काला आज़ार

Submitted by Hindi on Tue, 08/09/2011 - 11:37
काला आज़ार यह रोग काला ज्वर, काला रोग, सरकारी बीमारी, साहेब रोग, बर्दवान ज्वर, डमडम ज्वर, ट्रॉपिकल स्प्लीनो मेंगैली या (ग्रीस में) पोनस के नाम से प्रसिद्ध है।यह एक प्रकार का संक्रामक ज्वर है जो बालू मक्षिका (Sand Fly) के काटने से फैलता है। इस ज्वर का कारण लीशमैन डानोवान बॉडीज़ या लीशमैनिया डानोवाई नामक जीवाणु होते हैं। लीशमैन और डानोवन, दो वैज्ञानिकों ने काला आज़ार के जीवाणु की खोज की। इससे इस जीवाणु का नाम इन्हीं वैज्ञानिकों के नाम पर रखा गया है।

काला ज्वर देश देशांतरों में फैला हुआ है। भारतवर्ष में यह विशेष रूप से हिमालय की तराई, असम, बंगाल, उड़ीसा और बिहार में होता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वीय भाग में, इलाहाबाद और लखनऊ तथा मद्रास में भी यह पाया जाता है। बर्मा, चीन, अफ्रीका, सूडान, मिस्र, सिसली, तुर्किस्तान, बलगेरिया, हंगरी, पैलेस्टाइन, चेकोस्लोवाकिया, दक्षिणी फ्रांस, पुर्तगाल, ग्रीस, रूस और दक्षिणी अमरीका में भी काला आज़ार पाया जाता है।

इस रोग का कोई निश्चित उद्भवनकाल नहीं है। यह प्राय: एक से छह महीने तक का होता है। कभी-कभी एक या दो साल तक भी बढ़ जाता है।

लक्षण- रोग का आरंभ धीमें-धीमें ज्वर या ज्वर के तीव्र आक्रमण से होता है। जब एकाएक तीव्रता से ज्वर आता है तब उसके पहले सर्दी लगती है और कभी-कभी वमन होता है। इस ज्वर की मुख्य पहचान यह है कि 24 घंटे में दो बार ज्वर चढ़ता उतरता है। ऐसा ज्वर दो सप्ताह से डेढ़ दो मास तक नित्य रहता है, तदनंतर कुछ काल तक ज्वर बिलकुल नहीं रहता किंतु प्लीहा और यकृत दोनों बहुत बढ़ जाते हैं। पहले ये कोमल रहते हैं पर बाद में कड़े हो जाते हैं। भूख ठीक लगती है, जिह्वा साफ रहती है परंतु पाचन शक्ति निर्बल हो जाती है। शरीर की ग्रंथियाँ बढ़ जाती हैं और शरीर का रंग भी काला पड़ने लगता है। जब ज्वर नहीं रहता तब पसीना बहुत आता है। फिर ज्वर जाड़े के साथ तीव्रता से आता है। इसी प्रकार से बार-बार महीनों ज्वर आने और उतरने से रोगी अत्यंत निर्बल होकर हड्डियों का कंकाल मात्र रह जाता है। इसको लोग प्राय: मलेरिया ज्वर समझकर कुनैन का प्रयोग करते हैं परंतु उससे कुछ लाभ नहीं होता। हाथ पैर में दर्द रहने से गठिया की संभावना होती है। शरीर में शोथ आ जाता है। रक्त की न्यूनता हो जाती है। हृदय फैल जाता है। नित्य ज्वर 102 डिग्री के लगभग रहता है। सिर के बाल रूखे हो जाते हैं, बिखरे रहते हैं और झड़ने लगते हैं। रक्तस्राव होने की संभावना रहती है। चेहरे और त्वचा का रंग अधिक काला हो जाता है। अंत में पेचिश, फोड़े, फुंसी, जलोदर आदि रोग होकर शरीरांत हो जाता है।

निदान- काला आज़ार की पहचान करने में इस रोग और मलेरिया, ल्युकीमिया, आंत्रिक ज्वर (Typhoid), पुनरावर्ती ज्वर (Relapsing Fever), अंडुलैंड ज्वर तथा बैंटीज़ रोग के भेद पर ध्यान देना चाहिए। यदि प्लीहा, लसीका ग्रंथि या यकृत के रस को सूक्ष्मदर्शी में देखें तो इस रोग के जीवाणु मिल सकते हैं। फिर फ़ार्मेलि जेल परीक्षा तथा यूरिया स्टिवमीन परीक्षा का उपयोग किया जा सकता है। यदि आरंभ ही से ठीक निदान करके औषधि की जाए तो 95 प्रतिशत रोगी अच्छे हो सकते हैं।

चिकित्सा- प्रतिषेधक उपाय उपयोगी हैं। दीवार और फर्श के गड्ढे भरवा दें और मकान में सर्वत्र डी.डी.टी. छिड़कें। रोगी झोपड़ी में हो तो रोगी को हटाकर झोपड़ी को जला देना चाहिए। यूरिया स्टिबमीन उपचार (ब्रह्मचारी) सबसे उपयोगी सिद्ध हुआ है। आयुर्वेद में काला आज़ार (काला ज्वर) की कोई निश्चित चिकित्सा नहीं है।

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संदर्भ
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