काफी

Submitted by Hindi on Tue, 08/09/2011 - 09:42
काफी (अंग्रेजी में कॉफ़ी, अरबी कहवा) एक सदाहरि वृक्ष का बीज है जो समशीतोष्ण देशों में उत्पन्न होता है। वृक्ष या तो बीज से उगाए जाते हैं, या दाबकलम से। पाँच वर्ष में बिक्री के लिए अच्छे बीज मिलने लगते हैं। यों तो वृक्षों से लगभग 50 वर्ष तक बीज मिलते रहते हैं, परंतु अधिकांशत: 25-30 वर्ष के बाद नए वृक्ष लगाए जो हैं। फल चुनने की सुविधा के लिए वृक्ष के फूल सफेद, सुगंधमय और गुच्छों में, पत्तियों की बगल में खिलते हैं। फूल कुछ ही दिनों में झड़ जाते हैं और उनके स्थान पर बदरियाँ (नन्हें फल) लगती हैं। ये बदरियाँ वृक्ष के डंठलों पर गुच्छों में लगती हैं। पकने पर बदरी गाढ़े लाल रंग की हो जाती है। भीतर साधारणत: दो बीज होते हैं, जो अंडाकार परंतु एक ओर चिपटे होते हैं और ये चिपटे तल का एक दूसरे से प्राय: सटे रहते हैं। बीज के ऊपर गूदा होता है। पकने पर साधारणत: बदरियों को हाथ से ही चुना जाता है। पानी में बदरियों को भिगोकर गूदे को थोड़ा गलने दिया जाता है और तब उसे बहा दिया जाता है। तब मशीन में डालकर बीज का छिलका छुड़ा लिया जाता है। इस रूप में प्रस्तुत बीज को हरी काफी (green coffee) कहते हैं, जो बाज़ार में बिकती है। भूनने और पीसने अथवा चूर्ण करने पर बाजार में बिकनेवाली साधारण काफी बनती है।

वनस्पति विज्ञान में काफी- काफी के वृक्ष का, वानस्पतिक, वैज्ञानिक वर्गीकरण एंग्लर के अनुसार निम्नलिखित है :

वर्ग

द्विदली

उपवर्ग

सिमपिटेली (Sympetalae)

गण

रूबिऐलिस (Rubiales)

कुल

रूबिएसी (Rubiaceae)

श्रेणी

कॉफ़िया (Coffea)

जाति

कॉफ़िया अरेबिका (Coffea Arabica)



कॉफ़िया श्रेणी में लगभग 45 जातियाँ हैं, जिनमें से केवल चार के बीज पीने की काफी बनाने के काम आते हैं। अधिकतर (10 प्रतिशत) कॉफ़िया अरेबिका का ही उपयोग होता है, परंतु थोड़ी मात्रा में कॉफ़िया लाइबेरिका (Coffea Liberica लाइबेरियन काफी), कॉफ़िया स्टेनोफ़िला (Coffea Stenophylla) और कॉफ़िया रोबस्टा (Coffea Robusta) (कांगो कॉफ़ी) के बीज भी काम आते हैं। कॉफ़िया अरेबिका की पत्तियाँ लंबी, अंडाकार तथा नुकीली होती हैं। ये चार से छह इंच तक लंबी और डेढ़ से ढाई इंच तक चौड़ी तथा एक साथ दो पाई जाती हैं। इनका रंग गहरा हरा होता है और पृष्ठ मोम जैसा जान पड़ता है। फूलने पर वृक्ष सुंदर प्रतीत होता है। बदरी के भीतर हरापन लिए हुए दो भूरे बीज गूदे के अंदर एक झिल्ली से आच्छादित रहते हैं, जिसे 'पार्चमेंट' कहते हैं और उसके भीतर दूसरा सूक्ष्म आवरण रहता है जिसे रजतचर्म (silvet skin) कहते हैं।

काफी की खेती- जैसा पहले बताया गया है, काफी समशीतोष्ण देशों में, मुख्यत: अफ्रीका में, होती है। काफ़िया अरेबिका की खेती अधिकतर दक्षिणी ब्राज़ील, जावा, तथा जमैका में कम ऊँचाई पर की जाती है, परंतु ऊँचे स्थानों में (3,000 फुट से 6,000 फुट तक ऊँची पहाड़ियों पर) उत्पन्न काफी अति स्वादिष्ट और कम कड़वी होती है। काफी के वृक्षों में कई प्रकार के हानिकारक कीड़े और रोग लगते हैं। लंका के काफी पत्ररोग हेमीलिया वैस्ट्रैटिक्स (Hemileia vastatrix) ने, जो फफूँद जाति का एक रोग है, पुरानी दुनियाँ की उपज को बहुत कम कर दिया है। बदरियों के भीतर घुसकर रहनेवाला स्टेफ़ैनोडोर्स कीड़ा भी बहुत हानिकार है। बहुधा वृक्ष की जड़ में भी रोग लग जाता है। सदा सतर्क रहने पर बराबर उपचार करते रहने से ही नई दुनिया में काफी का उत्पादन विशेष उन्नति कर गया है।

स्वाद की परख- यूरोप में बीजों की आकृति देखकर ही माल खरीदा जाता है, परंतु अमरीका में काफी बनाकर और स्वाद परखकर काफी की श्रेष्ठता का निर्णय किया जाता है। यह काम व्यवसायी चखनेवाले करते हैं जो वर्षों के अनुभव के बाद ही सच्चे पारखी माने जाते हैं।

भूनना- बिना भूने बीजों के क्वाथ में यह स्वाद नहीं होता जिसे जनता काफी का यथार्थ स्वाद मानती है। स्वाद और सुगंध बीजों को भूनने से आती है। बीजों को बड़े-बड़े ढोलों, जिन्हें नीचे से तप्त किया जाता है, लगभग 20 मिनट तक भूना जाता है। इससे बीज भूरे हो जाते हैं। कुछ लोग अधिक भूनी काफी पसंद करते हैं, इसलिए अधिक भूनी (काली) काफी भी बिकती है।

पिसाई- भूनी काफी, महीन पिसी, मोटी पिसी, चूर्ण और समूची सभी प्रकार की खरीदी जा सकती है। पीसने पर काफी की सुगंध उड़ने लगती है और वायु के अधिक संपर्क के काफी की सुगंध, जो शीघ्र ही उड़नेवाले कैफ़िओल (Caffeol) होती है, नष्ट हो जाती है। जितनी महीन काफ़ी होगी उतना ही शीघ्र वह खराब होगी। इसलिए महीन पिसी काफी टिन के डिब्बो में, जिनके भीतर से हवा निकाल दी जाती है, बंद करके बिकती है।

स्वादपारखी विशेषज्ञों का कहना है कि पीसने के दो घंटे बाद स्वाद बदलने लगता है। उनके विचार में कुछ लोग काफी की केवल कड़वाहट ही चख पाते हैं, श्रेष्ठ स्वाद नहीं; क्योंकि वे बहुत दिनों पहले की पिसी, दफ्ती के डिब्बो में रखी, काफी खरीदते हैं।

काफी बनाने की रीति- काफी बनाने की रीतियों का आधार यह है कि पिसी काफी को खौलते पानी के संपर्क में उचित समय तक रखा जाए। चार रीतियाँ प्रचलित हैं : एक रीति यह है कि पानी में काफी मिलाकर उसे आग पर रखा जाए, उबाल आते ही उतारकर चला दिया जाए और पाँच मिनट के बाद छान लिया जाए, या ऊपर से द्रव को दूसरे बर्तन में ढाल लिया जाए। दूसरी रीति यह है कि काफी पर खौलता पानी डाला जाए। 10 मिनट में काफी छान ली जाए। छानने के पहले तीन चार बार मिश्रण को चलाना आवश्यक है। तीसरी रीति में विशेष बर्तन की आवश्यकता होती है। ऊपर की टोकरी में मोटी या पिसी काफी रख दी जाती है और उसपर तेज खौलता पानी छोड़ा जाता है।। काफी बनकर और छनकर नीचे के बर्तन में पहुँच जाती है। छनना इतना घना हो कि काफी छ: सात मिनट में नीचे पहुँचे; शीघ्र छनने से पूरा स्वाद नहीं उतरता, देर लगने से कड़वाहट बढ़ जाती हे। चौथी रीति में भी विशेष बर्तन की आवश्यकता होती है जिसमें एक के ऊपर एक, लोटे के आकार के, दो बर्तन रहते हैं। बीच में छनना रहता है। नीचे के बर्तन में पानी भरकर और ऊपर के बर्तन में काफी रखकर बर्तन आँच पर चढ़ा दिया जाता है। खौलने पर आग की दाब के कारण एक नली द्वारा नीचे का पानी ऊपर चढ़ जाता हे। थोड़ा ठंडा होने पर पानी फिर से नीचे उतर आता है। इसका छनना इतना घना रहे कि पानी के उतरने में छह सात मिनट लगें।

दूध या उपराई (क्रीम) और चीनी डालकर काफी पी जाती है। फ्रांस के प्रसिद्ध 'कफ़े ओले' में लगभग आधा दूध रहता है।

काफी बनाने में काफी और पानी दोनों नापकर डालना चाहिए। एक बड़े चम्मच (टेबुल स्पून) से अधिक से अधिक जितनी काफी उठे, एक प्याले पानी के लिए पर्याप्त होती है। ठीक समय तक काफी को तप्त जल में रखना चाहिए। उन्हें प्रति सप्ताह पानी और सोडा (ह छटाँक सोडा, सेर भर पानी) में उबालना चाहिए। काफी को पानी में डालकर नहीं उबालना चाहिए। छानने के बाद काफी को तुरंत पीने के लिए दे देना चाहिए।

शरीर पर काफी का प्रभाव- क्षार कैफ़िईन के कारण काफी से नींद दूर होती है और स्फूर्ति आती है। पीने के दो ढाई घंटे के बाद उसका प्रभाव मिट जाता है, क्योंकि इसकी प्रधान रासायनिक तत्व, कैफ़िईन, मूत्र द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है। साधारण स्वस्थ व्यक्ति पर साधारण मात्रा में काफी पीने से कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता।

काफी के अवयव- विविध मेल की काफियों की रासानियक संरचनाओं में थोड़ा बहुत अंतर रहता है जो काफी बनाने की विधि; जलवायु, भूमि, खाद, और फल पकने की सीमा पर निर्भर करता है। काफी के प्रमुख अवयव कैफ़िईन, काठतंतु, जल में विलेय अंश, नाइट्रोजन, शर्करा, जल और राख हैं।

उत्पादन और खपत- विश्व की काफी का लगभग 59 प्रतिशत ब्राजील में उत्पन्न होता है। ब्राजील को लेकर दक्षिण अमरीका में विश्व की लगभग तीन चौथाई उपज होती है। दक्षिण भारत में कम ऊँची पहाड़ियों पर उत्पन्न होनेवाली एक प्रतिशत काफी उत्तम श्रेणी की होती है, जिसका लगभग आधा उत्पादन मैसूर प्रदेश में होता हे। उसके बाद मद्रास एवं कुर्ग की बारी आती है। उड़ीसा, असम तथा मध्य भारत में थोड़ी बहुत काफी होती है। भारत में काँफिया अरेबिका तथा कॉफ़िया रोबस्टा दोनों ही उगाई जाती हैं। काफ़िया लाइबेरिया नाम मात्र की होती है। इसकी देखरेख तथा सुरक्षा भारतीय काफी परिषद् द्वारा होती है।

आधी से अधिक काफी की खपत संयुक्त राज्य अमरीका में है, जहाँ प्रतिवर्ष व्यक्ति पीछे काफी की औसत 7 सेर है।

अन्य उपयोग- बदरी फल का गूदा और पार्चमेंट खाद बनाने तथा जलाने के उपयोग में भी लाया जाता है। इससे कैफ़ेलाइट नामक वस्तु तैयार की जाती है।

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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)




अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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