
बिना किसी लिंग भेदभाव की ये प्रवृत्तियाँ सिर्फ मनुष्यों में ही हों ये जरूरी नहीं क्योंकि यह हमारे आस-पास के परिवेश में रह रहे कई प्रजाति के परिन्दों में भी मौजूद है। ऐसे ही कोयल प्रजाति के परिन्दे जो दिखने में भले ही शर्मीले व सीधे-सादे स्वभाव के लगते हों लेकिन असल जिन्दगी में ये शातिर, चालाक, धूर्त व बर्बर प्रवृत्ति के होते हैं।
कोयल या कोकिला प्राणी-जगत के कोर्डेटा संघ के एवीज (पक्षी) वर्ग के कुकुलिफोर्मीज गण तथा कुकुलिडी परिवार से सम्बन्धित घने वृक्षों पर छिपकर रहने वाला पक्षी है। भारत में इसकी दो प्रमुख प्रजातियाँ, भारतीय कोयल (कुकूलस माइक्रोटेनस) व एशियन कोयल (यूडाइनेमिस स्कोलोपेसियस) या कुकू पाई जाती है। एशियन कोयल तुलनात्मक आकार में बड़े होते हैं, बाकी दोनों प्रजाति के कोयलों का रंग-रूप लगभग एक जैसा ही होता है। ये परिन्दे भारत समेत पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, बांग्लादेश, नेपाल, चीन आदि देशों में बहुतायत में पाये जाते हैं।
विश्व में कोयल (कुकू) की लगभग 138 प्रजातियाँ हैं जो अलग-अलग महाद्वीपों में बसर करती हैं। इनमें से 21 प्रजातियाँ ऐसी हैं जो भारत में बसर करती है। ये पक्षी नीड़-परजीवी (ब्रूड-पेरासाइट) होते हैं। नर कोयल मादा की तुलना में ज्यादा खूबसूरत, आकर्षक, फुर्तीले व हट्टे-कट्टे होते हैं तथा इनका रंग भी चमकदार धात्विक काला होता है। इसके नयन सुन्दर व लाल रंग के होते हैं वहीं इनकी बोली भी कमाल की कर्णप्रिय, सुरीली व मधुर होती है। इसके मूल में प्रकृति की सोची समझी रणनीति होती है जिससे ये प्रणय के लिये मादाओं का दिल जीत सके ताकि यह अपनी वंश वृद्धि बढ़ाने के साथ-साथ अपनी प्रजाति के अस्तित्व को मौजूदा माहौल में कायम रख सके।

कोयल परिन्दे इतने आलसी, कामचोर, लापरवाह व सुस्त प्रवृति के होते हैं कि ये अंडे देने हेतु अपना नीड़ या घोसला भी नहीं बनाते हैं। बल्कि इसके लिये ये दूसरे प्रजाति के परिन्दों के बनाए घोसलों का उपयोग करते हैं अर्थात इनमें ‘नीड़-परजीविता’ होती है। और-तो-और ये अपने अण्डों को सेने का काम और बच्चों (चूजों) का लालन-पालन भी नहीं करते हैं। इन कामों के लिये इन्होंने एक अनोखी कारगर तरकीब इजाद कर रखी है। इसमें ये काम किसी और प्रजाति के परिन्दों से बड़ी चालाकी व धोखे में रखकर करवातें है। इन कामों को अंजाम देने के लिये नर व मादा कोयल दोनों मिलकर करते हैं।
प्रजनन काल में नर कोयल बार-बार व जोर-जोर से अपनी आवाज निकालकर मादा कोयल को प्रणय के लिये रिझाता-मनाता है और आपसी सहमती होने पर ही इनमें प्रजनन होता है। मई के आस-पास ये उन प्रजाति के परिन्दों की तलाशते हैं जिन्होंने अपना घोसला बना लिया हो और अपने अण्डों को से रहे हों। परन्तु ये उन प्रजाति के परिन्दों को ही निशाना बनाते हैं जिनके अण्डों का रंगरूप व आकार इनके अण्डों से हुबहू मिलते-जुलते हों। इसके लिये एशियन कोयल ज्यादातर कौआ प्रजाति के परिन्दों को अपना निशाना बनाती हैं।
जब मादा कौआ अंडे से रही होती है तब नर कोयल इस पर बार-बार हमला कर व डरा धमका के इसे घोंसला छोड़ने को विवश कर देता है। तब ही घोसले के आस-पास मँडराती या इन्तजार में छिपी बैठी मादा कोयल इस अवसर का फायदा उठा कर चालाकी से अपने अंडे कौआ के घोसले में रख देती है। यह इतनी शातिर चालाक व बेरहम होती है कि कौओं को इसकी भनक न लगे इस हेतु यह घोंसले से इनके उतने ही अण्डों को खा जाती या दूर फेंक आती है जितने इसने अपने अण्डे दे रखे हैं। ताकि कौओं को अण्डों की गणित हिसाब बराबर लगे। अधिकांश में यह एक ही घोंसले में एक ही अण्डा देती हैं परन्तु दो से तीन अण्डे भी देखे गए हैं।
मादा कोयल एक ऋतु में सोलह से छब्बीस तक अण्डे दे सकती है। जरुरत पड़ने पर ये कौओं के अन्य घोसलों का उपयोग करती है। इसके बाद मादा कोयल इस घोसले की ओर कभी रुख नहीं करती। अनजान कौए न केवल कोयल के इन अण्डों को सेते हैं बल्कि इनसे निकले बच्चों (चूजों) का बखूबी पालन-पोषण भी करते हैं। कौओं के अलावा मैगपाई चिड़िया के नीड़ में भी कोयल चोरी छिपे या जबरदस्ती से अंडे दे देती है।
विशेष बात कि कौए के अण्डों से पहले कोयल का बच्चा निकल आता है और तेजी से विकसित हो जाता है। ये पैदाइशी परजीवी व बर्बर हत्यारा प्रवृत्ति के होते हैं। यह घोसले में कौए के अण्डों व चूजों की उपस्थिति बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करता बल्कि यह इन्हें अपने पीछे के पैरों से एक-एक को ऊपर की ओर धकेल कर बेरहमी से घोसले से बाहर फेंक देता है। भोजन न मिलने से भी कौए के बच्चे भूख से मर जाते हैं क्योंकि इनका भोजन कोयल का बच्चा अक्सर छीन के खा जाता है। भरपूर पौष्टिक आहार मिलने से ये तेजी से बड़ा हो जाता है। अपनी असलियत का पता न चले इसके पूर्व ही यह घोसले को छोड़ देता है। कौओं को इसकी असलियत की भनक तब लगती जब यह बोलने लगता है।

चूँकि ये प्रवृत्तियाँ इनमें पैदाइशी हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। इसलिये ये अनुवांशिकीय हो सकती है। परन्तु अन्य जीवों में भी ये प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं जो आयु व जरुरत के साथ स्वत: ही जागृत हो जाती हैं। आलसीपन व कामचोरी से ये वृत्तियाँ इन परिन्दों में विकसित हुई हो इसको भी अनदेखा नहीं कर सकते।
बहरहाल, इसे जानने के लिये गहन शोध अध्ययनों की जरुरत है। जो भी हो, पारिस्थितिकी तंत्र में इन परिन्दों का काफी महत्त्व है। क्योंकि ये पोषक परिन्दों व पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाने वाले कई खतरनाक कीटों व लटों की आबादी को नियंत्रित करते हैं। इसके अतिरिक्त ये कई प्रजाति के पेड़-पौधों के बीजों को फैलाने व इनके संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बावजूद, लगातार अंधाधुंध वनों की कटाई से इन परिन्दों की आबादी पर संकट के बादल अब गहराने लगे हैं जो पक्षीविदों के लिये ज्यादा चिन्ताजनक है।
प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणी शास्त्री, पर्यावरणविद् एवं लेखक, उदयपुर-राजस्थान