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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 13 जून 2014
अभिमत
यह एक कटु तथ्य है कि करीब 60 फीसद किसान भूखे पेट सोने को विवश हैं। इससे अधिक आश्चर्यजनक और कुछ नहीं है कि देश का अन्नदाता किसान जो लोगों के खाद्यान्न पैदा करता है, खुद भूखे सोता है। इस संदर्भ में अर्थशास्त्री नरेंद्र मोदी से मांग कर रहे हैं कि वह चुनावों में किए गए वादे को पूरा करें कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पाने वाले किसानों को लाभ का 50 फीसद हिस्सा दिया जाए। जब कृषि वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी तो नई सरकार किस तरह महंगाई को कम कर पाएगी। नरेंद्र मोदी को मिले प्रचंड बहुमत व पूंजी बाजार के हर्षोल्लास के बीच आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवाओं का दर्दनाक विलाप कहीं दब सा गया है और यह अब बेसुरी सी आवाज बन गया है।
संसद के सेंट्रल हॉल में नरेंद्र मोदी ने जब यह कहा कि हमारी सरकार गरीबों के लिए सोचेगी, उनके लिए कार्य करेगी और उनके लिए जिएगी तो मुझे अच्छा लगा कि यह एक ऐसी सरकार होगी जो भारत के गांवों में रहने वाले लोगों, देश के युवाओं व महिलाओं के लिए समर्पित होगी। इस भाषण से मेरी उम्मीदें फिर से जाग गई।
एक ऐसे देश में जहां कृषि वर्षों से उजाड़ है, जहां प्रतिवर्ष करीब 50 लाख लोग खेती छोड़कर शहरों में छोटी-मोटी नौकरी की तलाश में पलायन कर रहे हों, वहां कृषि को फिर से खड़ा करना नई सरकार के समक्ष एक बड़ी चुनौती है।
देश में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या दिनोंदिन तेजी से बढ़ रही है। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर में डॉ. जीवी रमनजानेयुलु बताते हैं कि पिछले कुछ सप्ताह से विदर्भ क्षेत्र में प्रतिदिन पांच किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जबकि तेलंगाना क्षेत्र में भी किसानों की खुदकुशी की खबरें मिल रही हैं।
उन्होंने यह आकलन क्षेत्रीय समाचार पत्रों में प्रकाशित रिपोर्ट के आधार पर निकाला है। बुंदेलखंड में एक सिविल सोसायटी कार्यकर्ता संजय सिंह बताते हैं कि पिछले 15 दिनों में प्रतिदिन 2-3 किसान आत्महत्या करने को विवश हुए। एक समाचार पत्र के मुताबिक खाद्यान्न का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब में पिछले 40 दिनों में 10 किसानों ने आत्महत्या की है। बुंदेलखंड क्षेत्र में इस वर्ष के प्रथम तीन माह में ही 105 किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें सामने आई।
सिविल सोसायटी कार्यकर्ता संजय सिंह के मुताबिक 31 मार्च 2014 तक 105 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। मध्य भारत के तमाम हिस्सों में खराब मौसम के कारण जब खड़ी फसलें बर्बाद हो जाती हैं तो कर्ज में डूबे इन किसानों को कोई सहारा नहीं दिया जाता।
पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में फरवरी-मार्च में ओलावृष्टि के कारण खड़ी फसल बर्बाद होने से 101 किसानों ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। इनमें से 30 आत्महत्याएं तो अप्रैल में की गई। कुछ दिनों पूर्व कर्ज में डूबे दो किसान भाइयों 33 वर्षीय जुगराज सिंह व 30 वर्षीय जगतार सिंह के बारे में एक खबर पढ़ी कि दोनों ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली।
वे पंजाब के मानसा जिले के हसनपुर गांव के रहने वाले थे। उन्होंने पंजाब कोआपरेटिव एग्रीकल्चर डेवलपमेंट बैंक, बुडलाडा से तीन लाख रुपए का लोन ले रखा था। बकाया राशि जमा नहीं किए जाने पर संबंधित बैंक ने उन्हें नोटिस भेजा था। पैसा नहीं लौटा पाने के कारण उन्होंने अपने जान ले ली।
दुर्भाग्य से 13 वर्ष पहले उनके पिता ने भी आत्महत्या कर ली थी। हर कहीं कहानी एक सी है। बढ़ता कर्ज और घटती आय। पिछले 17 वर्षों में तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है।
भारत में हर एक घंटे में दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस तरह की हत्याओं का सिलसिला अनवरत जारी है। पिछले कुछ सप्ताहों में किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं कृषि के साथ नीति निर्माताओं की उदासीनता और उनकी उपेक्षा को दर्शाती हैं।
किसानों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है मानो वे समाज पर बोझ हैं। इसलिए सारी कोशिश इस बात पर है कि वह किसी तरह कृषि कार्य छोड़ें और शहरों में पलायन करें। बहुत शीघ्र देश को इससे छुटकारा पाना होगा और यह देश की आर्थिक वृद्धि और विकास के लिए भी बेहतर होगा। हालांकि मुझे देश के किसानों की हालत को लेकर कोई बहुत अधिक उम्मीद नहीं है।
2011 की जनगणना के मुताबिक प्रतिदिन करीब 2400 किसान कृषि कार्य को छोड़ रहे हैं और छोटी नौकरी के लिए शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं।
इस वजह से गांवों से शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ रहा है। ये किसान शहरों में आकर या तो गार्ड बन जाते हैं अथवा रिक्शा चलाने का काम करते हैं, मैं इस आर्थिक तर्क को कभी नहीं समझ पाया कि पहले कृषि क्षेत्र में मौजूद रोजगार को खत्म किया जाए और फिर शहरों में दिहाड़ी मजदूरी वाले रोजगार पैदा किए जाएं।
यह एक कटु तथ्य है कि करीब 60 फीसद किसान भूखे पेट सोने को विवश हैं। इससे अधिक आश्चर्यजनक और कुछ नहीं है कि देश का अन्नदाता किसान जो लोगों के खाद्यान्न पैदा करता है, खुद भूखे सोता है। इस संदर्भ में अर्थशास्त्री नरेंद्र मोदी से मांग कर रहे हैं कि वह चुनावों में किए गए वादे को पूरा करें कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पाने वाले किसानों को लाभ का 50 फीसद हिस्सा दिया जाए। जब कृषि वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी तो नई सरकार किस तरह महंगाई को कम कर पाएगी।
अर्थशास्त्री भी यही चाहते हैं कि सस्ते खाद्यान्न उपलब्ध कराकर देश का पूरा बोझ खुद किसान ही उठाएं। मनमोहन सिंह ने कई बार कहा है कि भारत को 70 फीसद किसानों की जरूरत नहीं है। इसलिए जनसांख्यिकीय बदलाव की त्वरित आवश्यकता है। इसी कारण कृषि क्षेत्र के लिए सरकार ने पर्याप्त धन नहीं दिया।
यह जानकर हैरत होती है कि 12वीं योजना के दौरान देश को 60 फीसद रोजगार देने वाले क्षेत्र कृषि के लिए महज 1.50 लाख करोड़ रुपए आवंटित किए गए। इस तरह के क्षुद्र निवेश के सहारे आप किस तरह के चमत्कार की उम्मीद कर सकते हैं? कृषि क्षेत्र में आज अधिक निवेश की आवश्यकता है।
2014-15 में कॉरपोरेट जगत को बतौर टैक्स छूट 5.73 लाख करोड़ रुपए दिए गए। इस वर्ष मौसम विभाग ने सामान्य से कम बारिश की भविष्यवाणी की है। नई सरकार को तत्काल ध्यान देना होगा ताकि संभावित सूखे के प्रभाव को कम किया जा सके। कृषि को आर्थिक रूप से उपयोगी और पर्यावरण के अनुकूल बनाने पर भी विचार करना होगा। मोदी के पास गरीबों के लिए सोचने और इस दिशा में कार्य के लिए एक ऐतिहासिक अवसर है। निश्चित ही कृषि के गौरव को बहाल करके युवाओं, महिलाओं और किसानों की आकांक्षाओं को पूरा किया जा सकता है।