यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज का क्योटो प्रोटोकॉल पर्यावरण की चुनौती से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का एक हिस्सा है. दिसंबर 1997 में कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (सीओपीई) के तीसरे सत्र में अनुमोदित इस प्रोटोकॉल में विकसित देशों के उलट ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की सीमा तय की गई है, जो क़ानूनी रूप से बाध्यकारी है. यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों ने मई 2002 में इसको मंजूरी दी.
विकसित देशों में क़रीब 150 साल पहले शुरू हुई ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन को कम करने और फिर उसे समाप्त करने के इरादे से अस्तित्व में आए क्योटो प्रोटोकॉल का अंतिम उद्देश्य हर ऐसी मानवीय गतिविधि पर रोक लगाना है, जिससे पर्यावरण के लिए ख़तरा पैदा होता है. प्रोटोकॉल के मसौदे के मुताबिक़, विकसित देशों को छह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कम से कम पांच प्रतिशत की कमी करनी होगी. इस सामूहिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्विट्जरलैंड, मध्य और पूर्वी यूरोपीय राष्ट्रों एवं यूरोपीय संघ (अपने सदस्य देशों का लक्ष्य खुद यूरोपीय संघ तय करेगा) को 8 प्रतिशत, अमेरिका 7 प्रतिशत एवं कनाडा, हंगरी, जापान और पोलैंड को 6 प्रतिशत की कमी करनी होगी. रूस, न्यूजीलैंड और यूक्रेन अपने मौजूदा स्तर पर क़ायम रहेंगे. जबकि नार्वे एक प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया 8 प्रतिशत और आइसलैंड इसमें 10 प्रतिशत तक की वृद्धि कर सकते हैं.
हर राष्ट्र को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का यह लक्ष्य 2008-2012 के बीच हासिल करना होगा. उनके प्रदर्शन को मापने के लिए पांच सालों का औसत निकालने का प्रावधान है. सदस्य देशों को लक्ष्य हासिल करने की दिशा में 2005 तक अपने प्रयासों को स्पष्ट करना होगा. तीन सबसे महत्वपूर्ण गैसों कार्बनडाई ऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के घटे स्तर को मापने के लिए 1990 को आधार वर्ष माने जाने की व्यवस्था है (हालांकि कुछ खास देशों के मामले में इसमें बदलाव किया जा सकता है).
औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाली ख़तरनाक गैसों में तीन सबसे पुरानी गैसों-हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, पाफ्लोरोकार्बन और सल्फर हेक्साफ्लोराइड के स्तर का आकलन 1990 या 1995 को आधार वर्ष मानकर किया जा सकता है. (खतरनाक औद्योगिक गैसों के एक और समूह क्लोरोफ्लोरोकार्बन की चर्चा 1987 के मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ऑन सब्सटांसेज दैट डिप्लेट ओजोन लेयर में की गई है). उत्सर्जन में वास्तविक कटौती पांट प्रतिशत से ज़्यादा होगी. 2000 में उत्सर्जन की लक्षित सीमा को ध्यान में रखते हुए सबसे धनी और विकसित औद्योगिक देशों को अपने उत्सर्जन में क़रीब 10 प्रतिशत की कमी लानी होगी. इसकी वजह यह है कि अपेक्षा के मुताबिक़ इन देशों को साल 2000 तक अपने उत्सर्जन के स्तर को कम करके 1990 के स्तर पर लाना था, लेकिन वे ऐसा करने में कामयाब नहीं रहे हैं. सच तो यह है कि 1990 के बाद उनके उत्सर्जन के स्तर में इज़ा़फा हुआ है. अर्थव्यवस्था में बदलाव के दौर से गुजर रहे देशों के उत्सर्जन के स्तर में 1990 के बाद कमी दिखाई दी थी, लेकिन अब यह ट्रेंड बदलता नज़र आ रहा है.इससे यह स्पष्ट है कि 2010 के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रोटोकॉल के अंतर्गत उत्सर्जन के स्तर में 5 प्रतिशत की कमी सुनिश्चित करने के लिए विकसित देशों को वास्तव में क़रीब 20 प्रतिशत की कटौती करनी होगी. उत्सर्जन के स्तर में कमी को मापने के तरीक़े के मामले में सदस्य देश काफी हद तक स्वतंत्र हैं. इस दिशा में एमिशन ट्रेडिंग की चर्चा की गई है, जिसके तहत विकसित औद्योगिक राष्ट्र आपस में प्वाइंट्स की ख़रीद-बिक्री कर सकते हैं. संयुक्त उपक्रम की प्रक्रिया के अंतर्गत ये देश अन्य विकसित देशों में कुछ खास परियोजनाओं में वित्तीय सहयोग कर एमिशन रिडक्शन प्वाइंट्स अर्जित भी कर सकते हैं. इसके अलावा विकासशील देशों में उत्सर्जन में कमी करने वाली परियोजनाओं को बढ़ावा देकर स्वच्छ विकास की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करके भी ये देश प्वाइंट्स हासिल कर सकते हैं.
उत्सर्जन में कमी के प्रावधानों को अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में लागू करना होगा. प्रोटोकॉल में देशों को आपसी सहयोग को बढ़ाने, ऊर्जा स्रोतों के सही इस्तेमाल, ईंधन और ट्रांसपोर्ट के क्षेत्र में सुधार, ग़ैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ाने, ग़लत वित्तीय नीतियों को ख़त्म करने, कचरे से होने वाले मिथेन उत्सर्जन और बाज़ार की विसंगतियों को दूर करने एवं जंगलों को बचाने की ज़िम्मेदारी दी गई है. प्रोटोकॉल सदस्य देशों के पहले की प्रतिबद्धताओं को और आगे लेकर जाता है. इसके तहत विकसित और विकासशील देशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उत्सर्जन के स्तर को नियंत्रित करते हुए भविष्य में पर्यावरण में होने वाले बदलावों के अनुरूप बदलाव की कोशिश करेंगे. इससे संबंधित अपने राष्ट्रीय पर्यावरण कार्यक्रम की जानकारी देंगे, तकनीक के हस्तांतरण को बढ़ावा देंगे, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय शोधों में सहयोग करेंगे और लोगों के बीच शिक्षा एवं प्रशिक्षण के माध्यम से जागरूकता बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे. साथ ही, इसमें इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विकासशील देशों पर पड़े वित्तीय भार के लिए अलग से व्यवस्था करने की बात पर ज़ोर दिया गया है.
कन्वेंशन की कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (सीओपी) ही प्रोटोकॉल के सदस्य देशों की आपसी मुलाक़ात का ज़रिया भी होगी. यह व्यवस्था कन्वेंशन के अंत:सरकारी कार्यों के प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए की गई है. वैसे देश जो कन्वेंशन के सदस्य हैं लेकिन प्रोटोकॉल में शामिल नहीं हैं, प्रोटोकॉल की बैठकों में पर्यवेक्षक की हैसियत से शरीक हो सकते हैं.
विकसित देशों में क़रीब 150 साल पहले शुरू हुई ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन को कम करने और फिर उसे समाप्त करने के इरादे से अस्तित्व में आए क्योटो प्रोटोकॉल का अंतिम उद्देश्य हर ऐसी मानवीय गतिविधि पर रोक लगाना है, जिससे पर्यावरण के लिए ख़तरा पैदा होता है. प्रोटोकॉल के मसौदे के मुताबिक़, विकसित देशों को छह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कम से कम पांच प्रतिशत की कमी करनी होगी. इस सामूहिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्विट्जरलैंड, मध्य और पूर्वी यूरोपीय राष्ट्रों एवं यूरोपीय संघ (अपने सदस्य देशों का लक्ष्य खुद यूरोपीय संघ तय करेगा) को 8 प्रतिशत, अमेरिका 7 प्रतिशत एवं कनाडा, हंगरी, जापान और पोलैंड को 6 प्रतिशत की कमी करनी होगी. रूस, न्यूजीलैंड और यूक्रेन अपने मौजूदा स्तर पर क़ायम रहेंगे. जबकि नार्वे एक प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया 8 प्रतिशत और आइसलैंड इसमें 10 प्रतिशत तक की वृद्धि कर सकते हैं.
हर राष्ट्र को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का यह लक्ष्य 2008-2012 के बीच हासिल करना होगा. उनके प्रदर्शन को मापने के लिए पांच सालों का औसत निकालने का प्रावधान है. सदस्य देशों को लक्ष्य हासिल करने की दिशा में 2005 तक अपने प्रयासों को स्पष्ट करना होगा. तीन सबसे महत्वपूर्ण गैसों कार्बनडाई ऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के घटे स्तर को मापने के लिए 1990 को आधार वर्ष माने जाने की व्यवस्था है (हालांकि कुछ खास देशों के मामले में इसमें बदलाव किया जा सकता है).
औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाली ख़तरनाक गैसों में तीन सबसे पुरानी गैसों-हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, पाफ्लोरोकार्बन और सल्फर हेक्साफ्लोराइड के स्तर का आकलन 1990 या 1995 को आधार वर्ष मानकर किया जा सकता है. (खतरनाक औद्योगिक गैसों के एक और समूह क्लोरोफ्लोरोकार्बन की चर्चा 1987 के मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ऑन सब्सटांसेज दैट डिप्लेट ओजोन लेयर में की गई है). उत्सर्जन में वास्तविक कटौती पांट प्रतिशत से ज़्यादा होगी. 2000 में उत्सर्जन की लक्षित सीमा को ध्यान में रखते हुए सबसे धनी और विकसित औद्योगिक देशों को अपने उत्सर्जन में क़रीब 10 प्रतिशत की कमी लानी होगी. इसकी वजह यह है कि अपेक्षा के मुताबिक़ इन देशों को साल 2000 तक अपने उत्सर्जन के स्तर को कम करके 1990 के स्तर पर लाना था, लेकिन वे ऐसा करने में कामयाब नहीं रहे हैं. सच तो यह है कि 1990 के बाद उनके उत्सर्जन के स्तर में इज़ा़फा हुआ है. अर्थव्यवस्था में बदलाव के दौर से गुजर रहे देशों के उत्सर्जन के स्तर में 1990 के बाद कमी दिखाई दी थी, लेकिन अब यह ट्रेंड बदलता नज़र आ रहा है.इससे यह स्पष्ट है कि 2010 के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रोटोकॉल के अंतर्गत उत्सर्जन के स्तर में 5 प्रतिशत की कमी सुनिश्चित करने के लिए विकसित देशों को वास्तव में क़रीब 20 प्रतिशत की कटौती करनी होगी. उत्सर्जन के स्तर में कमी को मापने के तरीक़े के मामले में सदस्य देश काफी हद तक स्वतंत्र हैं. इस दिशा में एमिशन ट्रेडिंग की चर्चा की गई है, जिसके तहत विकसित औद्योगिक राष्ट्र आपस में प्वाइंट्स की ख़रीद-बिक्री कर सकते हैं. संयुक्त उपक्रम की प्रक्रिया के अंतर्गत ये देश अन्य विकसित देशों में कुछ खास परियोजनाओं में वित्तीय सहयोग कर एमिशन रिडक्शन प्वाइंट्स अर्जित भी कर सकते हैं. इसके अलावा विकासशील देशों में उत्सर्जन में कमी करने वाली परियोजनाओं को बढ़ावा देकर स्वच्छ विकास की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करके भी ये देश प्वाइंट्स हासिल कर सकते हैं.
उत्सर्जन में कमी के प्रावधानों को अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में लागू करना होगा. प्रोटोकॉल में देशों को आपसी सहयोग को बढ़ाने, ऊर्जा स्रोतों के सही इस्तेमाल, ईंधन और ट्रांसपोर्ट के क्षेत्र में सुधार, ग़ैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ाने, ग़लत वित्तीय नीतियों को ख़त्म करने, कचरे से होने वाले मिथेन उत्सर्जन और बाज़ार की विसंगतियों को दूर करने एवं जंगलों को बचाने की ज़िम्मेदारी दी गई है. प्रोटोकॉल सदस्य देशों के पहले की प्रतिबद्धताओं को और आगे लेकर जाता है. इसके तहत विकसित और विकासशील देशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उत्सर्जन के स्तर को नियंत्रित करते हुए भविष्य में पर्यावरण में होने वाले बदलावों के अनुरूप बदलाव की कोशिश करेंगे. इससे संबंधित अपने राष्ट्रीय पर्यावरण कार्यक्रम की जानकारी देंगे, तकनीक के हस्तांतरण को बढ़ावा देंगे, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय शोधों में सहयोग करेंगे और लोगों के बीच शिक्षा एवं प्रशिक्षण के माध्यम से जागरूकता बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे. साथ ही, इसमें इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विकासशील देशों पर पड़े वित्तीय भार के लिए अलग से व्यवस्था करने की बात पर ज़ोर दिया गया है.
कन्वेंशन की कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (सीओपी) ही प्रोटोकॉल के सदस्य देशों की आपसी मुलाक़ात का ज़रिया भी होगी. यह व्यवस्था कन्वेंशन के अंत:सरकारी कार्यों के प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए की गई है. वैसे देश जो कन्वेंशन के सदस्य हैं लेकिन प्रोटोकॉल में शामिल नहीं हैं, प्रोटोकॉल की बैठकों में पर्यवेक्षक की हैसियत से शरीक हो सकते हैं.
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