पृष्ठभूमि
काला पानी का नाम सुनते ही जे़हन में आज़ादी की लड़ाई के बांकुरों की याद आना स्वाभाविक होता है। अण्डमान और नीकोबार द्वीप समूह में बनी काल कोठरियों की तस्वीरें आँख के सामने उभरने लगती हैं जहाँ देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले उन दीवानों को अंग्रेजों ने न जाने कितनी यातनाएँ दी होंगी। काला पानी की जिन्हें सजा हुई उनमें से लौटने की कल्पना शायद ही किसी ने की हो। कुछ खुशनसीब वहाँ से लौटे जरूर पर उनके दिलों में यह हसरत दबी रह गई कि देश के लिए जान कुर्बान कर देने का उनका सपना अधूरा रह गया।
सुदूर द्वीपों में बनी उन काल-कोठरियों और उससे जुड़ी त्रासदी को जिस किसी ने भी पहली बार काला पानी कहा होगा वह निश्चित ही भविष्य द्रष्टा रहा होगा। मगर बागमती नदी के किनारे बसे या उजड़े उस जगह की बात हम यहाँ करने जा रहे हैं जहाँ रहने वाले आजाद रहते हुए और खुली हवा में साँस लेते हुए भी काला पानी जैसी त्रासदी झेलने को अभिशप्त हैं भले ही वह उन्हें किसी विदेशी शासक के सामने सीधा खड़ा रहने की सज़ा के तौर पर न मिली हो। यह वह जगह है जहाँ सीतामढ़ी जिले के बेलसण्ड और रुन्नी सैदपुर प्रखण्डों की एक अच्छी खासी आबादी को काला पानी नहीं भेजा गया बल्कि काला पानी को ही उनके पास भेजदिया गया।
फर्क सिर्फ इतना ही है कि इस सज़ा के भुगतने वालों का हुकूमत की नजरों में भी कोई कसूर नहीं था। हुआ यह कि नेपाल से भारत (बिहार) में प्रवेश करने वाली बागमती नदी पर 1970 के दशक में सीतामढ़ी जिले में ढेंग से रुन्नी सैदपुर तक तटबन्ध बनाए गए। जब तटबन्ध बन गया तो उसके बाएँ किनारे में आकर मिलने वाली उसकी दो सहायक धाराओं में से एक पुरानी धार या मनुस्मारा के मुहाने के बन्द होने की नौबत आ गई। मनुस्मारा बागमती की पुरानी धार का दूसरा नाम है।
कहते हैं कि 1934 के बिहार के भूकम्प के समय पुरानी धार के पानी में कुछ गुणात्मक परिवर्तन हुए और उसका पानी जहरीला हो गया। उसके पानी में नहाने वाला या उसके पानी का किसी भी रूप में उपयोग करने वाला व्यक्ति काल-ग्रस्त हो जाता था। इस वजह से पुरानी धार को नया नाम ‘मानुष मारा’ दिया गया। यही नाम अब अपभ्रंश होकर मनुस्मारा हो गया है। बागमती की ही तरह मनुस्मारा नदी का उद्गम भी नेपाल में ही है।
बागमती नदी पर तटबन्ध बन जाने के कारण मनुस्मारा का मुहाना बन्द हो जाने वाला था और दोनों नदियों का यह संगम बाधित हो जाने वाला था। जाहिर है, सरकार ऐसा होने नहीं देती क्योंकि बागमती के बाएँ तटबन्ध द्वारा मनुस्मारा के पानी को बागमती में जाने से रोक देने पर उसका पानी या तो बड़े इलाके में पीछे की ओर फैलता और वहाँ बाढ़ और जल-जमाव की स्थिति पैदा करता या फिर मनुस्मारा बागमती के बाएँ तटबन्ध के बाहर उसके समान्तर बहने पर मजबूर होती।
इंजीनियरों ने यह तय किया कि वह मनुस्मारा और बागमती के संगम पर एक स्लुइस फाटक बना कर इस समस्या का समाधान कर लेंगे। ऐसी स्थिति में बागमती में बाढ़ की वजह से अगर स्लुइस गेट बन्द करना पड़ा तो मनुस्मारा का पानी उतने समय के लिए बागमती में नहीं जा सकेगा और तब वह पानी लखनदेई के दाहिने तटबन्ध और बागमती के बाएँ तटबन्ध के बीच में अटकेगा।
इंजीनियरों का यह मानना था कि पानी के अटकने का यह समय 70 घण्टे से ज्यादा का नहीं होगा और अगर ऐसा होता भी है तो मनुस्मारा का पानी केवल 1600 हेक्टेयर क्षेत्र पर सवा मीटर की गहराई तक फैल सकता है। जैसे ही बागमती या लखनदेई में किसी भी नदी का पानी उतरेगा तो मनुस्मारा के पानी की निकासी शुरू हो जाएगी और इस पानी की निकासी में तीन दिन से ज़्यादा का समय नहीं लगेगा। इन सारे आश्वासनों के बावजूद सरकार का यह भी कहना था कि लगभग 480 हेक्टेयर कृषि भूमि पर पानी के अटक जाने और स्थायी रूप से जल-जमाव ग्रस्त हो जाने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
फिलहाल चन्दौली गाँव के पास बागमती और मनुस्मारा के संगम स्थल पर इस स्लुइस का निर्माण पिछले 9-10 वर्षों से चालू था। वहाँ निर्माणकर्ता ठेकेदार आते-जाते रहते थे और इतने ही समय से मनुस्मारा का पानी सुरक्षित क्षेत्र में फैलता रहता है जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि वह 70 घण्टे से ज्यादा देर तक नहीं टिकेगा और सवा मीटर से ज्यादा गहरा नहीं होगा।
यह पानी अब बारहों महीनें रहता है और बरसात के मौसम में तो पूरे इलाके में लम्बे समय के लिए अटके हुए पानी की एक मोटी चादर बिछी रहती है। बरसात के बाद भी यह पूरा इलाका हरा-भरा ही दिखाई पड़ता है मगर उसमें कोई फसल नहीं होती और यह सारी हरियाली जलकुम्भी के कारण होती है जिसको थोड़ा सा हटाने पर नीचे पानी ही पानी दिखाई पड़ता है जो निकलने का नाम ही नहीं लेता। हवाई जहाज़ से बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने वाले नेताओं को यह पूरा इलाका हरा-भरा ही दिखाई देता होगा। बरसात के बाद जलकुम्भी के सूखने और सड़ने की वजह से यह इलाका दुर्गन्धयुक्त भी हो जाता है। यह पानी लगभग 10 साल पहले तक सिर्फ पानी था और अब यहाँ से इसके काला पानी बनने की दास्तान शुरू होती है।
दरवाजों पर काले पानी की दस्तक-सीतामढ़ी से ढेंग जाने के रास्ते में सीतामढ़ी से कोई 10 किलोमीटर उत्तर में रीगा नामक स्थान पर कलकत्ता के किसी व्यवसायी द्वारा स्थापित रीगा शुगर कम्पनी लिमिटेड नाम की एक चीनी मिल पड़ती है। इस चीनी कारखाने का निर्माण 1933 में हुआ था। इस कारखाने से निकला हुआ गन्दा पानी मनुस्मारा नदी में तभी से वैसे ही छोड़ दिया जाया करता था जैसा कि आजकल भी होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले यह काम साल में 4-5 बार होता था, अब इस पर कोई नियन्त्रण ही नहीं है। उन दिनों जब साल में पहली बार पानी छोड़ा जाता था तो एक ही झटके में नदी की सारी मछलियाँ मर जाती थीं जिन्हें किनारे के लोग छान लिया करते थे।
इस तरह जब बागमती नदी पर तटबन्ध नहीं बने थे तब भी कारखाने के इस अपशिष्ट से काफी नुकसान पहुँचता था। चीनी मिल के प्रति स्थानीय जनता का आक्रोश अपने चरम पर जिस तरह आज है उसी तरह आज से पचपन साल पहले भी था। तब स्थानीय विधायक दामोदर झा ने बिहार विधान सभा में इस विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा था, ‘‘...रीगा चीनी मिल का गन्दा पानी बागमती में जाने दिया जाता है जिसका नतीजा यह है कि 5 मील तक चारों ओर का पानी इतना खराब हो गया है कि आदमी को कौन कहे मवेशी भी वहाँ के पानी को नहीं पी सकते हैं और वहाँ मच्छर का इतना प्रकोप है कि सैकड़ों आदमियों को हर साल मलेरिया पकड़ लेता है और वे बीमार पड़ जाते हैं। यदि सरकार इस गन्दे पानी को बागमती में न गिरने दे तो लोग इन चीजों से छुटकारा पा सकते हैं।’’ 1955-56 के बजट प्रस्ताव पर चल रही बहस में उन्होंने एक बार फिर दुहराया, ‘‘...पर साल इसी के चलते 1,000 मन मछली एक दिन में मर गई। इस नदी के किनारे पर के जो गाँव हैं उनमें बीमारी फैलती है। एक इंच मोटी गन्दगी इस नदी के पानी पर जम जाती है और इसके चलते इस नदी के पानी में कीड़े पड़ जाते हैं... पिछले साल 15 गाँवों के लोगों ने एस.डी.ओ. के यहाँ दरख्वास्त दी थी कि रीगा चीनी मिल के गन्दे पानी छोड़े जाने के कारण नदी के पानी में कीड़े पड़ जाते हैं। इस वजह से ही इस मिल को हुक्म दिया जाय कि वह गन्दे पानी को नदी में नहीं छोड़े। एस.डी.ओ. ने जाँच करके हुक्म दिया कि इस साल तो नहीं लेकिन अगले साल गन्दा पानी नहीं छोड़े। लेकिन एस.डी.ओ. के हुक्म के बावजूद इस मिल ने इस साल भी नदी में गन्दे पानी को छोड़ दिया है और उसको कोई देखने वाला नहीं है। ...सरकार चुप्पी साधे बैठी हुई है।’’
बागमती पर तटबन्ध बन जाने के बाद मनुस्मारा ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और उसका पानी नीचे बेलसण्ड और रुन्नी सैदपुर के इलाकों में फैलना शुरू हुआ। चीनी कारखाने के अपशिष्ट का मनुस्मारा में मिल जाने के कारण इस पानी का रंग पहले काला हुआ और फिर उसमें धीरे-धीरे दुर्गन्ध भी समाने लगी। जहाँ-जहाँ यह पानी फैला वह जगह स्थानीय लोगों के बीच काला पानी नाम से प्रसिद्ध हुई। कारखाने के अपशिष्ट की पहली चोट पीने के पानी के स्रोतों पर पड़ी। फिर खेती रसातल को गई, लोगों के स्वास्थ्य पर इस गन्दे पानी का बुरा असर पड़ा, पानी का स्तर बढ़ने और उसकी निकासी न होने से यातायात बाधित हुआ और फिर स्थानीय रोजगार समाप्त हो गया। इतना सब हो जाने के बाद मज़ाक में कहे जाने वाले काले पानी पर व्यावहारिक रूप से काला पानी होने की मुहर लग गई। इस बीच न जाने कितनी सरकारें आईं और गईं जिनमें किसी न किसी समय वाम पंथियों से लेकर दक्षिण पन्थियों तक की सभी रंगों की पार्टियाँ शामिल हैं मगर इस मसले पर उनकी चुप्पी नहीं टूटी।
पानी अब बारहों महीनें रहता है और बरसात के मौसम में तो पूरे इलाके में लम्बे समय के लिए अटके हुए पानी की एक मोटी चादर बिछी रहती है। बरसात के बाद भी यह पूरा इलाका हरा-भरा ही दिखाई पड़ता है मगर उसमें कोई फसल नहीं होती और यह सारी हरियाली जलकुम्भी के कारण होती है जिसको थोड़ा सा हटाने पर नीचे पानी ही पानी दिखाई पड़ता है जो निकलने का नाम ही नहीं लेता। हवाई जहाज़ से बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने वाले नेताओं को यह पूरा इलाका हरा-भरा ही दिखाई देता होगा। हालत बद-से-बदतर हुई-रीगा शुगर मिल लिमिटेड द्वारा फैलाए गए प्रदूषण से स्थानीय जनता पहले से ही परेशान थी मगर इस परेशानी को पहले से भी ज्यादा गम्भीर बना दिया 2000 में मधकौल के पास बागमती के बाएँ तटबन्ध में पड़ी एक दरार ने। इस गैप से निकले पानी और उसके साथ आई गाद ने मनुस्मारा के मुहाने को चन्दौली, कन्सार और बेलसण्ड के बीच पूरी तरह बन्द कर दिया जिसकी वजह से नदी की धारा मुड़ गई और मनुस्मारा बेलसण्ड के आस-पास के आवासीय और कृषि क्षेत्रों से होते हुए पूरब की ओर राष्ट्रीय उच्च पथ सं. 77 की ओर चली गई। अब मनुस्मारा नदी का पानी डुमरिया घाट, हनुमान नगर, चन्दौली, सरैया, गोठवारा, दयानगर, हिरदोपट्टी, बाराडीह, रामनगर, धापर, गणेशपुर, भादा, कुईं, अथरी, रैन विष्णु, गरगट्टा, रामपुर, माधोपुर और रुन्नीसैदपुर होते हुए राष्ट्रीय उच्च पथ 77 को बसतपुर पुल से होते हुये सैदपुर फार्म के पास धरहरवा-पर्री मार्ग के पुल को पार करता हुआ लखनदेई में जा मिला मगर इस रास्ते से उसके पानी की निकासी जैसे-तैसे ही हो पाती थी। 2003 तक मनुस्मारा के प्रवाह के काफी हिस्से को लखनदेई तक पहुँचाने में क्रमशः मरने धार और सोनपुरवा नाला अहम भूमिका निभाते थे। 2004 में चन्दौली के पास बागमती का बायां तटबन्ध टूटा तो बाढ़ के पानी और गाद ने मरने धार को भी पाट दिया।
इस तरह से मरने धार और सोनपुरवा नाले का भी सम्बन्ध समाप्त हो गया। चन्दौली में बागमती का टूटा तटबन्ध बाँध दिए जाने के बाद अब मनुस्मारा का पानी चन्दौली, रामनगर, पचनौर, अथरी, रैन विष्णु, रुन्नीसैदपुर उत्तरी तथा मध्य और बेलसण्ड प्रखण्ड के अधिसूचित क्षेत्र के बड़े भाग पर फैला हुआ है जहाँ खेती पूरी तरह चैपट है और अधिकांश रिहाइशी इलाका चारों ओर से काले रंग के प्रदूषित पानी से घिरा हुआ है जहाँ निकासी का रास्ता बहुत संकरा और छिछला है।
2004 की बाढ़ में यह पानी धरहरवा के पास के सड़क पुल को बहा ले गया और सरकार ने इस पुल को दुबारा बनवाने की जगह इस गैप को ही भर दिया। अब मनुस्मारा का आगे बढ़ने का रहा-सहा रास्ता भी बन्द हो गया मगर नदी है तो वह कहीं न कहीं तो जाएगी। अब उसने दक्षिण की ओर मुड़ कर पर्री, गंगुली, घघरी, घनश्यामपुर, कल्याणपुर, मधुबन बेसी, हरपुर बेसी, रमनगरा, बिशुनपुर, राजखण्ड, माधोपुर, खेतलपुर आदि गाँवों की ओर रुख किया और इन गाँवों को तबाह करते हुये औराई प्रखण्ड में फिर लखनदेई में जा मिली।
जल-जमाव अब पहले से भी ज्यादा गम्भीर स्थिति में पहुँच गया। प्रदूषण तो अपनी जगह बना ही हुआ था। समस्या का कोई निदान न होते देख बाढ़ पीड़ितों के एक संगठन बागमती बाढ़ पीड़ित संघर्ष समिति (रुन्नी सैदपुर-सीतामढ़ी) ने प्रशासनिक आयुक्त को ग्यारह सूत्री एक मांग पत्र दिया जिसमें अन्य बहुत सी माँगों के साथ यह भी कहा गया, ‘‘...रीगा शराब फैक्ट्री (डिस्टिलियरी) से दूषित जल को मनुस्मारा नदी में प्रवाह को अविलम्ब रोका जाय और शुद्धिकरण संयन्त्र से प्रदूषित जल को साफ कराने के बाद ही उसे मनुस्मारा नदी में प्रवाहित करने की इजाजत दी जाय अन्यथा बागमती नदी के अधूरे तटबन्धों को ही ध्वस्त करा दिया जाय।’’
काला पानी क्षेत्र के एक कार्यकर्ता राम तपन सिंह ने एक बार राज्य के एक मन्त्री से पूछा था कि आपकी सरकार बड़ी है या रीगा की चीनी मिल बड़ी है? यही प्रश्न जब कई बार विधायक और मन्त्री रहे क्षेत्र के प्रभावशाली नेता रघुनाथ झा से पूछा गया तब उनका दो टूक जवाब था कि ‘मिल मालिक सारी चीज़ें मैनेज कर लेता है तो वही बड़ा है न सरकार से’।
इतना सब हो जाने के बाद 2000 में सरकार की समझ में आया कि मनुस्मारा के पानी को कहीं भी चले जाने के लिए रास्ता चाहिए वरना उससे होने वाली तबाही बदस्तूर जारी रहेगी। वर्ष 2000 में राज्य के जल-संसाधन विभाग ने जल-जमाव हटाने के लिए एक विस्तृत योजना बनानी शुरू की जिसके बारे में हम आगे बात करेंगे। यह योजना अभी तक क्रियान्वित नहीं हो पायी है (जून 2010)। यही वजह है कि सरकार ने मनुस्मारा की जल-निकासी योजना का प्रारूप तय करने का निश्चय किया मगर रीगा की चीनी मिल को फिर भी हाथ नहीं लगाया। सरकार की समझ में यह बात अभी तक नहीं आई है कि यह पानी सिर्फ पानी नहीं है, यह जहरीला पानी है और इसे जहरीला बनाने में केवल रीगा शुगर कम्पनी लिमिटेड का हाथ है।
अब योजना अगर पूरी हो गई तो पानी तो शायद निकल जाएगा मगर उसके साथ-साथ रीगा शुगर कम्पनी द्वारा छोड़ा गया मीठा जहर भी उसके पीछे-पीछे जाएगा। मनुस्मारा से बीस गुना जल-जमाव-बहरहाल, काले पानी से जल-निकासी की जो योजना बनी है (2006) उसमें कई जल-निकासी नालों की मदद से इलाके में जमा पानी को लखनदेई में गिराने का प्रस्ताव है।
इस योजना को बनाने के क्रम में जल-संसाधन विभाग को पता लगा कि जिस 470 हेक्टेयर कृषि भूमि के स्थाई रूप से जल-जमाव से ग्रस्त हो जाने की उसे आशंका थी वह ज़मीन उससे कहीं ज्यादा थी और अब अनुमान किया गया कि खरीफ के मौसम में 6840 हेक्टेयर, रबी के मौसम में 1500 हेक्टेयर और गर्मी के मौसम में 570 हेक्टेयर कृषि भूमि (कुल 8910 हेक्टेयर) पानी में फँस गई है। इस जमीन पर उगने वाली फसल की 2001 में कीमत 12.17 करोड़ रुपये आंकी गई थी।
अब अगर फसल के इतने नुकसान को ही मानक और स्थिर मान लिया जाय तो भी पिछले दस वर्षों में बागमती परियोजना और रीगा शुगर कम्पनी की कृपा से केवल खेती को 122 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। एक छोटे से इलाके से इतनी सम्पत्ति का नुकसान अगर हो जाए तो वहाँ की अर्थ व्यवस्था को तहस-नहस होने में कितना समय लगेगा? इसके अलावा घरों और सम्पर्क मार्गों की क्षति, मनुष्यों और जानवरों की क्षति, पीने के पानी की दिक्कत, स्वास्थ्य पर कुप्रभाव, शिक्षा का अभाव, बेरोजगारी, महाजनों के कर्ज के अन्दर आकंठ डूबे रहना इस काले पानी वाले इलाके के लोगों की नियति है। इनमें से कुछ चीजों की पैसे में कीमत लगाई जा सकती है, कुछ चीजों को सिर्फ महसूस किया जा सकता है और कुछ चीजें सीधे-सीधे शब्दों में अनमोल हैं, उनका मूल्य लगाने की कोशिश ही मानव जाति का अपमान होगा।
इस सारी परिस्थिति को स्वयं देखे बिना समझ पाना बड़ा मुश्किल है। समाधान का प्रयास जारी है-काला पानी की जल-निकासी के वर्षों से अनवरत प्रयास करने वाले अथरी गाँव के राम सेवक सिंह इस पूरी योजना की अद्यतन स्थिति बताते हुए कहते हैं, ‘‘...काला पानी की जल-निकासी का प्रस्ताव बिहार सरकार ने केन्द्र के पास भेजा था जिसे उसने यह कह कर लौटा दिया कि इस योजना की लागत दस करोड़ रुपए से कम है इसलिए केन्द्र इसके लिए पैसा नहीं देगा। तब बिहार सरकार का कहना है कि हम इसे नरेगा के तहत पूरा करवा लेंगे। राज्य सरकार ने जल संसाधन विभाग को यह प्रस्ताव भेजा और मुझे एक पत्रा दिया कि मैं जाकर सीतामढ़ी के कलक्टर से मिल लूँ और यह काम हो जाएगा। मैंने पूछा कि इस योजना में तो कच्चा और पक्का दोनों तरह का काम है और प्रखण्ड का बजट सीमित होगा। तब यह काम कैसे हो पाएगा? तब मुझे बताया गया कि यह कलक्टर की क्षमता में है कि वह जिला स्तर पर इस काम को करवा सकेगा। इस योजना को लेकर मैं बागमती परियोजना के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर से मिला। उनका कहना था कि नरेगा के अन्तर्गत पक्के और कच्चे कामों का अनुपात 40ः60 का होता है लेकिन इस काम में 30 और 70 का अनुपात होगा क्योंकि ज्यादा काम मिट्टी का है। दूसरी बात यह है कि हमारा मिट्टी का काम मानव श्रम से नहीं बल्कि मशीन से होगा क्योंकि यहाँ मिट्टी खोदने पर तुरन्त पानी निकल आएगा। मैं जब उनसे फिर मिला तब उन्होंने बताया कि इस विषय पर पटना में एक मीटिंग हुई थी और कलक्टर को इस आशय का एक पत्र निर्गत हुआ है। यदि कोई और बाधा नहीं पड़ती है और लोग आपत्ति नहीं करते हैं तो अब यह काम हो जाना चाहिए पर अब तो जो कुछ भी होगा बरसात (2010 की बरसात) के मौसम के बाद ही होगा।’’
समस्या दूसरी जगह जाएगी-काला पानी क्षेत्र के किसानों की वर्षों से जो दुर्गति हो रही है उसके लिए यह जरूरी है उनके उद्धार के लिए इस योजना का जल्द-से-जल्द क्रियान्वयन हो जाए। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है जिसे नज़रअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए।
बिहार सरकार के भूतपूर्व मन्त्री गणेश प्रसाद यादव वह दूसरा पक्ष बताते हैं, ‘‘...काला पानी के ड्रेनेज के बारे में इधर नीचे के लोगों को पता नहीं है कि अगर उसकी निकासी कर दी जाती है तो वह सारा-का-सारा जहरीला पानी इधर से ही होकर गुज़रेगा और यहाँ के पर्यावरण को उतना ही नुकसान पहुँचाएगा जितना वहाँ पहुँचा रहा है। अगर यह बात यहाँ के लोगों को पता लग भी जाए तो वह क्या कर लेंगे? मुर्दों की बस्ती में आप किस-किस को आवाज़ दीजिएगा? इनका सब कुछ लूट लीजिए, बस एक क्विन्टल अनाज दे दीजिए तब यह लोग सारे कष्ट भूल जाएँगे। अब न तो कोई सामाजिक संरचना बाकी बची है और न कोई राजनैतिक संगठन ही मौजूद है जो इन सब बातों के खिलाफ आवाज उठा सके। दलालों को छोड़ कर अब ब्लाॅक में कोई जाता ही नहीं है। अफसर वहाँ रहता नहीं है, जब अफसर नहीं रहेगा तो कर्मचारी कहाँ से रहेगा?’’
कितनी मजबूर है व्यवस्था? हमारी पूरी व्यवस्था, हमारे विधायक, हमारे मन्त्री, हमारी प्रयोगशालाएँ, हमारा जल-संसाधन विभाग, हमारा जिला अधिकारी, हमारा राज्य प्रदूषण नियन्त्रण पर्षद या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कितना मजबूर है एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान के सामने? राज्य का जल-संसाधन विभाग चौदह करोड़ रुपयों की लागत से चन्दौली में बागमती के बाएँ तटबन्ध में एक स्लुइस गेट का निर्माण लगभग पूरा कर चुका है। अगर उसे इस स्लुइस गेट की कार्य क्षमता पर भरोसा होता तो वह जल-निकासी की वैकल्पिक योजना नहीं बनाता। इंजीनियरिंग पहेलियाँ बुझाने का पेशा नहीं है, उसके आदर्श अलग हैं।
जल-निकासी वाली योजना की अपनी समस्याएँ हैं, उस रास्ते से जाने वाला पानी प्रदूषित ही होगा और वह इस पूरे रास्ते के भूमिगत पानी को प्रदूषित करता हुआ ही आगे बढ़ेगा। इस जहरीले पानी से जमीन भी अछूती नहीं रहेगी। इन सारी परेशानियों से बचने का एक ही रास्ता है कि रीगा की शुगर मिल पर शिकंजा कसा जाए लेकिन क्योंकि वह सरकार समेत सभी संस्थाओं से बड़ी है इसलिए उसके गले में घण्टी बाँधना मुश्किल है।
रीगा शुगर मिल की हिमायत करने वाले लोगों की भी कमी नहीं है। उनमें से बहुत से लोगों का यह मानना है कि बिहार में वैसे भी उद्योगों का अकाल है और जो भी उद्योग यहाँ कार्यरत हैं उनको अगर किसी किस्म की परेशानी होती है तो यह राज्य और यहाँ की जनता के हित में नहीं होगा। इस शुगर मिल के साथ उन किसानों के भी हित जुड़े हुए हैं जिनके खेत का गन्ना इस मिल में पेराई के लिए आता है।
यह दोनों ही कारक सरकार के लिए चिन्ता का विषय होने चाहिए और बहुत मुमकिन है कि मिल के प्रति नर्म रुख रखने का यह कारण भी हो। यदि इसमें थोड़ी सी भी सच्चाई हो और सरकार सचमुच इतनी मजबूर है तो क्यों नहीं वह अपना एक समुचित क्षमता का शोधक यन्त्र चीनी कारखाने में बैठा देती है जिसका संचालन उसकी अपनी देख-रेख में हो। उस हालत में चीनी मिल के जिस कचरे से लाखों लोगों का अहित हो रहा है या जिसके गन्दे पानी की निकासी से नए-नए क्षेत्रों में भविष्य में नुकसान होगा उससे लोगों का कम से कम बचाव तो होगा और पारस्परिक संघर्ष भी न रुकेंगे। सरकार इस काम का पूरा खर्च अपनी निर्धारित शर्तों पर चीनी मिल से वसूल सकती है।
अन्यथा ऐसी हालत में हम सबको मिल कर यही दुआ करनी चाहिए कि चन्दौली वाला स्लुइस कुछ हद तक काम करे और कुछ हद तक जल-निकासी की बाकी योजना भी कामयाब हो जाए ताकि उस इलाके के किसानों की जीवन धारा फिर उनके ढर्रे पर लौट आए। चीनी मिल अपनी हरकतों से बाज आए उसके लिए जो राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिए वह 1955 से अब तक की सरकारों में देखने में नहीं आई है। दूसरा तरीका जन-संगठन का है।
हमारे दिनों दिन बिखरते समाज में जन-आकांक्षाएँ इन शोषक शक्तियों को कब उनकी औकात बता पाएँगी, यह भविष्य ही बता पाएगा।