ज्वालामुखी

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विज्ञान प्रसार
“प्रतिवर्ष भूमि पर लगभग 60 ज्वालामुखी उद्गारित होते हैं और किसी भी समय उद्गारित ज्वालामुखियों की संख्या 20 के आसपास हो सकती है। कुछ ज्वालामुखियों से लगातार अल्पमात्रा में गैसें और चट्टानें मुक्त होती रहती है लेकिन किसी समय ये ज्वालामुखी प्रचंड और विस्फोटक भी हो सकते हैं। कभी-कभी ज्वालामुखी घटनाएँ विस्फोटक होती हैं, किंतु अधिकतर घटनाओं में ज्वालामुखी पर्वत उनमें उत्पन्न दाब अथवा मैग्मा मंडार के उद्गारित होने पर पर्वत के ढहने से किनारों से फुट जाते हैं।”
डिस्कवर साइंस अलमांसः दि डेफिनिटिव साइंस रिसॉस, न्यूयार्क, 2003

ज्वालामुखी, पृथ्वी के भूपटल में स्थित वह स्थान है, जहां से गर्म गैसें पिघली चट्टाने भूपटल से ऊपर उठती हैं। ज्वालामुखी को इस प्रकार से भी परिभाषित किया जा सकता है कि पृथ्वी की भूपटल में स्थित वह स्थान ज्वालामुखी कहलाता है, जहां से पृथ्वी के आंतरिक भाग से गर्म पिघली चट्टानें (लावा), राख, गैसें और चट्टानों के टुकड़े आदि एक या एक से अधिक छेदों या सूराखों या विभंगों द्वारा बाहर निकलते हैं। ज्वालामुखी के छाया क्षेत्र में रहने का मतलब लगातार खतरे में जीना है। क्योंकि एक सक्रिय ज्वालामुखी बहुत थोड़ी चेतावनी के साथ उद्गारित हो सकता है और ज्वालामुखी उद्गार अत्यंत प्रचंड घटना हो सकती है, जो नगरों का सफाया कर सकती है। सन 1883 में प्रशांत महासागर के जावा और सुमात्रा द्वीपों के मध्य स्थित क्राकातोआ ज्वालामुखी विस्फोट को 26 शक्तिशाली हाइड्रोजन बम विस्फोट के बराबर शक्तिशाली माना गया था। इस विस्फोट से निर्मित घने बादलों ने सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली उष्णता को बीस प्रतिशत तक कम कर दिया था। तब उस स्थान पर विस्फोट के कारण एक महीनें तक धूल का घेरा बना रहा और इस कारण दूर स्थित क्षेत्र लंदन तक सूर्यास्त जैसी लालिमा छा गई थी। यह घटना ज्वालामुखी विस्फोट का शक्तिशाली और नाटकीय प्रभाव थी।

फिर भी सभी ज्वालामुखी विस्फोट प्रचंड नहीं होते हैं।

ज्वालामुखी क्या है?


ज्वालामुखी, पृथ्वी के भूपटल में स्थित वह स्थान है, जहां से गर्म गैसें पिघली चट्टाने भूपटल से ऊपर उठती हैं। ज्वालामुखी को इस प्रकार से भी परिभाषित किया जा सकता है कि पृथ्वी की भूपटल में स्थित वह स्थान ज्वालामुखी कहलाता है, जहां से पृथ्वी के आंतरिक भाग से गर्म पिघली चट्टानें (लावा), राख, गैसें और चट्टानों के टुकड़े आदि एक या एक से अधिक छेदों या सूराखों या विभंगों (रफ्चर) द्वारा बाहर निकलते हैं। वाल्केनोज यानी ज्वालामुखियों का नामकरण रोमन अग्नि देवता ‘वल्कन’ के नाम पर किया गया है। रोमवासियों का मानना था कि वल्कन देवता भूमध्य सागर में स्थित वल्केनो में एक द्वीप के नीचे रहते हैं। यह द्वीप ज्वालामुखी द्वीप था। उस समय यह माना जाता था कि वल्कन देवता लोहार हैं जो अन्य देवताओं के लिए हथियार बनाते हैं और जब वल्कन देवता हथियार बनाते हैं तब धरती कांपती हैं और द्वीप उद्गारित होता है।

ज्वालामुखी के उद्गारित होने पर उसके चारों ओर चट्टानों के ढेर से पर्वत बनते हैं। ज्वालामुखी से अभिप्राय केवल छेद या मुख से ही नहीं है बल्कि इससे उद्गारित पदार्थों जैसे ठोस लावा, शैलों के टुकड़े, और अंगारों से बने पर्वत से भी है। ज्वालामुखी पर्वतों की ऊंचाई और आकार में बहुत भिन्नता होती है।

कुछ ज्वालामुखी पर्वतों की ऊंचाई इस प्रकार है:

माउंट

पोपोकेटेपेटल, मैक्सिको

5422 मीटर

माउंट

एकोन्कागुआ, अर्जेंन्टीना

6960 मीटर

ओजोस

डल सालाडो, चिली

6887 मीटर

माउंट

किलिमिंजारो, तन्जानिया

5273 मीटर

माउंट

अराफात, तुर्की

5165 मीटर

 



ज्वालामुखियों की बनावट


किसी ज्वालामुखी का प्रसिद्ध विवरण उसके पर्वतों के शिखर से आग उगलते हुए होगा। स्पष्ट रूप से ज्वालामुखी पृथ्वी की सतह के नीचे से गर्म, तरल चट्टानों, राख और गैसों के रूप में भूपृष्ठ पर आकस्मिक रूप से उद्गारित नहीं होते हैं। ये पदार्थ पर्वतों या पर्वत समान दरारों से समय बीतने पर उद्गारित होते हैं। इस कारण से अधिकतर पर्वतों के विपरीत, जो नीचे से ढकेले गए हैं, ज्वालामुखी पर्वत स्वयं के उद्गारित पदार्थों के ढेर से बनते हैं।

ज्वालामुखी के शीर्ष पर एक गर्त पाया जाता है। ज्वालामुखी विवर अथवा क्रेटर कहलाने वाले इस गर्त का आकार एक कप या छिछली कटोरी जैसा होता है। सभी ज्वालामुखी विवर के नीचे केंद्रीय मुख या सूराख (वेंट) होता है। केंद्रीय मुख गहराई में स्थित उद्गारित पदार्थों के मुख्य भंडारण क्षेत्र यानी मैग्मा कोष्ठ (चैंबर) से जुड़ा होता है। अक्सर ज्वालामुखी के पार्श्व में केंद्रीय सूराख के नीचे की ओर दरारें होती हैं। ये दरारें मैग्मा स्रोत को बंद कर सकती हैं और ज्वालामुखी के किनारों पर उद्गारित नाली की भांति व्यवहार करती हैं। चट्टानों के भारी टुकड़ों को पार्श्व से तीव्र गति से कई किलोमीटर दूर तक उछाल सकने वाले ज्वालामुखी विस्फोट को पार्श्व विस्फोट (लैटरल ब्लास्ट) भी कहते हैं। ज्वालामुखी उद्गार के कारण उच्च तापमान और उद्गारित पदार्थ द्वारा दबने से मौतें भी हो सकती है। ज्वालामुखी पदार्थों के उद्गार से शंकु आकारीय ढेर का निर्माण भी हो सकता है जिसे गोण शंकु (पैरासाइटिक कोन) कहा जाता है। ज्वालामुखी के आधार पर स्थित वाष्पमुख कहलाने वाले सतही सुराख या दरारें उद्गारित ज्वालामुखी गैसों के लिए नाली जैसा व्यवहार करती है, जिनसे गैसें मुक्त होती है।

ज्वालामुखी विवर का आकार एक ज्वालामुखी से दूसरे ज्वालामुखी में भिन्न होता है। स्पष्ट रूप से ज्वालामुखी की ऊंचाई और ज्वालामुखी विवर में कोई संबंध नहीं होता है। इसी प्रकार ज्वालामुखी विस्फोट की शक्ति और ज्वालामुखी विवर के आकार में भी कोई संबंध नहीं होता है।

बहुत चौड़े और तुलनात्मक रूप से उथले ज्वालामुखी विवरों को ज्वालामुखी कुंड या कालडेरा कहा जाता है। कालडेरा स्पेनिश भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ कालडान अर्थात उबलता हुआ कढ़ाव है। जब पुराना ज्वालामुखी शंकु ढह जाने पर चौड़ा और उथला हो जाता है तब ज्वालामुखी कुंड बनता है। अधिकतर ज्वालामुखी कुंड पानी से भर जाने पर झील बन जाते हैं। ‘क्रेटर नेशनल पार्क’ में स्थित ‘क्रेटर झील’ इस तरह से निर्मित होने वाली झील का सुंदर उदाहरण है।

ज्वालामुखियों के प्रकार


यद्यपि प्रत्येक ज्वालामुखी के उद्गार का एक विशिष्ट इतिहास होता है, लेकिन फिर भी अधिकतर ज्वालामुखियों को उनकी उद्गार शैली और उनके निर्माण के आधार पर तीन समूहों में रखा गया है।

सक्रिय ज्वालामुखी


जो ज्वालामुखी नियमित रूप से उद्गारित होते हैं या उद्गारित होने के संकेत (गड़गड़ाहट, थरथराहट, गैसों की विशिष्ट मात्रा का विसर्जन) देते हैं, वह सक्रिय ज्वालामुखी कहलाते हैं। हो सकता है कि ये ज्वालामुखी अतीत में भी उद्गारित होते रहे हों और भविष्य में भी इनके उद्गारित होने की संभावना हो। एक ज्वालामुखी तब तक सक्रिय रहता है, जब तक उसमें मैग्मा का भंडार उपस्थित होता है।

प्रसुप्त ज्वालामुखी


प्रसुप्त ज्वालामुखी वे ज्वालामुखी हैं, जो इतिहास में तो उद्गारित होते रहे हैं, लेकिन वर्तमान में सक्रिय नहीं हैं। ऐसे ज्वालामुखी हल्के भूकंप और गर्म सोते या झरने (स्प्रिन्ग) द्वारा अपनी गतिविधियों का संकेत दे सकते हैं। प्रसुप्त ज्वालामुखी में मैग्मा तो होता है, लेकिन उसमें कोई हलचल नहीं होती है।

निर्वापित या बुझा हुआ ज्वालामुखी


निर्वापित ज्वालामुखी ऐसा ज्वालामुखी होता है जो लंबे समय से उद्गारित नहीं हुआ है। वैज्ञानिकों के द्वारा निर्वापित ज्वालामुखियों के उद्गारित होने को असंभाव्य माना जाता है। कोई भी ज्वालामुखी तब निर्वापित या बुझा हुआ कहलाता है, जब उसका पूरा मैग्मा बाहर निकल जाए या फिर ठंडा होकर चट्टानों में बदल जाए। वास्तव में किसी ज्वालामुखी को निर्वापित निर्धारित करना मुश्किल होता है। सुपर वाल्केनों कहलाने वाले ज्वालामुखियों की उद्गारित अवधि लाखों वर्षों की हो सकती है। ऐसा ज्वालामुखी कुंड जो हजारों वर्षों तक उद्गारित नहीं होते उन्हें निर्वापित ज्वालामुखी के बजाए प्रसुप्त ज्वालामुखी माना जाता है।

विशेषकर ज्वालामुखियों में भिन्नता उनकी प्रकृति पर निर्भर करती है और जो कभी-कभी भ्रम पैदा करती है। आगे यह भ्रम अलग-अलग क्षेत्रों के ऐतिहासिक आंकड़ों जो भूमध्यसागरीय क्षेत्र में 3000 वर्षों से लेकर हवाई क्षेत्र में 200 वर्षों तक की अवधि का है, के साथ मिल अधिक जड़ होता जाता है। स्मिथसोनियन वैश्विक ज्वालामुखी कार्यक्रम के अनुसार सक्रिय ज्वालामुखी की परिभाषा में उन ज्वालामुखियों को रखा गया है जो पिछले 10,000 वर्षों से उद्गारित हो रहे हों। किसी ज्वालामुखी को निर्वापित घोषित करना आसान नहीं होता है। उदाहरण के लिए अमेरिका के यलोस्टोन राष्ट्रीय उद्यान के यलोस्टोन ज्वालामुखी कुंड से पिछले 6,50,000 वर्षों से प्रचंड उद्गार की कोई घटना नहीं हुई थी, लेकिन 70,000 वर्ष पहले इससे कुछ लावा बहा था लेकिन फिर भी वैज्ञानिक इसे निर्वापित ज्वालामुखी नहीं मानते हैं।

वर्तमान में विश्व में कई सक्रिय ज्वालामुखी हैं। माना जाता है कि धरती पर लगभग 550 से 580 सक्रिय ज्वालामुखी हैं। प्रसुप्त ज्वालामुखियों की संख्या, सक्रिय ज्वालामुखियों की संख्या से दो गुनी है। इनके अलावा मध्य महासागरीय कटक क्षेत्र के गहरे समुद्र में बड़ी संख्या में ज्वालामुखी स्थित हैं।

भारत के बैरन द्वीप में बैरन-I ज्वालामुखी है। एक अन्य ज्वालामुखी ‘नरकोंडम’ है। यह दोनों ज्वालामुखी अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थित है। बैरन द्वीप में स्थित ज्वालामुखी भारीय उपमहाद्वीप में स्थित एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी है। हाल ही में भारतीय भौगोलिक सर्वेक्षण विभाग द्वारा प्रसुप्त ज्वालामुखी की श्रेणी में रखे गए नरकोंडम ज्वालामुखी से 8 जून 2005 को मीडिया में कीचड़ और धुआं उद्गारित होने की खबरें आई थी।

ज्वालामुखी उद्गार


ज्वालामुखी उद्गार का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है। अधिकतर ज्वालामुखी लगातार उद्गारित नहीं होते हैं। एक ज्वालामुखी हजारों वर्षों तक असक्रिय रह सकता है। फिर भी ज्वालामुखी प्रायः बिना चेतावनी के उद्गारित नहीं होते हैं। ज्वालामुखी उद्गार के बारे में अक्सर भूकंप से जानकारी मिलती है।

आरंभिक चेतावनी चिन्ह


अक्सर भूकंप द्वारा ज्वालामुखी विस्फोट के पहले पिघली चट्टानों और गैसों की हलचल के कारण जोर की गड़गड़ाहट की आवाज़ होती है। गड़गड़ाहट की यह ध्वनि तूफान के समय होने वाले शोर के समान होती है। ज्वालामुखी उद्गार विस्तृत परास में ध्वनि उत्पन्न करते हैं।

मार्क टवाईन ने किलाउई में इस शोर के बारे में अपनी किताब “दि ग्रेट वाल्केनो ऑफ किलाउई” में लिखा है। वह लिखते हैं कि “बुलबुलाते लावे के द्वारा होने वाली आवाज़ कोई अधिक नहीं होती, बल्कि इसकी तीव्रता हमारे जोर से चिल्लाने जितनी हो होती है। इस समय तीन विभिन्न प्रकार की आवाजें निकालती है- हड़बड़ाहट जैसी, फुफकार जैसी और खखारने जैसी। यदि आप इसके किनारों पर खड़े होकर यह कल्पना करें कि आप नदी में नीचे की ओर जा रहे हैं और बड़े स्टीमर यानी नाव के बॉयलर की नलियों से निकली भाप और इसके पहियों के पीछे से निकलते पानी की आवाज़ के अलावा ऐसा कोई विकल्प आपके पास नहीं होता है जिससे आप नदी के प्रवाह की तीव्रता को समझ सकें।”

ज्वालामुखी विस्फोट के अन्य संकेतों में ज्वालामुखी क्षेत्र के समीपस्थ क्षेत्र की झील में जलस्तर का कम या अधिक हो जाना और इस क्षेत्र के पास अचानक से गर्म सोता देखा जाना शामिल है।

उद्गार


ज्वालामुखी उद्गार के दौरान बहुत अधिक मात्रा में गैसें (जिसमें बहुत गर्म पानी भी होता है), चट्टानें, पत्थरों, राख, लावा और अन्य पदार्थ उद्गारित होते हैं। ज्वालामुखी विस्फोट के समय उत्पन्न ध्वनि को बहुत दूर तक सुना जा सकता है। सन् 1915 इंडोनेशिया के टाम्बों ज्वालामुखी विस्फोट की आवाज़ करीब 1500 किलोमीटर दूर तक सुनी गई थी। उस समय उद्गारित क्षेत्र से संलग्न भूमि प्रचंड रूप से कंपित हुई थी।

ज्वालामुखी विस्फोट की प्रबलता के अनुसार उद्गारित पदार्थ, उर्ध्वाधर स्तंभ के रूप में बहुत ऊंचाई तक पहुंचते हैं। ज्वालामुखी छिद्र से आने वाले कणों के मध्य घर्षण होने के कारण स्थैतिक विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो बिजली और गड़गड़ाहट के साथ चमक में बदल जाती है। ज्वालामुखी विस्फोट की घटना का प्रभाव, ज्वालामुखी पर्वत से दूर भी देखा जा सकता है जैसा सन् 1980 में माउंट सेंट हेलेन ज्वालामुखी में विस्फोट के दौरान हुआ था।

निक्षेप (द फालआउट)


ज्वालामुखी प्राकृतिक आपदा है। ज्वालामुखी विस्फोट से आशय प्रचंड ऊर्जा का मुक्त होना है, जो उस समय आपदा का रूप ले सकती है। जो व्यक्ति ज्वालामुखी क्षेत्र की गतिविधियों के समीप रहते हैं। उन्हें संपत्ति और जीवन दोनों को खतरा बना रहता है। ज्वालामुखी क्षेत्रों के समीप रहने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए सक्रिय और प्रसुप्त ज्वालामुखियों की निगरानी आवश्यक है।

ज्वालामुखी गतिविधियों को समझना


ज्वालामुखी विस्फोट का मुख्य जटिल उत्पाद लावा होता है। जनमानस में लावा हमेशा से ज्वालामुखी का पर्याय रहा है। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कुछ ज्वालामुखी विस्फोटों से लावा नहीं निकलता है। वर्ष 1902 में विस्फोटित माउंट पेले ज्वालामुखी से कोई लावा नहीं निकला था। ज्वालामुखी विस्फोट से अतिगर्म भाप और अन्य गैसों के बाद लावा बाहर आता है। ज्वालामुखी मुख से बाहर आने के तत्काल बाद लावा रक्त तृप्त या श्वेत तृप्त होता है।

ज्वालामुखी विस्फोट के लिए पृथ्वी की आंतरिक ऊष्मा जिम्मेदार है। यह आंतरिक ऊष्मा पृथ्वी के अस्तित्व में आने के समय से संबंधित है। पृथ्वी के निर्माण की आरंभिक अवस्था में यह पूरी तरह तरल अवस्था में थी। जीवन के स्थायित्व के लिए तब पृथ्वी बहुत अधिक गर्म थी, लेकिन क्रमिक रूप से यह ठंडी होती गई। इस प्रकार पृथ्वी के ठंडे होते रहने के दौरान पहले पृथ्वी का भूपटल अस्तित्व में आया, लेकिन अभी तक पृथ्वी पूरी तरह ठंडी नहीं हुई थी। माना जाता है कि इस मौलिक ऊष्मा की कुछ मात्रा को पृथ्वी द्वारा संभाल कर रखा गया है। पृथ्वी की क्रोड अभी भी बहुत गर्म अवस्था में है। यह ऊष्मा चट्टानों में उपस्थित यूरेनियम और थोरियम जैसे रेडियो सक्रिय पदार्थों के विखंडन से भी उत्पन्न होती है। पृथ्वी में समाहित ऊष्मा चट्टानों को पिघला सकती है। पृथ्वी के नीचे स्थित तरल चटाटनें मैग्मा कहलाती हैं। मैग्मा, भाप और अन्य गैसों को भी रखता है।

मैग्मा या पिघली शैलों का घनत्व अपने चारों ओर की ठोस चट्टानों से कम होता है। मैग्मा की तरलता तापमान, जल और सिलिका की मात्रा पर निर्भर करती है। मैग्मा में सीलिका की मात्रा अधिक होने से यह अधिक तरल होगा। मैग्मा में विलेय गैसे, इसे अन्य चट्टानों से अधिक हल्का बनाती है। भारी चट्टानों के दबाव से मैग्मा ऊपर की ओर गति करता हुआ अंत में ज्वालामुखी विस्फोट या विदार उद्गार के माध्यम से धरती की सतह तक पहुंचने का मार्ग बना लेता है।

ज्वालामुखी क्रिया का प्रकार


विवरण

वीईआई (VEI)

पिच्छक ऊंचाई

वर्गीकरण

आवृत्ति

उदाहरण

अ-विस्फोटक

0

100 मीटर से कम

हवाइयन

प्रतिदिन

किलाउई

हल्का

1

100 से 1000 मीटर

हवाइयन/स्ट्रॉम्बोलियन

प्रतिदिन

स्ट्रॉम्बोली

विस्फोटक

2

1 से 5 किलोमीटर

स्ट्रॉम्बोलियन/वल्केनियन

साप्ताहिक

गेलेरीस, 1992

तीव्र

3

3 से 15 किलोमीटर

वल्केनियन

वार्षिक

रूईज, 1985

भीषण

4

10 से 25 किलोमीटर

वल्केनियन/पीलियन

दस वर्ष

गैलुनगुगं, 1982

आवेगी

5

25 किलोमीटर से अधिक

पीलियन

सौ वर्ष

माउंट सेंट हेलेन, 1980

विशाल

6

25 किलोमीटर से अधिक

पलीनियनुलट्रा-पीलियन

एक हजार वर्ष

क्राक्रातोआ, 1883

अतिविशाल

7

25 किलोमीटर से अधिक

अल्ट्रा-पीलियन

एक हजार वर्ष

तामबोरो, 1815

महाकार

8

25 किलोमीटर से अधिक

अल्ट्रा-पीलियन

दस हजार वर्ष

यलोस्टोन, 22 लाख वर्ष पूर्व

 



ज्वालामुखी गतिविधियों का वर्गीकरण


यहां विभिन्न प्रकार की ज्वालामुखी सक्रियता और उद्गार दिए गए हैं।

1. भौमपंक (Phreatic) उद्गार (भाप उत्पादक उद्गार)
2. उच्च सिलिका लावा का विस्फोटी उद्गार (उदाहरण, रायोलाइट)
3. निम्न सिलिका लावा निस्सरण उद्गार (उदाहरण, अतिशाश्म या बेसाल्ट)
4. ज्वलखंडाश्मी (Pyroclastic) उद्गार, लाहार यानी पंकप्रवाह (मलबा प्रवाह)
5. कार्बन डाईऑक्साइड उद्गार

अक्सर ज्वालामुखी गतिविधियाँ भूकंप, गर्म सोतों (स्प्ररिंग), ध्रुम, कीचड़ और उष्णोत्स (गीजर) के साथ घटित होती हैं।

ज्वालामुखी उद्गार की शक्ति


ज्वालामुखियों का वर्गीकरण एक विशिष्ट पैमानें, “वाल्केनिक एक्सपलोसिव इंडेक्स” (VEI) के अनुसार किया जाता है। वाल्केनिक एक्सपलोसिव इंडेक्स किसी विस्फोट की शक्ति को इंगित करता है।

लावा


ज्वालामुखी विस्फोट का मुख्य जटिल उत्पाद लावा होता है। जनमानस में लावा हमेशा से ज्वालामुखी का पर्याय रहा है। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कुछ ज्वालामुखी विस्फोटों से लावा नहीं निकलता है। वर्ष 1902 में विस्फोटित माउंट पेले ज्वालामुखी से कोई लावा नहीं निकला था। ज्वालामुखी विस्फोट से अतिगर्म भाप और अन्य गैसों के बाद लावा बाहर आता है। ज्वालामुखी मुख से बाहर आने के तत्काल बाद लावा रक्त तृप्त या श्वेत तृप्त होता है।

लावा सामान्यतया ज्वालामुखी मुख के किनारों से बहता है। भूपटल की दरारों से भी लावा बाहर निकलता है। इस प्रकार के ज्वालामुखी विस्फोट दरार उद्गार कहलाते हैं, दरारों से निकलने वाला लावा विशाल क्षेत्रों में फैलता है। पश्चिम भारत का 5,00,000 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र लावे, (जो समय बीतने पर ठोस हो गया है) से ढका है। यहां लावे का जमाव 600 मीटर गहराई तक होता है। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र का 5,75,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र लावे से ढका है। यहां लावा पर्त की औसत गहराई 150 मीटर है। आइसलैंड में विदरी उद्गार सामान्य है, ऐसे द्वीप बड़ी ज्वालामुखी गतिविधियों से बनते हैं।

बहुत चिपचिपा होने पर लावा बह नहीं पाता है। जब लावे का तापमान तुलनात्मक रूप से कम हो या इसमें गैसों की बहुत कम मात्रा हो तो उसका चिपचिपापन बढ़ता है। उच्च चिपचिपा लावा ज्वालामुखी विवर से तीव्र वेग से नहीं बहता और यह एक जगह ढेर सा लगाकर विशाल गुंबद का आकार धारण कर लेता है, जो प्लग गुबंद कहलाता है। लावा उद्गार की कुछ घटनाओं में मीनारें भी बन जाती है।

आरंभ में लावा तेजी से निकलता है, किंतु जैसे-जैसे लावा ठंडा होता जाता है उसका चिपचिपापन बढ़ने के कारण उसकी गति कम होती जाती है। लावा के बहने की गति उसकी श्यानता और जिस स्थान पर लावा गति करता है उस पर निर्भर करती है। लावा का तापमान स्टील को पिघलाने (लगभग 1100 डिग्री सेल्सियस) जितना अधिक हो सकता है। ऊष्मा का निम्न संवाहक होने के कारण लावा ठंडा होने में अधिक समय लेता है। सन् 1787 में सिसली के एटना ज्वालामुखी से उद्गारित लावा करीब 43 साल बाद तक भाप बनते देखा गया था।

लावे के प्रकार


ज्वालामुखियों को उनसे उद्गारित लावे के अनुसार भी वर्गीकृत किया जाता है। लावा को चार विभिन्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है।

फेल्सिक लावा


जब उद्गारित लावे में 63 प्रतिशत से अधिक मात्रा में सिलिका उपस्थित होता है, तब यह फेल्सिक लावा कहलाता है। फेल्सिक लावे को रायोलाइ भी कहा जाता है। फेल्सिक लावा बहुत चिपचिपा होता है और यह गुबंद या छोटे अवरूद्ध मार्ग से उद्गारित होता है। इस प्रकार का लावा स्तरित या गुबंद ज्वालामुखी से निकलता है। इसी तरह के ज्वालामुखी लावा से संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित लासन ज्वालामुखी उद्यान का निर्माण हुआ है। लासन ज्वालामुखी उद्यान का शीर्ष लावे का विशाल गुंबद है।

मध्यवर्ती लावा


जब उद्गारित लावे के मध्यवर्ती संघटन में 52 से 63 प्रतिशत लावा होता है, तो इस प्रकार का लावा मध्यवर्ती लावा कहलाता है। प्रायः अवरोहण क्षेत्र में मिलने वाले इस ज्वालामुखी को ऐन्डेजाइटी ज्वालामुखी कहते हैं। इंडोनेशिया का मीरापी पर्वत ऐंडेजाइटी ज्वालामुखी का उदाहरण है।

मैफिक लावा


जब उद्गारित लावे में सिलिका की मात्रा, 45 प्रतिशत से अधिक और 52 प्रतिशत से कम हो तब यह मैफिक लावा कहलाता है। इस प्रकार के लावे में मैग्नीशियम (Mg) और लोह (Fe) का प्रतिशत अधिक होता है।

अलमैफिक लावा


जब उद्गारित लावे में सिलिका की मात्रा 45 प्रतिशत के बराबर या इससे कम होती है तब लावा अलमैफिक लावा कहलाता है। इसे कोमाटीटिस के नाम से भी जाना जाता है। यह लावे का सबसे गर्म प्रकार और पिघला रूप है। इस प्रकार का लावा कम ही देखने में आता है।

चट्टानें


ज्वालामुखी विस्फोट से बहुत विशाल मात्रा में शैलें, पत्थर और अंगार विभिन्न दिशाओं से बाहर आते हैं। कभी-कभी ज्वालामुखी की विस्फोटक क्षमता के अनुसार ये बहुत तेजी से ऊपर फेंके जाते हैं, उदाहरण के लिए सन् 1779 में विसूवियस के विस्फोट से निकले अंगार की ऊंचाई 300 मीटर थी।

राख


अक्सर ज्वालामुखी उद्गार के साथ बहुत अधिक मात्रा में राख भी निकलती है। कोसीग्युनिया ज्वालामुखी से करीब 4 अरब घन मीटर राख के निकलने का अनुमान लगाया गया था। हवा ने इस राख को करीब 1300 किलोमीटर तक दूर फैलाया था। इस उद्गार से निकली गैसों की परत बहुत मोटी थी, जिससे ज्वालामुखी के समीप के क्षेत्रों में सूर्य का प्रकाश धरती तक नहीं पहुंचने के कारण घना अंधेरा छा गया था। यह अंधेरा केवल ज्वालामुखी विवर से निकले लावे और बिजली की चमक से हटता था। ज्वालामुखी उद्गार से उद्गारित होने वाली राख विशेषकर बहुत ही बारिक या महीन राख आकाश में वर्षों तक बनी रहती है और इस दौरान यह पृथ्वी पर घूमती रहती है। इस धूल के कारण सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भव्य और सुंदर रंगीला दृश्य दिखाई देता है।

सन् 1883 में क्राकातोआ उद्गार द्वारा भी बहुत अधिक मात्रा में राख उद्गारित हुई थी। जिससे धरती से करीब 240 किलोमीटर ऊपर तक अंधेरा छा गया था। इस ज्वालामुखी उद्गार से निकली राख ज्वालामुखी उद्गार से निकली भाप के संघनन से होने वाली मूसलाधार बारिश के साथ मिलकर कीचड़ में बदल गई, जिसने कीचड़ की नदी का आकार धारण कर लिया था। कीचड़ की नदी के रास्ते में आने वाली सभी वस्तुओं के दफन होने से व्यापक तबाही हुई थी।

79 ईसा वीसूवियस में हुए ज्वालामुखी उद्गार से लावा, कीचड़ और राख की लगभग 20 मीटर मोटी पर्त जमने से प्राचीन शहर ‘हरकुलीन्यूम’ दफन हो गया था।

गैसें


भिन्न-भिन्न ज्वालामुखियों से उद्गारित विभिन्न गैसों की मात्रा में बहुत अंतर हो सकता है। ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले गैसीय पदार्थों में जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है। गैसों और जलवाष्प के अलावा ज्वालामुखी उद्गार से हाइड्रोजन सल्फाइड, हाइड्रोजन क्लोराइड और हाइड्रोजन फ्लोराइड की मात्रा भी होती है। ज्वालामुखी उद्गार से विभिन्न मात्रा में हाइड्रोजन, कार्बन मोनोऑक्साइड, हेलोकार्बन, कार्बनिक यौगिक और वाष्पशील धातु क्लोराइड्स भी निकलती हैं। ज्वालामुखी गैसें अम्लीय वर्षा में प्राकृतिक कारक के रूप में योगदान देती है। ज्वालामुखी से उद्गारित सल्फर डाइऑक्साइड जल की उपस्थिति में सल्फूरिक अम्ल में बदल जाती है, जो क्षोभमंडल (स्ट्रोफियर) में शीघ्र संघनित हो कर सल्फेट अलनीडो अथवा सल्फेट ऐरोसोल में परिवर्तित हो जाती है। ज्वालामुखी क्रियाओं से प्रतिवर्ष वायुमंडल में लगभग 130 से 230 टेराग्राम कार्बन डाइऑक्साइड मुक्त होती है।

अंगार शंकु


अंगार शंकु का निर्माण एकल मुख से निकलने वाले सघन लावे के कणों और बुलबुलों से होता है। जब गैस आवेशित लावा हवा में प्रचंड रूप से उद्गारित होता है, तब यह लावा छोटे अंशों में बंटकर ठोस व अंगार रूप में मुख के आसपास गिरकर वृत्तीय या अंडाकार शंकु का निर्माण करता है। इस प्रकार का उद्गार, जो 30 से 400 मीटर ऊंची शंकु आकार की चोटी का निर्माण करता है, बहुत कम समय के लिए होता है। अधिकतर अंगार शंकु, ज्वालामुखी एक बार उद्गारित होते हैं। अंगार ज्वालामुखी सरलतम ज्वालामुखी है। अंगार शंकु कटोरे के आकार का क्रेटर बनाता है, जो छोटी पहाड़ी के आकार में लगभग 100 फीट तक बढ़ता है। अंगार शंकु को लावा मल या अवस्कर शंकु (स्कोरिआ) भी कहा जाता है।

मैक्सिको का पैरीकुतीन अंगार शंकु ज्वालामुखी का प्रसिद्ध उदाहरण है।

गुम्बदी या कवच ज्वालामुखी


गुम्बदी ज्वालामुखी का पार्श्व भाग उथली ढाल वाला होता है। गुम्बदी ज्वालामुखी विशाल, लंबे और चौड़े, समतल के साथ वृत्त आकार के होते हैं। यह माना जाता है कि धरती का सर्वाधिक प्राचीन महाद्वीपीय क्षेत्र प्राचीन कवच ज्वालामुखी का शेष हिस्सा हो सकता है। गुम्बदी ज्वालामुखी तरल लावा मुक्त करते हैं, जो क्रेटर से ज्वालामुखी के पार्श्वीय हिस्से की ओर नीचे बहता है। लावे की तरलता के कारण प्रचंड उद्गारित विस्फोट नहीं होते हैं।

हवाई द्वीप गुम्बदी ज्वालामुखी उद्गार का सुंदर उदाहरण है। माउंट ला और किलाउई विश्व के दो प्रसिद्ध सक्रिय गुम्बदी ज्वालामुखी के उदाहरण हैं।

मिश्र ज्वालामुखी


मिश्र ज्वालामुखी बहुत भव्य ज्वालामुखी होता है। यह सममित आकार के साथ में बहुत लंबे होते हैं। इस प्रकार के ज्वालामुखी की ऊंचाई कभी-कभी लगभग 10,000 फीट तक हो सकती है। मिश्र ज्वालामुखी को परतदार या स्तरित ज्वालामुखी भी कहा जाता है। ये ज्वालामुखी स्तरित या एकांतर पर्तों में लावा प्रवाह के साथ राख, अंगार आदि उद्गारित पदार्थ रखते हैं।

जापान में माउंट फुजी, इक्वेडोर में माउंट कोटोपाक्सी, संयुक्त राज्य अमेरिका में माउंट शास्ता, लॉसेन, माउंट हुड, माउंट रेनियर और सेंट हेलेपस, फिलीपीन में माउंट पिनाट्नों और इटली में सेंट एटना ज्वालामुखी, मिश्र ज्वालामुखी के श्रेष्ठ उदाहरण है।

भव्य या उच्चया ज्वालामुखी


विशाल ज्वालामुखी, बहुत बड़ा ज्वालामुखी कुंड रखता है जिसे भव्य या उच्चया ज्वालामुखी (सुपर वाल्केनो) कहते हैं। यह बहुत विनाशकारी ज्वालामुखी होता हैं। ये ज्वालामुखी व्यापक स्तर पर विनाश का कारण बनते हैं, कभी-कभी इस प्रकार के ज्वालामुखी पूरे महाद्वीप को प्रभावित करते हैं। इनका वृहद पैमाने पर उद्गार वैश्विक तापमान को ठंडा करता है। यलोस्टोन नेशनल पार्क में यलोस्टोन ज्वालामुखी कुंड, न्यूजीलैंड में टोपो झील, सुमात्रा में टोबा झील उच्चया ज्वालामुखी के उदाहरण हैं।

अंतः सागरी ज्वालामुखी


पृथ्वी के पतले और तने हुए भूपटल वाले स्थानों पर भी ज्वालामुखियों का निर्माण होता है। इस प्रकार की ज्वालामुखी सक्रियता को “अतप्त स्थल आंतरिक प्लेट ज्वालामुखी” कहते हैं। इस प्रकार की ज्वालामुखीय सक्रियता अफ्रीकन रिफ्ट घाटी, यूरोपीयन राइन ग्रेबन (ग्रेबन भूमि सीमा के निचले हिस्से में भ्रंश के सामांतर स्थित हता है। ग्रेबन शब्द जर्मन भाषा में खाई के लिए उपयोग किया जाता है) के साथ इफिल ज्वालामुखी और उत्तरी अमेरिका के राई ग्रेनेड रिफ्ट में देखी जा सकती है।समुद्र के अंदर बहुत सारी ज्वालामुखी गतिविधियाँ चलती रहती हैं। समुद्र के अंदर परिचालित होने वाले ज्वालामुखियों को अंतःसागरी ज्वालामुखी कहते हैं। प्लेटों में हलचल होने के कारण जब समुद्र के अंदर चट्टानें चटकती हैं तब ज्वालामुखी गतिविधियाँ आरंभ हो जाती हैं। समुद्र में भूमि की तुलना में टूटन आसानी से होती है क्योंकि समुद्र में पृथ्वी की भूपटल केवल 5 से 8 किलोमीटर मोटी है जबकि भूमि पर इसकी मोटाई 32 से 40 किलोमीटर है।

समुद्र में आरंभ हुए बहुत से ज्वालामुखी आज हवाई और आइसलैंड जैसे द्वीपों में बदल गए हैं। ऐसे द्वीप लंबे समय तक लावे के क्रमिक उद्गार से लावा की परत दर परत जमने से निर्मित हुए हैं। द्वीप बनने की यह प्रक्रिया क्रमिक होती है, किंतु कभी-कभी किसी अंतःसागरी विस्फोट से अचानक किसी द्वीप का निर्माण भी हो सकता है। इस तरह से निर्मित द्वीप सागर में टिक नहीं पाते और कुछ महीनों बाद लुप्त हो जाता है। इस प्रकार किसी द्वीप का दिखना और अदृश्य हो जाना भूमध्य सागर में देखा जा सकता है।

अधोहिमानी ज्वालामुखी


हिमशिखर (आइसकेप) के नीचे विकसित होने वाले ज्वालामुखी अधोहिमानी ज्वालामुखी कहलाते हैं। उद्गार के दौरान लावे की गर्मी से अधोहिमानी ज्वालामुखी पर्वत के ऊपर की बर्फ पिघलने लगती है। ज्वालामुखी पर्वत के हिमशिखर के पिघलने से इसका शीर्ष ढहकर समतल शीर्ष में बदल जाता है। पानी द्वारा लावा शीघ्रता से ठंडा होकर शिरोधान लावे में बदल जाता है। शिरोधान लावा, लावा का कंदीय, गोलाकार और नलिकाकार अंश होता है। कभी-कभार शिशोधान लावा टुटकर ज्वालामुखी के पार्श्व पर लुढ़कने लगता है। समलत शीर्ष वाला सतही अधोहिमानी ज्वालामुखी टुयास कहलाता है। इनका दुयाय नाम ब्रिटेन के कोलम्बिया में स्थित अनेक अधोहिमानी ज्वालामुखी युक्त टुया क्षेत्र से संबंधित है। आइसलैंड में इस प्रकार के ज्वालामुखी को पठारी पर्वत कहते हैं।

क्यों बनते हैं ज्वालामुखी


वैज्ञानिकों द्वारा ज्वालामुखी सक्रियता और ज्वालामुखी उद्गार को समझने से पहले, लोगों ने ज्वालामुखी को कई प्रकार से समझने की कोशिश की। अनेक प्राचीन दस्तावेज़ों के अनुसार ज्वालामुखीय सक्रियता दैवीय हस्तक्षेप का परिणाम होती थी। बाद में, रासायनिक क्रियाओं को ज्वालामुखिय घटनाओं के लिए जिम्मेदार माना गया। यह सोचा गया था कि सतह के निकट तरल चट्टानों की पतली पर्त विद्यमान होती हैं। अटसनासियस किरचीर (1602-1680) ऐटना और स्ट्रॉमबोली ज्वालामुखी उद्गार के प्रत्यक्षदर्शी थे। इस घटना के बाद किरचीर महोदय ने ज्वालामुखी उद्गार के प्रारंभिक सिद्धातों के आधार पर इस संबंध में अपना विचारे प्रस्तुत किए। उनके अनुसार ज्वालामुखी सक्रियता का कारण पृथ्वी की केंद्रीय ऊष्णता से संबंधोति होने के साथ सल्फर, बिटुमिन और कोयले के दहन के परिणामस्वरूप उत्पन्न अनेक कारणों का परिणाम है।

ज्वालमुखी निर्माण की वर्तमान धारणा


वर्तमान में हम जानते हैं कि दो या तीन विवर्तनिक प्लेटों की पारस्परिक क्रिया से ज्वालामुखीय सक्रियता उत्पन्न होती है। भूकंप की भांति दो प्लेटों के एक-दूसरे के ऊपर चढ़ जाने से ज्वालामुखी का निर्माण नहीं होता है।

अतप्त स्थल आंतरिक प्लेट ज्वालामुखी


पृथ्वी के पतले और तने हुए भूपटल वाले स्थानों पर भी ज्वालामुखियों का निर्माण होता है। इस प्रकार की ज्वालामुखी सक्रियता को “अतप्त स्थल आंतरिक प्लेट ज्वालामुखी” कहते हैं। इस प्रकार की ज्वालामुखीय सक्रियता अफ्रीकन रिफ्ट घाटी, यूरोपीयन राइन ग्रेबन (ग्रेबन भूमि सीमा के निचले हिस्से में भ्रंश के सामांतर स्थित हता है। ग्रेबन शब्द जर्मन भाषा में खाई के लिए उपयोग किया जाता है) के साथ इफिल ज्वालामुखी और उत्तरी अमेरिका के राई ग्रेनेड रिफ्ट में देखी जा सकती है।

अपसारी प्लेट सीमा


कभी-कभी विवर्तनिक प्लेटें एक-दूसरे से दूर गति करती हैं। इस प्रकार की प्लेटें अपसारी प्लेटें कहलाती है। अपसारी प्लेट सीमा नए समुद्री अधस्थल और ज्वालामुखी द्वीप बनाती है। इस क्षेत्र मे गर्म पिघले लावा के ठंडा होकर ठोस हो जाने पर पतली पर्त के रूप में नई महासागरीय भूपटल का सतत निर्माण होता है। इस स्थान पर भूपटल बहुत पतली होती है। इस स्थिति में अपसारी प्लेटों द्वारा सर्जित बल के कारण अक्सर ज्वालामुखी सक्रियता की स्थिति निर्मित होती है। मध्य-अटलांटिक कटक का मुख्य हिस्सा महासागर की तली में स्थित होता है और अधिकतर ज्वालामुखीय सक्रियता अंतःसागरी क्षेत्र में होती है। समुद्री सतह से मध्य-अटलांटिक कटक के ऊपर उठने से आइसलैंड के हेकला ज्वालामुखी की तरह के ज्वालामुखियों का निर्माण होता है। मध्य-अटलांटक कटक में मिलने वाले ज्वालामुखियों की उत्पत्ति का कारण अपसारी विवर्तनिक प्लेट सीमा है।

अभिसारी प्लेट सीमा


जब प्लेटें एक-दूसरे की ओर गति करती हैं तब ये अभिसारी प्लेटें कहलाती है। प्रशांत अग्नि वलय क्षेत्र में स्थित ज्वालामुखियों का कारण यही अभिसारी विवर्तनिक प्लेटें हैं। प्रशांत प्लेटों के किनारों के कारण ही इस क्षेत्र को अग्नि वलय नाम दिया गया है। इस क्षेत्र में ज्वालामुखियों की संख्या, पृथ्वी के अन्य किसी स्थान पर पाए जाने वाली ज्वालामुखियों की तुलना में अधिक है। किनारों पर प्लेटों में आपस में रगड़ाहट होती है। जब एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे आती है तो इसे अवरोहण कहते हैं और इस प्रक्रिया में लावा ऊपर को उठता है। जिसके कारण ज्वालामुखी सक्रियता होती है। महासागरिय खाई में वह स्थान जहां पर एक प्लेट अन्य दूसरी प्लेट नीचे जलमग्न होती है, वहां भूपटल पिघल कर लावा बनता है और यह लावा ज्वालामुखी की रचना का कारण होता है। प्रशांत अग्नि वलय क्षेत्र में स्थित माउंट एटना एवं माउंट वीसूवियस नामक ज्वालामुखी इसी प्रकार के ज्वालामुखियों के उदाहरण हैं।

तप्त स्थल


तप्त स्थल, प्रवार पिच्छक (प्लूम) के शीर्ष पर स्थित होता है। प्रवार पिच्छक पर पृथ्वी की संवहनीय प्रावार, गर्म पदार्थों को स्तंभ रूप में तब तक ऊपर उठाती है जब तक ये पदार्थ ऊपर उठकर भूपटल पर नहीं पहुंच पाते। यहां पर भूपटल पृथ्वी के अन्य स्थानों की अपेक्षा पतली होती है। इसका पिच्छक नामकरण कुछ ज्वालामुखियों में भाप और राख का स्तंभ रूप में ऊपर उठने को इंगित करता है। पिच्छक का अधिक ताप भूपटल के पिघलने और नालियों की रचना का कारण बनता है जिससे लावा खाली होता है। ऊपर उठने वाला लावा बुलबुले के समान प्रतीत होता है जो पिघली चट्टानों के ऊपर उठने वाले लावा के विभिन्न स्तरों को ऊपर आने में अंतराल उत्पन्न करता है। पिच्छक के ऊपर विवर्तनिक प्लेट की गति के कारण तप्त स्थल गति करते प्रतीत होते हैं जबकी प्रावार पिच्छक उसी प्लेट में रहते हैं।

पृथ्वी पर भूपटल में कई स्थानों पर तप्त स्थल पाए जाते हैं। प्रशांत महासागर एक बहुत प्रसिद्ध तप्त स्थल है जहां लगातार नए ज्वालामुखी द्वीप बनते रहते हैं। हवाई द्वीप तप्त स्थल की ज्वालामुखी सक्रियता के कारण निर्मित हुआ है। यह माना जाता है कि अजोरीस और गैलेपगोस द्वीपों का निर्माण इसी प्रकार की क्रियाओं से हुआ है। अतीत में संयुक्त राज्य अमेरिका के यलोस्टोन नेशनल पार्क के नीचे स्थित पिच्छक भी इसी प्रकार की सक्रियताओं से निर्मित हुआ है। वर्तमान में इसका प्रभाव उष्णोत्स (गीजर) और तप्त सोतों तक सीमित है।

पिटिश्पोट (Pititspots)


वैज्ञानिकों ने जुलाई 2006 में कुछ ऐसी ज्वालामुखी सक्रियता को अवलोकित किया, जो ऊपर वर्णित ज्वालामुखियों के वर्गीकरण से भिन्न थी तब उन्होंने इस ज्वालामुखी को एक अलग पिटिश्पोट वर्ग में रखा।

इस ज्वालामुखीय सक्रियता का क्षेत्र किसी भी प्लेट सीमा से बहुत दूर था और ये प्रावार पिच्छक द्वारा होने वाले परिवर्तन से बहुत छोटी थीं। इस असामान्य ज्वालामुखी सक्रियता को समझाने के लिए नया सिद्धांत प्रस्तुत किया गया। इस नवीन सिद्धांत के अनुसार विवर्तनिक प्लेटों का मिलना, सभी प्लेटों के मध्य उत्पन्न हुए तनाव और इसके परिणामस्वरूप उस स्थान पर प्लेट के चटकने के कारण होता है। इस स्थान को पिटिश्पोट कहा जाता है।

यह जानकारी,कि इन छोटे ज्वालामुखियों को भूपटल के नीचे से चट्टानों को पिघलाने के लिए अतिरिक्त ऊष्मा की आवश्यकता नहीं होती, बहुत क्रांतिकारी साबित हुई। इसके स्थान पर भूपटल और प्रावार के नीचे से आने वाला लावा जहां आंसिक पिघली चट्टानें बिना ‘प्रावार पिच्छक’ के अस्तित्व में रहती हैं, वह क्षेत्र स्थलमंडल कहलाता है।

कुछ वैज्ञानिक जो पिच्छक सिद्धांत में विश्वास नहीं करते थे उन्होंने इस खोज को उनके विचारों के साक्ष्य के रूप में इसे स्वीकार किया।

भयंकर ज्वालामुखी विस्फोट


प्रतिवर्ष विश्व के विभिन्न हिस्सों में लगभग 60 ज्वालामुखी उद्गारित होते हैं। फिर भी अधिकतर सक्रिय ज्वालामुखिय सक्रियताएं क्षीण होती हैं।

वीसूवियस


ज्वालामुखी विस्फोट को सबसे पहले रोमन लेखक एवं पिलानी दि एल्डर के भतीजे पिलानी दि यंगर (लगभग 62 ईसा से 113 ईसा) में लिपिबद्ध किया। उन्होंने 24 अगस्त, 79 ईसा के माउंट वूवियस के उद्गार को प्रत्यक्षदर्शी के रूप में अभिलेखित किया था।

माउंट वीसूवियस के उद्गार से निकली चट्टानों और राख की टनों मात्रा से पोम्पेई शहर दफन हो गया था। इस उद्गार से 3000 से अधिक लोगों की मौंत हो गई थी, जिनमें पिलानी दि एल्डर भी शामिल थे। सुरक्षित जगह पर पहुंचने से पहले मिसुनियम गांव में पिलानी दि यंगर इस आपदा का प्रत्यक्षदर्शी बने। उन्होंने अपने मित्र रोमन इतिहासकार ताकि टुस (लगभग 55 ईसा से 120 ईसा) को लिखे दो पत्रों में इस घटना की विस्तृत व्याख्या की है।

वह लिखते हैं कि “मेरे अंकल उस समय मिसुनियम में अपनी टुकड़ी के साथ थे। एक दिन दोपहर के समय मेरी मां ने उनसे आकाश में बहुत असामान्य बादलों का अवलोकन करने को कहा। मैं उनकी सही व्याख्या तो नहीं कर सकता लेकिन उन बादलों की तुलना चीड़ के पेड़ से कर सकता हूं जो बहुत ऊंचाई तक सीधा रहता है लेकिन ऊंचाई पर जाकर शाखाओं में बंट जाता है। मेरे अंकल ने लोगों से बड़े गोले छोड़ने को कहा और वह एवं उनके सहायक नाव पर सवार होकर तट से दूर गांव में गए। उनकी नाव पर पिच्छक पत्थरों के साथ गर्म और मोटे अंगार गिरे और उनकी नाव की ऊपरी सतह झुलसने एवं काली होने के साथ कड़क भी गई थी। तट पर्वतों के भूस्खलन से बाधित हो रहा था और सागर का पानी अचानक चढ़ और उतर रहा था। हम लोग सोच रहे थे कि पृथ्वी की आक्षेप युक्त गति द्वारा सागर वापिस पानी सोख रहा है। कुछ समय से तट फैल रहा था और अब बहुत से सागरीय जीव सूखी रेत पर आ गए थे। दूसरी तरह काले और डराबने बादल ज्वलनशील वाष्प के कारण अजीब ज्वाला के समान विद्युत की चमक पैदा करते थे, लेकिन यह चमक विद्युत से अधिक समय तक रहती थी। कुछ ही समय से तटीय क्षेत्र में वृद्धि होने से कई समुद्री जीव रेतीले क्षेत्र में कैद हो गए थे। वहां तुम औरतों की चीखें, आदमियों का चिल्लाना और बच्चों का रूदन सुन सकते थे। अनेक लोग हाथ उठाकर ईश्वर को याद कर रहे थे बहुत से लोगों ने मान लिया था कि ईश्वर कहीं नहीं है और उनका इस दुनिया में अंतिम समय आ गया है”।

क्राकातोआ


इतिहास में दर्ज सभी ज्वालामुखी आपदाओं की घटना में क्राकातोआ प्रमुख घटना है। क्राकातोआ विस्फोट इंडोनेशिया के छोटे से द्वीप में 1883 में हुआ था। इस स्थान पर उद्गार इसलिए हुआ था क्योंकि ऑस्ट्रेलियन प्लेट, पैसिफिक प्लेट के नीचे चली गई थी। क्राकातोआ ज्वालामुखी को ध्वनि हिंद महासागर से पार पश्चिम में 4653 किलोमीटर दूर रोडग्रिज द्वीप पर और पूर्व में 3450 किलोमीटर दूर आस्ट्रेलिया में भी सुनी गई थी। यह माना जाता है कि यह विस्फोट 200 मिलियन टन टीएनटी के बराबर था। वायुमंडल में इस घटना से निर्मित धुएँ और राख की पतली कलिमा हिमालय से तीन गुनी ऊंचाई तक फैल गई थी। उस समय इस ज्वालामुखी विस्फोट से करीब 30 मीटर ऊंची विनाशकारी सुनामी उत्पन्न हुई थी। क्राकातोआ ज्वालामुखी के उद्गार के कारण जन्मी ये बड़ी लहरें करीब 36,000 मौतों का कारण बनी थी।

यह ज्वालामुखी उद्गार अपने बाद अनेक जख्म छोड़ गया। जब क्राकातोआ विलुप्त हुआ तब ज्वालामुखी गर्त से अनाक क्राकातोआ (क्राकातोआ का बच्चा) अस्तित्व में आया। द्वीप के मध्य से दक्षिण-पूर्व की ओर ज्वालामुखी के वृत्तीय गर्त स्थिर हुआ और उसके चारों ओर लावा बहा और राख जमा हुई। द्वीप की काली तटरेखा स्कैलपित है जहां समुद्र में यह बहाव ठोस में बदला।

ज्वालामुखी गतिविधियों पर नजर रखना


ज्वालामुखी उद्गार के बारे में वैज्ञानिक विस्तृत रूप से सूचनाओं को लिपिबद्ध करते हैं। वे अक्सर लावे और गैसों का तापमान मापते हैं और उद्गारित लावा स्रोत ऊंचाई मापने के साथ ज्वालामुखी से निकलने वाली राख और लावा के बहाव दर का अनुमान लगाते हैं। ज्वालामुखी उद्गार की इन प्रक्रियाओं को पूरी तरह से अभिलेखित करने के लिए वैज्ञानिक समय-समय पर इनका अवलोकन करते रहते हैं। इस प्रकार के दस्तावेज़ या प्रलेख किसी दिए गए ज्वालामुखी उद्गार के प्रकार के बारे में किसी व्यवहारिक गुणों वाले नमूनों के निर्माण में सहायक हो सकते हैं। ज्वालामुखियों से संबंधित चेतावनी संकेत हमें इस आपदा से बचाव के लिए पहले से तैयारी करने में सहायक सिद्ध होते हैं। अधिकतर ज्वालामुखी उद्गारित होने से पूर्व चेतावनी संकेत देते हैं। ज्वालामुखियों को समीप से अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक इनकी सक्रियता से संबंधित किसी भी संकेत को खोजने या देखने के लिए सदैव तत्पर और सजग रहते हैं। ज्वालामुखी निगरानी से आशय ज्वालामुखी और उसके आसपास के क्षेत्र में होने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिवर्तनों को क्रमबद्ध रूप से नियमित लिपिबद्ध करना है।

ज्वालामुखी द्वार से निकलने वाली वाष्पों के घटने या बढ़ने से, किसी नए क्षेत्र से वाष्प निकलने से, नई मैदानी दरारें बनने और पुरानी दरारों के चौड़ी होने पर, पेड़-पौधों के मुरझाने या अवसाद से ढक जाने पर, वाष्पमुख से निकलने वाले खनिज अवसादों का रंग परिवर्तित हो जाने पर एवं अन्य कोई प्रायः मापनीय व प्रत्यक्ष अवलोकन जो ज्वालामुखी की अवस्था में परिवर्तन को इंगित करते हैं, ऐसे कुछ अवलोकन वैज्ञानिकों को ज्वालामुखी उद्गार के बारे में अनुमान लगाने में सहायक सिद्ध होते हैं।

कुछ भयंकर ज्वालामुखी उद्गार


क्र.

उद्गार वर्ष

ज्वालामुखी का नाम

मृतकों की संख्या

मृत्यु का प्रमुख कारण

1

सन् 79

वीसूवियस, इटली

3,360

राख प्रवाह और गिरना

2

सन् 1631

वीसूवियस, इटली

3,500

कीचड़ प्रवाह और लावा प्रवाह

3

सन् 1640

कोमोगेटाकी, जापान

700

सुनामी

4

सन् 1741

आसीमा, जापान

1,475

सुनामी

5

सन् 1772

पापाडायन, इंडोनेशिया

2,975

राख प्रवाह

6

सन् 1783

लाकी, आइसलैंड

9,350

स्ट्रावेशन

7

सन् 1783

असमा, जापान

1,377

राख प्रवाह और कीचड़ प्रवाह

8

सन् 1792

उनजीन, जापान

14,300

ज्वालामुखी का ढहना और सुनामी

9

सन् 1814

मैयोन, फिलीपाइंस

1,200

कीचड़ प्रवाह

10

सन् 1815

तामबोरो, इंडोनेशिया

92,000

स्ट्रावेशन

11

सन् 1822

गैलुनगुंग, इंडोनेशिया

4,011

कीचड़ प्रवाह

12

सन् 1845

रुईज, कोलम्बिया

700

कीचड़ प्रवाह

13

सन् 1877

कोतोपेक्सी, इक्वेडोर

1,000

कीचड़ प्रवाह

14

सन् 1883

क्राकातोआ, इंडोनेशिया

36,417

सुनामी

15

सन् 1902

माउंट पेले

2,902

राख प्रवाह

16

सन् 1902

सोउफटीर, सेंट, विसेंट

1,680

राख प्रवाह

17

सन् 1911

टाड, फिलीपींस

1,335

राख प्रवाह

18

सन् 1919

केलुद, इंडोनेशिया

5,110

कीचड़ प्रवाह

19

सन् 1951

हेमिंगटन, पापुआ न्यू गिनी

2,942

राख प्रवाह

20

सन् 1953

हिबोक-हिबोक, फिलीपाइंस

500

राख प्रवाह

21

सन् 1963

अगुंग, इंडोनेशिया

1,184

राख प्रवाह

22

सन् 1982

एल चिकोन मैक्सिको

2,000

राख प्रवाह

23

सन् 1985

रुईज, कोलम्बिया

23,000

कीचड़ प्रवाह

24

सन् 1991

पिनाटूबो, फिलीपाइंस

800

छत का गिरना और बीमारियां

 



ज्वालामुखी उद्गार के बारे में वैज्ञानिक विस्तृत रूप से सूचनाओं को लिपिबद्ध करते हैं। वे अक्सर लावे और गैसों का तापमान मापते हैं और उद्गारित लावा स्रोत ऊंचाई मापने के साथ ज्वालामुखी से निकलने वाली राख और लावा के बहाव दर का अनुमान लगाते हैं। ज्वालामुखी उद्गार की इन प्रक्रियाओं को पूरी तरह से अभिलेखित करने के लिए वैज्ञानिक समय-समय पर इनका अवलोकन करते रहते हैं। इस प्रकार के दस्तावेज़ या प्रलेख किसी दिए गए ज्वालामुखी उद्गार के प्रकार के बारे में किसी व्यवहारिक गुणों वाले नमूनों के निर्माण में सहायक हो सकते हैं। कुछ साहसी वैज्ञानिक ज्वालामुखी अध्ययन की प्रक्रिया के दौरान अपना जीवन भी खो देते हैं।

ज्वालामुखी निगरानी का कार्य मानवीय आंखों से ना सही लेकिन यथार्थ और उन्नत उपकरणों द्वारा संभव है। ज्वालामुखी निगरानी की प्रक्रिया में ज्वालामुखी परिघटना का विश्लेषण और उसका विवरण सम्मिलित है। इन अवलोकनों में सतही हलचल जैसे भूकंप (विशेषकर लोगों द्वारा अनुभव किए जाने वाले छोटे भूकंप), गैस संघटन में बदलाव, लावे की हलचल से दाब और तनाव के कारण स्थानीय विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्रों में बदलाव होना शामिल होता है।

उपग्रह में रखे विकिरणमापी, स्पेक्ट्रममापी (स्पेक्ट्रोमीटर) और व्यतिकरणमापी जैसे उपकरण अंतरिक्ष से धरती के करीब 500 सक्रिय ज्वालामुखियों पर नजर रखते हुए इनके संबंध में लगातार सूचनाएं प्रेषित करते रहते हैं। वे दीर्घकालीन निगरानी और विस्तृत चित्रों और दृश्यों से लगातार सूचना प्रेषित करते रहते हैं। संग्रहित आंकड़े एक समय के बाद कम्प्यूटर एनिमेशन द्वारा विविध परिवर्तनों के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

नासा के पृथ्वी अवलोकन व्यवस्था (अर्थ ओबसर्विंग सिस्टम) के भाग के रूप में दिसम्बर 1999 में प्रक्षेपित किए गए टेरा नामक उपग्रह में उन्नत स्पेशबोर्न तापीय उत्सर्जन और परावर्तन ऊर्जामिति (स्पेशबोर्न थर्म एमिशन एंड रिफ्लेकशन रेडियोमीटर) नामक चित्रण उपकरण रखा गया था। इसका उपयोग भूपृष्टीय तापमान, विकिरण उत्सर्जन, परावर्तकता और उत्थान के संबंध में विस्तृत नक्शों का निर्माण करने में किया जाता है। ये नक्शे वैज्ञानिकों को विश्वव्यापी ज्वालामुखियों पर निगरानी रखने में सहायक होते हैं। उड़ते टेरा उपग्रह में बहुआयामी चित्रण के लिए स्पेक्ट्रमी ऊर्जामिति भी था। यह उपकरण समकालिक नौ कोणीय स्थानों से प्रत्येक कोण से पृथ्वी के विस्तृत चित्र चार अलग-अलग रंगों में बनाता है। अंतरिक्ष से यह बहुआयामी चित्रण प्रौद्योगिकी पिच्छक में निहित बहुत छोटे वायुकणों को भी खोज लेती है।

सन् 2000 के फरवरी महीने में स्पेश शटल एंडीएवोर द्वारा प्रेषित शटल रेडार टोपोग्राफी मिशन (अंतरिक्षयान रेडार स्थलाकृति मिशन) में रेडार व्यतिकरणमापी का उपयोग किया गया था। रेडार द्वारा दो आंशिक भिन्न सतहों से लिए गए चित्रों से सतही उत्थान की गणना की जा सकती है। ज्वालामुखियों के तीन आयामी आकार से उद्गार का प्रकार, राख बहाव और क्षरण व्यवस्था से बहुत महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध होती है।

यूरोपीयन सुदूर संवेदी उपग्रह द्वारा शोधकर्ताओं ने कृत्रिम द्वारक राडार व्यतिकरणमापी से ज्वालामुखी के ‘सांसे’ लेने की प्रणाली या ज्वालामुखी के अंदर या इसकी गहराई में होने वाले परिवर्तनों जिनके कारण इसकी सतह फैलती या सिकुड़ती है, को देख कर इस संबंध में आंकड़े एकत्र किए।

भौमेतर ज्वालामुखी गतिविधियाँ


पृथ्वी के अलावा अंतरिक्ष में जीवन को तलाशने के दौरान चाहे कुछ भी उचित परिणाम हाथ नहीं लगा हो लेकिन भौमेतर ज्वालामुखियों की खोजने के संदर्भ में यह बात सही नहीं है। पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा स्थान नहीं है जहां ज्वालामुखीय गतिविधियाँ देखी गई हैं। पृथ्वी के समान अन्य ग्रहों पर भी ज्वालामुखी हो सकते हैं।

चांद


प्रायः यह माना जाता है कि पृथ्वी के एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चांद पर कोई बड़ा ज्वालामुखी नहीं है। ऐसा कोई भी प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिससे चांद पर ज्वालामुखी सक्रियता की पुष्टि हो सके। फिर भी यह सुझाया जाता है कि चांद की क्रोड आंशिक रूप से तरल हो सकती है। मारीया पर (चांद पर देखा गया अंधकारमय भूखंड) क्षुद्र चंद्र घाटियों और गुंबदी ज्वालामुखियों की उपस्थिति की संभावना व्यक्त की गई है। चांद की सतह पर नहरों समान संकरी क्षुद्र चंद घाटियां देखी गई है। इनके अलावा ‘चंद्र गुंबद’ गुंबदी ज्वालामुखी का एक प्रकार है, जो ज्वालामुखी के समीप स्थित सिलिका समृद्ध उच्च श्यान लावा के धीरे-धीरे ठंडा होने पर बनता है। चंद्र गुंबद, मध्य बिंदु से सैकड़ों मीटर ऊंचे उठे ढाल के साथ चौड़ा, गोलीय वृत्तीय दरार वाला होता है।

शुक्र ग्रह


यह माना जाता है कि शुक्र ग्रह की सतह के आकार निर्धारण में ज्वालामुखी सक्रियता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शुक्र ग्रह की नब्बे प्रतिशत सतह अतिसाश्म (बेसाल्ट) प्रकृति की है।

नासा के मेजैलैन अंतरिक्षयान (1990-1994) ने शुक्र ग्रह के उच्च विस्तृत नक्शे को बनाने के लिए उन्नत चित्रण रेडार का उपयोग किया था। शुक्र ग्रह की सतह के चित्रों के विश्लेषण से पता लगता है कि इसकी अधिकतर सतह ज्वालामुखी पदार्थों से बनी है। शुक्र ग्रह पर वृहद लावा मैदान, छोटे लावा गुंबद के क्षेत्र और बड़े गुबंदी ज्वालामुखी मिलना सामान्य है। लावे की 6000 किलोमीटर से अधिक लंबी नहर यह संकेत देती है कि यहां उच्च श्यान लावा का नदी जैसा बहाव शायद उच्च दर से निकले लावे के कारण हो। इस ग्रह पर मालपूआ के आकार के बड़े ज्वालामुखी गुम्बद की उपस्थिति यहां भूपृष्ठ की चट्टानों के भारी उत्थान से इस प्रकार के लावा के निर्माण का संकेत देती है। यह माना जाता है कि लगभग 50 करोड़ वर्ष पूर्व बहुत विशाल ज्वालामुखी उद्गार से शुक्र ग्रह की नई पर्त पुनः बनी होगी।

शुक्र ग्रह पर स्थलीय प्लेट विवर्तनिक के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इस ग्रह की प्लेट विवर्तनिकी वैश्विक कटक क्षेत्रों, अनेक विस्तृत क्षेत्रों और प्रावार से मैग्मा के उत्प्रवाह और विलोपन से बनने वाली निम्न गुंबद के समान ‘किरीट’ संरचना से समृद्ध है।

शुक्र ग्रह पर ज्वालामुखी की भूमिका और इसकी विवर्तनिकता को समझने के लिए मेजैलैन उच्च-विश्लेषण वैश्विक चित्रण (मेजैलैन रिशोल्यूशन ग्लोबल इमेज) के अध्ययन से पर्याप्त जानकारी मिलती है।

मंगल ग्रह


मंगल ग्रह पर भी कई निष्क्रिय ज्वालामुखी खोजे गए हैं। जिनमें पिछले लाखों वर्षों के दौरान कोई ज्वालामुखीय सक्रियता नहीं देखी गई है। अरसीय मोन्स, एसक्रेईअस मोन्स, हिकेटेस धोलुस, ओलम्पस मोंस और पावोनिस गुंबदी ज्वालामुखी के उदाहरण हैं। ये पृथ्वी पर पाए जाने वाले किसी भी ज्वालामुखी से बड़े हैं। कुछ वर्षों पूर्व युरोपियन मार्स एक्सप्रेस स्पेशक्राफ्ट द्वारा मंगल ग्रह पर ज्वालामुखी सक्रियता संबंधी प्रमाण खोजे गए हैं।

नासा के मंगल अन्वेषण रोवर स्पिरिट अंतरिक्ष यान ने मई, 2007 में मंगल की पर्तदार आधारशैल प्लेट, जिसे ‘होम प्लेट’ कहा जाता है, पर बहुत पुराने ज्वालामुखी विस्फोट के प्रमाण खोजे हैं। मंगल रोवर्स द्वारा पहली बार ज्वालामुखी अवसाद को पूर्ण विश्वास के साथ पहाचाना गया है।

बृहस्पति


बृहस्पति ग्रह का उपग्रह आइओ सौरमंडल में सर्वाधिक ज्वालामुखी सक्रियता वाला पिंड हैं। अनेक ज्वालामुखियों की उपस्थिति के कारण अइओ की संपूर्ण सतह पर लावा उपस्थित है। आइओ के ज्वालामुखियों से सल्फर, सल्फर डाइऑक्साइड और सिलिका चट्टानें उद्गारित हुई थीं। आइओ के ज्वालामुखी द्वारा उद्गारित लावा सौरमंडल के किसी भी ज्वालामुखी से उद्गारित लावे से अधिक गर्म था, जिसका तापमान 1,500 डिग्री सेल्सियस से अधिक था।

वैज्ञानिकों ने आइओए की ज्वालामुखी गतिविधियों का समीप से अध्ययन किया है। सन् 1999 में नासा के गैलिलियो अंतरिक्ष यान द्वारा आइओ के ज्वालामुखी विवर के चित्र लिए गए थे। यहां के प्रमीथस नाम के ज्वालामुखी में हवाई द्वीप के किलुई ज्वालामुखी के समान अभिलक्षण देखे गए थे।

फरवरी 2001 में सौरमंडल के सबसे विशाल ज्वालामुखी उद्गार की घटना आइओ उपग्रह पर घटित हुई थी। लेकिन यह पहला मौका नहीं था जब वैज्ञानिकों ने इसके ‘वलय पार्श्व’ को देखा था। सन् 1979 में नासा के एक अंतरिक्ष यान वोयागर प्रथम ने रोचक और असामान्य खोज की थी। इस यान ने आइओ के बहुत से उद्गारित ज्वालामुखियों में से नौ ज्वालामुखियों का अवलोकन किया था। इस यान के चार महीनों बाद वोयागर द्वितीय अंतरिक्ष यान द्वारा उनमें से कम से कम छह ज्वालामुखियों को लगातार उद्गारित होते देखा गया था। वोयागर से रा-पेटेरा गुंबदी ज्वालामुखी के चित्रों में इसके घने केंद्रीय ज्वालामुखी मुख से करीब 320 किलोमीटर दूरी तक उद्गारित हो रहे रंग-बिरंगे बहाव को दिखाया गया था।

बृहस्पति ग्रह के अन्य उपग्रह यूरोपा पर भी सक्रिय ज्वालामुखियां हैं। इस उपग्रह में ज्वालामुखी सक्रियता तब ही रुकती है जब इस उपग्रह की ठंडी सतह पर पानी जम कर बर्फ में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रक्रिया को हिम ज्वालामुखी के नाम से जाना जाता है।

वरुण (नेप्चयून)


सन् 1989 में अंतरिक्ष यान वोयागर द्वितीय ने वरुण के प्राकृतिक उपग्रह टाईटन पर हिम ज्वालामुखी को देखा। हिम ज्वालामुखी, प्राकृतिक हिम उपग्रह या फिर संभवतः निम्न तापमान वाले खगोलीय पिंडों पर बनते हैं। ये ज्वालामुखी जल, अमोनिया और मिथेन को उद्गारित करते रहते हैं। उद्गारित पदार्थ हिम ज्वालामुखी या हिम मैग्मा के पिघलने पर तरल पदार्थ के रूप पिच्छक से निकलते हैं, किंतु यह वाष्प रूप में भी हो सकते हैं।

शनि (सैटर्न)


सन् 2005 में कैसीनों-ह्यगन प्रोब यान ने शनि ग्रह के प्राकृतिक उपग्रह (चांद) इनके लाडस पर जमे हुए उद्गारित कणों वाले फव्वारे का चित्र लिया था। इस चित्र के द्वारा वैज्ञानिकों ने उस क्षेत्र के केंद्र में ज्वालामुखी कुंड जैसे घनी दरार देखी। ये उद्गारित पदार्थ पानी, द्रव नाइट्रोजन, घूल, और मिथेन जैसे यौगिकों का मिश्रण होता है।

यदि ज्वालामुखी विज्ञान का आरंभ प्लानी दि यंगर द्वारा टेकिट्स को लिखे 79 ईसा के विसूवियस ज्वालामुखी उद्गार के उचित विवरण से आरंभ माना जाए तो आज ज्वालामुखी विज्ञान पृथ्वी की सीमाओं से परे पहुंच गया है। इसके लिए मानव के अंतरिक्ष अन्वेषण कार्यक्रम को धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिए।