वन प्रकृति के प्रमुख स्वरूपों में रहे हैं और विश्व के सबसे महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं। लाखों वर्षों से लोग आवास के लिये जंगलों पर आश्रित हैं। कई हजार सालों से लोग जंगल में रहते हैं और जंगल की पारिस्थितिकी पर निर्भर थे। कालान्तर में वनों पर राजस्व उगाही और खनिज दोहन के लिये अतिक्रमण और हमले होने लगे। उस समय से वर्तमान तक वनों को विकास के नाम पर शोषण की दृष्टि से देखा जाने लगा। जमीन का 30.6 प्रतिशत भाग वनों से ढका है। विश्व का कुल वन क्षेत्र 3,999 मिलियन हेक्टेयर है। जिसका औसत 6 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति होता है। जंगलों की कटाई की दर गम्भीर चिंता का विषय है। लगभग 3.3 मिलियन वन पिछले 5 वर्षों से प्रति वर्ष अन्य उपयोगों के लिये बदल रहा है या प्राकृतिक कारणों से, समाप्त हो रहा है। जंगल की आग वन और वनवासी समुदायों के लिये प्रमुख खतरा है। यह बहुत विनाशकारी हो सकता है, इससे, प्राकृतिक सम्पदा, सम्पत्ति और मानव जीवन का भी नाश हो रहा है। हालाँकि आग से प्रभावित जंगलों की सूचना मुख्य रूप से कम बताई जाती है, कई देशों से इस सम्बन्ध की सूचनायें गायब है।
भारत उन कुछ देशों में से एक है जो जैव विविधता की दृष्टि से धनी हैं। भारतीय वन सर्वे, 2015 के अनुसार भारत के कुल भाग का 7,01,673 वर्ग किलोमीटर वनों से आच्छादित है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.34 प्रतिशत भाग वन क्षेत्र है। यहाँ की विविधतापूर्ण जलवायु और भौगोलिक स्थितियों के कारण भारतीय वनों में जैव विविधता की समृद्धता है। भारत की वनस्पतियाँ अंडमान व निकोबार द्वीपसमूहों के उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वनों एवं सूखे अल्पाइन हिमालयी वनों में भिन्न-भिन्न प्रकार की है। शीतोष्ण क्षेत्र की विशेषता के साथ पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र कश्मीर से कुमाऊं तक फैले वन क्षेत्र में सुंदर देवदार, चीड़, बांज, शंकूधारी चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों की अधिकता है। इस क्षेत्र के अधिक ऊँचाई वाले स्थान को अल्पाइन क्षेत्र कहते हैं, जो शीतोष्ण क्षेत्र की ऊपरी सीमा 4,750 मीटर से अधिक ऊँचाई तक जाता है। इस क्षेत्र की विशेषता में पाये जाने वाले वृक्ष सिल्वर फरी, बिर्च, ज्यूपिनर और बौना विलो प्रमुख हैं।
जैव विविधता में समृद्ध होने के बावजूद अपने वन आवरण के रूप में देश की तस्वीर काफी चिंता जनक है। दुनिया के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.5 और कुल वन क्षेत्र का 1.8 प्रतिशत क्षेत्र के साथ देश की कुल मानवीय आबादी का 16 प्रतिशत से अधिक तथा लगभग मवेशियों की 18 प्रतिशत आबादी को आश्रय देता है। देश का समूचा वन क्षेत्र प्राकृतिक और मानव निर्मित विभिन्न कारकों द्वारा करीबी से जुड़ा हुआ है। भूविज्ञान, जलवायु, सामाजिक-आर्थिक स्थिति आदि कई कारण हैं, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वन और इसकी जैवविविधिता को प्रभावित करते हैं।
पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के लिये और बेहतर जल प्रबंधन के लिये वन आवश्यक हैं। सूखे मौसम में जब पानी की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, वन वर्षा के जल को अवशोषित करके बाढ़ को रोकते हुये पानी को जलधाराओं के रूप में धीरे-धीरे प्रवाहित करते हैं। लगभग 40 प्रतिशत किसान फसलों की सिंचाई और पशुधन के लिये वन जलागम पर निर्भर हैं। जीएफआरए की वर्ष 2015 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 300 करोड़ हेक्टेयर जमीन मृदा जल संग्रहण, हिमस्खलन नियंत्रण, रेत के टीलों के स्थिरीकरण एवं तटीय सुरक्षा आदि के लिये नामांकित की गई है। बाढ़ नियंत्रण हेतु जंगलों के द्वारा प्रतिवर्ष 72 अरब डॉलर का विनियमन आंका गया है। वन नदियों के द्वारा होने वाले मिट्टी के बहाव को नियंत्रित करते हैं। जलाशयों में गाद भरने से प्रतिवर्ष जलविद्युत और सिंचाई के पानी के लिये 8 अरब डॉलर व्यय होता हैं। वनों के द्वारा नदियों और जलाशयों में गाद भरने से रोकने में प्रभावी और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है।
भू-आवरण, भू-उपयोग, जैवविविधता, जलवायु परिवर्तन और वन पारिस्थितिकी व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालने के रूप में जंगल की आग एक महत्त्वपूर्ण कारक रही है। प्रभावित क्षेत्रों में मानव स्वास्थ्य और सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर भी वनाग्नि का गहरा प्रभाव पड़ता है। पिछले 100 वर्षों में मानवीय हस्तक्षेप से बायोमास का जलना काफी सीमा तक बढ़ गया है, निरंतर और अधिक व्यापक हो गया है।
वैश्विक स्तर पर जंगल की आग को जलवायु परिवर्तन का हानिकारक तत्व माना जाता है, जिसका पृथ्वी और पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। यह ट्रेस गैसों और एयरोसोल कणों का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन करता है, जो क्षोभ मंडल रसायन विज्ञान और जलवायु के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आग एक पारिस्थतिकीय क्रिया है जो स्थलीय प्रणालियों और वनस्पति समुदायों को आकार देती है, व प्रभावित करती है।
प्रतिवर्ष लगभग 55 प्रतिशत से अधिक वन आग के अधीन होने के कारण पारिस्थितिकी के अलावा 440 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान होता है। भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुमान के अनुसार 2.40 प्रतिशत में गंभीर और 6.49 प्रतिशत वन में मध्यम स्तरीय आग की घटनायें होती हैं। 54.40 प्रतिशत वनों में कभी-कभी आग की घटनायें होती हैं। जंगल आग से भारी प्रभावित होने के साथ ही 6.17 प्रतिशत जंगल में आग से गम्भीर नुकसान होने का खतरा रहता है। फरवरी से जून माह तक फायर सीजन के दौरान जंगल में आग लगने की घटना भारत में बारम्बार हो रही है, पूरे भारत में 15,937 आग लगने की घटनाओं की सूचना वर्ष 2015 में दर्ज की गई। वर्ष 2016 में केवल उत्तराखंड में ही 1,492 घटनायें दर्ज की गई।
उत्तर भारतीय राज्य उत्तराखंड सघन रूप से वनों (24,240 वर्ग किमी, राज्य के कुल भाग लगभग 45 प्रतिशत) से घिरा है। आमतौर पर फायर सीजन फरवरी से जून माह में वनाग्नि की घटनायें होती हैं, परन्तु मई और जून में वनाग्नि की घटनायें शीर्ष पर होती हैं। अप्रैल 2016 में जंगल में आग की घटनायें व्यापक रूप ले रही थी, जिसने राज्य का लगभग सम्पूर्ण वन क्षेत्र अपने आगोश में ले लिया था, इस दौरान वनाग्नि की घटनायें असामान्य रूप से बढ़ गयी थी।
उत्तराखंड में इस दौरान वन में आग लगने की 1600 घटनायें पता चली है। वनाग्नि ने 24 अप्रैल, 2016 को बढ़ना शुरू किया और 26-28 अप्रैल को यह चरम पर थी, जो बाद में धीरे-धीरे कम हुई। राज्य के वन विभाग, प्रशासनिक अमले, स्थानीय समुदाय, एनडीआरएफ और अर्द्ध सैनिक बलों के द्वारा आग बुझाने के प्रयासों को 2 मई 2016 को हुई बारिश और निरंतर बादल छाये रहने से काफी सहायता मिली, उच्च तीव्रता वाली आग की घटनायें कम होने लगीं। आग की घटनाओं की सर्वाधिक संख्या (68 प्रतिशत) गढ़वाल, अल्मोड़ा, नैनीताल जिलों में हुई। सर्वाधिक आग की घटना वर्ष 2003 के बाद अप्रैल 2016 में देखी गई, जोकि 12 वर्षों के मध्य 5 बार लिये जाने वाले आंकड़ों में 2 बार के अधिकतम आंकड़ों से भी अधिक है।
उत्तराखंड में वनाग्नि वर्ष 2016 (क्षेत्रफल वर्ग कि.मी. में) |
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जिला |
कुल भौगोलिक क्षेत्रफल वर्ग कि.मी. |
वन क्षेत्र |
वनाग्नि प्रभावित क्षेत्र |
वन के अलावा अग्नि प्रभावित क्षेत्र |
वनाग्नि प्रभावित क्षेत्र का प्रतिशत में |
अल्मोड़ा |
3,139 |
1,583 |
149.09 |
52.28 |
9.42 |
बागेश्वर |
2,246 |
1,363 |
212.02 |
13.62 |
15.56 |
चमोली |
8,030 |
2,681 |
50.00 |
14.96 |
1.87 |
चम्पावत |
1,766 |
1,184 |
79.77 |
16.74 |
6.74 |
देहरादून |
3,088 |
1,602 |
89.90 |
3.45 |
5.61 |
हरिद्वार |
2,360 |
588 |
45.67 |
1.20 |
7.77 |
नैनीताल |
4,251 |
3,004 |
323.66 |
18.99 |
10.77 |
पौड़ी गढ़वाल |
5,329 |
3,269 |
496.65 |
105.02 |
15.19 |
पिथौरागढ़ |
7,090 |
2,102 |
201.49 |
106.50 |
9.59 |
रुद्रप्रयाग |
1,984 |
1,130 |
14.93 |
3.90 |
1.32 |
टिहरी गढ़वाल |
3,642 |
2,156 |
112.75 |
40.34 |
5.23 |
उधम सिंह नगर |
2,542 |
506 |
4.49 |
7.44 |
0.89 |
उत्तरकाशी |
8,016 |
3,072 |
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कुल योग |
53,483 |
24,240 |
1781.35 |
384.72 |
7.35 |
स्रोत: आईआरएसए और डब्लूआईएफएस के बहु अस्थायी डेटा सेट के आधार पर वनाग्नि प्रभावित क्षेत्रों के उत्तराखंड के जिलेवार आंकड़े |
अनुमानित कुल 2166 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को आग से प्रभावित माना गया। भारतीय वन सर्वे के अनुसार कुल वनाग्नि प्रभावित क्षेत्र में 385 वर्ग किलोमीटर वन से बाहर का क्षेत्र मापा गया है। लगभग 87 प्रतिशत घने जंगलों में आग लगी। राज्य में आग की घटनाओं में सर्वाधिक जलने वाला क्षेत्र नम पर्णपाती (55.29 प्रतिशत) उपोष्णकटिबंधीय चीड़ के जंगल (29 प्रतिशत) और 7.35 प्रतिशत वन क्षेत्र आग की भेंट चढ़ा है। विशेष रूप से भारत में वनाग्नि को मानव जनित माना जाता है। क्षेत्र भ्रमण के दौरान स्थानीय निवासियों और वनाग्नि को नियंत्रित करने में लगे कर्मियों के साथ बातचीत में इस विचार की पुष्टि की गई है। यह संभावना जताई गई कि आग के सामान्य स्वरूप को प्रतिकूल जलवायु और अत्यधिक गर्मी ने विस्तार दिया। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार उत्तराखंड में बारिश का औसत 1138 मिमी है, जबकि वर्ष 2015 में अगस्त में सर्वाधिक बारिश के साथ ही कुल 47 प्रतिशत बारिश ही हुई।
वानिकी संस्थानों के भारत में वन क्षेत्र बढ़ने के दावों के बावजूद, देश के अधिकांश वन क्षेत्र की पारिस्थितिकीय में विभिन्न चरणों में गिरावट आ रही है। वन पारिस्थितिकी प्रणालियाँ गिरावट के तीव्र स्वरूप में हैं जिसके कारण भारतीय समाज की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। विभिन्न अन्य कारणों के साथ ही वनों का ह्रास देश की भौतिक, सामाजिक व आर्थिक स्तर पर आपदाओं के जोखिम बढ़ाने का मुख्य कारण है। वनों के कटान से प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढ़ जाती है और यह अक्सर प्राकृतिक खतरों या जलवायु परिवर्तन को आपदा में परिवर्तित करने का प्रमुख कारक बनता है। हिमालय की तरह पारिस्थितिक संवदेनशील और अस्थिर क्षेत्रों में वनों के कटान का अधिक गंभीर प्रभाव पड़ा है। विशेष रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में तथाकथित विकास के नाम पर पर्यावरण को अत्यधिक व प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर दिया गया है। जिसके परिणाम स्वरूप बड़े पैमान पर विनाश हो रहा है। वनों की कटाई व वनाग्नि, भूमि क्षरण, जल भराव, बाढ़, त्वरित बाढ़, हिमस्खलन, मिट्टी का कटाव और मरुस्थलीकरण के रूप में हिमालयी क्षेत्र को प्रभावित किया है।
हिमालय में वनों की कटाई के कारण मानसून में बाढ़ की घटनायें गंभीर रूप से बढ़ी है, और धारा प्रवाह कम हुआ है, एवं शुष्क मौसम में जलस्रोत सूख जाते हैं। मिट्टी कटाव के कारण नदियों की जल बहाव क्षमता में कमी आई है, और नदियों के किनारे कम हो गये हैं। जिसके परिणामस्वरूप बाढ़ की घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं। इसके कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है और हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघलकर जल आपदाओं को बढ़ा रहे हैं बड़े पैमाने पर बाँध निर्माण और नदियों के प्रवाह को रोकने से हिमालयी क्षेत्र का पारिस्थितिकीय संतुलन प्रभावित हुआ है, और इसके कारण पर्यावरण क्षरण तथा प्राकृतिक संसाधनों का भी नाश हो रहा है। ऊँचाई वाले क्षेत्रों में वनस्पतियों की निकासी भी कटाव का एक अन्य प्रमुख कारण है।
चर्चा में आये अन्य कारणों के अलावा जंगल के नुकसान लिये वनाग्नि प्रमुख कारण है। जंगल के पारिस्थतिकीय तंत्र पर आग के कारण विविध प्रकार से प्रभाव पड़ता है। जंगल में पेड़ों को सीधे नुकसान पहुँचाने के अलावा आग ने जंगल के पुनर्जनन, जलस्रोतों, सूक्ष्म जलवायु, मृदा क्षरण और जंगली जानवरों, जीव जंतुओं पर प्रतिकूल असर डाला है। जंगल की आग एक विनाशकारी घटक है, जो वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की आने वाली पीढ़ियों पर भी बुरा असर डालती है। इसके व्यापक स्तर पर पारिस्थितिक, सामाजिक और आर्थिक प्रभाव पड़ रहे हैं। जंगलों में आग अप्राकृतिक नहीं है।
पृथ्वी पर उत्पत्ति के समय से आग पारिस्थितिकी तंत्र का महत्त्वपूर्ण भाग रही है। कुछ प्रकार की आग जंगल के विकास एवं उत्थान के लिये अच्छी होती है। अतीत में कम तीव्रता वाली आग जंगल में कूड़े, मृत वनस्पतियों, सूखी गिरी पत्तियों आदि का निस्तारण करती थी। नतीजतन जंगल में आग वनस्पतियों का निर्धारण और वन्य जीव जंतुओं के क्षेत्रों का वितरण करती थी। आग का प्रभाव सभी जंगलों पर एक समान नहीं होता। आग जलवायु स्थितियों और वनस्पतियों के आधार पर किसी एक पारिस्थितिकी तंत्र के लिये अच्छी हो सकती है और दूसरे के लिये विनाशकारी होती है। ‘‘आग एक अच्छी सेवक है परन्तु बुरी मालिक साबित होती है’’ का कथन वनाग्नि के लिये सही है।
सीमित और नियंत्रित आग जंगल के स्वस्थ विकास के लिये अच्छी और आवश्यक है। लेकिन अनियंत्रित वनाग्नि स्वस्थ घने जंगलों को बिना समय लगाये बर्बाद कर देती है। वनावरण को नुकसान पहुँचाने के अलावा जंगल की आग वन्य प्राणियों को समाप्त करती है, पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती है, मिट्टी की गुणवत्ता को दूषित करती है और वन उत्थान की प्रक्रिया को बाधित करती है। बहुत पुराने समय से पूरे विश्व के जंगलों पर आग प्रतिकूल प्रभाव डालती है। जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र पर आग हमेशा ही अच्छे और बुरे प्रभावों का कारण बनती है। यह कभी-कभार लाभदायक हो सकती है परन्तु अधिकांशतः इसके प्रभाव विनाशकारी ही होते हैं। जंगल का नुकसान आग के आकार-प्रकार पर निर्भर करता है। जंगलों की अनियंत्रित आग जंगलों के विकास पर प्रतिकूल असर, जैव विविधता में कमी, मृदा-क्षरण एवं भूकटाव में वृद्धि और पकड़ को कमजोर करके पानी को संरक्षित करने की क्षमता को कम करती है। न केवल वन और पर्यावरण की क्षति के रूप में बल्कि सम्पत्ति और जीवन के नुकसान के रूप में भी जंगल की आग कारण बनती है। भड़की हुई जंगल की आग जंगलों और हजारों घरों को जलाती है और मानव, वन्य जीवों व पशुओं की मौत का कारण बनती है।
वनाग्नि संकट से जूझता हिमालय उत्तराखण्ड (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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