कांचीपुरम् मद्रास नगर से 45 मील दूर पश्चिम-दक्षिण-पश्चिम में अरक्कोणम् तथा चिंगलपेट को मिलानेवाली रेलवे लाइन पर स्थित है। इस नगर को कांची या कांजीवरम् भी कहते हैं। यह दक्षिणी भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध नगरों में से एक है और पल्लव राजाओं की राजधानी रह चुका है। चीन का प्रसिद्ध यात्री युवान च्वाङ, भी सातवीं शताब्दी में इस नगर में आया था। उसके कथनानुसार यह उस समय शिक्षा, न्याय, वीरता इत्यादि का केंद्र था और छह मील के घेरे में फैला हुआ एक बड़ा नगर था। उपर्युक्त यात्री के समय यहाँ पर जैनियों का काफी प्रभाव था तथा ब्राह्मण एवं बौद्ध अल्पसंख्या में थे। पिछले दोनों धर्मों का प्रभाव लगभग समान था। यह नगर चोल वंश की भी राजधानी उस समय तक बना रहा जब तक मुसलमानों ने इसपर सन् 1310 ई. में आक्रमण कर अपने अधीन नहीं कर लिया। इसके उपरांत यह नगर विजयनगर राज्य की बढ़ती हुई शक्ति का भी शिकार बना; परंतु इनका आधिपत्य बहुत अधिक समय तक न रह सका और मुसलमान राजाओं ने इसपर पुन: सन् 1646 ई. में अपना आधिपत्य जमा लिया। कुछ वर्षों के लिए इसपर मराठों का भी अधिकार हो गया था, परंतु शीघ्र ही औरंगजेब के सैनिकों ने इसे जीत लिया। मुगलों ने इसको सन् 1752 ई तक अपने अधीन रखा। इसी वर्ष लार्ड क्लाइव ने इसको ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकार में ले लिया। अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों में कालांतर में इसके लिए दो दो, एक-एक साल के बाद आपस में काफी छीना झपटी होती रही। इस प्रकार औरंगजेब के हाथों से निकल जाने के बाद यह नगर अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के प्रलोभन का विशेष केंद्र बना रहा।
यह नगर हिंदुओं का दक्षिणी भारत स्थित प्रमुख तीर्थस्थान है। यह भारत के सात मोक्षदायी नगरों में से एक है तथा मंदिरों और पवित्र समाधि स्थलों से भरा पड़ा है। यहाँ अत्यंत पुराना जैनियों का प्रसिद्ध मंदिर तिरुप्परुत्तिकुनरम् नामक बस्ती से दो मील दूर दक्षिण की दिशा में स्थित है जिसको पिल्लापलैयम् कहते हैं। इसका कलात्मक निर्माण, पत्थर पर की गई कारीगरी, मंदिरों की चित्रकारी तथा रँगाई दर्शनीय है। इसका निर्माण चोलवंश के राजाओं ने उस समय कराया था जब यह राज्य उन्नति की पराकाष्ठा पर था। विजयनगर राज्य द्वारा इन कलात्मक मंदिरों तथा अन्य दर्शनीय स्थलों का जीणोद्वार कराने तथा नवीन मंदिरों के निर्माण कार्य के लिए 14वीं, 15वीं,तथा 16वीं शताब्दियों में यथेष्ट धन व्यय किया गया। यहाँ के विष्णु तथा शिवमंदिरों का निर्माण पल्लव राजाओं ने कराया था। यहाँ कामकोटि पीठ है जो चार शंकराचार्य पीठों में नहीं है, बल्कि पाँचवीं पीठ है। शंकराचार्य ने यहाँ एक विद्यालय की स्थापना भी की थी।
विजयनगर राज्य के सबसे प्रबल राजा श्री कृष्णदेव ने अपने समय में दो बड़े मंदिरों का निर्माण कराया था। इन मंदिरों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-छोटे समाधिस्थल तथा विश्रामगृहों का निर्माण भी इस वंश के राजाओं के कालांतर में कराया। यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर बहुत ही सुंदर कंगूरों से सुसज्जित है। इसमें एक बहुत बड़ा कमरा है जिसमें 540 अलंकृत स्तंभ, अच्छे-अच्छे ओसारे तथा सरोवर भी हैं, इन सबका निर्माण किसी व्यवस्थित योजना के अनुसार नहीं हुआ है। इसकी क्रमहीन बनावट के विषय में फ़र्गुसन नामक एक विद्वान् ने कहा है, ''मंदिरों के सभी कंगूरे एक दूसरे के सामने नहीं है। इसकी दीवारें आपस में एक दूसरे के समांतर नहीं है और वे साधारणत: समकोण पर भी नहीं मिलतीं।''
कांचीपुरम् को सन् 1866 ई. में नगरपालिका का रूप दिया गया, जिसकी आय प्रधानत: मकानों तथा भूमिकरों द्वारा होती थी। सन् 1895-96 में यहाँ पर जलदायगृह (वाटर वर्क्स) की व्यवस्था की गई जो दो वर्षों में अर्थात् सन् 1898 ई. में 2,56,000 रुपए की लागत से बनकर तैयार हुआ। यहाँ जल की प्राप्ति वेगवती नदी के सहायक एक सोते से होती है। यहाँ की सूती तथा रेशमी साड़ियाँ सुप्रसिद्ध हैं।
यह नगर हिंदुओं का दक्षिणी भारत स्थित प्रमुख तीर्थस्थान है। यह भारत के सात मोक्षदायी नगरों में से एक है तथा मंदिरों और पवित्र समाधि स्थलों से भरा पड़ा है। यहाँ अत्यंत पुराना जैनियों का प्रसिद्ध मंदिर तिरुप्परुत्तिकुनरम् नामक बस्ती से दो मील दूर दक्षिण की दिशा में स्थित है जिसको पिल्लापलैयम् कहते हैं। इसका कलात्मक निर्माण, पत्थर पर की गई कारीगरी, मंदिरों की चित्रकारी तथा रँगाई दर्शनीय है। इसका निर्माण चोलवंश के राजाओं ने उस समय कराया था जब यह राज्य उन्नति की पराकाष्ठा पर था। विजयनगर राज्य द्वारा इन कलात्मक मंदिरों तथा अन्य दर्शनीय स्थलों का जीणोद्वार कराने तथा नवीन मंदिरों के निर्माण कार्य के लिए 14वीं, 15वीं,तथा 16वीं शताब्दियों में यथेष्ट धन व्यय किया गया। यहाँ के विष्णु तथा शिवमंदिरों का निर्माण पल्लव राजाओं ने कराया था। यहाँ कामकोटि पीठ है जो चार शंकराचार्य पीठों में नहीं है, बल्कि पाँचवीं पीठ है। शंकराचार्य ने यहाँ एक विद्यालय की स्थापना भी की थी।
विजयनगर राज्य के सबसे प्रबल राजा श्री कृष्णदेव ने अपने समय में दो बड़े मंदिरों का निर्माण कराया था। इन मंदिरों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-छोटे समाधिस्थल तथा विश्रामगृहों का निर्माण भी इस वंश के राजाओं के कालांतर में कराया। यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर बहुत ही सुंदर कंगूरों से सुसज्जित है। इसमें एक बहुत बड़ा कमरा है जिसमें 540 अलंकृत स्तंभ, अच्छे-अच्छे ओसारे तथा सरोवर भी हैं, इन सबका निर्माण किसी व्यवस्थित योजना के अनुसार नहीं हुआ है। इसकी क्रमहीन बनावट के विषय में फ़र्गुसन नामक एक विद्वान् ने कहा है, ''मंदिरों के सभी कंगूरे एक दूसरे के सामने नहीं है। इसकी दीवारें आपस में एक दूसरे के समांतर नहीं है और वे साधारणत: समकोण पर भी नहीं मिलतीं।''
कांचीपुरम् को सन् 1866 ई. में नगरपालिका का रूप दिया गया, जिसकी आय प्रधानत: मकानों तथा भूमिकरों द्वारा होती थी। सन् 1895-96 में यहाँ पर जलदायगृह (वाटर वर्क्स) की व्यवस्था की गई जो दो वर्षों में अर्थात् सन् 1898 ई. में 2,56,000 रुपए की लागत से बनकर तैयार हुआ। यहाँ जल की प्राप्ति वेगवती नदी के सहायक एक सोते से होती है। यहाँ की सूती तथा रेशमी साड़ियाँ सुप्रसिद्ध हैं।
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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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