किसानों को सालभर सिंचाई के लिए निरंतर जल मुहैया कराकर उनकी आमदनी बढ़ाई जा सकती है, इससे कृषि उपज कम से कम दो गुनी बढ़ जाएगी, साथ ही फसलों की संख्या में भी बढ़ोतरी संभव हो सकेगी।
दैनिक जागरण। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में कई बार इस बात को रेखांकित किया है कि खेत और शरीर एक जैसे हैं। जैसे शरीर की कमियों की जांच के लिए विभिन्न प्रकार की प्रयोगशालाओं का सहारा लिया जाता है, वैसे ही खेतों की मिट्टी की जांच के लिए भी समुचित संख्या में प्रयोगशालाएं होनी चाहिए, ताकि प्रत्येक खेत का हेल्थ कार्ड बन सके। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि यह धारणा गलत है कि खेत में लबालब पानी होगा तभी अच्छी खेती हो सकेगी। सिंचाई के बारे में एक सच यह है कि गुणवत्ता की दृष्टि से पानी कितना भी अच्छा क्यों न हो यह अपने साथ कम या अधिक मात्र में नमक यानी साल्ट अवश्य लाता है। विभिन्न क्षेत्रों में दशकों से सिंचाई कार्य हो रहे हैं ऐसे में उन खेतों में नमक की अधिकता की समस्या अवश्य होगी। इसके फलस्वरूप उस खेत की मिट्टी की उर्वरता में भी कमी आई होगी। जाहिर है यदि उसे स्वस्थ बनाए रखना है तो उसकी मिट्टी से गैरजरूरी नमक बाहर निकालने होंगे। इसके लिए जल एवं उप सतही जलनिकासी प्रौद्योगिकी कारगर साबित हो सकती है।
मिट्टी में नमक की समस्या कैसे पनपती है? इसे तटीय क्षेत्रों का भी एक उदाहरण लेकर समझ सकते हैं। पूर्वी समुद्र तट के राज्य पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में कृषि उत्पादकता कम होने का एक प्रमुख कारण वहां खारे पानी की अधिकता, फलस्वरूप भूमि में नमक की मात्र बढ़ना तथा जल निकासी की समुचित व्यवस्था का न होना है। गत दिनों डॉ. पीके मिश्र ने अपने लेख ‘आपदाओं का असर घटाने की पहल’ में विश्व बैंक सहायता प्राप्त चक्रवात जोखिम कार्यक्रम का जिक्र किया था। प्राकृतिक आपदाओं से सतह पर दिखाई देने वाले नुकसान को सभी देख लेते हैं, परंतु इसका वहां की कृषि योग्य भूमि के अंदरूनी स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसे कोई देख नहीं पाता है। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन से आगामी वर्षो में आपदाओं में बढ़ोतरी की संभावना है।
दरअसल अच्छी उपज के लिए मिट्टी में 4.5 डेसीसीमेंस प्रति मीटर नमक का होना ठीक-ठाक माना जाता है। पूर्वी तट पर जब हर दूसरे या तीसरे वर्ष छोटे, मझोले या बड़े चक्रवात या सुनामी के चलते समुद्र का पानी कृषि भूमि पर गिरता रहता है। ऐसे में भूमि में नमक की कितनी अधिकता होती होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। बंगाल की खाड़ी के पानी में नमक की मात्र 48 से 50 डेसीसीमेंस प्रति मीटर होती है जो भूमि में वांछित मात्र से 10-12 गुना अधिक है। पूर्व में सुनामी के बाद तमिलनाडु के दो जिले कडलोर और नागापट्टिनम का उदाहरण सभी के सामने है। वहां सुनामी से एक ही रात में पूरी भूमि ऊसर में तब्दील हो गई और उस पर कोई फसल लेना असंभव हो गया।
बात स्पष्ट है कि ज्यादा नमक फसल की जड़ों को पनपने नहीं देता है। इस समस्या का निदान सिर्फ उप सतही जल निकासी प्रौद्योगिकी है। यह प्रौद्योगिकी सतह से 80 से 100 सेंटीमीटर नीचे की मोटी परत में स्थित नमक को बाहर कर देती है। इसके लिए पूर्वी समुद्री तट के प्रभावित क्षेत्रों के खेतों में उप सतही जलनिकासी प्रौद्योगिकी स्थापित की जानी चाहिए। इससे वहां की मिट्टी का स्वास्थ्य सदैव बना रहेगा, कृषि उपज कम से कम दो गुनी बढ़ जाएगी। वहां दो से बढ़कर तीन फसल की संभावना भी बढ़ जाएगी।
यह प्रौद्योगिकी शहरों में भी जलापूर्ति और जल निकासी समस्या का समाधान कर सकती है। इससे जल संकट का समाधान हो सकता है। उप सतही जलनिकासी प्रौद्योगिकी आर्टरी-वेन मॉडल पर आधारित है। इसे संक्षेप में ए-वी मॉडल कहा जाता है। मानव शरीर में विद्यमान धमनियों एवं नसों के मॉडल पर आधारित है। आर्टरी जलापूर्ति की लाइन है और वेन जल निकासी की लाइन है। यह मॉडल सड़कों, रेलवे लाइनों, विद्युतीकरण और ढेर सारे मोबाइल नेटवर्को के संजाल से प्रेरित है। इसकी सार्थकता को देश में बहने वाली सभी नदियों को आपस में जोड़कर हासिल किया जा सकता है। नदियों को आपस में जोड़कर ‘हर खेत को जल’ तथा ‘हर घर को नल से जल’ का समाधान भी पाया जा सकता है।
हालांकि इसके लिए बड़े पैमाने पर आधारभूत ढांचा खड़ा करना होगा। सभी खेत और सभी घर के लिए जलापूर्ति एवं जलनिकासी संजाल जैसी आधारभूत ढांचा के विकास के लिए सरकार को कदम बढ़ाना चाहिए। यह समय की मांग है। जिस प्रकार से हमारे शरीर में विद्यमान प्रत्येक कोशिका को नपा-तुला पोषक तत्वों से मिश्रित रक्त मिलता है, उसी तर्ज पर सभी लघु, मझोले एवं बड़े किसानों को निरंतर पूरे वर्ष सिंचाई के लिए जल मुहैया हो जाए तो इसमें बिल्कुल संदेह नहीं कि किसान पूरे साल अपने खेतों में कोई न कोई फसल उगाकर अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं।
फलस्वरूप हम भविष्य में कृषि विकास की दर बढ़ाकर गरीब किसानों को खुशहाली प्रदान कर सकते हैं और भारत को सशक्त राष्ट्र की सूची में शामिल कर सकते हैं। राजनीतिक इच्छाशक्ति से देश में अगले 25 से 30 वर्षो में इसका ढांचा बनाया जा सकता है। इस तकनीकी को जमीन पर उतारने में देरी भारत के सर्वागीण विकास में बाधक साबित हो रही है।
लेखक - प्रो. मान सिंह
वैज्ञानिक, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान