कचरा बीनने वालों के जीवन में उम्मीद

Submitted by admin on Tue, 06/29/2010 - 13:25
Source
स्पैन मार्च/अप्रैल 2010

आपका कचरा, उसका कारोबार एक पर्यावरण कार्यकर्ता के प्रयासों से

नई दिल्ली के चिंतन एनजीओ की संस्थापक भारती चतुर्वेदी भारत में कचरा बीनने वालों, कबाड़ी वालों और रद्दी के काम से जुड़ेलोगों की छवि बदलने में लगी हैं। उनका यह संदेश सिर्फ घरेलू लोगों के लिए ही नहीं है जो प्रतिदिन इन कचरा बीनने वालों के काम से सीधे या परोक्ष रूप से फायदा पाते हैं, बल्कि यह हाशिए पर पहुंचे ऐसे समुदायों के लिए ही है।

भारती का ऐसे लोगों के लिए संदेश है, ‘‘आप कोई निचली जाति या अल्ससंख्यक लोग नहीं हैं, आप पर्यावरण के प्रतिनिधि है। आप इस शहर को बदल रहे हैं और आपको इसका श्रेय पाने का हक है।’’

चतुर्वेदी का मानना है कि कचरा बीनने वाले और इससे जुड़े अनौपचारिक कारोबारी क्षेत्र के लोग एक तरह से ‘‘हरित कामकाज’’ कर रहे हैं और उन्हें ऐसे प्रयासों में जुटे लोगों की अग्रणी पंक्ति में रखा जाना चाहिए। ये लोग कचरे की छंटाई करते हैं, जितना कुछ रीसाइक्लिंग का काम संभव हो पाता है,वह करते हैं। और तो और आपके घर से सीधे कचरा ले जाकर परिवहन के दौरान ईंधन से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को बचाते हैं। अमेरिका और अन्य देशों में तो इस काम में भारी भरकम वाहनों का प्रयोग किया जाता है।चिंतन के 23 लोगों का छोटा सा स्टाफ सामुदायिक संगठक का काम करता है। ये लोग कचरा बीनने वालों के बच्चों के लिए स्कूल का बंदोबस्त करने के अलावा कचरा रीसाइक्लिंग केंद्र भी चलाते हैं। चिंतन की कोशिश रहती है कि इस वर्ग से जुड़े लोग बेहतर कमाई करें, उन्हें बुनियादी सुविधाएं मिलें और उनके काम को मान्यता और सम्मान मिले।

अप्रैल 2008 में चिंतन ने नई दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के साथ एक करार किया जिसके तहत उसे करीब 50 हजार घरों से घर-घर जाकर कचरा बीनने का काम मिला। यह काम हर महीने बढ़ता जा रहा है। इससे कॉलोनियों की सफाई तो हो ही रही है, कचरा बीनने वालों को भी नियमित वेतन और काम के प्रति सम्मान मिल रहा है। (पृष्ठ-17 पर बॉक्स देखें।)

भारत के अलावा चिंतन ने इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय प्रयास भी शुरू किए हैं। चिंतन ने वॉशिंगटन, डी. सी. से संचालित एक एडवोकेसी प्रोजेक्ट के साथ भागीदारी में एक शोध किया है जिसमें जलवायु परिवर्तन में कचरा बीनने वालों के योगदान को स्पष्ट किया गया है। भारत की वर्ष 2006 की पर्यावरण नीति में भी अनौपचारिक क्षेत्र में कचरा बीनने वालों के काम को सराहा गया है।

चतुर्वेदी ऐसी उपलब्धियों को काफी महत्वपूर्ण मानती हैं। उनका कहना है कि ऐसे उच्च श्रेणी के नीति निर्धारक दस्तावेजों में जिक्र आने से हमें राज्य और नगरपालिका स्तर के प्रशासन से बात करने के लिए ठोस औजार मिल जाते हैं। वह कहती हैं,‘‘ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का यह मानना अहम है कि अनौपचारिक क्षेत्र महत्व रखता है और हम इसके कारण कई नीतियों में बदलाव लाने में सफल रहे हैं।’’

एक एक्टिविस्ट का बनना चतुर्वेदी के दक्षिण दिल्ली स्थित ऑफिस का माहौल अलग ही है। दीवारों पर चमकदार रंगरोगन के अलावा पुरानी हिंदी फिल्मों के पोस्टर लगे हुए हैं। यहां की शायद सबसे दिलचस्प खासियत है काले और सफेद धब्बों वाला कुत्ता कारबन। इसे चतुर्वेदी ने तब बचाया था जब इसके तमाम दूसरे साथी कार से कुचल कर जान गवां बैठे थे। कारबन को रोटी खाने के अलावा दफ्तर के सोफे पर उछलकूद बेहद पसंद है। हालांकि चतुर्वेदी को उसकी ये हरकतें पसंद नहीं।चतुर्वेदी के लिए एक आवारा कुत्ते को पालना उनके उसी जुनून का हिस्सा हैजो उन्हे पृथ्वी को बचाने और जरूरतमंदों की मदद के लिए प्रेरित करता है। ये इसी जुनून की देन थी जो उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के गलियारों से निकलकर उत्तप्रदेश के गाजियाबाद की कचरा रीसाइक्लिंग इकाइयों तक ले गया और फिर वॉशिंगटन, डी. सी. की जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी तक पहुंची। चतुर्वेदी ने इसी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवांस इंटरनेशनल स्टडीज से इंटरनेशनल पब्लिक पॉलिसी में मास्टर्स डिग्री ली। इस समय वह न्यू यॉर्क के सीनर्गो इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं।

चतुर्वेदी ने खुद के लिए जो राह चुनी उसे अजीबोगरीब नहीं माना जा सकता। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन के बाद इतिहास में एम.ए. किया। उस समय तक वह खुद भी नहीं जानती थीं कि वह एक दिन एक्टिविस्ट के रूप में सामने आएंगी। पर्यावरण से जुड़े मामलो में उनकी जागरूकता कॉलेज के स्तर से ही थी और उन्हें हॉकरों और कबाड़ी वालों की गतिविधियां काफी प्रभावित करती थीं। उनकी जिज्ञासा इस बात में कहीं ज्यादा थी कि उनके घर से निकला कचरा आखिर जाता कहां है।चतुर्वेदी कहती हैं,‘‘मुझे कचरे का काम करने वालों की हालत देखकर बहुत दुख हुआ। यह दुख सिर्फ काम के हालात को देखकर नहीं था बल्कि उससे कहीं ज्यादा इन लोगों के साथ हो रहेबुरेबर्ताव को लेकर था। इस काम से जुड़े लोग क्योंकि खुद खतरनाक चीजों के बीच काम करते थे इसलिए उन्हें ही विषाक्त समझा जाने लगा। इन तमाम तरह की चुनौतियों के बीच मुझे इन लोगों की अद्भुत कार्यकुशलता पर बेहद अचंभा था जो उन्हें एक विलक्षण उद्यमी भी साबित करता था। इस सबसे अलग थी उनकी सेवा...जो वे हमारे शहरों में दे रहे थे।’’

इससे प्रभावित होकर चतुर्वेदी ने 1999 में चिंतन को अमली रूप दिया। वाशिंगटन, डी. सी. का प्रवास एनजीओ चिंतन कई वर्षों से सफलतापूर्वक काम कर रहा था, फिर भी चतुर्वेदी के मन में कहीं न कहीं पढ़ाई को जारी रख पाने का इरादा बरकरार था। एक एनजीओ के निदेशक की व्यस्त ज़िंदगी को देखते हुए यह काम संभव नहीं हो पाया था। कुछ अनिश्चितताओं के बाद उन्होंने अमेरिका में ग्रेजुएट स्कूल कार्यक्रमों पर नज़र दौड़ाना शुरू किया। चतुर्वेदी कहती हैं, ‘‘यह फैसला इसलिए था क्योंकि मुझे लगने लगा था कि बौद्धिकता के लिहाज से जैसे मैं बंद कमरे में हूं। इसके अलावा मैं खुद को और चुनौतियों के साथ आगे ले जाने वाले माहौल में रखना चाहती थीं।’’चतुर्वेदी ने सूची बनाई कि उन्हें संस्थान से क्या चाहिएः एक बड़ा शहर, एक बेहतरीन विश्वविद्यालय जहां पढ़ने के लिए ढेर सारेविषय हों और वह स्थान जहां अलग-अलग जगहों से छात्र पढ़ाई के लिए आते हों। काफी छानबीन के बाद उन्होंने जॉन हॉपकिंस को चुना।

वह कहती हैं, ‘‘मैंने बड़ा जोखिम लिया क्योंकि उस वर्ष मैं चिंतन से दूर रही... लेकिन चिंतन न तो टूटा और न ही इसकी हालत खराब हुई। मेरे पास योग्य लोगों की टीम थी और उससे भी ज्यादा इस संगठन पर कचरा बीनने वालों का भरोसा जो मेरी गैरमौजूदगी में भी कायम रहा।’’ अमेरिका में अपनी पढ़ाई के दौरान भी चतुर्वेदी हर तीन महीने पर चिंतन की बैठक में शामिल होने और मदद का हाथ बढ़ाने दिल्ली जरूर आती थीं।

अमेरिका में अपने प्रवास के दौरान चतुर्वेदी ने पढ़ाई के साथ कचरे से जुड़े मुद्दे पर दुनिया की सोच से खुद को वाकिफ कराने की कोशिश जारी रखी। उनका कहना है कचरा निस्तारण के मामले में उन्हें वाशिंगटन, डी.सी. में विविध जानकारियां मिलीं। एक तरफ जहां उन्हें यह देखने को मिला कि डिब्बाबंद खाने के सामानों और ज्यादा इस्तेमाल से बिना वजह भारी तादाद में कचरा निकल रहा है, वहीं दूसरी तरफ वह ऐसी व्यवस्था की भी गवाह बनीं जहां समाज में बेहतरीन रीसाइक्लिंग सिस्टम के साथ रसोईघर से निकले कचरे के भी उचित निस्तारण का बंदोबस्त था। उन्होंने अमेरिका की फलती-फूलती सेकंड हैंड संस्कृति को भी देखा जिससे घरेलू सामानों और कपड़ों के दोबारा इस्तेमाल को बढ़ावा मिल रहा था। (बॉक्स देखें)

पढ़ाई के दौरान चतुर्वेदी ने बड़ी से बड़ी सरकारी इमारतों में शहरी एजेंसियों को बेहतरीन ढंग से रीसाइक्लिंग का काम करते देखा और उससे वह बेहद प्रभावित हुईं। भारत और अमेरिका में इस मामले में फर्क के बारे में उनका कहना है, ‘‘जो कुछ भारत में होता है, वही परिष्कृत रूप में अमेरिका में होता है। सवाल यह है कि कैसे भारत में भी इस मामले में उन्नत तकनीक का इस्तेमाल हो। हमारी इच्छा उनसे तकनीकी सहयोग की है... ताकि दोनों देशों के बढ़िया पहलुओं को उपयोग में लाया जा सके।

भविष्य की ओर निगाहें
पढ़ाई के बाद चतुर्वेदी 2006 में वापस दिल्ली लौट आईं लेकिन वह चिंतन के विकास के लिए अपने अमेरिकी संपर्कों का फायदा उठाती रहीं। एडवोकेसी प्रोजेक्ट के साथ मिलकर चिंतन को एक रिसर्च का काम तो मिला ही, साथ ही न्यू यॉर्क की विटनेस नाम की संस्था से भी शॉर्ट एजुकेशन फिल्म बनाने में मदद मिली। विटनेस मीडिया पर केंद्रित एनजीओ है। चतुर्वेदी कहती हैं कि चिंतन के पास ऐसे कामों के लिए फंड नहीं था पर यह सब मुमकिन हो पाया क्योंकि जॉन हॉपकिंस में बने संपर्क यहां काम आए।चतुर्वेदी चिंतन की गतिविधियों और शोध के काम को बढ़ा रही हैं। उनका भविष्य का मकसद उच्च आय वर्ग के ज्यादा से ज्यादा लोगों को जमीनी स्तर के कामकाज से जोड़ने का है। वह भारत में तेजी से बढ़ते मध्य वर्ग को भी नागरिकता के एक ऐसे सूत्र में पिरोना चाहती हैं जो आर्थिक तरक्की के फायदों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचा सके।इस बारे में अपनी बातों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के मकसद से चतुर्वेदी अपनी लेखन प्रतिभा का भी इस्तेमाल कर रही हैं। वह लोकप्रिय अमेरिकी ई मैगजीन हफिंगटन पोस्ट में ब्लॉग लिखने के अलावा द हिंदुस्तान टाइम्स में नियमित कॉलम भी लिखती हैं। उन्होंने एक किताब भी लिखी है जिसके लिए वह अभी फिलहाल कोई प्रकाशक खोज रही हैं। जैसी कि उम्मीद है, इस किताब की थीम भी बहुत कुछ उनके जीवन की थीम जैसी ही है यानी- सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय एक साथ।