आज धरती दुखी है। इस पर रहने वाले तमाम प्राणी दुखी हैं। तमाम विरासतें दुखी हैं। अर्थात् जड़ से चेतन सब दुखी। मनुष्य से 'कम समझदार' प्राणियों को शायद मालूम न हो कि दुख का कारण क्या है पर 'सबसे समझदार' प्राणी मनुष्य को मालूम है कि आज धरती पर जो संकट है उसके दुख का कारण वह स्वयं है। अब वह चाहे पहली दुनिया का ही क्यों न हो। क्यूबा के करिश्माई नेता फिदेल कास्त्रो रूज के हवाले से कहें तो कुछ समय पहले तक बहस इस बात पर होती थी कि हमें किस तरह का समाज चाहिए, पर आज यह बहस इस विषय पर केन्द्रित हो गयी है कि मानव समाज-सभ्यता क्या बचे रह पाएंगे।
अब थोड़ा चिंतन-मनन भी कर लें। एक विचार तो यह है कि धरती पर तापमान बदलने की प्रक्रिया प्राकृतिक है और ऐसा प्रत्येक एक लाख वर्ष में होता है। अर्थात् एक लाख वर्ष तक हिमयुग रहने के बाद 18-20 हजार वर्ष तक लगातार तापमान बढ़ता है और इसी दौरान धरती पर जीवन उपजता है। इस हिसाब से करीब 18 हजार वर्ष हो चुके हैं। इस धारणा पर जाएंगे जो सोचने के लिए ज्यादा बचा नहीं है। बहरहाल, यह धारणा किस आधार पर बनी है, मालूम नहीं।
लिहाजा, हम दूसरी धारणा के अनुसार ही सोचते हैं। इस धारणा के अनुसार औद्योगिक क्रांति के पश्चात धरती के तापमान में तेजी से वृद्धि हुई और आज जो स्थिति है उसके लिए मानवीय गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। हमें भी लगता है कि यह धारणा ज्यादा सही और व्यावहारिक है। नि:संदेह मानवीय गतिविधियों ने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ाया और इससे तापमान बढ़ा और परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन हम सबको देखना पड़ रहा है। ऐसा जलवायु परिवर्तन जिसने प्रत्येक प्राणी का जीवन दूभर कर दिया है। उत्तराखंड में बुरांस के फूल चार महीने पहले खिलना या गुजरात में चार महीने पहले आम पकना क्या जलवायु परिवर्तन नहीं है? और ये दो उदाहरण ही क्यों, पूरी दुनिया आज जलवायु परिवर्तन का 'स्वाद' चख रही है।
जी, इस बहस ने नये आयाम लिये हैं। तमाम उम्मीदों, उहापोह तथा असमंजस के बीच संयुक्त राष्ट्र का 15वां जलवायु सम्मेलन कोपेनहेगन में असफल हो गया, लेकिन एक बात तो जरूर है कि आज पूरा विश्व समुदाय इस चिंता में घुला जा रहा है कि उसके भविष्य का क्या होगा। कोपेनहेगन में जिस तरह की नौटंकी हुई और जिस-जिस तरह के पात्रों ने मंच पर आकर अपने संवाद बोले, उसे पूरी दुनिया ने मीडिया के जरिये थोड़ा-बहुत देखा। कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन के बारे में जितना इस बीच लिखा गया, उतना शायद किसी भी विषय के बारे में नहीं। जितनी चर्चा पिछले एक-दो महीने से जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की हो रही है उतनी चर्चा किसी भी अन्य विषय की नहीं हुई है। यहां इस बात में जाने की आवश्यकता नहीं है कि कोपेनहेगन में किस प्रकार अनेक राष्ट्राध्यक्षों, मंत्रियों और सामाजिक आंदोलनों के प्रतिनिधियों को अपमानित महसूस करना पड़ा क्योंकि इस विषय को छेड़कर बहस भटक जाएगी।
इस बात का उल्लेख भी ज्यादा नहीं करेंगे कि किस प्रकार शांत प्रदर्शनकारियों को पुलिस दमन का सामना करना पड़ा। इतना ही कहेंगे कि यह दमन वैसा ही था जैसा कि नात्शियों ने अप्रैल 1940 में डेनमार्क पर कब्जा करते समय स्थानीय जनता पर किया था।
इस बात पर भी बहस को केन्द्रित करने का औचित्य नहीं है कि 18 दिसंबर को सम्मेलन का समापन सत्र किस प्रकार ओबामा समेत चुनिंदा 16 विशिष्ट मेहमानों के हवाले कर दिया गया। वहां मौजूद 170 से अधिक देशों के नेताओं को केवल सुनने का सुअवसर दिया गया। अठारह-उन्नीस दिसंबर की रात को जब कोपेनहेगन एकॉर्ड को अंतिम रूप दिया जा रहा था तब तक अनेक देशों के नेता स्वदेश लौट चुके थे। तीन बजे रात अर्थात् 19 दिसंबर के तड़के तीन बजे डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने कोपेनहेगन सम्मेलन की समापन बैठक बुलायी। इसमें हिस्सा लेने के लिए बस मंत्रीगण, अधिकारी, राजदूत और तकनीकी कर्मचारी रह गये थे। इन लोगों की मजबूरी समझी जा सकती थी। पर, तब भी विकासशील (तीसरी) दुनिया के प्रतिनिधियों के एक समूह ने इस बात का जबरदस्त प्रतिकार कर कहा कि अमेरिका द्वारा थोपे गये और कुछ धनी, कुछ विकासशील देशों द्वारा समर्थित दस्तावेज को कोपेनहेगन सम्मेलन के सर्वसम्मत दस्तावेज के तौर पर नहीं पेश किया जाना चाहिए। वेनेशुएला की प्रतिनिधि क्लॉदिया सार्लेनो और क्यूबा के विदेश मंत्री ने दमदार तरीके से यह बात रखी कि जो दस्तावेज सर्वसम्मति से पारित दिखाया जा रहा है वह वास्तव में गुपचुप तरीके से बांटा गया और उस पर गुप्त बैठकें की गयीं। क्लॉदिया ने तो अपनी बात पुख्ता तरीके से रखने के लिए टेबल पर इतनी जोर से हाथ मारा कि वह लहूलुहान ही हो गया। इन दोनों लोगों ने वस्तुत: पूरी चिंतित दुनिया की तरफ से कहा कि यह दस्तावेज अपर्याप्त और बेकार है और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह बाध्यकारी नहीं है, अपितु ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में प्रभावी कमी की दिशा में इससे मदद नहीं मिलेगी। उन्होंने कहा कि यह दस्तावेज उन वैज्ञानिक तथ्यों पर भी खरा नहीं उतरता जो यह चेतावनी दे रहे हैं कि धरती को ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के और नुकसान से बचाने के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2020 तक 45 प्रतिशत की कटौती और वर्ष 2050 तक 80-90 प्रतिशत की कटौती की जानी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि कोपेनहेगन एकॉर्ड ने क्योतो प्रोतोकॉल को जान से मार दिया है।
जी हां। कोपेनहेगन में जो दस्तावेज 'पारित' किया गया, उसमें विकासशील देशों को वित्तीय सहायता और ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की बात नहीं कही गयी है। इस प्रकार विकसित देशों ने किसी प्रकार का ठोस कमिटमेंट करने से परहेज का रास्ता ढूंढ ही लिया। जी-77 के अध्यक्ष के नाते सूडान ने कहा कि करीब 25 देशों भर की सहमति से बने इस दस्तावेज को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन चली किसी की नहीं और कोपेनहेगन एकॉर्ड को कोपेनहेगन सम्मेलन के दस्तावेज के रूप में प्रचारित कर दिया गया। पर, वास्तव में बारह साल पहले हुए तथा 2005 में लागू किये गये क्योतो प्रोतोकॉल को कोपेनहेगन में दफ्न कर दिया गया। सम्मेलन ने क्योतो प्रोतोकॉल के स्थान पर 2012 से आगे के लिए कोई बाध्यकारी समझौता नहीं किया। भारत सहित 'बेसिक' (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, चीन और भारत) जैसे देश साफ-साफ अमेरिका के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। केवल 25 के करीब देशों ने अबाध्यकारी कोपेनहेगन एकॉर्ड को स्वीकार किया है जबकि क्योतो प्रोतोकॉल पर 187 देशों ने दस्तखत किये थे और इनमें से 37 अमीर देशों ने यह वैधानिक बाध्यता स्वीकार की थी कि खतरनाक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वे तय अवधि के भीतर निश्चित मात्रा में कमी करेंगे। क्योतो प्रोतोकॉल में जहां उत्सर्जन कम करने वाले देशों पर जुर्माना लगाने की व्यवस्था थी वहीं विकासशील देशों को प्रदूषण घटाने के लिए आर्थिक आर्थिक और प्रौद्योगिकी की मदद देने पर सहमति थी। विकासशील दुनिया के ज्यादातर देश चाहते थे कि भले ही कोपेनहेगन में कोई ठोस समझौता न हो लेकिन क्योतो प्रोतोकॉल को कोई ठेस न पहुंचे। लेकिन, अमेरिकी करतूतों ने इस उद्देश्य को धता बता दिया। अमेरिका ने एक समझौते का मसौदा तैयार किया और ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी के अलावा कुछ और देशों से सहमति हासिल कर ली गयी। बाद में बेसिक देशों की बैठक में दादागिरी के साथ जबरन घुसकर ओबामा ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया। अर्थात् क्योतो में खलनायक की भूमिका में उभरा अमेरिका बिना कुछ किये कोपेनहेगन में हीरो बन गया। तापमान दो डिग्री से ज्यादा बढ़े तो बढ़े, क्या फर्क पड़ता है।
असल में कोपेनहेगन में साजिश के तहत बाध्यकारी समझौता नहीं होने दिया गया। इसमें अमेरिका की अगुवाई में धनी देश साफ-साफ दोषी नजर आते हैं। क्योतो प्रोताकॉल के रहते उन्हें आंख की शर्म थी, कोपेनहेगन एकॉर्ड के बाद यह शर्म भी जाती रहेगी। अब उनके लिए खुला खेल है। ज्यादा कोई कुछ कहेगा तो कहेंगे कि तुम्हारे लिए सौ बिलियन (अरब) डॉलर हैं तो सही! सवाल है कि धनी देशों ने आजतक इस धरती को जितना नुकसान पहुंचाया है क्या सौ अरब डॉलर से उसकी भरपायी की जा सकती है और क्या यह उचित और नैतिक तरीका है? क्या इन धनी देशों को अधिकार था कि अपने हितों की रक्षा के लिए विकासशील और गरीब देशों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से धमकाएं? क्या भारत सहित बेसिक देशों को अमेरिका और उसके मित्र देशों के दबाव में आना चाहिए था?
उपरोक्त सवालों के जवाब स्पष्ट हैं और ठेठ नकारात्मक। अर्थात् धनी देशों ने क्योतो प्रोतोकॉल की कीमत पर जो 100 अरब डॉलर दीर्घावधि में देने की बात कही है वह पर्यावरणीय )ण के कहीं आसपास नहीं है। तरीका भी उनका अनैतिक और अनुचित था। अपने हितों की सुरक्षा के लिए धनी देशों ने विकासशील देशों को डराया-धमकाया। बेसिक देशों की बैठक में बिन बुलाये आ धमकना क्या धमकी जैसा काम नहीं था? बेसिक सहित कुछ विकासशील और निर्धन देशों को उनकी धमकियों से नहीं डरना चाहिए था। ये शायद देश डरे शायद इसलिए कि मुंह बाये खड़ी समस्याएं उन्हें ज्यादा भीषण लग रही हैं।
धनी देश भी जानते हैं कि उन्होंने विकासशील और निर्धन दुनिया को ही नहीं बल्कि स्वयं को भी छला है। यही वहज है कि तथाकथित कोपेनहेगन समझौते के तुरंत बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ब्राउन ने कहा यह तो बस पहला कदम है, चूंकि इसे बाध्यकारी बनाये जाने से पहले अनेक औपचारिकताएं पूरी की जानी हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलैरी ने जो कुछ पहले कहा था उसकी भी ओबामा ने हवा उड़ा दी। यहां सवाल पैदा होता है कि जब हम क्योतो प्रोतोकॉल के माध्यम से आगे बढ़ रहे थे तब कोपेनहेगन एकॉर्ड नामक चीज कहां से आ गयी और इसे क्यों एक कदम आगे जाने की बजाय कोपेनहेगन एकॉर्ड को 'पहला कदम' कहा गया?
संभवत: वेनेशुएला के राष्ट्रपति शावेज ने इसी पृष्ठभूमि में कहा है कि कोपेनहेगन में 18 दिसंबर 2009 को ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध जंग खत्म नहीं हुई है। वस्तुत: धरती को बचाने की जंग 18 दिसंबर को शुरू हुई है। उन्होंने ब्राजील के प्रमुख पर्यावरण विशेषज्ञ लियोनार्दो बॉफ के हवाले से साथ ही यह भी कहा कि कोपेनहेगन से क्या उम्मीद की जा सकती है? यही कि जैसा चल रहा है वैसा चलाते रहने की गुंजाइश बाकी नहीं है। अर्थात् हमें बदलना होगा। 'करो या मरो' की स्थिति है, इसीलिए पूरी दुनिया उम्मीद से कोपेनहेगन की ओर ताक रही है। छोटे से समुद्री देश किरीबाती के राष्ट्रपति ने तो कोपेनहेगन बैठक की पूरी प्रक्रिया पर ही सवाल उठा दिये हैं। उनका ठीक ही कहना है कि कोपेनहेगन एकॉर्ड उन देशों ने स्वीकार किया जो अपने यहां उत्सर्जन में कटौती करने को उत्साहित नहीं थे। उनके अनुसार कुछ देश कोपेनहेगन आये ही इसलिए कि वहां किसी प्रकार का बाध्यकारी समझौता न हो सके। पानी से घिरे किरीबाती के लिए तो संकट सामने ही है। यूं ही ग्लोबल वार्मिंग होती रही तो किरीबाती की जनता को कहीं और ले जाना पड़ेगा।
कोपेनहेगन सम्मेलन को लेकर चारों ओर गुस्सा है। जो पूरी धरती और मानवता के कल्याण के बारे में सोचते-समझते हैं, वे सभी चिंतित हैं। कोपेनहेगन के दो दिन बाद 20 दिसंबर को बोलिवियन राष्ट्रपति इवो मोरालिस ने तो अपने यहां 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस के मौके पर विश्व भर के सामाजिक आंदोलनों का सम्मेलन करने की ही घोषणा कर दी है। कोपेनहेगन की असफलता को इस प्रस्तावित सम्मेलन में मथा जाएगा। मोरालिस का कहना है कि अतार्किक औद्योगिक विकास के कारण आज ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का संकट आन खड़ा हुआ है। यहां जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता सुंदरलाल बहुगुणा की बात रखना प्रासंगिक होगा जिनका मानना है कि कोपेनहेगन जैसी बैठकों से कुछ होता है नहीं। जनता में विश्वास होना चाहिए। उनके अनुसार जनता यदि अपने पर्यावरण संरक्षण का बीड़ा उठाये और गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करे तो लक्ष्य हासिल किये जा सकते हैं।
संकट हमारे अपने भीतर भी है। अर्थात् विकासशील दुनिया के भीतर। हमारी इस दुनिया को चलाने वाले प्रभुवर्ग ने आंख बंद करके पश्चिमी विकास मॉडल को अपनाकर मानव ही नहीं बल्कि तमाम जीवों के साथ बहुत बुरा किया। पश्चिम के मॉडल को उन्होंने आधुनिकता का पर्याय समझ लिया। इस तथाकथित आधुनिकता ने हमें उपभोक्तावाद भी दिया और हमारा और बेड़ा गर्क हो गया। विकासशील दुनिया का आदमी जल्द से जल्द धनी या पश्चिमी दुनिया के लोगों की श्रेणी में आना चाहता है और इस क्रम में वह उपभोक्तावाद का शिकार भर होकर रह गया है।
पिछले 23 दिसंबर को अपने एक फिनिश गांधीवादी मित्र से इंटरनेट पर चैट हो रही थी। हमने पूछा कि कोपेनहेगन की असफलता के बाद अब कहां जाएं तो उन्होंने तत्काल जवाब दिया कि धनी दुनिया को बताना होगा कि उपभोग कम करें क्योंकि ज्यादा उपभोग का अर्थ ज्यादा उत्सर्जन। यहां अमेरिकन चिंतक थोरो और अपने महात्मा गांधी याद आते हैं। दोनों ने सादा-सरल जीवन जीने तथा लालच न करने की सलाह दी थी। आज दुनिया लालच में ज्यादा फंसी दिखायी देती है।
असल में उपभोग को जरूरत के हिसाब से सीमित करके ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी की जा सकती है। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने और परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के खतरों को और संगीन बनाने से रोकने के लिए जरूरी है कि हम अपने आसपास देखें और तनिक चिंतन करें कि किन छोटे-छोटे उपायों से उत्सर्जन कम किया जा सकता है। उदाहरण के लिए बिजली ऊर्जा के इस्तेमाल को लेते हैं। हम बिजली का इस्तेमाल इस प्रकार करते हैं मानो वह हवा की तरह उपलब्ध हो। और अब तो हवा भी साफ नहीं रही। पानी का दुरुपयोग भी खूब होता है। बोतलबंद पानी बनाने तथा कोका और पेप्सी कोला जैसे शीतल पेय बनाने में कई गुना पानी बेकार चला जाता है। शहरों के मध्यमवर्गीय घरों में प्रति व्यक्ति पानी की खपत कम से कम करीब चार-पांच सौ लीटर प्रति व्यक्ति है, जबकि इतना पानी सुखाड़ वाले इलाकों में पूरे गांव को मयस्सर नहीं है। हम शहरों के लोग पानी का इस्तेमाल करते समय भूल जाते हैं कि धरती पर जितना भी पानी है उसका दो-तीन प्रतिशत ही पीने लायक है। पानी को तो विरासत की तरह सहेज कर रखने की आवश्यकता है। ऑक्सीजन को भी ऐसा ही दर्जा देना होगा और यह ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन गुणात्मक रूप में घटाने से ही होगा। और उत्सर्जन तब कम होगा जब हम अपनी जरूरतों को कम करें। अपने आप को सबसे समझदार समझने वाला इंसान इस धरती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है। मानव के अलावा धरती पर ऐसा एक भी प्राणी नहीं है जो आवश्यकता से अधिक और फालतू उपभोग करता हो। उदाहरण के लिए यदि भोजन के लिए मानव की निर्भरता मांस पर कम हो जाए तो उत्सर्जन में भारी कमी आ सकती है। यकीन न हो पर यह सच है कि मानव गतिविधियों के कारण ग्रीनहाउस गैसों का जो उत्सर्जन हो रहा है उसके 20 फीसद से ज्यादा के लिए मांस उत्पादन जिम्मेदार है। पानी का संकट इस गतिविधि ने और बढ़ाया है।
धनी देशों की एक और चाल समझिये। स्वयं को विकसित दिखाने तथा विकास के अपने मॉडल को सर्वोत्तम बताने के साथ-साथ वे गरीब देशों को ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं जिनसे प्रदूषण ज्यादा होता है अर्थात् ज्यादा गैसों का उत्सर्जन। इस प्रकार विकासशील और गरीब देशों में जो प्रदूषण हो रहा है वह भी वास्तव में धनी देशों के खाते का है क्योंकि तैयार माल उनके पास ही जा रहा है। जिन भारत-चीन के पीछे सब पड़े हैं उनका माल पश्चिमी देशों में बाजार बनाये हुए है। अर्थात् प्रदूषण का ठीकरा तो भारत-चीन के सिर पर फूटे और माल खायें धनी देशों के लोग।
उपभोग से जुड़े कुछ आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि जहां भारत में क्रय शक्ति समतुल्यता पर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 2126 डॉलर है, वहीं अमेरिका में यह 41 हजार 674 है। इसी प्रकार भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.3 वर्ग सीओ टन है तो अमेरिका में 20 वर्ग सीओ। ये आंकड़े 2005 के हैं और आज इनमें इजाफा ही हुआ है। स्पष्ट है कि आज भी विकसित देश हमारे मुकाबले कहीं ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। अर्थात् सबसे ज्यादा उत्सर्जन कर रहे हैं। विकसित देश वास्तव में साम्राज्यवादी वर्ग चरित्र के भी हैं। उन्होंने अपने मुनाफे के लिए कुछ भी किया और कर रहे हैं। मुनाफे की हवश ने स्थिति को बदतर किया है।
आखिर सवाल तो पैदा होता ही है कि पश्चिम की विकास शैली ही क्यों दूसरों के लिए मॉडल बने। जिस विकास शैली ने धरती का तापमान बढ़ाने में मदद की हो, जिसने भारी प्रदूषण फैलाकर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन ही बढ़ाया, जो उपभोक्तावाद अर्थात् जरूरत से ज्यादा उपभोग करने के लिए प्रेरित करती हो और धरती के संसाधनों का अंधाधुंध दुरुपयोग करती हो -ऐसी शैली मॉडल कैसे हो सकती है?
ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन होने तथा ग्लेशियरों और खासकर उत्तारी और धु्रवों के तेजी से पिघलने के कारण मालदीव, किरीबाती, तवालू सहित अनेक देशों के तटवर्ती इलाके पानी में डूब जाएंगे और करोड़ों लोगों को शरणार्थी बन अपने आशियाने कहीं और ढूंढने पडेंग़े। यह संख्या करोड़ों-करोड़ों में होगी। इतनी बड़ी आबादी के पलायन की विभीषिका को समझने की आवश्यकता है।
आज हमें क्योतो प्रोताकॉल की पृष्ठभूमि और उसकी भावना के अनुरूप कोपेनहेगन से आगे देखने की आवश्यकता है। यदि ऐसा न करेंगे तो कोपेनहेगन की असफलता की पृष्ठभूमि में हम कुछ नहीं कर पाएंगे। धनी देशों का रुतबा बना रहेगा और सारी मानवता और सारी विरासतों के लिए ऐसा भीषण खतरा बन जाएगा कि धरती के गुस्से को फिर कोई रोक नहीं पाएगा। प्रौद्योगिकी और मानवीय उपायों की सदैव एक सीमा होती है। अमेरिका ने अपने लुसियाना प्रांत में यह देख लिया है। वहां जब कैटरीना तूफान आया तो उसकी उन्नत से उन्नत प्रौद्योगिकी धरी की धरी रह गयी। जो बाकी दुनिया के लोग भोगते रहे हैं, वह अमेरिकी नागरिकों ने भोगा और देखा। क्या लुसियाना के अनुभव से अमेरिका को सीख नहीं लेनी चाहिए? कैलीफोर्निया में भी जलवायु परिवर्तन के सपष्ट लक्षण हैं। पिछली एक सदी में कैलीफोर्निया के तटवर्ती इलाकों में जलस्तर सात इंच बढ़ गया है। गर्मी भी इस दौरान बढ़ी है और प्राकृतिक संपदा पर दबाव बढ़ा है। यहां ये उदाहरण इसलिए देने पड़ रहे हैं क्योंकि किसी को चिंता नहीं कि मालदीव के मंत्रिमंडल को क्यों पानी के अंदर अथवा नेपाल की कैबिनेट को क्यों एवरेस्ट (सगरमाथा) की तलहटी में अपनी बैठकें करनी पड़ रही हैं। शायद लुसियाना और कैलीफोर्निया के उदाहरणों से लोग सचेत हो जाएं। कहने का मतलब यह है कि प्रकृति/धरती का मिजाज जब बिगड़ेगा तब वह अमीरों को भी माफ नहीं करेगी और इन अमीरों के पास बचने के लिए कोई जगह भी नहीं होगी। चंद्रमा और मंगल ग्रहों तक तब तक उनकी पहुंच नहीं हो पाएगी।
कुल मिलाकर चंद ऐसे मुद्दे थे जिन पर आम सहमति बनानी आवश्यक थी। मसलन, तापमान में दो डिग्री की कमी के लिए रणनीति बनती, कार्बन और अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के लिए समयसीमा कड़ाई से तय होती, वनों की कटाई रोकने तथा विकसित देशों से अनुरूप प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की नीति बनती तथा विकासशील और निर्धन देशों के लिए उचित आर्थिक सदस्यता की व्यवस्था होती। मोटे तौर पर ऐसे ही कुछ काम कोपेनहेगन में होने थे, पर हो नहीं सके।
अंत में एक बार फिर से शावेज को दोहराना चाहेंगे कि धरती को बचाने की जंग असल में अब शुरू हुई है।
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