद हनुमान से आज्ञा लेकर भीम बद्रीकाश्रम से ब्रह्मकल लेकर गए। इसके अलावा भी ब्रह्मकल का कई जगह उल्लेख है और उत्तराखंड में विशेषतः ब्रह्मकल पिंडारी, चिफला, सप्तशृंग, हेमकुंड, ब्रजगंगा, फूलों की घाटी, केदारनाथ में पाया जाता है। इसके दैवीय गुण होने के साथ ही औषधीय गुण भी हैं, जिनमें ब्रह्मकमल पाचन दुरुस्त करके भूख बढ़ाने, मूत्रमार्ग में संक्रमण के इलाज, बुखार दूर करने, यौन संचारित रोगों से राहत दिलाने, काली खांसी के इलाज और लीवन इंन्फेक्शन से राहत राहत दिलाने में लाभदायक सिद्ध होता है। और ब्रह्मकमल की मादक सुगंध हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस सभी खासियतों के कारण ब्रह्मकल को उत्तराखंड का राज्य पुष्प घोषित गया, लेकिन भारत में शुरूआत से ही जिस किसी को भी राष्ट्रीय या राजकीय का दर्जा दिया जाता, उसका अस्तित्व संकट में पड़ जाता है। बाघ, गंगा, मोनाल आदि भांति अस्तित्व का ये संकट ब्रह्मकल पर भी मंडराने लगा है।
बीस साल पहले जनवरी 1999 में उत्तराखंड में 1100 से 1200 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में बर्फबारी हुई थी, लेकिन इसके बाद यहां के लोगों ने कभी इन क्षेत्रों में बर्फबारी नहीं देखी। जलवायु परिवर्तन के कारण बीस साल बाद जनवरी 2019 में 1100 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों जैसे उत्तरकाशी, देहरादून में राजपुर से थोड़ी ऊपर और मसूरी के निचले इलाकों में भी बर्फबारी हुई। मौसम विज्ञान का मानना है कि पश्चिमी और पूर्वी विक्षोभ के एक साथ टकराने के कारण अच्छी बारिश और बर्फबारी हुई। पर इसका नकारात्मक असर ब्रह्मकमल पर इसलिए पड़ा क्योंकि ब्रह्कमल को खिलने के लिए 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान चाहिए होता है, लेकिन अधिक बर्फबारी के कारण अनुकूल तापमान न मिलने से 30 वर्ष में पहली बार इस बार सावन में ब्रह्मकल नहीं खिला। इससे पूर्व वर्ष 1990 में भी अधिक बर्फबारी के कारण ब्रह्मकमल जुलाई के बजाये अगस्त में खिला था। ग्लोबल वार्मिंग और उष्ण होती जलवायु भी ब्रह्मकमल के अस्तित्व पर संकट बन रही है। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेप बढ़ने, अनियमित दोहन तथा गंदगी के कारण केदारनाथ, पिंडारी, हेमकुंड के आसपास आसानी से दिखने वाले ब्रह्मकमल की संख्या में पहले की अपेक्षा काफी कमी आई है।
दरअसल ब्रह्मकमल को उत्तराखंड के राज्य पुष्प का दर्जा तो दे दिया गया, लेकिन इसके संरक्षण के लिए सरकार और वन विभाग कोई नीति तैयार नहीं कर सका और न ही इसके संरक्षण की कोई पहल होती दिख रही है। स्थानीय निवासीयों और पर्यटकों में भी प्रकृति की इस संपदा के संरक्षण के प्रति जागरुकता का अभाव है। होना ये चाहिए कि ब्रह्मकमल के संरक्षण के लिए सख्त कानून बनाया जाए, जिसमे बिना अनुमति के ब्रह्मकमल तोड़ने पर जर्माना व सजा का प्रावधान हो और मंदिरों में इसे चढ़ाने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। इसके अलावा बुग्यालों या ऐसे स्थान जहां ब्रह्मकमल खिलता है, मानवीय आवाजाही को सीमित किया जाये तथा प्लास्टिकयुक्त सामग्री पर प्रतिबंध लगे। दूरस्थ प्राकृतिक परिवेश में जाने के लिए डीजल वाहनों पर रोक लगाना अनिवार्य हो गया है। यदि डीजल वाहन पहाड़ों तक नहीं पहुंचेगे तो काफी हद तक पर्यावरण को संतुलित किया जा सकता है। साथ ही पहाड़ी क्षेत्रों में जाने वाले प्रत्येक प्रर्यटक के लिए पहाड़ी भूमि पर एक पौधा रोपना अनिवार्य किया जाना चाहिए, इससे पहाड़ों पर मिश्रित वन लगाने में सहायता मिलेगी और विशाल मानव बल को सही दिशा में लगाया जा सकेगा।
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