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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 13 जून 2014
भारत में सन् 1997 में जलस्तर 550 क्यूबिक किलोमीटर था। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, सन् 2020 तक भारत में यह जलस्तर गिरकर 360 क्यूबिक किलोमीटर रह जाएगा। इतना ही नहीं, सन् 2050 तक भारत में यह जलस्तर और गिरकर महज सौ क्यूबिक किलोमीटर से भी कम हो जाएगा। यदि हम अभी से नहीं संभले तो मामला हाथ से निकल जाएगा। वैसे भी पहले ही बहुत देर हो चुकी है। नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर देश में कई राज्यों के बीच दशकों से विवाद चल ही रहा है। कहीं इस सदी के पूर्वाद्ध में ही देश में पानी के लिए गृहयुद्ध न छिड़ जाए! भारतीय मौसम विभाग के एक पूर्वानुमान के अनुसार, देश में इस वर्ष अलनीनो के कारण मॉनसून में सामान्य से कम वर्षा होगी और औसत तापमान भी ऊंचा बना रहेगा। जाहिर है, इस बार इसका असर कृषि और महंगाई के साथ-साथ पानी की उपलब्धता पर भी पड़ेगा।
तेज गर्मी ने पहले ही दस्तक दे दी है और पानी की भारी किल्लत की संभावना अभी से सामने मुंह बाए खड़ी है। लेकिन पिछले दिनों की चुनावी सरगर्मी में इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। वैसे भी किसी भी बड़ी या छोटी राजनीतिक पार्टी ने पानी को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया था। सरकारी या निजी स्तर पर भी पानी की बचत या किसी व्यापक जलसंरक्षण अभियान को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई दे रही है।
यों पानी की किल्लत अब एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। इसलिए पूरे विश्व में जलसंरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से सन् 1993 में ही संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा ने 22 मार्च को विश्व जल दिवस घोषित किया था।इसके बाद से पूरे विश्व में इसे हर वर्ष मनाया जाता है। लेकिन हमारे देश में इस वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस लगभग चुपचाप बीत गया!
पर्यावरण दिवस या अन्य किसी अंतरराष्ट्रीय दिवस की तरह इस दिवस को न तो व्यापक स्तर पर समारोहपूर्वक मनाया गया और न ही चुनावी महापर्व की तरह इसे कोई तवज्जो दी गई!
इस वर्ष विश्व जल दिवस के अवसर पर जापान के साथ-साथ भारत को भी बेस्ट वाटर मैनेजमेंट प्रैक्टिसेज अवार्ड से पुरस्कृत किया गया, लेकिन चुनावी महासंग्राम की बड़ी-बड़ी खबरों के बीच यह एक छोटी-मोटी खबर बनकर रह गई।
अखबारों में विश्व जल दिवस पर छपे एक-आध आलेख को छोड़कर बस वाटर प्यूरिफायर निर्माता कंपनियों के उत्पादों के बड़े-बड़े विज्ञापन ही दिखे। वह भी इस संदेश के साथ कि इनके द्वारा निर्मित वाटर प्यूरिफायर का ही सबसे शुद्ध सबसे स्वच्छ पानी पीएं, तभी आप सेहतमंद बने रहेंगे!
लेकिन विश्व जल दिवस का असली संदेश कहीं नहीं दिखा कि पानी बचाएं, जलसंरक्षण करें, जितनी जरूरत हो, उससे थोड़ा कम पानी ही खर्च करें। हां, एक हिंदी अखबार में एक बहुत सुंदर संदेश पढ़ा, जिसे अखबार ने जनहित में जारी किया था- पैसों की तरह पानी न बहाएं! चूंकि पानी फिर पैसों से भी नहीं मिलेगा!
जिन एक-आध वाटर प्यूरिफायर निर्माता कंपनियों ने अखबारों और टीवी पर पानी बचाओ अभियान चलाया, उनकी भी असल मंशा अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाना ही रही। उनका जोर पानी बचाने पर कम, उनकी मशीनों से फिल्टर होकर निकले सबसे शुद्ध-सबसे स्वच्छ-सबसे सेहतमंद पानी पीने की सलाह पर ज्यादा था!
कुल मिलाकर पानी बचाने के पारंपरिक तौर-तरीकों को पुन: जीवित करने और अपने रोजमर्रे के जीवन में पानी बचाने के छोटे-छोटे लेकिन बेहद कारगर उपायों के प्रति जन-जन को जागरूक करने की सच्ची पहल कमोबेश कहीं नहीं दिखी। यहां मैं यह बात बलपूर्वक रेखांकित कर दूं कि पानी की बेतरतीब बर्बादी अमूमन संपन्न तबके के घरों में ही ज्यादा होती है और इसलिए पानी बचाने की सर्वाधिक और महती जिम्मेदारी संपन्न वर्ग की ही है।
प्रकृति और पानी जैसे अनेक बहुमूल्य संसाधनों के दोहन-शोषण-क्षरण में यही वर्ग सबसे आक्रामक और सबसे आगे है। गरीब तो आज भी कोसों दूर से मटका भर पीने का पानी लाता है और घूंट-घूंट पीकर अपनी प्यास बुझाता है।
गरीब लोग आज भी प्रकृति से भरपूर प्रेम करते हैं और पानी के इस्तेमाल के किफायती तौर-तरीकों को आज भी जीवित रखे हुए हैं। इसलिए वे जब कुएं से जल खींचते हैं तो अपने बाल्टी-घड़े भर जाने के बाद बचे हुए पानी को वापस कुएं में ही डाल देते हैं, ताकि बचा हुआ पानी बर्बाद न हो और कुआं का पानी भी यथासंभव कम न हो।
लेकिन यह विवेक और यह संयम संपन्न वर्ग में नहीं है। वे तो अपनी कार को नहलाने में, अपने लॉन की ऑस्ट्रेलियाई घास को सींचने में ही सैकड़ों लीटर पानी बर्बाद कर देते हैं! यह ऑस्ट्रेलियाई घास अपनी देसी दूब की तरह मितव्ययी नहीं है। इसे तो जर्सी गायों की तरह सैकड़ों लीटर पानी रोज चाहिए। संपन्न घरों में और खासकर शहरों-महानगरों में स्नानघर में झरनों-फव्वारों से नहाने का शौक भी बहुत होता है।
लेकिन इसमें भी बदन पर कम, जमीन पर पानी ज्यादा गिरता है। लोग तो अपनी दाढ़ी बनाते वक्त भी बेसिन का नल खुला छोड़ देते हैं कि बार-बार रेजर धोने के लिए नल उमेठना न पड़े! कुछ लोग दफ्तर के टॉयलेट के नल, फ्लश आदि भी इस्तेमाल के बाद चालू छोड़ देते हैं या ठीक से बंद नहीं करते, जिससे पानी लगातार बहकर बर्बाद होता रहता है। यह भी एक प्रकार की आपराधिक लापरवाही है। जबकि यही लोग अपने घर में बूंद भर पानी की बर्बादी बर्दाश्त नहीं करते।
एक से एक आधुनिक और ऑटोमैटिक वाशिंग मशीनों के उपयोग में भी सैकड़ों लीटर पानी रोजाना खर्च होता है। यदि हम पानी बचाने के प्रति संवेदनशील हो जाएं तो पानी का यह खर्च अवश्य ही कम किया जा सकता है। गरीब लोग धूप-धूल-पसीने में हाड़तोड़ श्रम करने के बाद भी एक ही कपड़े से कई दिन काम चलाते हैं, लेकिन संपन्न वर्ग के लोग अमूमन घर-दफ्तर से लेकर गाड़ी तक में एसी का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए उनके शरीर से हरहराकर पसीना नहीं चूता है और उनके कपड़े भी आम आदमी की तरह रोज गंदे नहीं होते हैं।
ऐसे में यदि फैशन और हर रोज बदल-बदल करके कपड़े पहनने का आग्रह न हो तो एक ही कपड़े को एक दिन के बजाय दो-तीन दिन तक भी पहना जा सकता है। इससे वाशिंग मशीन में हर रोज धुलने वाली कपड़ों की संख्या कम होगी और फलत: वाशिंग मशीन में खर्च होने वाले पानी की मात्रा में भी अच्छी-खासी कमी आएगी। इस तरीके को भी पानी की बचत के एक उपाय के रूप में अपनाया जा सकता है।
इसी तरह शहरों के सौंदर्यीकरण के नाम पर सड़क की दोनों ओर की घास, मिट्टी और कच्ची जमीन को पाटकर सड़कें चौड़ी करने और पेवमेंट बना देने से भी बारिश का पानी भूजल तक नहीं पहुंच पाता और वह यूं ही बर्बाद हो जाता है। वैसे भी शहरों-महानगरों के गली-मोहल्लों तक में चौड़ी की गई सड़कों और पेवमेंटों पर कारें ही पार्क की गई दिखती हैं।
घरों- दफ्तरों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग यानी वर्षाजल-छाजन की व्यवस्था करने से वर्षाजल का कई तरह से उपयोग किया जा सकता है और भूजल के खर्च को कम किया जा सकता है।
बढ़ती आबादी, वनों की अंधाधुंध कटाई, औद्योगीकरण, शहरीकरण और आक्रामक विकास आदि तो गहराते जल-संकट के प्रमुख कारण हैं ही, भूजल के आक्रामक दोहन में औद्योगिक क्षेत्र के साथ-साथ, खासकर शीतल पेय निर्माता कंपनियों का भी बड़ा हाथ है।
मुनाफा कमाने के लिए बाजार में पेयजल को भी उत्पाद बनाकर बेचने वाली कंपनियां भी भूजल का भरपूर दोहन करती हैं। हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्यों में आक्रामक औद्योगिक विकास और बोरवेल से बड़े पैमाने पर सिंचाई के कारण भी वहां भूजल स्तर काफी नीचे गिर गया है और अब सिंचाई और पीने के पानी के लिए काफी गहराई तक बोरिंग करने पड़ते हैं।
जबकि बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडिशा, यूपी जैसे पिछड़े राज्यों में भूजल का स्तर अपेक्षाकृत बेहतर है। राजस्थान जैसे सूखे और रेगिस्तानी प्रांत में भी पानी बचाने के परंपरागत तरीके अपनाकर पानी की किल्लत कमोबेश खत्म करने में कामयाबी मिली है। लेकिन विकास और शहरीकरण के नाम पर नदियों को तो छोड़िए, गांवों और शहरों तक में मौजूद हजारों कुओं, तालाबों, झीलों, बावड़ियों, बावों जैसे पानी के प्राकृतिक संसाधनों को पाटकर वहां कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं! वैसे भी ये बहुमंजिली इमारतें भूजल का अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा दोहन करती हैं, जिसके कारण भी शहरों में भूजल का स्तर लगातार तेजी से गिरता जा रहा है।
भारत में सन् 1997 में जलस्तर 550 क्यूबिक किलोमीटर था। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, सन् 2020 तक भारत में यह जलस्तर गिरकर 360 क्यूबिक किलोमीटर रह जाएगा। इतना ही नहीं, सन् 2050 तक भारत में यह जलस्तर और गिरकर महज सौ क्यूबिक किलोमीटर से भी कम हो जाएगा।
यदि हम अभी से नहीं संभले तो मामला हाथ से निकल जाएगा। वैसे भी पहले ही बहुत देर हो चुकी है। नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर देश में कई राज्यों के बीच दशकों से विवाद चल ही रहा है। कहीं इस सदी के पूर्वाद्ध में ही देश में पानी के लिए गृहयुद्ध न छिड़ जाए!
तेज गर्मी ने पहले ही दस्तक दे दी है और पानी की भारी किल्लत की संभावना अभी से सामने मुंह बाए खड़ी है। लेकिन पिछले दिनों की चुनावी सरगर्मी में इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। वैसे भी किसी भी बड़ी या छोटी राजनीतिक पार्टी ने पानी को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया था। सरकारी या निजी स्तर पर भी पानी की बचत या किसी व्यापक जलसंरक्षण अभियान को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई दे रही है।
यों पानी की किल्लत अब एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। इसलिए पूरे विश्व में जलसंरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से सन् 1993 में ही संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा ने 22 मार्च को विश्व जल दिवस घोषित किया था।इसके बाद से पूरे विश्व में इसे हर वर्ष मनाया जाता है। लेकिन हमारे देश में इस वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस लगभग चुपचाप बीत गया!
पर्यावरण दिवस या अन्य किसी अंतरराष्ट्रीय दिवस की तरह इस दिवस को न तो व्यापक स्तर पर समारोहपूर्वक मनाया गया और न ही चुनावी महापर्व की तरह इसे कोई तवज्जो दी गई!
इस वर्ष विश्व जल दिवस के अवसर पर जापान के साथ-साथ भारत को भी बेस्ट वाटर मैनेजमेंट प्रैक्टिसेज अवार्ड से पुरस्कृत किया गया, लेकिन चुनावी महासंग्राम की बड़ी-बड़ी खबरों के बीच यह एक छोटी-मोटी खबर बनकर रह गई।
अखबारों में विश्व जल दिवस पर छपे एक-आध आलेख को छोड़कर बस वाटर प्यूरिफायर निर्माता कंपनियों के उत्पादों के बड़े-बड़े विज्ञापन ही दिखे। वह भी इस संदेश के साथ कि इनके द्वारा निर्मित वाटर प्यूरिफायर का ही सबसे शुद्ध सबसे स्वच्छ पानी पीएं, तभी आप सेहतमंद बने रहेंगे!
लेकिन विश्व जल दिवस का असली संदेश कहीं नहीं दिखा कि पानी बचाएं, जलसंरक्षण करें, जितनी जरूरत हो, उससे थोड़ा कम पानी ही खर्च करें। हां, एक हिंदी अखबार में एक बहुत सुंदर संदेश पढ़ा, जिसे अखबार ने जनहित में जारी किया था- पैसों की तरह पानी न बहाएं! चूंकि पानी फिर पैसों से भी नहीं मिलेगा!
जिन एक-आध वाटर प्यूरिफायर निर्माता कंपनियों ने अखबारों और टीवी पर पानी बचाओ अभियान चलाया, उनकी भी असल मंशा अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाना ही रही। उनका जोर पानी बचाने पर कम, उनकी मशीनों से फिल्टर होकर निकले सबसे शुद्ध-सबसे स्वच्छ-सबसे सेहतमंद पानी पीने की सलाह पर ज्यादा था!
कुल मिलाकर पानी बचाने के पारंपरिक तौर-तरीकों को पुन: जीवित करने और अपने रोजमर्रे के जीवन में पानी बचाने के छोटे-छोटे लेकिन बेहद कारगर उपायों के प्रति जन-जन को जागरूक करने की सच्ची पहल कमोबेश कहीं नहीं दिखी। यहां मैं यह बात बलपूर्वक रेखांकित कर दूं कि पानी की बेतरतीब बर्बादी अमूमन संपन्न तबके के घरों में ही ज्यादा होती है और इसलिए पानी बचाने की सर्वाधिक और महती जिम्मेदारी संपन्न वर्ग की ही है।
प्रकृति और पानी जैसे अनेक बहुमूल्य संसाधनों के दोहन-शोषण-क्षरण में यही वर्ग सबसे आक्रामक और सबसे आगे है। गरीब तो आज भी कोसों दूर से मटका भर पीने का पानी लाता है और घूंट-घूंट पीकर अपनी प्यास बुझाता है।
गरीब लोग आज भी प्रकृति से भरपूर प्रेम करते हैं और पानी के इस्तेमाल के किफायती तौर-तरीकों को आज भी जीवित रखे हुए हैं। इसलिए वे जब कुएं से जल खींचते हैं तो अपने बाल्टी-घड़े भर जाने के बाद बचे हुए पानी को वापस कुएं में ही डाल देते हैं, ताकि बचा हुआ पानी बर्बाद न हो और कुआं का पानी भी यथासंभव कम न हो।
लेकिन यह विवेक और यह संयम संपन्न वर्ग में नहीं है। वे तो अपनी कार को नहलाने में, अपने लॉन की ऑस्ट्रेलियाई घास को सींचने में ही सैकड़ों लीटर पानी बर्बाद कर देते हैं! यह ऑस्ट्रेलियाई घास अपनी देसी दूब की तरह मितव्ययी नहीं है। इसे तो जर्सी गायों की तरह सैकड़ों लीटर पानी रोज चाहिए। संपन्न घरों में और खासकर शहरों-महानगरों में स्नानघर में झरनों-फव्वारों से नहाने का शौक भी बहुत होता है।
लेकिन इसमें भी बदन पर कम, जमीन पर पानी ज्यादा गिरता है। लोग तो अपनी दाढ़ी बनाते वक्त भी बेसिन का नल खुला छोड़ देते हैं कि बार-बार रेजर धोने के लिए नल उमेठना न पड़े! कुछ लोग दफ्तर के टॉयलेट के नल, फ्लश आदि भी इस्तेमाल के बाद चालू छोड़ देते हैं या ठीक से बंद नहीं करते, जिससे पानी लगातार बहकर बर्बाद होता रहता है। यह भी एक प्रकार की आपराधिक लापरवाही है। जबकि यही लोग अपने घर में बूंद भर पानी की बर्बादी बर्दाश्त नहीं करते।
एक से एक आधुनिक और ऑटोमैटिक वाशिंग मशीनों के उपयोग में भी सैकड़ों लीटर पानी रोजाना खर्च होता है। यदि हम पानी बचाने के प्रति संवेदनशील हो जाएं तो पानी का यह खर्च अवश्य ही कम किया जा सकता है। गरीब लोग धूप-धूल-पसीने में हाड़तोड़ श्रम करने के बाद भी एक ही कपड़े से कई दिन काम चलाते हैं, लेकिन संपन्न वर्ग के लोग अमूमन घर-दफ्तर से लेकर गाड़ी तक में एसी का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए उनके शरीर से हरहराकर पसीना नहीं चूता है और उनके कपड़े भी आम आदमी की तरह रोज गंदे नहीं होते हैं।
ऐसे में यदि फैशन और हर रोज बदल-बदल करके कपड़े पहनने का आग्रह न हो तो एक ही कपड़े को एक दिन के बजाय दो-तीन दिन तक भी पहना जा सकता है। इससे वाशिंग मशीन में हर रोज धुलने वाली कपड़ों की संख्या कम होगी और फलत: वाशिंग मशीन में खर्च होने वाले पानी की मात्रा में भी अच्छी-खासी कमी आएगी। इस तरीके को भी पानी की बचत के एक उपाय के रूप में अपनाया जा सकता है।
इसी तरह शहरों के सौंदर्यीकरण के नाम पर सड़क की दोनों ओर की घास, मिट्टी और कच्ची जमीन को पाटकर सड़कें चौड़ी करने और पेवमेंट बना देने से भी बारिश का पानी भूजल तक नहीं पहुंच पाता और वह यूं ही बर्बाद हो जाता है। वैसे भी शहरों-महानगरों के गली-मोहल्लों तक में चौड़ी की गई सड़कों और पेवमेंटों पर कारें ही पार्क की गई दिखती हैं।
घरों- दफ्तरों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग यानी वर्षाजल-छाजन की व्यवस्था करने से वर्षाजल का कई तरह से उपयोग किया जा सकता है और भूजल के खर्च को कम किया जा सकता है।
बढ़ती आबादी, वनों की अंधाधुंध कटाई, औद्योगीकरण, शहरीकरण और आक्रामक विकास आदि तो गहराते जल-संकट के प्रमुख कारण हैं ही, भूजल के आक्रामक दोहन में औद्योगिक क्षेत्र के साथ-साथ, खासकर शीतल पेय निर्माता कंपनियों का भी बड़ा हाथ है।
मुनाफा कमाने के लिए बाजार में पेयजल को भी उत्पाद बनाकर बेचने वाली कंपनियां भी भूजल का भरपूर दोहन करती हैं। हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्यों में आक्रामक औद्योगिक विकास और बोरवेल से बड़े पैमाने पर सिंचाई के कारण भी वहां भूजल स्तर काफी नीचे गिर गया है और अब सिंचाई और पीने के पानी के लिए काफी गहराई तक बोरिंग करने पड़ते हैं।
जबकि बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडिशा, यूपी जैसे पिछड़े राज्यों में भूजल का स्तर अपेक्षाकृत बेहतर है। राजस्थान जैसे सूखे और रेगिस्तानी प्रांत में भी पानी बचाने के परंपरागत तरीके अपनाकर पानी की किल्लत कमोबेश खत्म करने में कामयाबी मिली है। लेकिन विकास और शहरीकरण के नाम पर नदियों को तो छोड़िए, गांवों और शहरों तक में मौजूद हजारों कुओं, तालाबों, झीलों, बावड़ियों, बावों जैसे पानी के प्राकृतिक संसाधनों को पाटकर वहां कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं! वैसे भी ये बहुमंजिली इमारतें भूजल का अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा दोहन करती हैं, जिसके कारण भी शहरों में भूजल का स्तर लगातार तेजी से गिरता जा रहा है।
भारत में सन् 1997 में जलस्तर 550 क्यूबिक किलोमीटर था। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, सन् 2020 तक भारत में यह जलस्तर गिरकर 360 क्यूबिक किलोमीटर रह जाएगा। इतना ही नहीं, सन् 2050 तक भारत में यह जलस्तर और गिरकर महज सौ क्यूबिक किलोमीटर से भी कम हो जाएगा।
यदि हम अभी से नहीं संभले तो मामला हाथ से निकल जाएगा। वैसे भी पहले ही बहुत देर हो चुकी है। नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर देश में कई राज्यों के बीच दशकों से विवाद चल ही रहा है। कहीं इस सदी के पूर्वाद्ध में ही देश में पानी के लिए गृहयुद्ध न छिड़ जाए!