जवाहरलाल कौल

Submitted by Shivendra on Sun, 01/11/2015 - 13:13

तथ्यों पर खरे उतरने वाले पत्रकार


राकेश सिंह
यथावत, जनवरी 2015

.जम्मू-कश्मीर की कुण्डली में ही दोष है। प्रकृति की तरफ से उसे कई वरदान मिले हैं। पर वह वरदान लोक जीवन को नहीं मिले। जो धरती कश्मीरी पण्डितों की विद्वता के लिए ख्यात थी आज बन्दूकों और आतंकवादियों के लिए कुख्यात है। संस्कृति और ज्ञान परम्परा को पुष्पित-पल्लवित करने वाले कश्मीरी जन आज घाटी से बाहर हैं। पर धरती के इस स्वर्ग के बाशिन्दों में विपरीत परिस्थितियों से दो-दो हाथ करने का हौसला और जज्बा बरकरार है। उन्हें नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोच प्रकट करने का हुनर आता है। वरिष्ठ पत्रकार जवाहरलाल कौल इसके जीते जागते प्रमाण हैं।

उन्हें जनसत्ता की नियमित पत्रकारिता से रिटायर हुए एक दशक हो चुका है, लेकिन उनकी कलम रिटायर नहीं हुई है। सामाजिक सरोकारों के साथ उसकी कदमताल और तेज हो गई है। श्रीनगर में 26 अगस्त, 1937 में जन्में जवाहरलाल कौल ने जम्मू-कश्मीर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और हिन्दी में एम.ए. किया। उसके बाद श्रीनगर के ही एक स्कूल में उन्होंने पढ़ाना शुरू किया। लेकिन यह काम उन्हें ज्यादा रास नहीं आ रहा था। इस काम को वह ‘शटल ट्रेन’ की तरह देखते थे। जो हर बार एक ही पटरी पर सामान दूरी तक चलती है, सिर्फ सवारियाँ बदलती रहती हैं। इसी दौरान उनकी मुलाकात बलराज मधोक से हुई। बलराज मधोक श्रीनगर में संघ के प्रचारक रहे थे। जनसंघ में सक्रिय थे। उनसे बातचीत में एक मनमाफिक राह दिखी। बलराज मधोक ने जवाहरलाल कौल को पत्रकारिता की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। बलराज मधोक ने ही जवाहर लाल कौल को हिन्दुस्तान समाचार के सम्पादक बालेश्वर अग्रवाल से मिलाया। यह बात 1963 की है। इसी साल जवाहरलाल कौल हिन्दुस्तान समाचार के साथ बतौर प्रशिक्षु संवाददाता (ट्रेनी रिपोर्टर) जुड़े। जवाहरलाल कौल के अन्दर की प्रतिभा को बालेश्वर अग्रवाल ने पहली ही नजर में परख लिया। इसीलिए उनको देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी ‘संसद’ को कवर करने का जिम्मा दे दिया। यह काम उन्हें अपने मिजाज के अनुकूल लगा। इसमें उनकी रूचि भी थी। मन मुताबिक काम मिला तो जवाहरलाल कौल उसमें रम गए। 77 साल की उम्र में भी उनका मन इसी में रमा है । पत्रकार जीवन की वह यात्रा आज भी जारी है। बिना थमे, बिना रुके।सत्ता के केन्द्र दिल्ली में लम्बा वक्त गुजारने के बाद भी वे अपनी जन्मभूमि जम्मू-कश्मीर को नहीं भूले हैं। जम्मू-कश्मीर जब भयावह प्राकृतिक आपदा से जूझ रहा था तो संन्यास पहर में एक कर्मयोगी की तरह उन्होंने अपनी टीम के साथ मोर्चा सम्भाल लिया। कइयों को उनके अपनों से मिलाया। कइयों को उनके घर तक पहुँचाया। वे जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र के साथ जुड़कर अपनी जड़ों से जुड़े हैं। विस्थापित कश्मीरी समाज को उनके पुरखों और इतिहास की याद दिलाते रहते हैं। इसके साथ ही वे प्रज्ञा संस्थान के अध्यक्ष भी हैं।

जवाहरलाल कौल धुन के पक्के हैं। पत्रकारिता और जीवन में सन्तुलन बनाए रखना उन्हें बेहतरीन तरीके से आता है। पत्रकारिता में उन्होंने कलम की ईमानदारी और धार पर खासा ध्यान रखा। बड़ी साफगोई से बात रखी। यह इतने यकीन से इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि पत्रकारिता की शुरूआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से करीबी वास्ता रखने वाले बालेश्वर अग्रवाल के संरक्षण में की। पत्रकारिता की राह उन्हें बलराज मधोक ने दिखाई। हिन्दुस्तान समाचार में काम करते हुए अभी साल भर भी नहीं बीता था कि उन्हें अज्ञेय की तरफ से बुलावा आ गया, दिनमान के लिए। यकीनन यह जवाहरलाल कौल की ईमानदार पत्रकारिता का प्रमाण है।

दिनमान पत्रिका के साथ जुड़ने के बाद जवाहरलाल कौल ने देश के कई हिस्सों में आना-जाना शुरू किया। दिनमान ‘टाइम्स आफ इंडिया’ समूह की पत्रिका थी। दिनमान से पहले साप्ताहिक पत्रिका का चलन कम ही था। दिनमान की योजना ‘टाइम मैगजीन’ की तर्ज पर की गई थी। इस पत्रिका में संवाददाता और उप सम्पादक में अन्तर नहीं था।

जवाहरलाल कौल भी दिनमान के साथ बतौर संवाददाता सह उप सम्पादक के रूप में जुड़े। दिनमान से जुड़ने के बाद जवाहरलाल कौल ने देश के अन्य हिस्सों से भी रिपोर्टिंग शुरू की। अहमदाबाद के दंगों से लेकर चासनाला, धनबाद खान दुर्घटना तक को कवर किया। इस दुर्घटना में 250 मजदूर खान में दब गए थे। इसी दौरान जवाहरलाल कौल की शिबू सोरेन से पहली बार मुलाकात हुई। उस समय शिबू सोरेन का नाम सरकारी फाइलों में कुख्यात अपराधी के रूप में दर्ज था। टुण्डी थाने के आस-पास करीब 100 किलोमीटर के क्षेत्र पर शिबू सोरेन की समानान्तर सरकार चलती थी।

जवाहरलाल कौल ने शिबू सोरेन से मिलने के लिए सन्देश भिजवाया। सोरेन ने जवाब भेजा कि सरकारी अधिकारी को वापस भेजो, मुलाकात में कोई हर्ज नहीं। जवाहरलाल कौल ने इलाके के एसडीएम को वापस भेजदिया और शिबू सोरेन से मिलने अकेले ही जंगल की ओर निकल पड़े। इस मुलाकात ने उन्हें आदिवासी इलाके के लोगों की नब्ज टटोलने का एक अवसर उपलब्ध कराया। जिसका आंकलन दिल्ली में बैठकर नहीं हो सकता था।

जवाहरलाल कौल दिनमान के उस दौर की एक घटना को याद करते हुए बताते हैं, ‘1977 में मै रायबरेली चुनाव कवर करने गया था। यहाँ से इन्दिरा गाँधी चुनाव लड़ रही थीं। इन्दिरा गाँधी के सामने जनता पार्टी के राजनारायण थे। वहाँ से लौटने के बाद मैने रिपोर्ट फाइल की। उस रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि इन्दिरा गाँधी चुनाव हार रही हैं। उस समय दिनमान के सम्पादक रघुवीर सहाय को मेरी रिपोर्ट पर यकीन नहीं हुआ। उसके कई कारण हो सकते थे। किसी पार्टी या व्यक्ति के पक्ष में झुकाव भी हो सकता था। जैसा कि हम सबमें होता है। रिपोर्ट पर विश्वास न होने के बावजूद सम्पादक ने मेरी रिपोर्ट रोकी नहीं, छापी। ऐसे हुआ करते थे उस दौर के सम्पादक। हांलाकि इसके तुरन्त बाद एक और रिपोर्टर को रायबरेली भेजा गया, मेरी रिपोर्ट की हकीकत जानने के लिए। उस रिपोर्टर ने लौटकर रिपोर्ट लिखने की बजाय बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी ले ली। क्योंकि उस रिपोर्टर को पता था कि रायबरेली चुनाव की यह हकीकत सम्पादक को रास नही आएगी।’

जवाहरलाल कौल की जीवन-यात्रा

जवाहरलाल कौल का जन्म 26 अगस्त 1937 को जम्मू-कश्मीर में हुआ। जम्मू-कश्मीर विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी और हिन्दी में एमए किया। उसके बाद श्रीनगर में ही एक स्कूल में अध्यापन कार्य किया। लेकिन अध्यापन के कार्य में उनका मन नहीं लगा। और वे दिल्ली आ गए।

उन्होंने ‘हिन्दुस्तान समाचार’ में बतौर ट्रेनी रिपोर्टर अपनी पत्रकारीय पारी शुरू की। एक वर्ष बाद जवाहरलाल कौल से सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन ‘अज्ञेय’ ने दिनमान पत्रिका से जुड़ने का आग्रह किया। दिनमान को टाइम्स ऑफ इण्डिया समूह न्यूज विकली के रूप में शुरू कर रहा था। अज्ञेय उसके पहले सम्पादक थे। दिनमान के बाद जवाहरलाल कौल ने जनसत्ता से जुड़ने का फैसला किया।

जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ठ की पूरी जिम्मेदारी जवाहरलाल कौल पर ही थी। जवाहरलाल कौल ने मीडिया घरानों को बाजार के तराजू पर तौलने की कोशिश की। उनकी ‘पत्रकारिता का बाजार भाव’ किताब इस बात की तसदीक करती है।

आजकल वह ‘जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र’ और ‘प्रज्ञा संस्थान’ के अध्यक्ष के नाते सक्रिय हैं।

जवाहरलाल कौल उस दौर के सम्पादक नाम की संस्था के तेवर को समझाने के लिए एक और घटना बताते हैं। बिहार के कुछ समाजवादी नेताओं की बातचीत का सिलसिला चल रहा था। एक समाजवादी नेता से पहले बातचीत हुई थी। उनके इंटरव्यू की जब बारी आई तब तक संविद सरकार बनाने की तैयारी भी शुरू हो गई। इंटरव्यू में कई दलों और नेताओं पर उन्होंने टिप्पणी की थी। जो तुरन्त बाद की परिस्थितियों के साथ फिट नहींबैठती थीं। उस समाजवादी नेता ने नाराज होकर इस इंटरव्यू के खिलाफ सम्पादक को पत्र लिखा।

दिनमान में वह पत्र छपा और साथ ही नीचे लिखा गया, ‘दिनमान अपने रिपोर्टर के इंटरव्यू पर कायमहै।’ दिनमान में सफल पारी खेलने के बाद अब बारी थी जनसत्ता की। यह वह दौर था जब जनसत्ता की खबरें समाज और सत्ता दोनों में हलचल पैदा कर रहीं थीं। उसका सम्पादकीय पृष्ठ लोगों को झकझोर रहा था। इसी दौर में प्रभाष जोशी ने जवाहरलाल कौल को जनसत्ता से जुड़ने का आमन्त्रण दिया। जवाहरलाल कौल नेजनसत्ता से जुड़ना तय किया और प्रभाष जोशी ने सम्पादकीय पृष्ठ की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। जनसत्ता से जुड़ने के साथ ही जवाहरलाल कौल ‘कौल साब’ के उपनाम से पहचाने जाने लगे। उन्होंने जनसत्ता के पाठकों को विज्ञान से विदेश नीति तक और कृषि से उद्योग तक के विषय से जोड़ा।

जवाहरलाल कौल तथ्य को पवित्र मानते हैं। तथ्यों से छेड़छाड़ उनकी नजर में अपराध है। आज जब रिपोर्टर तथ्यों से छेड़छाड़ या फिर तथ्यों को छिपाते हैं तो उन्हें दर्द होता। यह उस पत्रकार का दर्द है, निष्पक्षता जिसकी पूँजी है। वह यह भी मानते हैं कि विचार हरेक के अलग-अलग हो सकते हैं, होने भी चाहिए।

जवाहरलाल कौल ने एक किताब भी लिखी है। इस किताब का नाम है ‘पत्रकारिता का बाजार भाव’। यह किताब कई पत्रकारिता सिखाने वाले संस्थानों में शामिल है। जवाहरलाल कौल पत्रकारिता के बाजार को कुछ इस तरह समझाते हैं, ‘अंग्रेजी बड़े व्यापार की भाषा है, इसलिए मीडिया घराने चाहते हैं कि अंग्रेजी ही फैले। इसे टाइम्स ऑफ इण्डिया और नवभारत टाइम्स की घटना से समझ सकते हैं। एक दौर था जब नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या टाइम्स ऑफ इण्डिया से ज्यादा थी। लेकिन ‘फ्लैगशिप’ टाइम्स आफ इंडिया के हाथ रहे इसलिए नवभारत टाइम्स को सीमित किया गया। इस ग्रुप के ज्यादातर अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया की रक्षा के लिए हैं। उसकी रक्षा करते हुए वह मरते है तो मर जाएं’।जवाहरलाल कौल मानते हैं कि बाजार का एक अंग है अखबार। कोई अखबार अब किसी खास पाठक या वर्ग के लिए नहीं है। पहले अलग-अलग अखबारों के अलग-अलग पाठक वर्ग होते हैं। अब बाजार में जो बिकता है वही अखबार छापता है। ‘यही है आज की पत्रकारिता का बाजार भाव।’