कशेरुकीय जीवाश्म विज्ञान

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कशेरुकीय जीवाश्म विज्ञान जीवाश्म विज्ञान की परिभाषा देते हुए ट्वेब होफ़ेल और आक ने लिखा है : जीवाश्म विज्ञान वह विज्ञान है, जो आदिम पौधें तथा जंतुओं के अश्मीभूत अवशेषों द्वारा प्रकट भूतकालीन भूगर्भिक युगों के जीवन की व्याख्या करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जीवाश्म विज्ञान आदिकालीन जीवजंतुओं का, अश्मीभूत अवशेषों के आधार पर अध्ययन करता है। जीवाश्म शब्द से ही यह इंगित होता है कि जीव अ अश्म (अश्मीभूत जीव) का अध्ययन है। अँग्रेजी का Palaentology शब्द भी Palaios उ प्राचीन अ Onto उ जीव के अध्ययन का निर्देश करता है।

कशेरुकीय जीवाश्म विज्ञान की दो मुख्य शाखाएँ हैं : वानस्पतिक जीवाश्मिकी (Palaeobotary) तथा जंत्विक जीवाश्मिकी (Palaeozoology)। स्पष्ट है कि प्रथम के अंतर्गत प्राचीन अश्मीभूत वनस्पतियों तथा दूसरे के अंतर्गत प्राचीन अश्मीभूत जंतुओं का अध्ययन किया जाता है। किंतु, साधारणतया प्राचीन अश्मीभूत जंतुओं के अध्ययन को ही जीवाश्म विज्ञान की संज्ञा प्राप्त है। अत: हम इसी प्रचलन का पालन करते हुए कशेरुकीय जंतुओं के अश्मीभूत इतिहास का अध्ययन करेंगे।

जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन जीवविज्ञान की नई शाखा है और इसका विकास गत 200 वर्षों से ही अधिक हुआ है। सन्‌ 1820 तक केवल 127 अश्मीभूत वनस्पतियों तथा 2,100 जंतुओं का ही पता चला था, जो 1840 तक बढ़कर क्रमश: 2,050 तथा 24,300 की संख्या तक पहुँच गया। तब से अब तक इन संख्याओं में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। मानव क्षमता के अधीन यह संभव नहीं है कि संसार के जिने भी जीवाश्मों के स्रोत हैं, उन सबकी खोजबीन कर ली जाए। दूसरे, पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति अरबों वर्ष पूर्व से ही होती आई है। तीसरे, संसार की भौगोलिक आकृति जैसी आज दृष्टिगोचर होती है, वैसी उन दिनों नहीं थी। जीव जंतु एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाया करते थे। अत: हमें उनके अश्मीभूत नमूनों से जो ज्ञान प्राप्त होता या हो सकता है, वह विच्छिन्न ही है, या होगा। अंत में यह कभी संभव नहीं है कि जिने भी जीवजंतु इतिहास के उस अंधकार युग में उपस्थित थे, उन सबका अश्मीकरण हो ही गया हो। अश्मीकरण की कुछ दशाएँ होती हैं, जिनके कारण जीवजंतु के मृत शरीरों का अश्मीकरण हो जाता है। सभी जीवों का अश्मीकरण न तो आवयश्यक ही है, न ही संभव है। इस कारण भी आदि जीवों के जीवन का श्रृंखलाबद्ध इतिहास लिखना दुरूह कार्य है।

अब तक जितने भी जीवाश्मीय प्रमाण हमें प्राप्त हो चुके हैं, उनके आधार पर जीवों के क्रमिक विकास पर अच्छा खासा प्रकाश पड़ता है। जीवाश्मों के अध्ययन से हमें उन जीवों का पता चलता है जो अब या तो लुप्त (extinct) हो गए हैं, या उनका वर्तमान स्वरूप पर्याप्त परिवर्तित हो गया है। जीवाश्म प्राचीन जीवों के वे अवशेष हैं, जो शिलाखंडों या अन्य स्थानों पर पत्थर जैसे हो गए हैं। जीवों के कुछ ऐसे भी अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो प्रस्तीरभूत (stratified) न होकर अपने मूल रूप में ही हैं। हिमसागरीय क्षेत्रों में प्राप्त मैमथों तथा अन्य जंतुओं के मृत शरीर रूस तथा इंग्लैंड और अमरीका के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

जेप्सेन, मेयर एवं सिम्पसन के शब्दों में, ''कशेरुकीय जीवाश्म विज्ञान समय की सीमा में बँधे तुलनात्मक अस्थिविज्ञान का अध्ययन है। कारण कि (1) जैवाश्मिकीय न्यास (data) मूल रूप से कंकाल (sdeleton) तंत्र तक ही सीमित होते हैं। (2) जीवाश्मवैज्ञानिकों के पास अध्ययन सामग्री के रूप में विविध पुराकालिक कंकालों के संकलन मात्र होते हैं।'' (ग्लेन एल. जेप्सेन, अर्न्स्ट मेंयर तथा जार्ज गेलार्ड सिम्पसन : जेनेटिक्स, पैलिओन्टोलाजी एंड इवोल्यूशन, प्रिंस्टन यूनि. प्रेस, प्रिंस्टन, न्यूजर्सी, 1949)।

जीवाश्मों के अभिलक्षण- जीवाश्म भी, आधुनिक जीवों की आकृति से, न्यूनाधिक रूप में, मिलते-जुलते हैं। जीवाश्म केवल अवसादी शिलाखंडों में ही (कुछ अपवादों को छोड़कर) मिला करते हैं। अनेक प्रकार के जीवजंतुओं की अनेक परिस्थितियों में मृत्यु के उपरांत उनके शवों पर जो अवसाद (Sediment) जमा होते रहते हैं, कालांतर में वे ही जीवाश्म बन जाया करते हैं। कुछ जीवाश्म तो इतने पूर्ण हैं कि उनकी आण्वीक्षिकीय परीक्षा (microscopic examination) करने पर जीवों की कोशिका तक की रचनाएँ स्पष्ट दीख पड़ती हैं। जीवों के अश्मीभूत प्रमाण (fossilized specimens) अपने (जीवों के) जीवित शरीर के रूप में ही मिल जाएँ, यह आवश्यक नहीं है। उनके शवों में सड़ाँध, ऑक्सीकरण (oxidation), हिंसक जीवों द्वारा विकृत कर देने, शीत, वर्षा, धूप आदि के कारण विकार उत्पन्न हो जाता है। कुछ जंतु, जिनके शरीर कैल्शियम कार्बोनेट, सिलिका आदि जैसे अकार्बनिक पदार्थों द्वारा बने होते हैं, उनपर विकार का प्रभाव अपेक्षाकृत कम पड़ता है। ऐसे जीवों के जीवाश्म बहुत कम संख्या में उपलब्ध हैं। जो उपलब्ध हैं भी वे आधुनिक जीवित जीवों से तुलना करने के लिए अपूर्ण हैं।

जीवों की एक अन्य विशेषता यह भी है कि एक प्रकार के जीवाश्म कुछ विशेष प्रकार के शिलाखंडों में ही मिलते हैं। इन शिलाखंडों से जीवाश्मों के पूर्ण जीवन के परिवेश का ज्ञान हो जाता है। जीवाश्मों से यह भी मालूम होता है कि जीव कैसे स्थान पर रहा करता था और क्या खाता-पीता था। इनसे तत्कालीन भौगोलिक परिस्थितियों पर भी प्रकाश पड़ता है।

हिम क्षेत्रों में पाए गए जीवाश्म अथवा संपूर्ण जीवशरीर जीवाश्म वैज्ञानिकों के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं। विशेषत: साइबेरिया के सुदूर उत्तर ध्रुवसागरीय क्षेत्र में लगभग संपूर्ण जीव ज्यों के त्यों प्राप्त हुए हैं। इनसे सुदूर अतीत के जीवों पर अच्छा खासा प्रकाश पड़ता है। साधारण रूप से जंतुओं के शरीर के कड़े भाग-हड्डियाँ, दाँत, खोल (shell) आदि-प्रस्तरीकृत (petrifacted) हो जाते हैं। ज्वालामुखी की धधकती आग, तप्त राख आदि ने संपूर्ण नगर को कई फुट मोटी पर्त से ढँक दिया। अंत में पर्वत के बड़े-बड़े जलते टुकड़ों ने घरों की खिड़कियाँ तथा दरवाजों के भीतर घुसकर उनके भीतर मृत मनुष्यों एवं पशुपक्षियों को घर में ही दफन कर दिया।

कभी-कभी कश्मीभूत जंतुओं की खोखली अस्थियों, जैसे कपाल (स्कल), हाथ पैर की हड्डियों, खोलों आदि के भीतर की वसा या मज्जा नष्ट हो जाती है और उसमें दूसरे पदार्थों के अवसाद भर जाते हैं। कालांतर में ये इतने कठोर हो जाते हैं कि यदि ऊपरी खोल को तोड़ दिया जाए तो भीतर एक मूर्ति जैसी प्रतिकृति (cast) जाती है। इसी प्रकार दलदलों, गीली मिट्टयों और भूमि पर पड़े पशुपक्षियों के पदचिह्न भी अश्मीभूत हो गए हैं। इन पदचिह्नों से जंतुओं के पैरों के तलवों की रचनाकृति एवं आकार का ही ज्ञान नहीं होता वरन्‌ उनके आवागमन के मार्ग का भी निर्देश होता है। कुछ जंतुओं की विष्ठा भी अश्मीभूत रूप में प्राप्त होती हैं। इनके रासायनिक अध्ययन से उन जंतुओं के आहार का ज्ञान होता है। कुछ समुद्री मछलियों तथा अन्य जंतुओं की अन्ननली में दूसरी छोटी मछलियाँ या कीड़े मकोड़े, पशुपक्षी, अधपके मांस (अश्मीभूत) आदि भी पाए गए हैं।

जीवाश्मों की उपयोगिता- इन जीवाश्मों को अतीत की थाती समझना चाहिए क्योंकि इनसे पृथ्वी के लाखों करोड़ों वर्ष पूर्व की अवस्था के प्रमाण मिलते हैं। शैलस्तरों (rock strata) के अभिनिर्धारण (identification) तथा इन स्तरों के वर्षक्रम (आयु) को निश्चित करने में जीवाश्मों से बहुत सहायता मिलती है। इनकी कुछ प्रमुख उपयोगिताएँ निम्नलिखित हैं :

(1) कालानुक्रमिक (Chronological)- जीवश्मों में उत्कीर्ण अथवा संपूर्ण या अपूर्ण रूप में प्राप्त प्रमाणों के आधार पर प्राचीन भूगर्भिक (geological) अवस्था का पता चलता है। किसी भूगर्भिक कालविशेष का निर्धारण करने में जीवाश्मों से बहुत सहायता मिलती है। स्तरीय स्थिति (stratigraphic) अथवा स्तरण विन्यास का जीवाश्मों से अविच्छिन्न संबंध माना गया है।

पृथ्वी पर जो भौतिक-रासायनिक परिवर्तन पहले हो चुके हैं, लगभग वैसे ही परिवर्तन आज भी हो रहे हैं। किंतु, जीवों का विकास क्रमिक रूप से होता रहा है। उनका जो स्वरूप पहले था, उसमें महान, अंतर पड़ गया है। खनिज पदार्थों की प्रकृति पूर्ववत्‌ होती हुई भी कार्बनिक पदार्थों की प्रकृति परिवर्तनशील रही है। अत: खनिज पदार्थयुक्त शैलखंडों से उनकी प्राचीनता का निर्धारण कठिन होता है। किंतु उनके बीच प्राप्त जीवाश्मों के अवसादों का अध्ययन करने पर यह कार्य सरल हो जाता है। कुछ जीवाश्मों को निर्देशक जीवाश्म (Index fossil) की संज्ञा इस आधार पर दे दी गई है कि उनसे यह सिद्ध हो जाता है कि अमुक जंतु या वनस्पति अमुक भूगर्भिक काल में ही उत्पन्न हुए या हो सकते हैं।

(2) आदिम परिवेश (Ancient environment)- जीवों के जीवन के लिए, चाहे वे वनस्पतियाँ हो, चाहे जानवर, विशेष प्रकार के भौगोलिक वातावरण ही उपयुक्त होते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि विशेष वातावरण में विशेष प्रकार के जीव जंतु जीवित रहते हैं। जीवाश्मों से पता चलता है कि तत्कालीन जीव जंतुओं के जीवनयापन के लिए किस प्रकार का भौगोलिक वातावरण था। इन जीवजंतुओं की मृत्यु किस प्रकार हुई अथवा किस स्थान पर किस अवस्था में हुई थी, इसकी भी एक झलक जीवाश्म दे देते हैं। इसके साथ ही प्राचीन भूमि, सागर, जलाशय आदि की सीमा तथा विस्तार, जंतुओं और पक्षियों के पर्व्राजिन (migration) आदि पर भी जीवाश्म प्रचुर प्रकाश डालते हैं। इन्हीं जीवाश्मों के अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि प्राचीनकालीन भौगलिक मानचित्रों की रचना सरल एवं सुलभ हो सकती है। जीवाश्मों द्वारा प्रकट भौगोलिक परिवेश के अध्ययन के लिए अब एक नवीन विज्ञान का जन्म हो चुका है, जिसे पुराभूगोल (Palaeogeography) कहते हैं।

(3) पुरापारिस्थितिकी (Palaeoecology)- सजीव प्राणियों को जीवित रहने के लिए विविध प्रकार के परिवेशों की आवश्यकता पड़ती है। कुछ जीव अन्य जीवों के शरीर के ऊपर या भीतर रहकर जीवनयापन करते हैं; इन्हें परजीवी या पराश्रयी (Parasites) कहते हैं। कुछ जीव अन्य जीवों के निकट संपर्क में या उनसे संलग्न रहकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। जीवाश्मों द्वारा जीव जंतुओं के इस अंत:संबंध का ज्ञान हमें सहज ही हो जाता है।

(4) जीवों का उद्विविकास (Organic Evolution)- चार्ल्स डार्विन के जीवों के उद्विविकास संबंधी सिद्धांत की पुष्टि के लिए जिन पुष्ट प्रमाणों या तर्कों को उनके समर्थक उपस्थित किया करते हैं, उनमें 'जीवाष्मीय प्रमाण' भी एक है। प्रत्येक जीवाश्म अपने आप में जीवविशेष की अपनी सत्ता का स्वयं प्रमाण है। इनके अध्ययन से इनके क्रमिक विकास पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। जीवाश्मों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में एक ऐसा भी समय था, जब डाइनासौर दैत्याकार जंतुओं से पृथ्वी आक्रांत थी, अथवा सीलाकैंथस मछलियों (Coelacanthus) के जीवित अवशेष अब संभवत: समाप्त हो चले हैं। इसी प्रकार, उद्विविकास संबंधी अन्य अनेक समस्याओं का समाधान जीवाश्म करते रहे हैं।

भूगर्भिक कालों का निर्धारण सहज कार्य नहीं है। इस दिशा में अनेक विद्वानों ने, समय-समय पर, अनेक सिद्धांत उपस्थित किए हैं। उन सबका विवेचन एक पृथक विषय हो जाता है, अत: हम सर्वमान्य सिद्धांत के अनुसार युगविभाजन का ही उल्लेख करेंगे। इन कालों (महाकल्पों, कल्पों तथा युगों) के विभाजन का पारम्परिक आधार यूरोपीय एवं उत्तरी अमरीका के तटवर्ती सागरों की तलहटियों में हुए परिवर्तन हैं। कालों का विभाजन करनेवाली सीमाएँ वास्तविक न होकर मात्र सुविधानुसार हैं। अकशेरुकीय जंतुओं के जीवन में परिवर्तन अथवा अवसादों के निक्षेपण में व्यवधान को लक्ष्य करके कालों को विभाजित कर लिया गया है। कैम्ब्रियन महाकल्प से लेकर नूतन महाकल्प तक, अनुमानत:, 50,00,00,000 वर्षों का विस्तार रहा है। शिलाखंडों की पहचान कर लेने के बाद सबसे प्राचीन खंड की आयु तीन अरब वर्ष पूर्व की आँकी गई है। कैम्ब्रियन काल में ही पहली बार जीवाश्म दिखलाई पड़ते हैं; उनकी आयु 50 करोड़ पूर्व मानी गई है। इसका यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि इसके पूर्व पृथ्वी पर जीवन थ ही नहीं। जीवन अवश्यमेंव था, नहीं तो जीवाश्म कहाँ से प्राप्त होते। यह दूसरी बात है कि जीवन के उस आदिम काल के प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि उनका क्रमिक उद्विकास हो रहा था।

प्रथम कशेरुकीय जंतु की उत्पत्ति अनुमानत: 40 करोड़ वर्ष पूर्व हुई थी, जो ऑर्डोविसियन कल्प के नाम से जाना जाता है। विख्यात दैत्याकार डाइनासौर लगभग 20 करोड़ वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए और प्राय: 1 करोड़ वर्षों तक पृथ्वी पर चंक्रमण करते रहे। सात करोड़ वर्ष पूर्व स्तनपायी (mammals) जंतु प्रकट हुए और डाइनासौर लुप्त हो गए। मनुष्य के उत्पत्ति लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व मानी जाती है।

भूगर्भिक काल (Geological age)- ऊपर कहा जा चुका है कि जीवाश्मों तथा भूगर्भिक कालों में अटूट संबंध होता है। ये भूगर्भिक काल कौन-कौन से हैं, इसका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है :

महाकल्प युग (Era) (Period) (Epoch)

(क) नूतन जीवी (Cenozoic) (1) चतुर्थ (Quaternary) नूतन (Holocene) अत्यंतनूतन या स्तनपायी जंतुओं एवं मानव (2) तृतीय (Tertiary) (Pleiotocene) का काल अतिनूतन (Pliocene) मध्यनूतन (Miocene) अल्पनूतन (Obigocene) आदिनूतन (Eocene) पुरानूतन (Palaeocene)

(ख) मध्यजीवी (1) क्रेटैशस (Cretaceous) (Mexozoic) या (2) जुरैसिक (Turassic) सरीसृपों का काल (3) ट्राइऐसिक (Triassic) (ग) पुराजीवी (Paleooic) (1) पर्मियन (Permian) या अकशेरुकीय तथा (2) पेन्सिल्वेनियन (Pennrylvanian) आदिम कशेरुकीय (3) मिसिसिपियन (Mississippian) जंतुओं का काल (4) डेवोनियन (Devonian) (5) सिल्यूरिन (Silurain) (6) ऑर्डोविसियन (Ordovician) (7) कैंब्रियन (Cambrian) (घ) कैंब्रियनपूर्वी (Pre-Combrian)

कालों का नामकरण- ऊपर की तालिका में प्रत्येक महाकल्प, कल्प तथा युग का कोई न कोई नाम दिया गया है। कैम्ब्रियन नाम इंग्लैंड के वेल्स प्रदेश में स्थित कैम्ब्रिया जिले के नाम पर दिया गया, जहाँ इस काल के शिलाखंड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। ऑर्डोविसिन तथा सिल्यूरियन कल्प का नामकरण दक्षिणी इंग्लैंड तथा वेल्स की इसी नाम की आदिम जातियों के नाम के आधार पर पड़ा है। डिवोनियन कल्प का नामकरण डिवॉनशायर (इंग्लैंड) के नाम पर पड़ा है। इसी पकार उत्तरी अमरीका की मिसिसिपी नदी तथा पेंसिल्वैनिया प्रदेश की ऐलेगनी पर्वत श्रेणी के क्षेत्र में पाए गए शिलाखंडों के नाम पड़े हैं। इसी प्रकार उत्तरी भाग में स्थित पर्म प्रदेश में पाए गए पुराजीवी शिलाखंडों को पर्मियन नाम दिया गया। इसी प्रकार अन्य नामों को भी समझना चाहिए।

महाकल्पों के कशेरुकीय जंतु- कशेरुकीय जंतुओं के अश्मीभूत प्रमाण सर्वप्रथम ऑर्डोविसियन काल में मिलते हैं, जो विच्छिन्न रूप में हैं। हम ज्यों-ज्यों सिल्यूरियन काल की ओर बढ़ते हैं, ये जीवाश्मीय प्रमाण अधिक ठोस और पूर्ण होते जाते हैं। डिवोनियल शैल खंडों के जीवाश्मीय प्रमाण वास्तवकि अर्थ में पूर्ण और विश्वसनीय हो जाते हैं। डिवोनियन कल्प के मध्य तथा अंतकाल के बीच मछलियाँ उत्पन्न हो चुकी थीं। पुराजीवी महाकल्प के अंत काल में उभयचर (amphibians) भी उत्पन्न हो चुके थे। पेन्सिलवैनियय काल में सरीसृप उत्पन्न हुए और उन्होंने लाखों वर्षों तक पृथ्वी पर शासन किया। मध्यजीवी महाकल्प के जुरैसिक कल्प में पक्षी तथा स्तनपायी उत्पन्न हुए। नूतनजीवी महाकल्प में स्तनपायी जंतु युग का आंरभ हुआ। इस प्रकार, मोटे तौर पर, कशेरुकीय जंतुओं का प्रादुर्भाव होता गया।

कशेरुकीय जीवाश्मविज्ञान- इसके पूर्व कि हम कशेरुकीय जीवाश्मों पर विचार करें, कशेरुकीय जंतुओं के लक्षणों पर दृष्टिपात कर लेना समीचीन होगा। कशेरुकी जंतुओं के निम्नलिखित लक्षण बतलाए गए हैं :

(1) सभी कशेरुकीय जंतुओं में द्विपार्श्व सममिति (Bilateral symmetry) पाई जाती है।

(2) पृष्ठरज्जु (Notochord)- कशेरुकीय जंतुओं के अवलंबन (support) के लिए आंतरिक कंकाल पाया जाता है। इससे पेशीय संचलन में भी सुविधा मिलती है। इस कंकाल के पृष्ठभाग में एक लंबी पतली शलाका होती है, जो पुच्छ भाग से लेकर कपाल की ग्रीवा तक फैली रहती है। अति विकसित कशेरुकीयों में यही रीढ़ की हड्डी बन जाती है।

(3) उपास्थि एवं अस्थि (Cartilage and bone)- सभी कशेरुकीय जंतुओं में उपस्थियों या अस्थियों द्वारा निर्मित एक कंकाल तंत्र (skeletal system) पाया जाता है।

(4) अक्षीय कंकाल (Axial skeleton)- अक्षीय कंकाल तंत्र के मुख्य घटक कशेरुक (Vertebrae) हैं। कशेरुकों का विस्तार होने के कारण उच्च कशेरुकीय जंतुओं में पसलियाँ (ribs) बन जाती हैं।

(5) युग्मित अनुबंध (Paired appenddages)- मछलियों में युग्मित पंखों (Paired fins) तथा भूमि पर रहनेवाले कशेरुकों में हाथ पैर पाए जाते हैं। ये सब एक-एक जोड़े हाते हैं। हाथों के अवलंबन के लिए हँसलियाँ (pectoral girdles) तथा पैरों के लिए कूल्हे (pelvic girdles) होते हैं।

(6) क्लोम तंत्र (Branchial system)- सभी कशेरुकीयों में साँस लेने के लिए क्लोमतंत्र पाया जाता है, जो उच्च कशेरुकीयों में विकसित होकर फेफड़ा बन जाता है।

(7) खोपड़ी (Skull)- कंकाल के एक सिरे पर एक मस्तिष्क खोल (brain case) पाई जाती है जिसके भीतर वसा जैसे पदार्थ भरे रहते हैं। इसका पिछला भाग रीढ़ की हड्डी से जुड़ा रहता है और अगले या सम्मुख भाग में नाम तथा आँख के गड्ढे बने रहते हैं। पृष्ठीय खंड के विस्तार क्षेत्र में कान की गुहाएँ पाई जाती हैं।

पुराजीवी महाकल्प (Paleozoic Era)- इस महाकल्प का विस्तार 32 करोड़ वर्षों तक की अवधिवाला माना गया है। इसके अंतर्गत सात कल्प समाविष्ट हैं : कैंब्रियन, ऑर्डोविसियन, सिल्यूरियन, डिवोनियन, मिसिसिपियन, पेंसिल्वैनियन तथा पर्मियन।

(1) कैंब्रियन कल्प- पुराजीवी महाकल्प के इस प्रथम चरण में अकशेरुकीय जंतुओं के पूर्णविकसित स्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं। कशेरुकीय जंतुओं के जीवाश्म कैंब्रियनकाल में नहीं मिलते। इस कारण यह बतलाया गया है कि संभवत: आदिम कशेरुकीय जंतुओं का शरीर ऐसे पदार्थों द्वारा निर्मित रहा होगा, जिनका प्रस्तरीकरण संभव नहीं है। दूसरे, इस कल्प के जीवाश्म अधिकतर समुद्री हैं, अत: हो सकता है कि वे, या तो विरल (rare) रहे हों, या खारे जल में वे रहते ही न रहे हों।

(2) ऑर्डोविसियन कल्प- पुराजीवी महाकल्प के द्वितीय चरण के भी जीवाश्म अधिकतर समुद्री हैं। ऑर्डोविसियन कल्प में भी अकशेरुकीयों की भरमार है। इसमें इक्के-दुक्के कशेरुकीय जीवाश्म मिले हैं, किंतु वे इतने अधूरे हैं कि उनसे कोई अर्थ निकालना कठिन है।

(3) सिल्यूरियन कल्प- सिल्यूरिन कल्प के भी जीवाश्मीय प्रमाण अधिकतर सागरजलीय हैं। इस कल्प के कुछ अतिशय प्राचीन पर्वतीय क्षेत्रों में, विशेषकर रूस के पास, कुछ आदिम कशेरुकीयों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मीठे जलाशयों के पेटों तथा समुद्रों के मुहानों पर, जहाँ नदियाँ उनसे संगम करती हैं, कुछ सार्थक जीवाश्म प्राप्त हो सके हैं। मछलियों का प्रादुर्भाव यद्यपि इस कल्प में हो चुका था, तथापि उनका उद्विकास तेजी से हो रहा था जो अगले चरण में जाकर पूरा हुआ।

(4) डिवोनियन कल्प- इस कल्प में कशेरुकीय जंतुओं के स्पष्ट रूप से प्रमाण प्राप्त होते हैं। डिवोनियन कल्प को 'मत्स्य युग' (Age of fishes) कहा जाता है। कशेरुकीय जंतुओं का श्रृंखलाबद्ध इतिहास यहीं से आरंभ होता है। इंग्लैंड के स्कॉटलैंड प्रदेश में मीटे जल की मछलियों के प्रथम दर्शन मिलते हैं। डिवोनियनकालीन अवसाद उत्तरी अमरीका, कैनेडा, उत्तरी रूस, आस्ट्रेलिया आदि में भी मिलते हैं। इस कल्प में काँटेदार शार्क (spiny shark) का भी प्रादुर्भाव दिखलाई देता है।

(5-6) मिसिसिपियन एवं पेंसिल्वैनियन कल्प- कुछ जीवाश्म वैज्ञानिकों ने इन दोनों कल्पों को एक संयुक्त नाम--कार्बोनीफ़रस या कार्बनिक कल्प दिया है। इन दोनों कल्पों की संयुक्त अवधि लगभग आठ करोड़ वर्षों की मानी गई है। मिसिसिपियन कालीन क्षेत्र अधिकतर समुद्री हैं और इनमें चूने (Limestone) की मोटी तहें हैं। पेंसिल्वैनियन कल्प में कोयले की खानों की रचना आरंभ हो चुकी थी, अत: स्वाभाविक रूप से ये क्षेत्र स्थालीय हैं। इस काल में भी विविध प्रकार की मछलियों के जीवाश्म प्रचुर मात्रा में पाए गए हैं। इस कल्प का मुख्य आकर्षण उभयचरों (amphibians) का प्रादुर्भाव है। इन्हीं कल्पों की समाप्ति होते-होते सरीसृप (reptiles) भी उत्पन्न हो चुके थे।

(7) पर्मियन कल्प- पुराजीवी महाकल्प के इस अंतिम चरण में यूरोप और अमरीका के अनेक क्षेत्रों के अवसादों में पर्याप्त अंतर पड़ चुका था। दक्षिणी अफ्रीका तथा रूस के कुछ भागों में भी इसी प्रकार का परिवेश था और इसमें स्थलीय कशेरुकीय जंतुओं के दर्शन होने लगते हैं। उभयचरों का विकास तेजी से होता जा रहा था और सरीसृप भी फैलते जा रहे थे। इस काल के सरीसृप शाकाहारी थे। कुछ सरीसृप मछलियों का आहार करते थे, ऐसे प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं। दक्षिणी अफ्रीका में कुछ ऐसे भी सरीसृप मिले हैं जो स्तनपायी जंतुओं जैसे दिखलाई देते हैं।

मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic Era)- इस महाकल्प की अवधि लगभग 13 करोड़ वर्षों की आँकी गई है और इसे 'सरीसृपकाल' (Age of Repiles) की संज्ञा प्रदान की गई है। इस महाकल्प में तीन कल्प हैं : ट्राइऐसिक, जुरैसिक तथा क्रिटैशस।

(1) ट्राइऐसिक कल्प- मध्यजीवी महाकल्प में भयंकर प्रकार के सरीसृप जल, थल तथा नभ तीनों का शासन करते थे। ईश्वर की कृपा है कि अब उनका लोप हो चुका है। ट्राइऐसिक कल्प का क्षेत्र यूरोप के अल्पाइन पर्वत से आरंभ हाता है। इस क्षेत्र के सागरों की तलहटियों में कई प्रकार के निक्षेप (deposits) मिलते हैं। ऐसे ही क्षेत्र दक्षिणी अफ्रीका, पूर्वी आस्ट्रेलिया, भारत, ब्राज़ील आदि में भी थे।

इस कल्प में पुरानी मछलियों का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा था और उनके स्थान पर नए प्रकार की मछलियों का प्रादुर्भाव हो रहा था। कुछ नए प्रकार के सरीसृपों को भी हम उसी काल में पाते हैं, जिनके वंशज आज प्रचुर संख्या में उपलब्ध हैं। इसी कल्प के अंतिम चरण में डाइनासौरों के पूर्वज जन्म ले चुके थे।

(2) जुरैसिक कल्प- इस कल्प की विशेषता यह है कि इसमें जलीय कशेरुकीय जीवाश्म प्रचुर मात्रा में मिले हैं। इनकी तुलना में स्थलीय कशेरुकी कम प्राप्त हुए हैं। इस कल्प के क्षेत्र जूरा पर्वत, इंग्लिश चैनेल, बैवेरिया (जर्मनी), फ्रांस आदि तक ही सीमित हैं। इस कल्प में तीलियोस्ट (teliosts) तथा एलास्मोब्रैक (elasmobranch) मछलियों, मेंढ़कों, समुद्री सरीसृपों, छिपकली जाति के जंतुओं (lizards), मगर, पक्षी तथा आदिम स्तनपायी जंतुओं के दर्शन हमें स्पष्ट रूप से होते हैं। समुद्री इक्थियोसौर इस कल्प के उल्लेखनीय जंतु हैं। जुरैसिक कल्प के अंतिम चरण में डाइनोसौरों के भी दर्शन होने लगते हैं। इस काल के प्रमुख पक्षी वर्ग में आर्किऑप्टेरिक्स (Archaeopteryx) तथा आर्किऑर्निस (Archaeornis) हैं, जिनका आज लोप हो चुका है।

(3) क्रीटैशस कल्प- इस अकेले कल्प की अवधि लगभग पाँच करोड़ वर्ष आँकी गई है। इस कल्प के प्रमाण यूरोप, उत्तरी अमरीका, ब्राज़ील, आस्ट्रेलिया, माउंट लेबनान, सीरिया आदि में उपलब्ध होते हैं। इस कल्प के जंतु भारत, चीन, मंगोलिया, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि में भी मिले हैं। इस काल में बड़े-बड़े समुद्री कच्छप, सर्प, मगर मांसाहारी डाइनासौर आदि प्रचुर संख्या में दिखलाई देते हैं। प्लीसियोसौरों (Plesiosaurs) की प्रभुता इस कल्प की विशेषता प्रतीत होती है, जिनके अवशेषों में एक ऐसी खोपड़ी मिली है, जो लगभग तीन मीटर लंबी है।

नूतनलीवी महाकल्प (Cenozoic Era)- इस काल की अवधि पाँच छह करोड़ वर्ष आँकी गई है और इसे तृतीय तथा चतुर्थ कल्पों में विभक्त किया गया है। इस महाकल्प में दैत्याकार सरीसृपों का अंत हो चुका था और आधुनिक जंतुओं के पूर्वजों का अवतरण आरंभ होने लगा था।

(1) तृतीय कल्प- इस कल्प को पाँच युगों में विभक्त किया गया है, पुरानूतन (Palaeocene), आदिनूतन (Eocene), अल्पनूतन (Oligocene) मध्यनूतन (Miocene) तथा अतिनूतन (Pliocene)।

(क) पुरानूतन युग (Palaeocene Epoch)- तृतीय कल्प का यह प्राचीनतम युग है, जिसमें मुख्य रूप से स्तनपायी जंतुओं के आदम पूर्वज विकसित हो रहे थे। तत्कालीन जंतुओं को प्राणिशास्त्रियों ने यद्यपि कीटभक्षी, मांसभक्षी अथवा प्राइमेंट वर्गों में वर्गीकृत किया है, तथापि आज कल के किन्हीं वर्गों के जंतुओं से वे सर्वथा भिन्न प्रतीत होते हैं। इन आदिम पूर्वजों में से अधिकतर अब लुप्त हो चुके हैं।

(ख) आदिनूतन युग (Eocene Epoch)- इस युग के जंतु भी पुरानूतन युगीन जंतुओं की भाँति उत्तरी अमरीका में ही अधिकतर प्राप्त हुए। यूरोप में कुछ काल बाद स्विटज़रलैंड तथा फ्रांस और बेल्जियम में भी कुछ प्रमाण प्राप्त हुए। इस युग की विशेषता खुरदार जंतुओं की उत्पत्ति है। मध्ययुग में चमगादड़ भी अपना दर्शन देने लगते हैं। उत्तर युग आते-आते कुत्ते, बिल्लियों आदि के कुलों के पुर्वज भी प्रकट होने लगते हैं। इसी समय दरियायी घोड़ों, टेपियरों, घोडों आदि के भी आदिम प्रमाण प्राप्त हो जाते हैं।

(ग) अल्पनूतन युग (Oligoncene Epoch)- इस युग के जीवाश्म यूरोप, एशिया, अमरीका आदि अनेक महाद्वीपों में प्राप्त हुए हैं। मंगोलिया, दक्षिण डकोटा (उत्तरी अमरीका), पैटोगोनिया (दक्षिणी अमरीका) मुख्य क्षेत्र बतलाए गए हैं। एक तिहाई से भी कम स्थलीय स्तनपायी जंतुओं का पता इस युग में लगा है। कारण यह है कि अधिकतर जंतुकुलों का लोप भी होता गया। उत्तर युग में अपोज़म, बीवर, क्रियोडोंट, फ़िसीपीड आदि भी पाए गए हैं। मस्टेलिड तथा फ़ीलिड, समूहों की प्रचुरता थी। टेपियर, राइनोसिरस, आर्टिओडैक्टाइल आदि भी काफी प्राप्त हुए हैं।

(घ) मध्यनूतन युग (Miocene Epoch)- इस युग का विस्तार बहुत लंबा है और फ्रांस, जर्मनी आदि में बहुत से जीवाश्म मिले हैं। इस युग के जंतु अति आधुनिक हैं। बहुत से प्राचीन कुल लुप्त हो गए और उनके स्थान पर नए कुल विकसित हो रहे थे। मस्टेलिड, फ़ीलिड, सिवेट, हायना, रोडेंट आदि सुधरे रूपों में दिखलाई देते हैं। यूरापे में गिबन के पूर्वजों का आभास मिलता है। बाद में इसका क्षेत्र अफ्रीका हो गया। घोड़ों, ऊँटों के भी पूर्वजों का कुछ संकेत इस युग में मिलने लगता है।

(ङ) अतिनूतन युग (Pliocene Epoch)- इस युग के अवशेष अधिकतर भूमध्यसागरीय क्षेत्रों तथा पूर्वी और मध्य यूरापे से प्राप्त हुए हैं। चीन के शांसी प्रदेश तथा भारत में शिवालिक पर्वत के आसपास भी इस युग के कुछ अवशेष मिले हैं। उत्तरी और दक्षिणी अमरीका में भी टेक्सास, न्यू मेक्सिको, कैसास, अर्जेंटाइना आदि क्षेत्रों के अवशेष इसी युग के हैं। आधुनिक जंतुकुलों (Families) के वास्तविक प्रपितामहों का विकास होने लगा था और पुराने अंगुलेट कुल लुप्त होते जा रहे थे। तेंदुआ, मृग, सूअर, जिराफ, आदिम हाथी आदि के जीवाश्म इस युग में प्रचुर संख्या में मिले हैं। ऊँटों के कई रूप भी दर्शनीय हैं और अनेक प्रकार के घोड़े भी दिखलाई देते हैं। स्पर्म ह्वेल मछलियाँ सागरों में विचरण करने लगी थीं।

(2) चतुर्थ कल्प- इस कल्प के दो युग हैं : अत्यंत नूतन तथा नूतन।

(3) अत्यंत नूतन युग (Pleistocene Epoch)- इस युग को उत्तरी क्षेत्रों का हिम युग (Ice Age) कहा जाता है। भौगोलिक दृष्टि से ध्रुव, समशीतोष्ण तथा उष्ण कटिबंध अलग हो चुके थे, तथापि उनमें सीमांकन करना कठिन था। पूर्व युगों के जंतुओं का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा था और उनके स्थान पर नए-नए प्राणी विकसित होने लगे थे। आस्ट्रेलिया में बड़े-बड़े कंगारू तथा ऑर्निथोरिंकस धीरे-धीरे कम होते जा रहे थे। इस युग में लगभग वे सभी जंतु दिखलाई देते हैं, जो आज वर्तमान हैं। शीत, उष्ण तथा समशीतोष्ण कटिबंधों के जंतुओं का अंतर स्पष्ट हो चला था। मानव की उत्पत्ति इस युग में हुई या नहीं, यह एक विवाद का प्रश्न है।

(4) नूतन युग (Holocene Epoch)- इस युग की उल्लेखनीय विशेषता मनुष्य की उत्पत्ति है। इसके पूर्व युग के दैत्याकार जंतु लुप्तप्राय हो चले थे और उनके स्थान सुडौल शरीरधारी आते जा रहे थे।

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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