कालिंजर का प्रसिद्ध गिरिदुर्ग बाँदा नगर से दक्षिण 35 मील की दूरी पर स्थित है। स्थान अत्यंत प्राचीन है और राजनीतिक एवं धार्मिक इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पद्मपुराण, वामनपुराण, शिवपुराण और महाभारत आदि में इसका उल्लेख इसकी धार्मिक महत्ता का द्योतक है। यहाँ चट्टान काटकर बनाई नीलकंठ महादेव की विशाल प्रतिमा है। हिरण्यविंदु, कोटितीर्थ, पातालगंगा, सीताकुंड आदि तीर्थो ने इसकी पवित्रता को बढ़ाया है। श्री कालभैरव की विशालकाय मूर्ति पर जटाजूट आदि में सर्पो के हार और वलय दर्शनीय हैं। अनेक भव्य चतुर्मुख शिवलिंग भी यहाँ मिले हैं।
मौखरि वंश के राज्यकाल में कालिंजर संभवत: एक मंडल के रूप में था। प्रतिहारों के समय में यह कान्युकब्ज की भुक्ति के अंतर्गत था। जब प्रतिहारों की शक्ति क्षीण होने लगी तो चंदेलों और राष्ट्रकूटों ने इसे अपने अधिकार में लाने का प्रयास किया। अंतत: चंदेलराज यशोवर्मन् ने इसे जीत लिया। चंदेलों के समय के अवशेष यहाँ काफी संख्या में मिले हैं।
परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि कालिंजर के दुर्ग का निर्माण चंदेल वंश के संस्थापक राजा चंद्रवर्मन् ने करवाया था, किंतु इस कथन में विशेष सत्यता प्रतीत नहीं होती। आरंभ में यह स्थान केवल तीर्थ रूप में था, और यहाँ के सबसे प्राचीन अभिलेख मंदिरों और मूर्तियों पर हैं। किंतु यह स्थान दुर्ग के लिए भी उपयुक्त है। अत: इस प्रदेश के किसी प्राचीन शासक ने इस स्थान पर दुर्ग बनवाया होगा। चंदेलों ने यशोवर्मन् के समय सर्वप्रथम इस दुर्ग का हस्तगत किया। उनके समय कालिंजर के दुर्ग और नगर दोनों की ही पर्याप्त वृद्धि हुई। जब महमूद गज़नवी ने बुदेलखंड पर आक्रमण किया तो इसी दुर्ग में रहकर चंदेलराज विद्याधरने दो बार उसके विजयप्रयास को विफल किया था। सन् 1203 में परमाल चंदेल को हराकर कुतुबुद्दीन ने कालिंजर को जीत लिया और यहाँ के अनेक मंदिरों को नष्टभ्रष्ट किया। किंतु चंदेलों ने कुछ समय के बाद दुर्ग वापस ले लिया और दिल्ली के सुल्तानों को सन् 1234 और 1251 में फिर इसपर आक्रमण करना पड़ा। सन् 1530 में हुमायूँ ने इसपर घेरा डाला। सन् 1545 में शेरशाह कालिंजर के सामने ही बारूद के फटने से मर गया। इसके बाद यह मुगलों, बुंदेलों और मराठों के हाथों होता हुआ अंग्रेजों के हाथ लगा। अब यह उत्तर प्रदेश राज्य का अंग है। वहाँ बाँदा से कालिंजर सड़क के रास्ते जाना पड़ता है। लगभग 23 मील पक्की सड़क और उसके बाद कच्चा रास्ता है।
मौखरि वंश के राज्यकाल में कालिंजर संभवत: एक मंडल के रूप में था। प्रतिहारों के समय में यह कान्युकब्ज की भुक्ति के अंतर्गत था। जब प्रतिहारों की शक्ति क्षीण होने लगी तो चंदेलों और राष्ट्रकूटों ने इसे अपने अधिकार में लाने का प्रयास किया। अंतत: चंदेलराज यशोवर्मन् ने इसे जीत लिया। चंदेलों के समय के अवशेष यहाँ काफी संख्या में मिले हैं।
परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि कालिंजर के दुर्ग का निर्माण चंदेल वंश के संस्थापक राजा चंद्रवर्मन् ने करवाया था, किंतु इस कथन में विशेष सत्यता प्रतीत नहीं होती। आरंभ में यह स्थान केवल तीर्थ रूप में था, और यहाँ के सबसे प्राचीन अभिलेख मंदिरों और मूर्तियों पर हैं। किंतु यह स्थान दुर्ग के लिए भी उपयुक्त है। अत: इस प्रदेश के किसी प्राचीन शासक ने इस स्थान पर दुर्ग बनवाया होगा। चंदेलों ने यशोवर्मन् के समय सर्वप्रथम इस दुर्ग का हस्तगत किया। उनके समय कालिंजर के दुर्ग और नगर दोनों की ही पर्याप्त वृद्धि हुई। जब महमूद गज़नवी ने बुदेलखंड पर आक्रमण किया तो इसी दुर्ग में रहकर चंदेलराज विद्याधरने दो बार उसके विजयप्रयास को विफल किया था। सन् 1203 में परमाल चंदेल को हराकर कुतुबुद्दीन ने कालिंजर को जीत लिया और यहाँ के अनेक मंदिरों को नष्टभ्रष्ट किया। किंतु चंदेलों ने कुछ समय के बाद दुर्ग वापस ले लिया और दिल्ली के सुल्तानों को सन् 1234 और 1251 में फिर इसपर आक्रमण करना पड़ा। सन् 1530 में हुमायूँ ने इसपर घेरा डाला। सन् 1545 में शेरशाह कालिंजर के सामने ही बारूद के फटने से मर गया। इसके बाद यह मुगलों, बुंदेलों और मराठों के हाथों होता हुआ अंग्रेजों के हाथ लगा। अब यह उत्तर प्रदेश राज्य का अंग है। वहाँ बाँदा से कालिंजर सड़क के रास्ते जाना पड़ता है। लगभग 23 मील पक्की सड़क और उसके बाद कच्चा रास्ता है।
Hindi Title
विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
अन्य स्रोतों से
संदर्भ
1 -
2 -
2 -
बाहरी कड़ियाँ
1 -
2 -
3 -
2 -
3 -