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अभिव्यक्ति, 24 अक्टूबर 2004
कोचाई मंडल के जीवन में पानी ही पानी था। वह अपना समय ज़मीन पर कम और पानी पर ज़्यादा गुज़ारता था। वह अपने को पानी का पहरेदार कहता था और लोग उसे पानी का मेंढक कहते थे। पानी के अंदर या पानी के ऊपर कोई कारोबार चलाना हो तो कोचाई से उपयुक्त व्यक्ति दूसरा कोई नहीं हो सकता था। नदी में, तालाब में, समुद्र में कोई दुर्घटना हो जाए, कोचाई का झट बुलावा आ जाता। कहते हैं जो काम सेना के गोताखोरों से भी संभव नहीं हो पाता, उसे कोचाई कर डालता था। पता नहीं किस अर्जुन ने या किस राम ने अग्निबाण चलाया कि सौ वर्षों से भी ज्यादा उम्र वाला कल्याण तालाब सूख गया। इसके लगातार घट रहे जल स्तर को देखकर सारे बूढ़े-बुजुर्ग हैरान थे। बचपन से लेकर आज तक ऐसा उन्होंने कभी नहीं देखा था कि इस तालाब का अक्षय कोष तिल भर के लिए भी घट जाए। अगम, रहस्यमय, अनेक क्रियाओं की रंगशाला और जीवंतता, गतिशीलता व शीतलता का अमृत-कुंड आज जैसे किसी श्मशान में परिवर्तित हो गया था। कल्याण सूख गया, इससे शायद बहुतों का जीवन अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुआ होगा लेकिन प्रत्यक्ष रूप से इससे जो सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ, उसका नाम था कोचाई मंडल। कल्याण क्या सूखा जैसा उसके जीवन के सारे स्रोत ही सूख गए। कल्याण उसकी संजीवनी था, कर्म-स्थल था, ऊर्जा-स्रोत था और कुल जमा पूँजी था। अब जब वह नहीं रहा तो मानो उसके पास कुछ भी नहीं रहा जैसे वह उखड़ गया अपनी जड़ से हिल गया अपनी नींव से। उसकी दयनीयता तब और भी त्रासद बन गई जब उसके घरवाले तालाब का सूखना, अशुभ की जगह शुभ सूचक मानने लगे।
उसके बड़े लड़के निमाई ने कहा, 'हमें खुश होना चाहिए कि इतने बड़े भूखंड का अब हम सही रूप में व्यावसायिक उपयोग कर सकेंगे। सार्वजनिक हित से जुड़े होने के कारण हम इसके वजूद को एकबारगी मिटा कर इसका रुपांतरण नहीं कर सकते थे। अब जब खुद ही सूख गया है तो हमें अब टोकने वाला भी कोई न रहा। हमें अपने आप बहाना या मौका मिल गया कि इस कीमती भूखंड के सहारे अपनी कायापलट कर लें। हम इससे रातों-रात लाखों बना सकते हैं।'
कोचाई को पता है कि उसकी पत्नी राधामुनी भी इस मुद्दे पर अपने बेटे के पक्ष में हैं। पढ़ाई कर रहे उसके बेटे ने आज से कई साल पहले उसके पानी वाले परंपरागत व्यवसाय से घृणा का इज़हार करते हुए कहा था, 'इस पेशे ने हमारे पूरे खानदान को बौना बनाकर गरीबी के घेरे में सिमटे रहने के लिए अभिशप्त कर दिया है। भला कोई मछली मारकर और नाव खेकर दो रोटी जुटाने से ज्यादा और क्या कर सकता है? मैं कोई सा भी दूसरा काम कर लूँगा, लेकिन पानी से जुड़ा कोई काम नहीं करूँगा। आखिर हम अपना भाग्य पानी में ही क्यों गलाएँ, धरती पर हम अपने लिए कोई मंज़िल क्यों तलाश न करें?'
राधामुनी ने अपने बेटे का ज़ोरदार समर्थन किया, 'तुमने बिल्कुल ठीक फैसला किया है। मैं भी यही चाहती हूँ कि बाप की तरह पानी का प्रेत तुम लोगों पर न सवार हो। मुझे हमेशा लगा कि इस आदमी ने मुझसे नहीं पानी से शादी कर ली हैं। राह देखते-देखते मेरी आँखें थक जातीं मगर इस आदमी का मन पानी से नहीं भरता। इन्होंने ज़मीन और घर से ज्यादा अपना वक्त पानी में बिताया। मैं तो कुढ़ती रही इस पानी से जैसे वह मेरी सौत बन गया। मैंने बहुत पहले ठान लिया था कि अपने बेटों को खूब पढ़ाऊँगी और पानी के धंधे से जितना दूर रखना मुमकिन होगा, रखूँगी।'
निमाई ने अपने दिमागी घोड़े को जरा रफ़्तार से दौड़ाते हुए कहा, 'माँ, पढ़ाई-लिखाई अगर हमें रास्ता बदलने में मदद कर दे तो अच्छा है, इसके बाद भी हमें तालाब में फँसी ज़मीनों का बाज़ार भाव के हिसाब से रिटर्न पाने के लिए पानी से अपना पिंड छुड़ाना ही होगा। पच्चीस बीघा का रकबा इस इलाके के लिए लाख की नहीं करोड़ की संपत्ति साबित होगा। चारों तरफ जिस तरह कालोनियाँ बसी हैं, उद्योगों के जाल बिछ रहे हैं, इसकी मुँह माँगी कीमत वसूली जा सकती है।'
कोचाई को गुस्सा करना नहीं आता था और ना ही उसे किसी से चोंच लड़ाने में कोई रुचि थी। वह संत भाव से ऐसी बातें सुन लेता था और कल क्या होने वाला है, उसे नियति के भरोसे छोड़कर अपने काम में लग जाता था। उसने अपने दादा की लिखी हुई डायरी का एक पन्ना लाकर निमाई के हाथों में रख दिया। उसमें लिखा था, 'तालाब की अहमियत रुपयों-पैसों से नहीं आँकी जा सकती और अगर रुपयों से आँकी जाए तो उसके जरिए जो मानवीयता पर परोपकार हो रहा है, वह अरबों-खरबों से भी कहीं ज्यादा है। जब एक कुआँ बन जाता है या तालाब तो वह किसी की निजी संपत्ति नहीं रह जाता, वह सार्वजनिक हो जाता है।'
निमाई ने डायरी के उस पन्ने की चिंदी-चिंदी कर डाली।
राधामुनी ने कहा था, 'मैं तो कब से यह चाहती रही कि इस तालाब को भरवाकर हम सिर्फ इसे बेच दें तो उसी से कई पीढ़ियों से जमी हमारी दरिद्रता छूमंतर हो जाए। लेकिन तुम्हारे इस बाप की जिद और पानी में बसे इनके प्राण को देखकर मैं कोई सख्त कदम उठाने के लायक न बन पाई और तुम लोगों के जवान होने का मैं इंतजार करती रही। अब देखो, ऊपर वाले का कमाल, उसने हमारी सुन ली और इसका सारा पानी अपने आप ही ग़ायब हो गया।'
अपने बीवी-बच्चों के विजयी भाव को देखकर कोचाई जैसे किसी मूक चित्र में परिवर्तित हो गया।
कोचाई मंडल के जीवन में पानी ही पानी था। वह अपना समय ज़मीन पर कम और पानी पर ज़्यादा गुज़ारता था। वह अपने को पानी का पहरेदार कहता था और लोग उसे पानी का मेंढक कहते थे। पानी के अंदर या पानी के ऊपर कोई कारोबार चलाना हो तो कोचाई से उपयुक्त व्यक्ति दूसरा कोई नहीं हो सकता था। नदी में, तालाब में, समुद्र में कोई दुर्घटना हो जाए, कोचाई का झट बुलावा आ जाता। कहते हैं जो काम सेना के गोताखोरों से भी संभव नहीं हो पाता, उसे कोचाई कर डालता था। इस मामले में उसकी ख्याति काफी दूर-दूर तक थी। कोई बस नदी में पलट गई और कुछ लाशें बरामद नहीं हो सकी कोचाई को लगा दीजिए। किसी ने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली और उसकी लाश बहकर अदृश्य हो गई कोचाई के लिए यह कोई बड़ा मसला नहीं है। कहीं अचानक बाढ़ आ गई और पानी में फँसे लोगों को बाहर निकालना है गरजती-उछलती जलधारा में किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही कोचाई कमर में गमछा बांधकर पानी में कूद पड़ेगा। पानी के अंदर काफ़ी गहरे में किसी की कोई बहुमूल्य वस्तु गिर गई क़ोचाई पाताल में भी डुबकी लगाकर निकाल लेगा।
उसके बारे में यह किंवदंती प्रचलित हो गई थी कि पानी में उतरते ही उसकी ताकत बढ़ जाती है। पानी के अंदर वह ज्यादा देख सकता है पानी के अंदर मीलोंमील तैर सकता है पानी के अंदर वह जलचरों को सूँघ कर पता कर सकता है उसकी देह से पानी का स्पर्श होते ही उसमें एक बिजली दौड़ जाती है।
कोचाई के बारे में उसके कुछ गाँव वाले कहते थे कि इसे दरअसल किसी जलचर में जन्म लेना था, मगर गलती से आदमी (थलचर) में आ गया। उसके बारे में यह किस्सा भी प्रचलित था कि कोई जलपरी है जो कोचाई से प्यार करती है। ज्यों ही वह पानी में उतरता है वह जलपरी उस पर सवार हो जाती है और उसकी पूरी दैवीय शक्ति उसमें समा जाती हैं।
पानी को इस तरह साध लेने वाला कोचाई कभी पानी रहित हो जाएगा, यह कोई नहीं जानता था। पानी ने कोचाई को दार्शनिक बना दिया था। वह कहा करता था कि पानी जिस तरह दुनिया भर के विकार और गंदगी साफ करता है, अगर कोई आठ-दस दिनों तक पानी के संपर्क में रह जाए चारों ओर पानी ही पानी, दूसरा कोई नहीं तो उसके मन का विकार भी धुल जाता है। पानी दया, करूणा, ममता और आत्मीयता का पर्याय है वह आदमी को तरल, सरल और निश्छल बना देता है। पानी में सारे तत्व हैं, कोई चाहे तो सिर्फ पानी पीकर अपनी पूरी उम्र जी सकता है। बहुत सारे ऐसे जलचर हैं जो बिना खाए भी पानी में रहकर जी लेते हैं। पानी की जिसको आदत हो जाती है, वह पानी के बिना नहीं रह सकता। पानी से अलग होते ही वह प्राण त्याग देता है।
कहते हैं यह तालाब जमाईकेला रियासत के राणा कौतुक विक्रम सिंह का था जिसे उन्होंने कोचाई के परदादा सुतारू मंडल की स्वामिभक्ति और तालाब की देखरेख के प्रति उसकी गहरी संलग्नता से प्रभावित होकर उसे बतौर बख्शीश दे दिया था। तालाब की गहराई के बारे में लोगों का अनुमान था कि यह पचास फ़ीट से भी ज़्यादा गहरा है। उसके तल के बारे में सबका कहना था कि वहाँ एक खास ऐसा केन्द्र है जहाँ कोई गलती से चला जाए तो फिर वापस नहीं आता। कुछ धर्मपरायण लोगों की ऐसी मान्यता थी कि पाताल लोक जाने का एक द्वार है इस तालाब के अन्दर, जहाँ पहुँचते ही उसे भीतर दाखिल कर लिया जाता है।
तालाब के पानी की तासीर की भी एक अलग व्याख्या थी। कहते हैं इसमें नियमित स्नान कर देह के किसी भी चर्मरोग से मुक्ति पाई जा सकती थी। कुछ लोग हफ़्ते या पखवारे इसमें एहतियात के तौर पर इसलिए भी स्नान करते थे कि उन्हें कोई चर्मरोग न हो। धीरे-धीरे लोगों ने तो यहाँ तक मानना शुरू कर दिया कि इसमें स्नान करने से किसी भी तरह की बीमारी से बचा जा सकता है। इसका यह महात्म्य दूर-दूर तक प्रचारित हो गया था जिससे उसमें लोगों के स्नान करने का ताँता कभी खत्म नहीं होता था। लोगों ने इसे कल्याण नाम से पुकारना शुरू कर दिया था।
पहाड़ियों से होकर आने वाले पानी में संभव है कुछ जड़ी-बूटियों का औषध प्रभाव समा जाता हो। लोकश्रुति का स्वभाव तो प्राय: ऐसा होता ही है कि किसी छोटी चीज़ को बढ़ाते-बढ़ाते बहुत बड़ी बना दें। इस तालाब में आम आदमी की तो छोड़िए खुद राणा कौतुक विक्रम सिंह की हवेली से उनकी पत्नियाँ, बहनें और माँ तक सप्ताह में एक बार स्नान करने ज़रूर आती थीं। इन्हें सुरक्षित स्नान कराने का ज़िम्मा सुतारू मंडल का होता था। जब ये शाही महिलाएँ तालाब के घाट पर आतीं थीं तो आम जनों की आमद-रफ़्त वर्जित कर दी जाती थी। कहते हैं इनमें कुछ रानियाँ तैरने की बहुत शौकीन थीं और वे देर तक और दूर तक तालाब में उन्मुक्त तैरती रहती थीं। एक अकेले सुतारू मंडल ही होते थे जो किनारे में खड़े होकर इनकी किसी भी आपातकालीन मदद के लिए चीते की तरह सतर्क रहते थे। कहते हैं सुतारू से इन महिलाओं का अब ऐसा सौजन्य स्थापित हो गया था कि अब वे इनसे जरा भी शर्म, पर्दा और लिहाज़ नहीं करती थीं। सुतारू ने अपने को ऐसा वीतराग बना भी लिया था कि इन्हें किसी भी रूप में देख ले, उसमें कोई उत्तेजना जाग्रत नहीं होती थी। चाहती तो ये महिलाएँ राजमहल की चारदीवारी में ही तालाब खुदवा लेतीं, लेकिन वह औषधीय प्रभाव तो उसमें न आता। सुतारू के शायद इसी संयमित आचरण पर कृपालु होकर राणा ने बतौर इनाम उस यशस्वी तालाब कल्याण का उसे रक्षक और मालिक बना दिया था।
राणा का जब तक राज चला वे इस इलाके में जमे रहे और उनकी रसोई के लिए इसी तालाब से ताज़ी मछलियों की आपूर्ति होती रही। सुतारू मंडल ही इस आपूर्ति के प्रभारी रहे। जब रियासतों का अधिग्रहण होने लगा तो राणा अपनी हवेली और जायदाद अपने बराहिलों और गुमाश्तों को सुपुर्द कर सपरिवार भुवनेश्वर में स्थानांतरित हो गए।
कल्याण सुतारू मंडल से होते हुए अब उनकी तीसरी पीढ़ी कोचाई मंडल के जिम्मे आ गया। कोचाई को अपने दादा की ज़्यादा याद नहीं है लेकिन अपने पिता को तो वह अब भी हर पल अपने आसपास ही महसूस करता रहता है। जब से उसने होश संभाला अपने पिता की उँगली थामे अपने को इस तालाब में ही पाया। पिता उसे तैराना सिखा रहे हैं गहरे पानी में गोता लगाना सिखा रहे हैं नाव खेना सिखा रहे हैं जाल डालना सिखा रहे हैं बिना जाल डाले भी बड़ी मछलियों को पकड़ लेने की कला सिखा रहे हैं मछलियों का जीरा बनाने का गुर सिखा रहे हैं इनके लिए चारा बनाने का इल्म बता रहे हैं।
कोचाई को तालाब विरासत में मिला था। पच्चीस बीघे का लंबा-चौड़ा तालाब ठीक लोखट पहाड़ी के पार्श्व में स्थित था। बरसात के दिनों में पहाड़ी का पानी झरकर एक नाले में तब्दील हो जाता था। बरसात खत्म होने के बाद भी इस नाले में पानी का प्रवाह जारी रहता था। कोचाई ने अपने तालाब के जलस्तर को अधिकतम रखने के लिए ज़रूरत-ब -ज़रूरत नाले की दिशा अपनी ओर मोड़ लेने की व्यवस्था कर रखी थी। इस तालाब के अलावा उसके पास और कोई ज़मीन-जोत नहीं थी। उन्होंने इस क्षेत्र के तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के कारण तालाब के अस्तित्व पर बढ़ते दबाव को भाँपते हुए कहा था, 'देखो बेटे, तालाब सिर्फ पानी का खजाना भर नहीं होता बल्कि यह हमारी संस्कृति का एक अंग है। यह व्यक्ति विशेष के स्वामित्व के अधीन होकर भी एक सार्वजनिक धरोहर है, जिसके इस्तेमाल का हक आसपास की पूरी आबादी को है। जैसे कोई अपनी ही ज़मीन पर गाछ लगा दे तो वह गाछ सिर्फ उसी का नहीं रह जाता। उसकी छाया और नीचे गिरे हुए फल पर हर राहगीर का हक बन जाता है। उसकी शाखाओं पर हजारों चिड़ियों-चुरगनों को बसेरा डालने का हक बन जाता है। तालाब के होने से आसपास के बहुत बड़े क्षेत्रफल में जल-स्तर नियंत्रित रहता है। खेती की जमीनों में नमी बनी रहती है। आसपास के तापमान में एक आर्द्रता रहती है लोगों को ताजी मछलियों की आपूर्ति हो पाती है एक साथ नहाने-धोने से सामाजिकता और सहअस्तित्व की भावना का विकास होता है।'
राजा ने सुतारू से कहा था, 'इस तालाब पर तुम्हारा स्वामित्व जरूर होगा लेकिन इसके उपयोग पर सबको बराबर का अधिकार होगा। हक नहीं होगा तो तालाब का कुछ बिगाड़ने और नष्ट करने का।'
कोचाई के दादा और पिता ने इस निर्देश का पूरा खयाल रखा कभी इस तरह का रौब नहीं दिखाया कि तालाब उसकी निजी जायदाद है। लोगों द्वारा उसके इस्तेमाल पर कभी कोई परेशानी या अड़चन खड़ी नहीं की। उल्टे सबको आकर्षित करने के लिए रख-रखाव व साफ-सफाई पर पूरा ध्यान दिया। सिर्फ मछली मारने तथा इसमें नौकायन करने का हक अपने पास रखा।
कोचाई पिछले कुछ अर्से से देख रहा था कि लोखट पहाड़ी से निकलकर आने वाला नाला क्षीण से क्षीणतर होता जा रहा है। पहाड़ी के पार्श्व में और तालाब के आसपास तेज़ी से फैल रहे कांक्रीट के जंगल, उसमें बस रहे निष्ठुर लोग और उनकी आक्रामक आपाधापी से पहाड़ी के ऊपर के पेड़ यानी प्राकृतिक जंगल तेज़ी से कटकर ग़ायब होने लगे थे। पहाड़ अब बिल्कुल छीन-झपटकर हरण कर लिए गए चीर के उपरांत लुटा-पिटा सा नंगा दिखने लगा था और उससे निकल कर आने वाला नाला जिस नदी में गिरता था उस नदी का पाट भी सिकुड़कर मानो एक पतली रेखा में बदल गया था। नदी नदी नहीं जैसे किसी विधवा की उजड़ी माँग हो गई थी। कोचाई को यह पूर्वाभास हो गया था कि कोई विपत्ति सन्निकट है, लेकिन इतनी सन्निकट है, ऐसा उसने नहीं सोचा था। पर्यावरण के महाविनाश का असर इतना जल्दी दिखाई पड़ने लगेगा, इसकी कल्पना शायद किसी को नहीं थी।
कल्याण के सूखते जाने से बर्बादी में लुत्फ़ उठाने वाले कुछ राक्षसी वृत्ति के लोग तालाब के साथ जुड़ी रहस्यमय दंतकथाओं के अनावृत्त होने के प्रति उत्सुक हो उठे थे। वे यह जानने को व्यग्र थे कि इसमें रहने वाली जलपरी का क्या होगा और वह पानी के बिना मर कर कैसी दिखेगी! निचली सतह पर स्थित उस द्वार का क्या होगा जो पाताल लोक में जाता है! उन बड़ी मछलियों और जलचरों का क्या होगा जिनकी विशाल आकृति के बारे में एक से एक किस्से प्रचलित हैं!
कल्याण सूखता जा रहा था और कोचाई मंडल का मौन बर्फ के टीले की तरह जमता हुआ एक उदास टापू में बदलता जा रहा था। ठीक इसके विपरीत उसके घर में चहल-पहल बढ़ गई थी। कई लोग कार से और जीप से उसके बड़े बेटे राधामुनी से मिलने के लिए आने लगे थे।
कोचाई ने उसकी मंशा ताड़ ली थी। उसने प्रतिरोध किए बिना एक दिन अपना इरादा जता दिया, 'जब तक मैं कायम हूँ, तालाब की ज़मीन पर दूसरा कोई काम नहीं होगा। मुझे विश्वास है कि लोखट पहाड़ी का नाला फिर से जीवित होगा। मैं पहाड़ पर गाछ लगाऊँगा और वहाँ फिर हरा-भरा एक जंगल बसेगा।'
निमाई और राधामुनी एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, मानो वे पूछ रहे हों कि इस आदमी के माथे का पेंच ढीला तो नहीं हो गया? दोनों में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। वे गुपचुप रूप से एक मंत्रणा करने लगे।
कोचाई कल्याण की परिधि पर स्थित किसी गाछ के नीच जाकर बैठ जाता गुमसुम शोकाकुल और आर्तनाद करता हुआ। सामने कल्याण तिल-तिल दम तोड़ रहे किसी प्रिय जन की तरह कराहता हुआ बिछा होता। तट पर आकर कुछ प्यासे जानवर अपनी अबोध आँखों से शून्य को निहारते और फिर वापस हो जाते। जल-विहार करनेवाले पक्षी गाछ की फुनगी से ही दुर्दशा निहारकर स्यापा कर लेते। कुछ बड़ी मछलियाँ, जिनके लिए पेंदी में बचा थोड़ा सा पानी कम पड़ रहा था, छटपटाते-तड़फड़ाते दिख जाते। बस्ती के कुछ लोगों के लिए यह प्रलय एक उत्सव बन गया था और वे एकांत मिलते ही इन मछलियों का शिकार कर अपनी रसोई को चटखारेदार बना लेते।
कल्याण जब पानी से भरा होता तो इसमें एक रौनक समाई होती और इससे एक जीवन राग मुखरित होता रहता। कुछ लोग नहाते होते और पूरब तट पर स्थित शिवालय में जल चढ़ाते होते। छोटे घरों की गृहिणियाँ बतियाती होतीं,
बर्तन-वासन धोती रहतीं और बच्चों को रगड़-रगड़कर उन पर भर-भर लोटा पानी उलीच रही होतीं। कुछ लड़के तैरने का लुत्फ उठाते होते और कुछ लोग इस तट से उस तट नौका-विहार का मजा ले रहे होते। गैरआबादी वाले छोर पर बचे कुछ खाली खेत में सब्जी-भाजी उगानेवाले किसान पटवन के लिए लाठा-कुंडी से पानी निकाल रहे होते। मछलियाँ उन्मुक्त नाद करती हुई तैर रही होतीं। कोचाई द्वारा नियुक्त तीन-चार मछुआरे जाल फैलाए हुए होते।
अब आय का कोई नियमित ज़रिया नहीं रह गया था। कोचाई चिंतित था लेकिन घरवाले जरा सा भी परेशान नहीं थे। उलटे निमाई और राधामुनी पहले से ज्यादा निश्चिंत दिख रहे थे। निचली कक्षाओं में पढ़ने वाला उसका छोटा बेटा और बेटी भी पूर्व की तरह ही अच्छे रख-रखाव में जी रहे थे और स्कूल जा रहे थे।
एक दिन एक साहबनुमा व्यक्ति उससे मिलने आया। उसने अपने को एक शिपिंग कंपनी का अधिकारी बताते हुए कहा, 'मेरा नाम प्रदीप डोगरे है। मुझे आपकी सेवा चाहिए। मेरा एक जहाज बंगाल की खाड़ी में डूब गया है। उसमें सोने की ईटों के पाँच बक्से लदे थे, जिसकी कीमत 50 करोड़ से भी ज़्यादा है। कई गोताखोर हार गए मगर कुछ भी ढूँढ़ने में कामयाब नहीं हुए। आपके बारे में हमें जानकारी मिली। सुना है कि पानी को आपने पूरी तरह साध लिया है दिल से आप जो चाह लेते हैं, वह पूरा हो जाता है पानी आप से दगा नहीं कर सकता। आप अगर इस चुनौती को स्वीकार कर लें तो आप जो भी कीमत चाहें, हम देने को तैयार हैं।'
कोचाई ने जायजा लिया कि राधामुनी, निमाई और उसके अन्य बच्चे भी उस मुद्रा में उन्हें देख रहे हैं जिसमें उनकी इच्छा है कि यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए।
उसकी ठिठक को देखते हुए राधामुनी ने कहा, 'डोगरे साहब ठीक ही कह रहे हैं। यह आपके मन के लायक काम है। यहाँ आप नाहक घुट रहे हैं। चले जाइएगा तो जी बहल जाएगा। कुछ कमाई भी हो जाएगी, घर चलाने के लिए पैसा भी तो चाहिए ही।'
कोचाई को लगा कि राधामुनी ठीक ही कह रही है। तालाब को देख-देखकर उसका दुख असह्य होता जा रहा है। पानी में डुबकी लगाए हुए भी महीनों हो गए। इसके बिना लग रहा था जैसे देह के सारे सेल चार्ज रहित हो गए हैं। उसने हामी भर दी। डोगरे साहब ने झट लिखकर एक लाख रुपए का चेक सामने कर दिया। कोचाई ठगा रह गया, उसकी ऐसी कीमत तो आज तक किसी ने नहीं लगाई।
कोचाई पिछले कुछ अर्से से देख रहा था कि लोखट पहाड़ी से निकलकर आने वाला नाला क्षीण से क्षीणतर होता जा रहा है। पहाड़ी के पार्श्व में और तालाब के आसपास तेज़ी से फैल रहे कांक्रीट के जंगल, उसमें बस रहे निष्ठुर लोग और उनकी आक्रामक आपाधापी से पहाड़ी के ऊपर के पेड़ यानी प्राकृतिक जंगल तेज़ी से कटकर ग़ायब होने लगे थे। पहाड़ से निकल कर आने वाला नाला जिस नदी में गिरता था उस नदी का पाट भी सिकुड़कर मानो एक पतली रेखा में बदल गया था। नदी नदी नहीं जैसे किसी विधवा की उजड़ी माँग हो गई थी।कोचाई को लेकर डोगरे साहब चला गया। उसे कथित शिपिंग कंपनी के मुख्यालय स्थित शहर में भेज दिया गया। कंपनी के कुछ कर्मचारी उसे बोट के जरिए समुद्र में ले जाते। वह गोताखोरों वाली ड्रेस पहनकर मुँह में ऑक्सीजन मास्क लगाता और उस स्थल पर समुद्र में कूद जाता, जहाँ वे जहाज डूबने की आशंका जाहिर करते। कोचाई को पहले भी दो-तीन बार समुद्र में छोटा गोता लगाने का मौका मिल चुका था। इस बार उसे लगभग डेढ़ महीने रोका गया, जिसमें उसने दस-बारह बार लंबे गोते लगाए। गहराई में जाकर समुद्र की दुनिया उसे अचम्भित कर देती थी। अजीब-अजीब तरह के रंग-बिरंगे जीव-जन्तु, पेड़-पौधे और पहाड़ जैसे उसे अपनी ओर खींचने लगते थे। पता नहीं क्यों उसे लगता था कि बाहरी दुनिया से यह अंदरूनी दुनिया कहीं ज्यादा खूबसूरत और सुरक्षित है। उसकी इच्छा होती कि काश वह इसी दुनिया में रहने लायक बन जाता और इन्हीं जलचरों के साथ तैरता रहता समुद्री अंतस्थल की खाइयों और गुफाओं में। उसने बहुत ढूँढ़ा पर उसे जहाज का कोई अवशेष कहीं दिखाई नहीं पड़ा।
डोगरे साहब ने एक दिन उसे फिर दर्शन दिया और कहा, 'मंडल जी, कल आप मेरे साथ लौट जाएँगे अपने शहर।'
कोचाई ने अफसोस जताते हुए कहा, 'मुझे खेद है साहब कि मैं इतना-इतना गोता लगाकर भी कुछ ढूँढ़ न सका।'
उसने कहा, 'नहीं मंडल, आपका गोता लगाना व्यर्थ नहीं गया है। आपके गोता लगाने से हमें जो हासिल करना था, वह हमने कर लिया है।'
कोचाई उसका मुँह देखता रह गया।
घर वापस लौटने लगा तो उसका मन फिर दुखी हो गया। कल्याण अब तक पूरी तरह सूख गया होगा। उसने मन ही मन तय किया कि बरसात आते ही वह लोखट पहाड़ी पर पेड़ लगाना शुरू कर देगा। इस काम में वह अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देगा और इससे निकलने वाले नाले को फिर से जीवित करके छोड़ेगा। तालाब की पूर्व की स्थिति बहाल किए बिना, वह एक तिल चैन की साँस नहीं लेगा।
शहर पहुँचते ही कोचाई के पाँव अनायास तालाब के रास्ते पर ही बढ़ गए। उसने देखा कि उस रास्ते पर दर्जनों डम्फर, डोज़र और ट्रक आवाज़ाही कर रहे हैं। उसका माथा ठनक गया। कल्याण के पास पहुँचा तो वहाँ की हालत देखकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गई। एक किनारे बड़ा-सा बोर्ड लगा था - 'साइट ऑफ डोगरे बिल्डर्स एंड कॉन्ट्रैक्टर्स' कल्याण आसपास के उद्योगों के कचड़े और खेतों की मिट्टी से तोपा जा रहा था। उसका आधा हिस्सा लगभग भरा जा चुका था। क्षण भर के लिए प्रतीत हुआ कि कल्याण को नहीं मानो जीते जी उसे ही दफ़नाया जा रहा है। डोगरे ने जो कहा था, उसका अर्थ अब स्पष्ट होने लगा। उससे गोता लगवाकर उसने वाकई अपना लक्ष्य हासिल कर लिया।
उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा गई ल़गा कि समुद्र में गोता लगाकर वह माल ढूँढने नहीं बल्कि अपना सर्वस्व डुबोने चला गया था।
उसके बड़े लड़के निमाई ने कहा, 'हमें खुश होना चाहिए कि इतने बड़े भूखंड का अब हम सही रूप में व्यावसायिक उपयोग कर सकेंगे। सार्वजनिक हित से जुड़े होने के कारण हम इसके वजूद को एकबारगी मिटा कर इसका रुपांतरण नहीं कर सकते थे। अब जब खुद ही सूख गया है तो हमें अब टोकने वाला भी कोई न रहा। हमें अपने आप बहाना या मौका मिल गया कि इस कीमती भूखंड के सहारे अपनी कायापलट कर लें। हम इससे रातों-रात लाखों बना सकते हैं।'
कोचाई को पता है कि उसकी पत्नी राधामुनी भी इस मुद्दे पर अपने बेटे के पक्ष में हैं। पढ़ाई कर रहे उसके बेटे ने आज से कई साल पहले उसके पानी वाले परंपरागत व्यवसाय से घृणा का इज़हार करते हुए कहा था, 'इस पेशे ने हमारे पूरे खानदान को बौना बनाकर गरीबी के घेरे में सिमटे रहने के लिए अभिशप्त कर दिया है। भला कोई मछली मारकर और नाव खेकर दो रोटी जुटाने से ज्यादा और क्या कर सकता है? मैं कोई सा भी दूसरा काम कर लूँगा, लेकिन पानी से जुड़ा कोई काम नहीं करूँगा। आखिर हम अपना भाग्य पानी में ही क्यों गलाएँ, धरती पर हम अपने लिए कोई मंज़िल क्यों तलाश न करें?'
राधामुनी ने अपने बेटे का ज़ोरदार समर्थन किया, 'तुमने बिल्कुल ठीक फैसला किया है। मैं भी यही चाहती हूँ कि बाप की तरह पानी का प्रेत तुम लोगों पर न सवार हो। मुझे हमेशा लगा कि इस आदमी ने मुझसे नहीं पानी से शादी कर ली हैं। राह देखते-देखते मेरी आँखें थक जातीं मगर इस आदमी का मन पानी से नहीं भरता। इन्होंने ज़मीन और घर से ज्यादा अपना वक्त पानी में बिताया। मैं तो कुढ़ती रही इस पानी से जैसे वह मेरी सौत बन गया। मैंने बहुत पहले ठान लिया था कि अपने बेटों को खूब पढ़ाऊँगी और पानी के धंधे से जितना दूर रखना मुमकिन होगा, रखूँगी।'
निमाई ने अपने दिमागी घोड़े को जरा रफ़्तार से दौड़ाते हुए कहा, 'माँ, पढ़ाई-लिखाई अगर हमें रास्ता बदलने में मदद कर दे तो अच्छा है, इसके बाद भी हमें तालाब में फँसी ज़मीनों का बाज़ार भाव के हिसाब से रिटर्न पाने के लिए पानी से अपना पिंड छुड़ाना ही होगा। पच्चीस बीघा का रकबा इस इलाके के लिए लाख की नहीं करोड़ की संपत्ति साबित होगा। चारों तरफ जिस तरह कालोनियाँ बसी हैं, उद्योगों के जाल बिछ रहे हैं, इसकी मुँह माँगी कीमत वसूली जा सकती है।'
कोचाई को गुस्सा करना नहीं आता था और ना ही उसे किसी से चोंच लड़ाने में कोई रुचि थी। वह संत भाव से ऐसी बातें सुन लेता था और कल क्या होने वाला है, उसे नियति के भरोसे छोड़कर अपने काम में लग जाता था। उसने अपने दादा की लिखी हुई डायरी का एक पन्ना लाकर निमाई के हाथों में रख दिया। उसमें लिखा था, 'तालाब की अहमियत रुपयों-पैसों से नहीं आँकी जा सकती और अगर रुपयों से आँकी जाए तो उसके जरिए जो मानवीयता पर परोपकार हो रहा है, वह अरबों-खरबों से भी कहीं ज्यादा है। जब एक कुआँ बन जाता है या तालाब तो वह किसी की निजी संपत्ति नहीं रह जाता, वह सार्वजनिक हो जाता है।'
निमाई ने डायरी के उस पन्ने की चिंदी-चिंदी कर डाली।
राधामुनी ने कहा था, 'मैं तो कब से यह चाहती रही कि इस तालाब को भरवाकर हम सिर्फ इसे बेच दें तो उसी से कई पीढ़ियों से जमी हमारी दरिद्रता छूमंतर हो जाए। लेकिन तुम्हारे इस बाप की जिद और पानी में बसे इनके प्राण को देखकर मैं कोई सख्त कदम उठाने के लायक न बन पाई और तुम लोगों के जवान होने का मैं इंतजार करती रही। अब देखो, ऊपर वाले का कमाल, उसने हमारी सुन ली और इसका सारा पानी अपने आप ही ग़ायब हो गया।'
अपने बीवी-बच्चों के विजयी भाव को देखकर कोचाई जैसे किसी मूक चित्र में परिवर्तित हो गया।
कोचाई मंडल के जीवन में पानी ही पानी था। वह अपना समय ज़मीन पर कम और पानी पर ज़्यादा गुज़ारता था। वह अपने को पानी का पहरेदार कहता था और लोग उसे पानी का मेंढक कहते थे। पानी के अंदर या पानी के ऊपर कोई कारोबार चलाना हो तो कोचाई से उपयुक्त व्यक्ति दूसरा कोई नहीं हो सकता था। नदी में, तालाब में, समुद्र में कोई दुर्घटना हो जाए, कोचाई का झट बुलावा आ जाता। कहते हैं जो काम सेना के गोताखोरों से भी संभव नहीं हो पाता, उसे कोचाई कर डालता था। इस मामले में उसकी ख्याति काफी दूर-दूर तक थी। कोई बस नदी में पलट गई और कुछ लाशें बरामद नहीं हो सकी कोचाई को लगा दीजिए। किसी ने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली और उसकी लाश बहकर अदृश्य हो गई कोचाई के लिए यह कोई बड़ा मसला नहीं है। कहीं अचानक बाढ़ आ गई और पानी में फँसे लोगों को बाहर निकालना है गरजती-उछलती जलधारा में किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही कोचाई कमर में गमछा बांधकर पानी में कूद पड़ेगा। पानी के अंदर काफ़ी गहरे में किसी की कोई बहुमूल्य वस्तु गिर गई क़ोचाई पाताल में भी डुबकी लगाकर निकाल लेगा।
उसके बारे में यह किंवदंती प्रचलित हो गई थी कि पानी में उतरते ही उसकी ताकत बढ़ जाती है। पानी के अंदर वह ज्यादा देख सकता है पानी के अंदर मीलोंमील तैर सकता है पानी के अंदर वह जलचरों को सूँघ कर पता कर सकता है उसकी देह से पानी का स्पर्श होते ही उसमें एक बिजली दौड़ जाती है।
कोचाई के बारे में उसके कुछ गाँव वाले कहते थे कि इसे दरअसल किसी जलचर में जन्म लेना था, मगर गलती से आदमी (थलचर) में आ गया। उसके बारे में यह किस्सा भी प्रचलित था कि कोई जलपरी है जो कोचाई से प्यार करती है। ज्यों ही वह पानी में उतरता है वह जलपरी उस पर सवार हो जाती है और उसकी पूरी दैवीय शक्ति उसमें समा जाती हैं।
पानी को इस तरह साध लेने वाला कोचाई कभी पानी रहित हो जाएगा, यह कोई नहीं जानता था। पानी ने कोचाई को दार्शनिक बना दिया था। वह कहा करता था कि पानी जिस तरह दुनिया भर के विकार और गंदगी साफ करता है, अगर कोई आठ-दस दिनों तक पानी के संपर्क में रह जाए चारों ओर पानी ही पानी, दूसरा कोई नहीं तो उसके मन का विकार भी धुल जाता है। पानी दया, करूणा, ममता और आत्मीयता का पर्याय है वह आदमी को तरल, सरल और निश्छल बना देता है। पानी में सारे तत्व हैं, कोई चाहे तो सिर्फ पानी पीकर अपनी पूरी उम्र जी सकता है। बहुत सारे ऐसे जलचर हैं जो बिना खाए भी पानी में रहकर जी लेते हैं। पानी की जिसको आदत हो जाती है, वह पानी के बिना नहीं रह सकता। पानी से अलग होते ही वह प्राण त्याग देता है।
पानी को इस तरह साध लेने वाला कोचाई कभी पानी रहित हो जाएगा, यह कोई नहीं जानता था। पानी ने कोचाई को दार्शनिक बना दिया था। वह कहा करता था कि पानी जिस तरह दुनिया भर के विकार और गंदगी साफ करता है, अगर कोई आठ-दस दिनों तक पानी के संपर्क में रह जाए चारों ओर पानी ही पानी, दूसरा कोई नहीं तो उसके मन का विकार भी धुल जाता है। पानी दया, करूणा, ममता और आत्मीयता का पर्याय है वह आदमी को तरल, सरल और निश्छल बना देता है।
कोचाई को तालाब विरासत में मिला था। पच्चीस बीघे का लंबा-चौड़ा तालाब ठीक लोखट पहाड़ी के पार्श्व में स्थित था। बरसात के दिनों में पहाड़ी का पानी झरकर एक नाले में तब्दील हो जाता था। बरसात खत्म होने के बाद भी इस नाले में पानी का प्रवाह जारी रहता था। कोचाई ने अपने तालाब के जलस्तर को अधिकतम रखने के लिए ज़रूरत-ब -ज़रूरत नाले की दिशा अपनी ओर मोड़ लेने की व्यवस्था कर रखी थी। इस तालाब के अलावा उसके पास और कोई ज़मीन-जोत नहीं थी। इसी से उसकी आजीविका चलती थी और इसी से उसकी पहचान बनती थी। इस तालाब की गहराई के बारे में, कोचाई के पुरखों के पास हस्तांतरित होने के बारे में और इसके महात्म्य व गुणधर्मिता के बारे में कई तरह की दंत कथाएँ प्रचलित थीं।कहते हैं यह तालाब जमाईकेला रियासत के राणा कौतुक विक्रम सिंह का था जिसे उन्होंने कोचाई के परदादा सुतारू मंडल की स्वामिभक्ति और तालाब की देखरेख के प्रति उसकी गहरी संलग्नता से प्रभावित होकर उसे बतौर बख्शीश दे दिया था। तालाब की गहराई के बारे में लोगों का अनुमान था कि यह पचास फ़ीट से भी ज़्यादा गहरा है। उसके तल के बारे में सबका कहना था कि वहाँ एक खास ऐसा केन्द्र है जहाँ कोई गलती से चला जाए तो फिर वापस नहीं आता। कुछ धर्मपरायण लोगों की ऐसी मान्यता थी कि पाताल लोक जाने का एक द्वार है इस तालाब के अन्दर, जहाँ पहुँचते ही उसे भीतर दाखिल कर लिया जाता है।
तालाब के पानी की तासीर की भी एक अलग व्याख्या थी। कहते हैं इसमें नियमित स्नान कर देह के किसी भी चर्मरोग से मुक्ति पाई जा सकती थी। कुछ लोग हफ़्ते या पखवारे इसमें एहतियात के तौर पर इसलिए भी स्नान करते थे कि उन्हें कोई चर्मरोग न हो। धीरे-धीरे लोगों ने तो यहाँ तक मानना शुरू कर दिया कि इसमें स्नान करने से किसी भी तरह की बीमारी से बचा जा सकता है। इसका यह महात्म्य दूर-दूर तक प्रचारित हो गया था जिससे उसमें लोगों के स्नान करने का ताँता कभी खत्म नहीं होता था। लोगों ने इसे कल्याण नाम से पुकारना शुरू कर दिया था।
पहाड़ियों से होकर आने वाले पानी में संभव है कुछ जड़ी-बूटियों का औषध प्रभाव समा जाता हो। लोकश्रुति का स्वभाव तो प्राय: ऐसा होता ही है कि किसी छोटी चीज़ को बढ़ाते-बढ़ाते बहुत बड़ी बना दें। इस तालाब में आम आदमी की तो छोड़िए खुद राणा कौतुक विक्रम सिंह की हवेली से उनकी पत्नियाँ, बहनें और माँ तक सप्ताह में एक बार स्नान करने ज़रूर आती थीं। इन्हें सुरक्षित स्नान कराने का ज़िम्मा सुतारू मंडल का होता था। जब ये शाही महिलाएँ तालाब के घाट पर आतीं थीं तो आम जनों की आमद-रफ़्त वर्जित कर दी जाती थी। कहते हैं इनमें कुछ रानियाँ तैरने की बहुत शौकीन थीं और वे देर तक और दूर तक तालाब में उन्मुक्त तैरती रहती थीं। एक अकेले सुतारू मंडल ही होते थे जो किनारे में खड़े होकर इनकी किसी भी आपातकालीन मदद के लिए चीते की तरह सतर्क रहते थे। कहते हैं सुतारू से इन महिलाओं का अब ऐसा सौजन्य स्थापित हो गया था कि अब वे इनसे जरा भी शर्म, पर्दा और लिहाज़ नहीं करती थीं। सुतारू ने अपने को ऐसा वीतराग बना भी लिया था कि इन्हें किसी भी रूप में देख ले, उसमें कोई उत्तेजना जाग्रत नहीं होती थी। चाहती तो ये महिलाएँ राजमहल की चारदीवारी में ही तालाब खुदवा लेतीं, लेकिन वह औषधीय प्रभाव तो उसमें न आता। सुतारू के शायद इसी संयमित आचरण पर कृपालु होकर राणा ने बतौर इनाम उस यशस्वी तालाब कल्याण का उसे रक्षक और मालिक बना दिया था।
राणा का जब तक राज चला वे इस इलाके में जमे रहे और उनकी रसोई के लिए इसी तालाब से ताज़ी मछलियों की आपूर्ति होती रही। सुतारू मंडल ही इस आपूर्ति के प्रभारी रहे। जब रियासतों का अधिग्रहण होने लगा तो राणा अपनी हवेली और जायदाद अपने बराहिलों और गुमाश्तों को सुपुर्द कर सपरिवार भुवनेश्वर में स्थानांतरित हो गए।
कल्याण सुतारू मंडल से होते हुए अब उनकी तीसरी पीढ़ी कोचाई मंडल के जिम्मे आ गया। कोचाई को अपने दादा की ज़्यादा याद नहीं है लेकिन अपने पिता को तो वह अब भी हर पल अपने आसपास ही महसूस करता रहता है। जब से उसने होश संभाला अपने पिता की उँगली थामे अपने को इस तालाब में ही पाया। पिता उसे तैराना सिखा रहे हैं गहरे पानी में गोता लगाना सिखा रहे हैं नाव खेना सिखा रहे हैं जाल डालना सिखा रहे हैं बिना जाल डाले भी बड़ी मछलियों को पकड़ लेने की कला सिखा रहे हैं मछलियों का जीरा बनाने का गुर सिखा रहे हैं इनके लिए चारा बनाने का इल्म बता रहे हैं।
कोचाई को तालाब विरासत में मिला था। पच्चीस बीघे का लंबा-चौड़ा तालाब ठीक लोखट पहाड़ी के पार्श्व में स्थित था। बरसात के दिनों में पहाड़ी का पानी झरकर एक नाले में तब्दील हो जाता था। बरसात खत्म होने के बाद भी इस नाले में पानी का प्रवाह जारी रहता था। कोचाई ने अपने तालाब के जलस्तर को अधिकतम रखने के लिए ज़रूरत-ब -ज़रूरत नाले की दिशा अपनी ओर मोड़ लेने की व्यवस्था कर रखी थी। इस तालाब के अलावा उसके पास और कोई ज़मीन-जोत नहीं थी। उन्होंने इस क्षेत्र के तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के कारण तालाब के अस्तित्व पर बढ़ते दबाव को भाँपते हुए कहा था, 'देखो बेटे, तालाब सिर्फ पानी का खजाना भर नहीं होता बल्कि यह हमारी संस्कृति का एक अंग है। यह व्यक्ति विशेष के स्वामित्व के अधीन होकर भी एक सार्वजनिक धरोहर है, जिसके इस्तेमाल का हक आसपास की पूरी आबादी को है। जैसे कोई अपनी ही ज़मीन पर गाछ लगा दे तो वह गाछ सिर्फ उसी का नहीं रह जाता। उसकी छाया और नीचे गिरे हुए फल पर हर राहगीर का हक बन जाता है। उसकी शाखाओं पर हजारों चिड़ियों-चुरगनों को बसेरा डालने का हक बन जाता है। तालाब के होने से आसपास के बहुत बड़े क्षेत्रफल में जल-स्तर नियंत्रित रहता है। खेती की जमीनों में नमी बनी रहती है। आसपास के तापमान में एक आर्द्रता रहती है लोगों को ताजी मछलियों की आपूर्ति हो पाती है एक साथ नहाने-धोने से सामाजिकता और सहअस्तित्व की भावना का विकास होता है।'
राजा ने सुतारू से कहा था, 'इस तालाब पर तुम्हारा स्वामित्व जरूर होगा लेकिन इसके उपयोग पर सबको बराबर का अधिकार होगा। हक नहीं होगा तो तालाब का कुछ बिगाड़ने और नष्ट करने का।'
कोचाई के दादा और पिता ने इस निर्देश का पूरा खयाल रखा कभी इस तरह का रौब नहीं दिखाया कि तालाब उसकी निजी जायदाद है। लोगों द्वारा उसके इस्तेमाल पर कभी कोई परेशानी या अड़चन खड़ी नहीं की। उल्टे सबको आकर्षित करने के लिए रख-रखाव व साफ-सफाई पर पूरा ध्यान दिया। सिर्फ मछली मारने तथा इसमें नौकायन करने का हक अपने पास रखा।
कोचाई पिछले कुछ अर्से से देख रहा था कि लोखट पहाड़ी से निकलकर आने वाला नाला क्षीण से क्षीणतर होता जा रहा है। पहाड़ी के पार्श्व में और तालाब के आसपास तेज़ी से फैल रहे कांक्रीट के जंगल, उसमें बस रहे निष्ठुर लोग और उनकी आक्रामक आपाधापी से पहाड़ी के ऊपर के पेड़ यानी प्राकृतिक जंगल तेज़ी से कटकर ग़ायब होने लगे थे। पहाड़ अब बिल्कुल छीन-झपटकर हरण कर लिए गए चीर के उपरांत लुटा-पिटा सा नंगा दिखने लगा था और उससे निकल कर आने वाला नाला जिस नदी में गिरता था उस नदी का पाट भी सिकुड़कर मानो एक पतली रेखा में बदल गया था। नदी नदी नहीं जैसे किसी विधवा की उजड़ी माँग हो गई थी। कोचाई को यह पूर्वाभास हो गया था कि कोई विपत्ति सन्निकट है, लेकिन इतनी सन्निकट है, ऐसा उसने नहीं सोचा था। पर्यावरण के महाविनाश का असर इतना जल्दी दिखाई पड़ने लगेगा, इसकी कल्पना शायद किसी को नहीं थी।
कल्याण के सूखते जाने से बर्बादी में लुत्फ़ उठाने वाले कुछ राक्षसी वृत्ति के लोग तालाब के साथ जुड़ी रहस्यमय दंतकथाओं के अनावृत्त होने के प्रति उत्सुक हो उठे थे। वे यह जानने को व्यग्र थे कि इसमें रहने वाली जलपरी का क्या होगा और वह पानी के बिना मर कर कैसी दिखेगी! निचली सतह पर स्थित उस द्वार का क्या होगा जो पाताल लोक में जाता है! उन बड़ी मछलियों और जलचरों का क्या होगा जिनकी विशाल आकृति के बारे में एक से एक किस्से प्रचलित हैं!
कल्याण सूखता जा रहा था और कोचाई मंडल का मौन बर्फ के टीले की तरह जमता हुआ एक उदास टापू में बदलता जा रहा था। ठीक इसके विपरीत उसके घर में चहल-पहल बढ़ गई थी। कई लोग कार से और जीप से उसके बड़े बेटे राधामुनी से मिलने के लिए आने लगे थे।
कोचाई ने उसकी मंशा ताड़ ली थी। उसने प्रतिरोध किए बिना एक दिन अपना इरादा जता दिया, 'जब तक मैं कायम हूँ, तालाब की ज़मीन पर दूसरा कोई काम नहीं होगा। मुझे विश्वास है कि लोखट पहाड़ी का नाला फिर से जीवित होगा। मैं पहाड़ पर गाछ लगाऊँगा और वहाँ फिर हरा-भरा एक जंगल बसेगा।'
निमाई और राधामुनी एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, मानो वे पूछ रहे हों कि इस आदमी के माथे का पेंच ढीला तो नहीं हो गया? दोनों में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। वे गुपचुप रूप से एक मंत्रणा करने लगे।
कोचाई कल्याण की परिधि पर स्थित किसी गाछ के नीच जाकर बैठ जाता गुमसुम शोकाकुल और आर्तनाद करता हुआ। सामने कल्याण तिल-तिल दम तोड़ रहे किसी प्रिय जन की तरह कराहता हुआ बिछा होता। तट पर आकर कुछ प्यासे जानवर अपनी अबोध आँखों से शून्य को निहारते और फिर वापस हो जाते। जल-विहार करनेवाले पक्षी गाछ की फुनगी से ही दुर्दशा निहारकर स्यापा कर लेते। कुछ बड़ी मछलियाँ, जिनके लिए पेंदी में बचा थोड़ा सा पानी कम पड़ रहा था, छटपटाते-तड़फड़ाते दिख जाते। बस्ती के कुछ लोगों के लिए यह प्रलय एक उत्सव बन गया था और वे एकांत मिलते ही इन मछलियों का शिकार कर अपनी रसोई को चटखारेदार बना लेते।
कल्याण जब पानी से भरा होता तो इसमें एक रौनक समाई होती और इससे एक जीवन राग मुखरित होता रहता। कुछ लोग नहाते होते और पूरब तट पर स्थित शिवालय में जल चढ़ाते होते। छोटे घरों की गृहिणियाँ बतियाती होतीं,
बर्तन-वासन धोती रहतीं और बच्चों को रगड़-रगड़कर उन पर भर-भर लोटा पानी उलीच रही होतीं। कुछ लड़के तैरने का लुत्फ उठाते होते और कुछ लोग इस तट से उस तट नौका-विहार का मजा ले रहे होते। गैरआबादी वाले छोर पर बचे कुछ खाली खेत में सब्जी-भाजी उगानेवाले किसान पटवन के लिए लाठा-कुंडी से पानी निकाल रहे होते। मछलियाँ उन्मुक्त नाद करती हुई तैर रही होतीं। कोचाई द्वारा नियुक्त तीन-चार मछुआरे जाल फैलाए हुए होते।
अब आय का कोई नियमित ज़रिया नहीं रह गया था। कोचाई चिंतित था लेकिन घरवाले जरा सा भी परेशान नहीं थे। उलटे निमाई और राधामुनी पहले से ज्यादा निश्चिंत दिख रहे थे। निचली कक्षाओं में पढ़ने वाला उसका छोटा बेटा और बेटी भी पूर्व की तरह ही अच्छे रख-रखाव में जी रहे थे और स्कूल जा रहे थे।
एक दिन एक साहबनुमा व्यक्ति उससे मिलने आया। उसने अपने को एक शिपिंग कंपनी का अधिकारी बताते हुए कहा, 'मेरा नाम प्रदीप डोगरे है। मुझे आपकी सेवा चाहिए। मेरा एक जहाज बंगाल की खाड़ी में डूब गया है। उसमें सोने की ईटों के पाँच बक्से लदे थे, जिसकी कीमत 50 करोड़ से भी ज़्यादा है। कई गोताखोर हार गए मगर कुछ भी ढूँढ़ने में कामयाब नहीं हुए। आपके बारे में हमें जानकारी मिली। सुना है कि पानी को आपने पूरी तरह साध लिया है दिल से आप जो चाह लेते हैं, वह पूरा हो जाता है पानी आप से दगा नहीं कर सकता। आप अगर इस चुनौती को स्वीकार कर लें तो आप जो भी कीमत चाहें, हम देने को तैयार हैं।'
कोचाई ने जायजा लिया कि राधामुनी, निमाई और उसके अन्य बच्चे भी उस मुद्रा में उन्हें देख रहे हैं जिसमें उनकी इच्छा है कि यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए।
उसकी ठिठक को देखते हुए राधामुनी ने कहा, 'डोगरे साहब ठीक ही कह रहे हैं। यह आपके मन के लायक काम है। यहाँ आप नाहक घुट रहे हैं। चले जाइएगा तो जी बहल जाएगा। कुछ कमाई भी हो जाएगी, घर चलाने के लिए पैसा भी तो चाहिए ही।'
कोचाई को लगा कि राधामुनी ठीक ही कह रही है। तालाब को देख-देखकर उसका दुख असह्य होता जा रहा है। पानी में डुबकी लगाए हुए भी महीनों हो गए। इसके बिना लग रहा था जैसे देह के सारे सेल चार्ज रहित हो गए हैं। उसने हामी भर दी। डोगरे साहब ने झट लिखकर एक लाख रुपए का चेक सामने कर दिया। कोचाई ठगा रह गया, उसकी ऐसी कीमत तो आज तक किसी ने नहीं लगाई।
कोचाई पिछले कुछ अर्से से देख रहा था कि लोखट पहाड़ी से निकलकर आने वाला नाला क्षीण से क्षीणतर होता जा रहा है। पहाड़ी के पार्श्व में और तालाब के आसपास तेज़ी से फैल रहे कांक्रीट के जंगल, उसमें बस रहे निष्ठुर लोग और उनकी आक्रामक आपाधापी से पहाड़ी के ऊपर के पेड़ यानी प्राकृतिक जंगल तेज़ी से कटकर ग़ायब होने लगे थे। पहाड़ से निकल कर आने वाला नाला जिस नदी में गिरता था उस नदी का पाट भी सिकुड़कर मानो एक पतली रेखा में बदल गया था। नदी नदी नहीं जैसे किसी विधवा की उजड़ी माँग हो गई थी।कोचाई को लेकर डोगरे साहब चला गया। उसे कथित शिपिंग कंपनी के मुख्यालय स्थित शहर में भेज दिया गया। कंपनी के कुछ कर्मचारी उसे बोट के जरिए समुद्र में ले जाते। वह गोताखोरों वाली ड्रेस पहनकर मुँह में ऑक्सीजन मास्क लगाता और उस स्थल पर समुद्र में कूद जाता, जहाँ वे जहाज डूबने की आशंका जाहिर करते। कोचाई को पहले भी दो-तीन बार समुद्र में छोटा गोता लगाने का मौका मिल चुका था। इस बार उसे लगभग डेढ़ महीने रोका गया, जिसमें उसने दस-बारह बार लंबे गोते लगाए। गहराई में जाकर समुद्र की दुनिया उसे अचम्भित कर देती थी। अजीब-अजीब तरह के रंग-बिरंगे जीव-जन्तु, पेड़-पौधे और पहाड़ जैसे उसे अपनी ओर खींचने लगते थे। पता नहीं क्यों उसे लगता था कि बाहरी दुनिया से यह अंदरूनी दुनिया कहीं ज्यादा खूबसूरत और सुरक्षित है। उसकी इच्छा होती कि काश वह इसी दुनिया में रहने लायक बन जाता और इन्हीं जलचरों के साथ तैरता रहता समुद्री अंतस्थल की खाइयों और गुफाओं में। उसने बहुत ढूँढ़ा पर उसे जहाज का कोई अवशेष कहीं दिखाई नहीं पड़ा।
डोगरे साहब ने एक दिन उसे फिर दर्शन दिया और कहा, 'मंडल जी, कल आप मेरे साथ लौट जाएँगे अपने शहर।'
कोचाई ने अफसोस जताते हुए कहा, 'मुझे खेद है साहब कि मैं इतना-इतना गोता लगाकर भी कुछ ढूँढ़ न सका।'
उसने कहा, 'नहीं मंडल, आपका गोता लगाना व्यर्थ नहीं गया है। आपके गोता लगाने से हमें जो हासिल करना था, वह हमने कर लिया है।'
कोचाई उसका मुँह देखता रह गया।
घर वापस लौटने लगा तो उसका मन फिर दुखी हो गया। कल्याण अब तक पूरी तरह सूख गया होगा। उसने मन ही मन तय किया कि बरसात आते ही वह लोखट पहाड़ी पर पेड़ लगाना शुरू कर देगा। इस काम में वह अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देगा और इससे निकलने वाले नाले को फिर से जीवित करके छोड़ेगा। तालाब की पूर्व की स्थिति बहाल किए बिना, वह एक तिल चैन की साँस नहीं लेगा।
शहर पहुँचते ही कोचाई के पाँव अनायास तालाब के रास्ते पर ही बढ़ गए। उसने देखा कि उस रास्ते पर दर्जनों डम्फर, डोज़र और ट्रक आवाज़ाही कर रहे हैं। उसका माथा ठनक गया। कल्याण के पास पहुँचा तो वहाँ की हालत देखकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गई। एक किनारे बड़ा-सा बोर्ड लगा था - 'साइट ऑफ डोगरे बिल्डर्स एंड कॉन्ट्रैक्टर्स' कल्याण आसपास के उद्योगों के कचड़े और खेतों की मिट्टी से तोपा जा रहा था। उसका आधा हिस्सा लगभग भरा जा चुका था। क्षण भर के लिए प्रतीत हुआ कि कल्याण को नहीं मानो जीते जी उसे ही दफ़नाया जा रहा है। डोगरे ने जो कहा था, उसका अर्थ अब स्पष्ट होने लगा। उससे गोता लगवाकर उसने वाकई अपना लक्ष्य हासिल कर लिया।
उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा गई ल़गा कि समुद्र में गोता लगाकर वह माल ढूँढने नहीं बल्कि अपना सर्वस्व डुबोने चला गया था।