कांगड़ी

Submitted by Hindi on Mon, 08/08/2011 - 15:02
कांगड़ी हरिद्वार के निकट गंगा के पूर्वी तट पर दूसरी ओर बिजनौर जिले में बसा हुआ एक बहुत छोटा गाँव है। वर्तमान शताब्दी के आरंभ में इस गाँव के पास स्वामी श्रद्धानंद जी (तत्कालीन महात्मा मुंशीराम-1857-1926 ई.) ने एक गुरुकुल की स्थापना की। यह उस समय के शिक्षा जगत्‌ में एक सर्वथा नवीन और क्रांतिकारी प्रयत्न था। ब्रिटिश प्रधान मंत्री श्री रैम्ज़े मैकडोनल्ड के शब्दों में 'मेंकाले के बाद भारत में शिक्षा के क्षेत्र में जो सबसे महत्वपूर्ण और मौलिक प्रयत्न हुआ है, वह गुरुकुल है।' अत: इसे देश और विदेश में असाधारण ख्याति प्राप्त हुई। गुरुकुल काँगड़ी शिक्षाविषयक एक विशिष्ट विचारधारा का प्रतीक बन गया।

19वीं शताब्दी में भारत में दो प्रकार की शिक्षापद्धतियाँ प्रचलित थीं। पहली पद्धति ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने शासन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विकसित की गई सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों की प्रणाली थी और दूसरी संस्कृत, व्याकरण, दर्शन आदि भारतीय वाङ्‌मय की विभिन्न विद्याओं को प्राचीन परंपरागत विधि से अध्ययन करने की पाठशाला पद्धति। दोनों पद्धतियों में कुछ गंभीर दोष थे। पहली पद्धति में पौरस्त्य ज्ञानविज्ञान की घोर अपेक्षा थी और यह सर्वथा अराष्ट्रीय थी। इसके प्रबल समर्थक तथा 1835 ई. में अपने सुप्रसिद्ध स्मरणपत्र द्वारा इसका प्रवर्तन करानेवाले लार्ड मेंकाले (1800-1859 ई.) के मतानुसार 'किसी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की आल्मारी के एक खाने में पड़ी पुस्तकों का महत्व भारत और अरब के समूचे साहित्य के बराबर' था। अत: सरकारी शिक्षा पद्धति में भारतीय वाङ्‌मय की घोर उपेक्षा करते हुए अंग्रेजी तथा पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान विज्ञान के अध्ययन पर बल दिया गया। इस शिक्षा पद्धति का प्रधान उद्देश्य मेंकाले के शब्दों में 'भारतीयों का एक ऐसा समूह पैदा करना था, जो रंग तथा रक्त की दृष्टि से तो भारतीय हो, परंतु रुचि, मति और अचार-विचार की दृष्टि से अंग्रेज हो'। इसलिए यह शिक्षापद्धति भारत के राष्ट्रीय और धार्मिक आदर्शों के प्रतिकूल थी। दूसरी शिक्षा प्रणाली, पंडितमंडली में प्रचलित पाठशाला पद्धति थी। इसमें यद्यपि भारतीय वाङ्‌मय का अध्ययन कराया जाता था, तथापि उसमें नवीन तथा वर्तमान समय के लिए आवश्यक पश्चिमी ज्ञान विज्ञान की घोर उपेक्षा थी। उस समय देश की बड़ी आवश्यकता पौरस्त्य एवं पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान का समन्वयय करते हुए दोनों शिक्षा पद्धतियों के उत्कृष्ठ तत्वों के सामंजस्य द्वारा एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना था। इस महत्वपूर्ण कार्य का संपन्न करने में गुरुकुल काँगड़ी ने बड़ा सहयोग दिया।

गुरुकुल के संस्थापक महात्मा मुंशीराम पिछली शतब्दी के भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण में असाधारण महत्व रखनेवाले आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद (1824-1883 ई.) के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ-प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने 1897 में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आंदोलन आरंभ किया। 30 अक्टूबर, 1898 को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, 1898 ई. में पंजाब के आर्यसमाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया और महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक 30,000 रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और अविचल निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। 16 मई, 1900 को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई।

किंतु महात्मा मुंशीराम को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र (26।15) 'उपह्वरे गिरीणां संगमें च नदीनां। धिया विप्रो अजायत' के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे। इसी समय नजीबाबाद के धर्मनिष्ठ रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम जी हो 1,200 बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए और होली के दिन सोमवार, 4 मार्च, 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया।

गुरुकुल का आरंभ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूस की झोपड़ियों में किया गया। पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तीव्र गति से होने लगा। 1907 ई. में इसका महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 ई. में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षांत समारोह हुआ। इस समय सरकार के प्रभाव से सर्वथा स्वतंत्र होने के कारण इसे चिरकाल तक ब्रिटिश सरकार राजद्रोही संस्था समझती रही। 1917 ई. में वायसराय लार्ड चेम्ज़फ़ोर्ड के गुरुकुल आगमन के बाद इस संदेह का निवारण हुआ। 1921 ई. में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्‌स) महाविद्यालयों को बनाने का निश्चय किया। 1923 ई. में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया। देश के विभिन्न भागों में इससे प्ररेणा ग्रहण करके, इसके आदर्शों और पाठविधि का अनुसरण करनेवाले अनेक गुरुकुल स्थापित हुए।

24 सितंबर, 1924 ई. को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए 1 मई, 1930 ई. को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के सीमप वर्तमान स्थान में लाया गया। 1935 ई. में इसका प्रबंध करने के लिए आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अंतर्गत एक पृथक विद्यासभ का संगठन हुआ।

गुरुकुल शिक्षा पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ हैं- विद्यार्थियों का गुरुओं के संपर्क में, उनके कुल या परिवार का अंग बनकर रहना, बह्मचर्यपूर्वक सरल एवं तपस्यामय जीवन बिताना, चरित्रनिर्माण और शारीरिक विकास पर बौद्धिक एवं मानसिक विकास की भाँति पूरा ध्यान देना, शिक्षा में संस्कृत को अनिवार्य बनाना, वैदिक वाङ्‌मय के अध्ययन पर बल देना, शिक्षा का माध्यक मातृभाषा हिंदी को बनाना, संस्कृत, दर्शन, वेद आदि प्राचीन विषयों के अध्ययन के साथ आधुनिक पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान और अंग्रेजी की पढ़ाई तथा राष्ट्रीयता की भावना। आजकल ये विशेषताएँ सर्वमान्य हो गई हैं, किंतु इस शताब्दी के आरंभ में ये सभी विचार सर्वथा क्रांतिकारी, नवीन और मौलिक थे। गुरुकुल कांगड़ी का सबसें बड़ा कर्तृत्व अपने क्रियात्मक परीक्षण द्वारा इन विचारों को सर्वमान्य बनाना था। पहले यह असंभव समझा जाता था कि हिंदी उच्च शिक्षा एवं वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन अध्यापन का माध्यम बन सकती है। गुरुकुल ने सर्वप्रथम आधुनिक भारत में इस विचार को अपने परीक्षण द्वारा संभव बनाया। यहाँ अध्यापकों तथा प्राध्यापकों ने रसायन, भौतिक विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, मनोविज्ञान, विकासवाद आदि विषयों पर हिंदी में पहली पुस्तकें लिखी। मातृभाषा द्वारा शिक्षा के इस परीक्षण को देखने के लिए 1918 ई. में कोलकाता विश्वविद्यालय आयोग ने प्रधान डा. सैडलर, सर आशुतोष मुखर्जी, श्रीनिवास शास्त्री आदि महानुभाव यहाँ पर पधारे और महाविद्यालय विभाग की शिक्षा के लिए अंग्रेजी का माध्यम अनिवार्य रूप से बनाए रखने के संबंध में उनके एवं देश के अन्य शिक्षाशास्त्रियों के विचारों में मौलिक परिवर्तन हुआ। गुरुकुल ने सभी राष्ट्रीय और समाज सुधार के आंदोलनों में प्रमुख भाग लिया, हिंदी साहित्य को अनेक यशस्वी पत्रकार, लेखक और साहित्यिक प्रदान किए, संस्कृत एवं वैदिक वाङ्‌मय के अनुशीलन, अध्ययन अध्यापन को विलक्षण प्रोत्साहन दिया।

संप्रति गुरुकुल कांगड़ी में वेदवेदांग, संस्कृत, दर्शनशास्त्र, इतिहास, राजनीति, आयुर्वेद, कृषि तथा वैज्ञानिक विषयों की उच्च शिक्षा का प्रबंध है। इसके लिए वेद महाविद्यालय, आर्ट्‌स महाविद्यालय, आयुर्वेद महाविद्यालय, कृषि विद्यालय और विज्ञान महाविद्यालय व्यवस्थित हैं। विद्यालय का पाठ्यक्रम 10 वर्ष का है, इसमें आठ से 10 वर्ष तक के बालक लिए जाते हैं। जिन्हें विद्यालय आश्रम में रहना पड़ता है, उन्हें संस्कृत व्याकरण आदि ग्रंथ, प्राचीन विषयों के साथ गणित, विज्ञान, अंग्रेजी आदि आधुनिक विषयों का अध्ययन करना पड़ता है। 10 वर्ष की शिक्षा और परीक्षा के उपरांत अधिकारी की उपाधि दी जाती है। इसके बाद महाविद्यालयों में स्नातक परीक्षा का चार वर्ष का पाठ्यक्रम है। वेद तथा आर्ट्‌स महाविद्यालयों में वेद, वेदांग और दर्शन के अध्ययन के साथ इतिहास, राजनीति, मनोविज्ञान और अर्वाचीन विषयों का अध्ययन कराया जाता है और स्नातक बनने पर वेदालंकार, विद्यालंकार, आयुर्वेदालंकार की उपाधियाँ दी जाती हैं। इसके बाद विभिन्न विषयों में दो वर्ष का स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम है जिसे उत्तीर्ण करने पर वाचस्पति की उपाधि दी जाती है। विशिष्ट विषयों का अनुसंधान तथा विद्वानों को सम्मानित करने की उपाधि विद्यामार्तंड है।

गुरुकुल की प्रबंध व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान मुख्याधिष्ठाता या उप कुलपति का है। यह विद्यानसभा द्वारा पाँच वर्ष के लिए नियत किया जाता है। इसकी देख-रेख में विभिन्न महाविद्यालयों के प्रधानाचार्य या प्रिंसिपल अपना कार्य करते हैं। उप कुलपति की सहायता के लिए सहायक मुख्याधिष्ठाता या प्रस्तोता होता है। इसके अतिरिक्त गुरुकुल कांगड़ी के उद्योग विभाग के नियंत्रण के लिए एक व्यवसाय पटल है। गुरुकुल कांगड़ी का सबसे बड़ा उद्योग गुरुकुल फ़ार्मेसी है, जिसमें आयुर्वेद की दवाइयाँ शास्त्रोक्त एवं प्रामाणिक रूप से तैयार की जाती हैं। गुरुकुल की अर्थव्यवस्था के नियंत्रण के लिए एक वित्तसमिति है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गुरुकुल कांगड़ी द्वारा प्रदान की जानेवाली विद्यालंकार, वेदालंकार, आयुर्वेदालंकार आदि उपाधियों को केंद्रीय तथा प्रांतीय सरकारों ने तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों ने मान्यता प्रदान की। 1961 ई. में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब से पृथक स्वतंत्र संस्था के रूप में गुरुकुल कांगड़ी का संगठन बना और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इसे विश्वविद्यालय जैसे संस्था स्वीकार किया।

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संदर्भ
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