Source
जल थल मल किताब से साभार
जैसे एक समय भारत से मसालों का व्यापार करने निकले यूरोप के अन्वेषकों ने अमेरिका का रास्ता खोज लिया था, कुछ वैसे ही गुआनो के व्यापार की वजह से प्रशान्त महासागर में यूरोप की उपस्थिति बढ़ी। गुआनो की महत्ता के संकेत सन 1958 तक मिलते हैं, जब इयन फ्लेमिंग नामक अंग्रेज लेखक ने अपने एक उपन्यास के खलनायक जूलियस नो को गुआनो के व्यापारी के तौर पर चित्रित किया था, जिसे इंग्लैंड का जासूस जेम्स बॉन्ड मार गिराता है। इस उपन्यास के आधार पर सन 1962 में ‘डॉक्टर नो’ शीर्षक की पहली जेम्स बॉन्ड फिल्म बनी थी। एक बहुत बड़ा धमाका हुआ था 17 अप्रैल 2013 को। इसकी गूँज कई दिनों तक दुनिया भर में सुनाई देती रही थी। अमेरिका के टेक्सस राज्य के वेस्ट नामक गाँव में हुए इस विस्फोट से फैले दावानल ने 15 लोगों की जान ली और 180 को घायल किया। हादसे तो यहाँ-वहाँ होते ही रहते हैं और न जाने कितने लोगों की जान ले लेते हैं। पर यह धमाका कई दिनों तक खबर में रहा। इससे हुए नुकसान के कारण नहीं बल्कि दुर्घटना के स्थान के कारण।
उर्वरक बनाने के काम आने वाले रसायनों के एक भण्डार में आग लग गई थी। कारखानों में आग लगना इतनी अनोखी बात नहीं होती और ऐसी घटनाओं को काबू करने के लिये ही दमकल विभाग रखा जाता है। यहाँ भी दमकल की गाड़ियाँ पहुँची और अग्निशामक दल अपने काम में लग गया। पर उसके बाद जो धमाका हुआ, उसे आसपास रहने वाले लोगों ने किसी भूचाल की तरह महसूस किया। अमेरिका के भूगर्भ सर्वेक्षण के उपकरणों पर यह धमाका 2.1 की प्रबलता के भूकम्प की तरह दर्ज हुआ। जहरीले धुएँ से वहाँ का जीवन कई रोज तक अस्त-व्यस्त रहा। इससे निकली गर्मी की वजह से आसपास के भवन झुलसे हुए ठूँठ से दिखने लगे थे।
धमाका किसी आतंकवादी संगठन के हमले से नहीं हुआ था। न यह कोई अणु बम विस्फोट था। कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट नाम के रसायन का भण्डार था। इसका उपयोग यूरिया जैसी बनावटी खाद के उत्पादन में होता है। इस खाद के उपयोग से फसलों की पैदावार में सचमुच धमाकेदार बढ़ोत्तरी होती है।
उर्वरक के कारखाने में यह पहला धमाका नहीं था। सन 2009 में टेक्सस राज्य में ही जुलाई 30 को ब्रायन नामक नगर में ऐसे ही एक कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट के भण्डार में धमाका हुआ था। तब किसी की जान नहीं गई थी, पर 80,000 से ज्यादा लोगों को निकाल कर पूरा नगर खाली करना पड़ा था, जहरीले धुएँ से बचने के लिये।
सन 1947 में टेक्सस सिटी में ही ऐसे ही एक दूसरे हादसे में 581 लोगों की जान गई थी। पानी के एक जहाज में रखे अमोनियम नाइट्रेट में आग लग गई थी। दमकल के लोग उसे बुझाने आये। लेकिन जल्दी ही पूरा जहाज फट गया। उस शहर के दमकल कर्मियों में केवल एक जीवित बचा था। विस्फोट की ताकत ऐसी थी कि दो छोटे हवाई जहाज उड़ते हुए नीचे गिर पड़े थे। कोई 65 किलोमीटर दूर तक घरों के शीशे टूट गए थे। ‘टेक्सस सिटी डिजास्टर’ के नाम से कुख्यात यह अमेरिका की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना मानी जाती है। अगर परमाणु विस्फोटों को अलग रख दें तो यह आज तक दुनिया के सबसे शक्तिशाली धमाकों में गिना जाता है। दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे ही हादसे छोटे-बड़े रूप में होते रहे हैं। इनको जोड़ने वाली कड़ी है अमोनियम नाइट्रेट। आखिर खेती के लिये इस्तेमाल होने वाले इस रसायन में ऐसा क्या है कि इससे इतनी तबाही मच सकती है?
अमोनियम नाइट्रेट खेती में आई हरित क्रान्ति का ईंधन है। इसका किस्सा शुरू होता है बीसवीं शताब्दी के साथ। औद्योगिक क्रान्ति की वजह से यह समय यूरोप में उथल-पुथल का था। यूरोपीय देशों में राष्ट्रवाद एक महामारी की तरह फैल रहा था और पड़ोसी देशों में उन्मादी होड़ पैदा कर रहा था। आबादी बहुत तेजी से बढ़ी थी, जिसका एक कारण यह था कि विज्ञान ने कई जानलेवा बीमारियों के इलाज ढूँढ लिये थे। कारखानों में काम करने के लिये लोग गाँवों से शहरों में आ रहे थे। इतने लोगों को खिलाने जितनी पैदावार यूरोप के खेतों में नहीं थी। जरूरत थी किसी जादुई खाद की जिससे जमीन का उत्पादन बढ़ जाये।
खाद की अवधारणा भी बदल चुकी थी। केवल मनुष्य और जानवरों के मल-मूत्र को गलाकर खाद बनाना अब पर्याप्त नहीं था। जर्मन रसायनशास्त्री युस्टुस फॉन लीबिह ने 19वीं शताब्दी के मध्य में यह सिद्ध कर दिया था कि नाइट्रोजन ही वनस्पति का सबसे जरूरी उर्वरक होता है। श्री युस्टुस आधुनिक कृषि के जनक कहे जाते हैं। उनकी खोज के आधार पर हुए शोध से यह भी पता चल चुका था कि दो और उर्वरक पौधों के लिये बड़े विशेष होते हैं। ये हैं फास्फोरस और पोटेशियम। ये दोनों ही खनिजों में मिलते हैं। इन सब में सबसे ज्यादा कठिनाई नाइट्रोजन पाने में होती थी। यों नाइट्रोजन की हवा में भरमार है, लेकिन किसी के पास ऐसा तरीका नहीं था जो उसे हवा से खींच कर ऐसे रासायनिक रूप में लाए जिसे खेती में इस्तेमाल किया जा सके।
नाइट्रोजन के उर्वरक पाने के लिये यूरोप दुनिया के कोने-कोने खंगाल रहा था। इसका एक स्रोत था दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी छोर से थोड़ी दूरी पर, प्रशान्त महासागर के द्वीपों पर। इसे ‘गुआनो’ कहा जाता है और असल में यह चिड़िया की बीट है। इन निर्जन द्वीपों पर न जाने कब से ऐसे पक्षियों का वास रहा था जो समुद्र से मछली और दूसरे प्राणियों का शिकार करते हैं। उनके बीट के माध्यम से समुद्र के श्रेष्ठ उर्वरक इन द्वीपों पर जम जाते थे। इनमें नाइट्रोजन की मात्रा भी खूब होती थी। कुछ सौ वर्षों में यहाँ बीट के पहाड़ खड़े हो गए थे। इस इलाके में बारिश इतनी कम होती है कि ये पहाड़ जैसे-के-तैसे बने रहे, इनके उर्वरक धुल कर पानी में वापस घुले नहीं। कल्पना करना भी कठिन होता है पर कुछ जगह तो ऐसे पहाड़ 150 फुट से भी ऊँचे थे।
दक्षिण अमेरिका के देश पेरू में गुआनो का उपयोग खेती में खाद की तरह कोई 1,500 साल पहले से होता रहा है। इनका साम्राज्य के समय समारोहों में इस बीट का दर्जा सोने के बराबर था। गुआनो शब्द की व्युत्पत्ति ही पेरू के ‘केचूअ’ समाज के एक शब्द, ‘हुआनो’ से है। एक जर्मन अन्वेषक ने सन 1803 में गुआनो के गुण वहाँ जाकर जाने। उन्होंने इस विषय पर खूब लिखा, जिसके कारण यूरोप का परिचय चिड़िया की बीट से निकलने वाली इस विलक्षण खाद से हुआ। 19वीं शताब्दी में गुआनो की जरूरत ही दक्षिण अमेरिका में यूरोपीय देशों की रुचि का खास कारण बन गई, या यों कहें कि वहाँ कि गुलामी का कारण बनी। यूरोपीय लोगों के कब्जे के बाद गुआनो का खनन और निर्यात बहुत तेजी से हुआ। 1840 के दशक में गुआनो का व्यापार पेरू की सरकार की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत बन गया था।
श्री फ्रिट्ज के आविष्कार ने दुनिया बदल दी है। एक विख्यात वैज्ञानिक का अनुमान है कि आज दुनिया की कुल आबादी का 40 फीसदी इसी पद्धति से उगा खाना खाता है। फसलों की भरमार और जानलेवा बीमारियों के इलाज की खोज होने से मनुष्य जाति को इतनी शक्ति मिली जितनी कभी नहीं मिली थी। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में मनुष्य की आबादी 160 करोड़ थी। आज यह साढ़े-चार गुना हो गई है, 740 करोड़। कई वैज्ञानिक पिछली सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज फ्रिट्ज हेबर का अमोनिया बनाने का तरीका ही बताते हैं। गुआनो की कहानी कई समुद्रों, कई महाद्वीपों को जोड़ने और तोड़ने लगी। अब विशाल जहाजों में लादकर गुआनो यूरोप के खेतों में डालने के लिये लाया जाता था। दुनिया के कई और हिस्सों से इसका निर्यात यूरोप में होने लगा। इसे निकालने के लिये चीन से अनुबन्धित मजदूर पेरू लाये गए। गुआनो पर नियंत्रण रखने के लिये कई संधियाँ हुईं, कई कानून पारित हुए, कई अनुबन्धों पर दस्तखत हुए। इन संधियों के टूटने पर युद्ध भी लड़े गए। जैसे एक समय भारत से मसालों का व्यापार करने निकले यूरोप के अन्वेषकों ने अमेरिका का रास्ता खोज लिया था, कुछ वैसे ही गुआनो के व्यापार की वजह से प्रशान्त महासागर में यूरोप की उपस्थिति बढ़ी। गुआनो की महत्ता के संकेत सन 1958 तक मिलते हैं, जब इयन फ्लेमिंग नामक अंग्रेज लेखक ने अपने एक उपन्यास के खलनायक जूलियस नो को गुआनो के व्यापारी के तौर पर चित्रित किया था, जिसे इंग्लैंड का जासूस जेम्स बॉन्ड मार गिराता है। इस उपन्यास के आधार पर सन 1962 में ‘डॉक्टर नो’ शीर्षक की पहली जेम्स बॉन्ड फिल्म बनी थी।
गुआनो के लिये सन 1850 के आसपास जब युद्ध लड़े जा रहे थे तब उसकी टक्कर का एक और पदार्थ दक्षिण अमेरिका से यूरोप आने लगा था। पेरू और उसके पड़ोसी देश चिली में ही ‘साल्टपीटर’ यानी पोटेशियम नाइट्रेट के खनिज मिल गए थे। सॉल्टपीटर यूरोप के लिये खाद का ही नहीं, विस्फोटक बनाने के लिये कच्चे माल का स्रोत भी था, पर युद्ध और खाद के नाइट्रोजन सम्बन्ध की बात बाद में।
गुआनो और सॉल्टपीटर को पानी के जहाजों पर लाद कर यूरोप ले जाना बहुत खर्चीला सौदा था। इधर धीरे-धीरे गुआनो के पहाड़ खोदते-खोदते खत्म होने लगे थे। इसीलिये 19वीं सदी के अन्त में यूरोप में होड़ लगी नाइट्रोजन का कोई सस्ता स्रोत खोजने की, खाद के लिये और विस्फोटक बनाने के लिये भी। कई वैज्ञानिक इस पर शोध कर रहे थे।
सन 1908 में आकर जर्मन रसायनशास्त्री फ्रिट्ज हेबर ने हवा से नाइट्रोजन खींच के अमोनिया बनाकर दिखाया। सन 1913 तक इस प्रक्रिया को बड़े औद्योगिक स्तर पर चलाने का तरीका सिद्ध करने वाले थे बीएएसएफ नाम के एक जर्मन उद्योग में काम कर रहे कार्ल बॉश। प्रसिद्ध इंजीनियर और गाड़ियों में डलने वाले स्पार्क प्लग के आविष्कारक रॉबर्ट बॉश के वे भतीजे थे। आज भी कई तरह की मशीनों पर चाचा बॉश का नाम चलता है। भतीजे बॉश ने जो प्रक्रिया तैयार की उसे दोनों वैज्ञानिकों के नाम पर ‘हेबर-बॉश’ प्रक्रिया कहा गया।
इस समय यूरोप में राष्ट्रवाद का बोलबाला था। जर्मनी और इटली जैसे देश कई छोटी रियासतों के विलय से बहुत ताकतवर बन चुके थे। राष्ट्रवाद की यह धौंस ही सन 1914 में पहले विश्व युद्ध का कारण बनी। इंग्लैंड की नौसेना ने जर्मनी की नाकेबंदी कर दी थी। इससे जर्मनी को दक्षिण अमेरिका से आने वाला गुआनो और सॉल्टपीटर मिलना बन्द हो गया था। तब हवा से नाइट्रोजन खींचकर अमोनिया बनाने वाली हेबर-बॉश प्रक्रिया से न केवल जर्मनी में बनावटी खाद बनने लगी, बल्कि युद्ध में इस्तेमाल होने वाला असलहा और विस्फोटक भी इसी अमोनिया से बनने का रास्ता खुल गया। ऐसा कहा जाता है कि अमोनिया बनाने का यह तरीका अगर जर्मनी के पास न होता तो पहला विश्वयुद्ध चार साल चलने की बजाय दो-एक साल में ही खत्म हो जाता।
विश्व युद्ध के बाद श्री फ्रिट्ज को पहले तो युद्ध अपराधी का दर्जा दिया गया। लेकिन इसके बाद उनकी इस ऐतिहासिक खोज के लिये उन्हें रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार सन 1918 में मिला। इसमें कोई विरोधाभास नहीं था, क्योंकि स्वीडन के जिन अल्फ्रेड नोबेल के नाम से यह पुरस्कार दिया जाता है उन्होंने डायनामाइट ईजाद किया था और बोफोर्स नाम की कम्पनी को इस्पात बनाने से हटाकर हथियार और विस्फोटक के उत्पादन में लगाया था। अपने आविष्कार से निकली हिंसा की उन्हें ग्लानि थी, जिस वजह से उन्होंने अपनी अकूत सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा दुनिया भर में विज्ञान, साहित्य और शान्ति पर काम करने वाले उत्कृष्ट लोगों को पुरस्कार देने के लिये छोड़ा था। सन 1896 में उनकी मृत्यु के बाद जब उनकी वसीयत खुली तो उनके परिवार ने इस दरियादिली का विरोध किया। कुछ राजनेताओं ने इसे राष्ट्रविरोधी बताया, क्योंकि ये पुरस्कार केवल स्वीडन के लोगों के लिये नहीं थे।
रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पाते समय श्री फ्रिट्ज ने अपने भाषण में कुछ मीठी बातें कहीं। जैसे यह कि उनके आविष्कार के पीछे ध्येय था उस नाइट्रोजन को मिट्टी में वापस पहुँचाना जो फसल के साथ जमीन से बाहर निकल आती है। लेकिन उनका एक और ध्येय सभी को पता था। प्रतिक्रियाशील रूप में नाइट्रोजन से विस्फोटक भी बनता है। श्री फ्रिट्ज का कट्टर राष्ट्रवाद जगजाहिर था। उन्होंने पहले कभी कहा भी था कि शान्ति के समय वैज्ञानिक सभी लोगों के भले के लिये काम करता है, पर युद्ध के समय वह केवल अपने देश का होता है।
जर्मनी के एक देश, एक राष्ट्र बनने में ऐसे कई लोगों का उत्कट राष्ट्रवाद लगा था। जर्मन भाषा बोलने वाली रियासतों में सबसे बड़ी थी प्रशिया। सन 1871 में प्रशिया ने फ्रांस के साथ युद्ध लड़ा और जीता। इस ‘फ्रैंको-प्रशियन युद्ध’ के साथ यूरोप के इतिहास ने नाटकीय मोड़ ले लिया था। जर्मन भाषा बोलने वाली अन्य रियासतें और देश भी प्रशिया के झंडे के नीचे एक साम्राज्य के रूप में जुड़ गए और जर्मन राष्ट्र का उदय हुआ था। इकट्ठे हुए इन जर्मन राज्यों में राष्ट्रवाद की लहर दौड़ रही थी। श्री फ्रिट्ज भी इससे अछूते नहीं थे। उनका शोध केवल हवा से नाइट्रोजन खींचने तक सीमित नहीं था। उन्हीं की एक और ईजाद थी युद्ध में इस्तेमाल होने वाली जहरीली गैस। वे ऐसा हथियार ईजाद करना चाहते थे जो कैसे भी उनके देश को जल्दी-से-जल्दी जीत दिला दे।
श्री फ्रिट्ज को रासायनिक हथियारों का जनक भी कहा जाता है। क्लोरीन गैस उनका तैयार किया ऐसा ही हथियार था। सबसे पहले लड़ाई के दौरान जहरीली गैस का सफल उपयोग पहले विश्व युद्ध में 22 अप्रैल 1915 को हुआ। इस प्रक्रिया के निर्देशन के लिये श्री फ्रिट्ज खुद बेल्जियम आये। घर वापस लौटने पर उनकी घोर बहस हुई उनकी पत्नी क्लैरा से, जो रासायनिक हथियारों को अमानवीय और अक्षम्य मानती थीं। इस कड़वी बहस के बाद उनकी पत्नी ने अपने पति की पिस्तौल अपने ही ऊपर दाग ली और अपने 13 साल के बेटे हरमन की गोदी में प्राण त्याग दिये। राष्ट्रवादी श्री फ्रिट्ज इतनी बड़ी त्रासदी से जरा भी विचलित नहीं हुए। वे अगले ही दिन रासायनिक हथियारों को रूस की सेना पर इस्तेमाल करवाने के लिये लड़ाई के मोर्चे पर चले गए।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब बनावटी नाइट्रोजन का उपयोग शुरू हुआ, तब किसी को अन्दाजा भी नहीं था कि उसके प्रभाव ऐसे होंगे। आज तक दुनिया भर में जितना बनावटी नाइट्रोजन धरती पर इस्तेमाल हुआ है, उसमें से अधिकांश पिछले 25-30 सालों में ही हुआ है। वैज्ञानिक मानते हैं कि 3.5 करोड़ टन से ज्यादा प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन से प्रकृति का बारीक सन्तुलन बिगड़ सकता है। पर आज मनुष्य हर साल कोई 12 करोड़ टन स्थिर नाइट्रोजन को हवा से निकाल कर, उसका प्रतिक्रियाशील रूप पर्यावरण में डाल रहा है। इसमें खेती में इस्तेमाल होने वाला 10 करोड़ टन शामिल है। सन 1918 में जर्मनी की हार के साथ विश्व युद्ध खत्म हुए। इधर श्री फ्रिट्ज ने दूसरी शादी की, पर वे खुश नहीं रह पाये। इस दौरान जर्मन राष्ट्रवाद ने एडॉल्फ हिटलर की नाजी पार्टी का रूप ले लिया था। नाजी शासन की रासायनिक हथियारों में अत्यधिक रुचि थी। उसने श्री फ्रिट्ज के सामने शोध के लिये धन और सुविधाओं का नया प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। इस दौरान यहूदियों के प्रति राष्ट्रवादी नाजी पार्टी की नफरत उजागर हो चुकी थी। कई प्रसिद्ध यहूदी वैज्ञानिक जर्मनी छोड़कर इंग्लैंड और अमेरिका जा रहे थे। श्री फ्रिट्ज ने बहुत पहले ही ईसाई धर्म कबूल कर लिया था, लेकिन सब जानते थे कि वे पैदाइशी यहूदी थे। उनका राष्ट्रवाद उन्हें सन 1933 में जर्मनी से भागने से रोक नहीं पाया। वे इंग्लैंड में केम्ब्रिज आ गए। वहाँ से वे फिलिस्तीन की ओर निकले ताकि यहूदियों को दी गई उस जमीन पर ही अपने प्राण त्यागे, जहाँ सन 1948 में इसराइल नाम का नया देश बना था। वे उस भूमि तक नहीं पहुँच पाए। रास्ते में ही स्विट्जरलैंड में उनका निधन हो गया।
लेकिन उनके राष्ट्रवाद की कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी। उनकी मृत्यु के बाद उनका परिवार जर्मनी छोड़ कर भागा। उनकी दूसरी पत्नी और दो बच्चे इंग्लैंड भाग आये। उनका और सुश्री क्लैरा का बेटा हरमन अमेरिका चला गया, जहाँ सन 1946 में उसने आत्महत्या कर ली। अपनी माँ की ही तरह उसके मन में भी श्री फ्रिट्ज के रासायनिक हथियार बनाने की शर्मिन्दगी थी, अपराध बोध था। दूसरी तरफ जहरीली गैस पर श्री फ्रिट्ज के शोध को नाजी सरकार ने बहुत आगे बढ़ाया। उसी से ‘जाएक्लॉन-बी’ नाम की गैस बनी, जिसका इस्तेमाल नजरबंदी शिविरों में लाखों यहूदियों को ‘सस्ते’ में मारने के लिये होता था। ऐसा माना जाता है कि श्री फ्रिट्ज के कई रिश्तेदार इन शिविरों में मारे गए।
हेबर-बॉश प्रक्रिया को ईजाद हुए आज 100 साल से अधिक हो गए हैं और अभी भी विस्फोटक बनाने का आधार यही प्रक्रिया बनी हुई है। एक वैज्ञानिक अनुमान कहता है कि इससे बने हथियारों ने दुनिया भर के सशस्त्र संघर्षों में सीधे-सीधे 10-15 करोड़ लोगों की जान ली है। अगर अतिवादी राष्ट्रवाद दूसरे विश्वयुद्ध का प्रधान कारण था, तो हेबर-बॉश प्रक्रिया का भी इसमें बड़ा योगदान था। पहले विश्वयुद्ध के बाद इसे हर कहीं अपना लिया गया था और विस्फोटक बनाने के लिये अमोनिया के कई कारखाने यूरोप और अमेरिका के देशों में खुल गए थे।
दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद इन कारखानों को बन्द नहीं किया गया। इन कारखानों में बने अमोनिया से तैयार यूरिया को बनावटी खाद की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा। इसी दौरान मक्का और गेहूँ की ऐसी फसलें भी ईजाद हुईं जो इस बनावटी खाद को मिट्टी से ग्रहण करने में सक्षम थीं। ये फसलें बहुत तेजी से बढ़ती थीं और इनमें अनाज की पैदावार बहुत ज्यादा थी। इन फसलों और अमोनिया के उर्वरकों के संयोग से खेती में उत्पादन इतना बढ़ गया जितना पहले कभी नहीं बढ़ा था। इन फसलों को ईजाद करने वाले कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग को भी नोबेल पुरस्कार दिया गया।
दुनिया भर का बनावटी नाइट्रोजन उत्पादन 1960 से 1980 के बीच आठ गुना बढ़ा। जितनी जमीन से पहले दो लोगों की जरूरत पूरी होती थी उससे अब चार, कुछ जगह तो दस लोगों को पाला जा सकता है। यही वह हरित क्रान्ति थी जिससे हमारे जैसे देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो पाये। आज दुनिया भर में कुल जितनी नाइट्रोजन की खाद खेतों में डाली जाती है उसमें लगभग आधी बनावटी होती है। हवा से नाइट्रोजन खींचने के लिये बहुत तेज तापमान और दबाव में पानी से हाइड्रोजन निकाला जाता था। इतना दबाव और गर्मी बनाने के लिये बहुत सी ऊर्जा खर्च होती थी। आज इस पद्धति को और कारगर बनाया गया है। पानी की जगह प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल होने लगा है।
श्री फ्रिट्ज के आविष्कार ने दुनिया बदल दी है। एक विख्यात वैज्ञानिक का अनुमान है कि आज दुनिया की कुल आबादी का 40 फीसदी इसी पद्धति से उगा खाना खाता है। फसलों की भरमार और जानलेवा बीमारियों के इलाज की खोज होने से मनुष्य जाति को इतनी शक्ति मिली जितनी कभी नहीं मिली थी। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में मनुष्य की आबादी 160 करोड़ थी। आज यह साढ़े-चार गुना हो गई है, 740 करोड़। कई वैज्ञानिक पिछली सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज फ्रिट्ज हेबर का अमोनिया बनाने का तरीका ही बताते हैं। गुआनो और साल्टपीटर को दक्षिण अमेरिका से लाने पर हुए युद्ध अब भुलाए जा चुके हैं। बनावटी खाद के कारखाने हर कहीं पाये जा सकते हैं।
नाइट्रोजन पेड़-पौधों की जरूरत का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व तो है, लेकिन अकेले नाइट्रोजन से ही काम नहीं बनता। फास्फोरस और पोटेशियम भी जरूरी हैं। इन तीन तत्वों के बिना धरती पर कैसा भी जीवन सम्भव नहीं है। मनुष्य के ही शरीर के कुल भार में औसतन 650 ग्राम फास्फोरस होता है, जिसमें ज्यादातर हड्डियों में रहता है। औसतन हर व्यक्ति को भोजन में हर रोज एक ग्राम फास्फोरस की जरूरत होती है। आधुनिक खेती के हिसाब से एक व्यक्ति का साल भर का भोजन पैदा करने के लिये 22.5 किलोग्राम फास्फेट चट्टानों का खनन करना पड़ता है।
फास्फोरस और पोटेशियम को नाइट्रोजन की तरह हवा से खींचा नहीं जा सकता। ये खनिज कुछ विशेष जगहों पर, कुछ खास चट्टानों में मिलते हैं। भूगर्भ में इन पत्थरों को बनने में लाखों-करोड़ों साल लगते हैं। मनुष्य इन्हें बना नहीं सकता, केवल भूगर्भ से खनन के द्वारा निकाला जा सकता है। पोटाश की चट्टानें तो आमतौर पर बहुत गहराई में मिलती हैं। इन खनिजों का मिलना लॉटरी लगने की तरह है। जिन देशों में ये खनिज पाये जाते हैं उनकी तूती बोलती है। जहाँ नहीं मिलते वे आयात-निर्यात के बाजार में खड़े मिलते हैं।
हमारे देश में फास्फेट और पोटाश के खनिज आसानी से नहीं मिलते हैं। अमोनिया बनाने के लिये जितनी प्राकृतिक गैस की जरूरत होती है वह भी हमारे यहाँ नहीं मिलती। भारत और ब्राजील जैसे घनी आबादी वाले देश बनावटी खादों के सबसे बड़े आयातक हैं। चीन के पास पोटाश के भण्डार हैं, लेकिन वह फिर भी आयात ज्यादा करता है क्योंकि इससे उसके अपने भण्डार बचे रहते हैं। फिर दूसरे देशों में खनन किया पोटाश सस्ता भी है। दुनिया भर में पोटाश पैदा करने वाले खनिज इतने हैं कि कई सौ साल तक बनावटी उर्वरक का उत्पादन होता रहेगा। लेकिन यह उत्पादन हर कोई नहीं कर सकता। इस खनिज भण्डार का 81 फीसदी केवल दो देशों के पास है, कनाडा और रूस। ये दोनों पोटाश के सबसे बड़े उत्पादक भी हैं और निर्यातक भी।
मिट्टी का कोई भी वैज्ञानिक आपको बता सकता है कि बनावटी उर्वरकों की एक छोटी मात्रा ही फसलें सोख पाती हैं। इसके कारणों की बात थोड़ा आगे, पहले समस्या। एक वैज्ञानिक ने गणित लगाया है कि आज दुनिया भर में जो 10 करोड़ टन बनावटी नाइट्रोजन खेती में इस्तेमाल होता है, उसमें से लोगों के भोजन में केवल 1.7 करोड़ टन वापस आता है। बाकी 8.3 करोड़ टन नाइट्रोजन पर्यावरण में छूट जाता है। इसका एक हिस्सा तो स्थिर होकर धरती में रुका रहता है, लेकिन एक हिस्सा भूजल में रिसकर पानी को दूषित करता है।फास्फेट के खनिज भी समानता से वितरित नहीं हैं। आसानी से निकलने वाली फास्फेट की चट्टानों का 83 प्रतिशत केवल चार देशों के पास है, चीन, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका और मोरक्को। चीन और अमेरिका अपने यहाँ पैदा हुए फास्फोरस को केवल घरेलू इस्तेमाल के लिये रखते हैं, उसका ज्यादा निर्यात नहीं करते। आज इसका सबसे महत्त्वपूर्ण निर्यातक मोरक्को है, जिसके पास दुनिया भर के फास्फोरस भण्डार का लगभग 40 फीसदी खनिज है। भारत और यूरोपीय देशों के खेतों में छिड़का जाने वाला फास्फोरस मोरक्को से ही आता है। वहाँ पर 17वीं सदी से एक ही राजशाही परिवार की सरकार चल रही है, जिसका वहाँ के फास्फोरस खनिजों पर एकाधिकार है। मोरक्को फास्फोरस का सऊदी अरब कहलाता है। जैसी राजनीतिक क्रान्ति मोरक्को के पड़ोसी देश लीबिया, तुनिशिया और मिस्र में हुई, वैसी अगर मोरक्को में हो गई, तो फास्फोरस के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार का क्या होगा, कोई नहीं जानता।
जो भण्डार हैं उनकी मियाद भी लम्बी नहीं है। अमेरिका का लगभग दो तिहाई फास्फोरस एक ही खदान से आता है जो कोई 40 साल में चुक जाएगी। दुनिया भर में फास्फोरस के खनिजों के भण्डार कोई बहुत बड़े नहीं हैं और ये हमेशा चलते रह नहीं सकते। कुछ अनुमान बताते हैं कि 70 से 130 साल में फास्फोरस के खनिजों के भण्डार खाली हो जाएँगे। तब तक मनुष्य की आबादी अन्दाजन 1,000 करोड़ से ज्यादा हो जाएगी। इतने लोगों की जरूरत के लिये तो और भी फास्फोरस चाहिए होगा। फिर कहाँ से आएगा यह?
कोई नहीं जानता। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि समस्या जब सिर पर आएगी तब उसके समाधान भी मिल जाएँगे। उनका कहना है कि इतिहास में ऐसी कई मुश्किलें आई हैं और मनुष्य ने युक्ति लगाकर आगे चलने का रास्ता खोजा है। ऐसी बातचीत में याद दिलाया जाता है कि भारत 1960 के दशक में भुखमरी के कगार पर था और फिर हरित क्रान्ति की बदौलत हमने इतना अनाज उगा लिया है कि आज वह गोदामों में सड़ रहा है। यह भी कहा जाता है कि जब आसानी से खनन होने वाला फॉस्फोरस खत्म हो जाएगा, तब कठिन खनिजों को निकालने के सस्ते तरीके निकल आएँगे। तंगी की बात करने वालों को मनहूस और निराशावादी बताते हुए ऐसे लोग विश्वास जताते हैं कि वैज्ञानिक शोध से नए रास्ते खुल जाएँगे।
दूसरे पक्ष के लोग ध्यान दिलाते हैं कि सन 1908 की फ्रिट्ज हेबर की खोज के बाद से अब तक उतनी महत्त्वपूर्ण खोज और कोई नहीं हुई है, जबकि विज्ञान की दुनिया तब की तुलना में अब बहुत व्यापक हो चुकी है और गहरी भी। आज लाखों वैज्ञानिक हैं, हजारों प्रयोगशालाएँ हैं, अनेक तरह से शोध हो रहा है समाधान खोजने के लिये। लेकिन दिन-ब-दिन जो तस्वीर सामने आ रही है, वह उर्वरकों के एक और पक्ष की ओर इशारा करती है, नाइट्रोजन और फॉस्फोरस से होने वाले प्रदूषण की ओर। इसका असर मिट्टी पर है, पानी पर है, हवा पर भी है। पहले जमीन की बात।
मिट्टी का कोई भी वैज्ञानिक आपको बता सकता है कि बनावटी उर्वरकों की एक छोटी मात्रा ही फसलें सोख पाती हैं। इसके कारणों की बात थोड़ा आगे, पहले समस्या। एक वैज्ञानिक ने गणित लगाया है कि आज दुनिया भर में जो 10 करोड़ टन बनावटी नाइट्रोजन खेती में इस्तेमाल होता है, उसमें से लोगों के भोजन में केवल 1.7 करोड़ टन वापस आता है। बाकी 8.3 करोड़ टन नाइट्रोजन पर्यावरण में छूट जाता है। इसका एक हिस्सा तो स्थिर होकर धरती में रुका रहता है, लेकिन एक हिस्सा भूजल में रिसकर पानी को दूषित करता है। एक और हिस्सा हवा का प्रदूषण करता है। इसके कुछ रासायनिक रूप बहुत प्रतिक्रियाशील होते हैं और वे उपजाऊ मिट्टी का स्वभाव तेजाबी बना देते हैं। इस तरह की मिट्टी रेतीली हो जाती है, उसमें उपजाऊ दरदरापन चला जाता है। रेतीली मिट्टी में पानी भी नहीं टिकता।
हमारे देश में ही इसे समझ सकते हैं। नाइट्रोजन सोखने की फसलों की क्षमता हरित क्रान्ति के समय से आधी से भी कम हो चुकी है। इस वजह से पहले की तुलना में नाइट्रोजन की बनावटी खाद दोगुनी डालनी पड़ती है, जिसकी वजह से बर्बाद होने वाले नाइट्रोजन की मात्रा भी दोगुनी हुई है। हमारी सरकार कई सालों से यूरिया की खाद पर जितना अनुदान देती रही है उतना पोटाश और फास्फेट पर नहीं देती है। वैसे भी हमारे यहाँ इस्तेमाल होने वाले कुल यूरिया का आधे से ज्यादा हमारे यहाँ ही तैयार होता है, लेकिन पोटाश और फास्फेट ज्यादा करके आयात होते हैं। सस्ता यूरिया किसान जरूरत से ज्यादा छिड़कते हैं। भारत सरकार की ही रपटें कई सालों से कह रही हैं कि हम नाइट्रोजन से अघा रहे हैं, हमारी खेती की जमीन बिगड़ रही है।
यूरिया का दाम भी सरकार ने ही सस्ता रखा है, अनुदान यानी सब्सिडी देकर। 2008-09 के वित्तीय साल में यह सब्सिडी 1,00,000 करोड़ रुपए तक पहुँच गई थी। अनाज पर दी जाने वाली सब्सिडी के बाद उर्वरक पर दिया जाने वाला अनुदान दूसरे नम्बर पर आता है। पेट्रोलियम की सब्सिडी को भी इसमें मिला लें तो हमारे सरकारी खजाने में सबसे बड़े छेद साफ दिखने लगते हैं। आज सरकार पर बहुत दबाव है यह खर्च घटाने का। लेकिन हर सरकार, चाहे वह किसी भी दल की हो, इस सब्सिडी को कम करने से डरती है। सन 2015-16 में यह अनुदान 72,000 करोड़ रुपए था।
पिछले कुछ सालों में सरकार बनावटी उर्वरक को दिये जाने वाले अनुदान को बदलने की कोशिश कर रही है ताकि यूरिया का बेवजह इस्तेमाल कम हो और किसान यूरिया के नशे से उबरें। इसलिये भी कि पोटाश और फास्फेट के दाम कम हों और मिट्टी का सन्तुलन बने। पर इन दोनों का हमारे यहाँ उत्पादन लेश मात्र होता है, ज्यादा तो ये आयात ही होते हैं। इनका अन्तरराष्ट्रीय दाम घटता-बढ़ता रहता है और पेट्रोलियम के दाम से जुड़ा हुआ है। इसके खनन में ढेर सारा ईंधन लगता है, पानी के जहाजों में खनिज लाद कर लाने में तो लगता ही है। हर बार जब पेट्रोलियम का दाम बढ़ता है तो पोटाश और फास्फेट और महंगे हो जाते हैं। इन सब लागतों को रुपए नहीं, डॉलर में चुकाना होता है। जब कभी अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में रुपए का भाव गिरता है तब बनावटी उर्वरकों के आयात की कीमत भी बढ़ जाती है। ऐसे में सरकार को सब्सिडी और बढ़ानी पड़ती है।
अब फसल उगाना बहुत महंगा सौदा हो गया है और खर्च के बाद भी फसल उतनी नहीं होती। किसान सरकार का मुँह ताक रहे हैं, पर सरकार के पास अब कोई जादू की पुड़िया नहीं है। उल्टा सरकार उन्हें उन उर्वरकों का इस्तेमाल घटाने की सलाह दे रही है जिनसे पहले जादू हुआ था। पिछले कुछ वर्षों में सरकार बनावटी उर्वरकों की नीति लगातार बदलती जा रही है। लेकिन खेत की मिट्टी से लेकर वित्त मंत्रालय के कागजों तक, इन उर्वरकों का संसार एक दलदल बन गया है। किसी भी दल की सरकार हमें इस दलदल से निकाल नहीं पा रही हैं।किसानों का सरकार पर हमेशा जोर रहता है कि अनुदान का अनुपात और बढ़ाकर वह किसानों का बोझ हल्का करें। हर साल अनुदान की मात्रा को लेकर किसानों का मोर्चा लगता है, क्योंकि किसानों को यूरिया का नशा हो गया है। वे अच्छी फसल की उम्मीद में हर साल पिछले साल से ज्यादा यूरिया डालने लगे हैं, फिर चाहे वह उधारी का ही क्यों न हो। 1960 के दशक में हरित क्रान्ति के आरम्भिक दिनों से सरकार किसानों से यूरिया के जादू का गुणगान करती आ रही है। किसानों ने सरकार पर भरोसा ही किया। सरकार ने जैसा कहा, किसानों ने वैसी खेती शुरू कर दी। उन्हें मुनाफा भी हुआ, अच्छी फसलें भी मिलीं, देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। लेकिन कहानी यहाँ खत्म नहीं होती है।
अब फसल उगाना बहुत महंगा सौदा हो गया है और खर्च के बाद भी फसल उतनी नहीं होती। किसान सरकार का मुँह ताक रहे हैं, पर सरकार के पास अब कोई जादू की पुड़िया नहीं है। उल्टा सरकार उन्हें उन उर्वरकों का इस्तेमाल घटाने की सलाह दे रही है जिनसे पहले जादू हुआ था। पिछले कुछ वर्षों में सरकार बनावटी उर्वरकों की नीति लगातार बदलती जा रही है। लेकिन खेत की मिट्टी से लेकर वित्त मंत्रालय के कागजों तक, इन उर्वरकों का संसार एक दलदल बन गया है। किसी भी दल की सरकार हमें इस दलदल से निकाल नहीं पा रही हैं। राजनीतिक माहौल में यह सम्भावना ही नहीं है कि कोई भी सरकार हिम्मत दिखा कर कड़वा घूँट पीए, कुछ विवेकशील निर्णय ले।
यह किस्सा तो बनावटी नाइट्रोजन के केवल उस हिस्से का है जो मिट्टी में बचा रहा जाता है। हवा-पानी का किस्सा अलग है। वैसे तो यूरिया हवा से नाइट्रोजन खींचकर ही बनता है, इसलिये उसका हवा हो जाना अपने घर लौटने की तरह माना जा सकता है। हमारे वायुमण्डल की सबसे व्यापक गैस नाइट्रोजन ही है, 79 फीसदी। इसका रासायनिक रूप बहुत स्थिर होता है, इसीलिये तो इसे खींचने में इतनी कवायद करनी पड़ती है। लेकिन यूरिया के मिट्टी में टूटने से नाइट्रस ऑक्साइड गैस भी बनती है। इसका रासायनिक स्वभाव स्थिर नहीं खूब प्रतिक्रियाशील होता है। हमारे वायुमण्डल के ऊपरी हिस्से में ओजोन गैस की एक परत है जो हमें सूरज से आने वाली खतरनाक किरणों से बचाती है। नाइट्रस-ऑक्साइड इस सुरक्षा परत को क्षीण कर देती है। सूरज से आने वाली गर्मी को यह गैस सोखती भी है। जिस कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन की वजह से पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन हो रहा है, नाइट्रस ऑक्साइड उससे 200 गुना ज्यादा गर्मी सोखती है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब बनावटी नाइट्रोजन का उपयोग शुरू हुआ, तब किसी को अन्दाजा भी नहीं था कि उसके प्रभाव ऐसे होंगे। आज तक दुनिया भर में जितना बनावटी नाइट्रोजन धरती पर इस्तेमाल हुआ है, उसमें से अधिकांश पिछले 25-30 सालों में ही हुआ है। वैज्ञानिक मानते हैं कि 3.5 करोड़ टन से ज्यादा प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन से प्रकृति का बारीक सन्तुलन बिगड़ सकता है। पर आज मनुष्य हर साल कोई 12 करोड़ टन स्थिर नाइट्रोजन को हवा से निकाल कर, उसका प्रतिक्रियाशील रूप पर्यावरण में डाल रहा है। इसमें खेती में इस्तेमाल होने वाला 10 करोड़ टन शामिल है।
एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने इसे पृथ्वी के रासायनिक स्वभाव के साथ हो रहा एक विराट और खतरनाक प्रयोग बताया है।
इसका साकार रूप मिट्टी या हवा से अधिक पानी में दिखता है। खेतों से बह कर यह या तो भूजल में रिस जाता है, या तालाबों और नदियों को दूषित करता है। नाइट्रेट से दूषित पानी का स्वास्थ्य पर असर ठीक से अभी समझा नहीं गया है। फिर भी इससे कुछ तरह के कैंसर होने का सन्देह वैज्ञानिकों को है। लेकिन जलस्रोतों के स्वास्थ्य पर नाइट्रोजन के प्रकोप को लेकर कोई शक नहीं है।
भारत में तो सीवर के पानी से ही जलस्रोत प्राणविहीन हो चले हैं। पर यूरोप और अमेरिका की साफ दिखने वाली नदियों में भी नाइट्रेट की मात्रा बहुत अधिक रहती है। पानी में नाइट्रोजन के कई स्रोत हैं। खेतों से बहकर आया यूरिया, पशुपालन केन्द्रों से आने वाला मवेशियों का गोबर भी। नई तरह की डेरियों में गोबर का उपयोग खाद या जलाने के कंडे बनाने के लिये नहीं होता। उसे सीधा नाली में बहा दिया जाता है, जहाँ से तमाम तरह का नाइट्रोजन समुद्र पहुँचता है।
समुद्र की सतह पर इतने उर्वरक होने से कई तरह की विषैली काई और शैवाल फूट पड़ते हैं। ये शैवाल जब मरते हैं तब उनके सड़ने से पानी में ऑक्सीजन बचती ही नहीं। पानी जीवनहीन हो जाता है, मछलियाँ और दूसरे प्राणी दम तोड़ देते हैं। पानी के ऐसे हिस्सों को ‘डेड जोन’ यानी मरा पानी कहा जाता है। नदियों के मुहाने और समुद्री तट के पास यह शैवाल कई सौ एकड़ में फैल जाते हैं।
पानी में फास्फोरस का प्रकोप किसी भी तरह नाइट्रोजन से कम नहीं है। वैज्ञानिक तो यहाँ तक कहते हैं कि समुद्र ही नहीं, नदियों और तालाबों के प्रदूषण को रोकने के लिये भी फास्फोरस को पानी में बहने से रोकना जरूरी है। कुछ तरह की काई और बैक्टीरिया को अगर फास्फोरस मिल जाये, तो नाइट्रोजन को वे हवा से खींच लेते हैं। दूसरे प्राणी इस फास्फोरस को इतनी तेजी से पचा नहीं सकते जितनी जल्दी समुद्री शैवाल और काई इसे पचा कर फलने-फूलने लगते हैं। बनावटी उर्वरक बनाने के लिये करीब दो करोड़ टन फास्फोरस हर साल दुनिया भर में खोदकर निकाला जा रहा है और उसमें से लगभग आधा जलस्रोतों से होता हुआ समुद्र में पहुँच रहा है। आधुनिक खेती और सीवर व्यवस्था फास्फोरस को ताबड़तोड़ समुद्र में पहुँचा रही है, जहाँ से उसे निकाला नहीं जा सकता।
यह ‘कुचक्र’ प्रकृति के उस फास्फोरस चक्र से बहुत भिन्न है जो लाखों साल और कई लोकों में फैला है। जमीन पर फास्फोरस कई प्राणियों के शरीर से होता हुआ वापस जमीन में पहुँचता है, प्राणियों के मल-मूत्र से और मरने के बाद उनके शरीर से। एक वैज्ञानिक का अनुमान है कि फास्फोरस औसतन 46 बार जमीन पर रहने वाले प्राणियों के शरीर से वापस जमीन में लौट आता है। इसके बाद ही यह कटाव की वजह से बारिश के पानी में घुलकर नदियों के रास्ते समुद्र पहुँचता है। समुद्री जीवों के शरीर में यह औसतन 800 बार घूमता है, पुनः चक्रित होता है, तरह-तरह के प्राणियों और पौधों के भोजन के रास्ते।
कुछ समृद्ध कहे जाने वाले इलाकों के किसान अब फसल काटने के बाद पुआल को जलाने लगे हैं, क्योंकि मशीनों से होने वाली खेती में पुआल का कोई इस्तेमाल नहीं बचा है। पंजाब और हरियाणा में ऐसा कई सालों से हो रहा है। अब यह चलन मध्य प्रदेश के गेहूँ वाले विदिशा जैसे क्षेत्रों में भी आ गया है। एक वैज्ञानिक अनुमान कहता है कि हर साल हमारे यहाँ पुआल के रूप में कोई 50 करोड़ टन फसलों के अवशेष बचते हैं। इनमें से 8-14 करोड़ टन जला दिये जाते हैं। इससे उर्वरकों की बर्बादी तो होती ही है, वायु प्रदूषण भी होता है।इसके बाद यह समुद्र के तल पर जम जाता है और भूगर्भ में समा जाता है। लेकिन इस जल समाधि से फास्फोरस के चक्र का अन्त नहीं होता। बहुत धीरे-धीरे, भूचाल के जरिए ही यह खनिज बनकर फिर निकलता है, लाखों-करोड़ों साल के बाद। जब फास्फेट की चट्टानें ऊपर आती हैं तो सूरज की धूप, हवा और पानी के कटाव से फास्फोरस छूट जाता है और पौधे इसे सोख लेते हैं।
यहाँ से यह चक्र फिर शुरू हो जाता है। इस विशाल लीला में ‘काल’ की कल्पना हमारे साल-दो-साल के कैलेंडरों से बहुत बड़ी हो जाती है। इसमें ‘देश’ का विस्तार भी हमारी कल्पनाशक्ति की सीमाओं से एकदम परे है। इस व्यापक देशकाल में फास्फोरस का खेल समझना हो तो दुनिया की सबसे ऊँची पर्वतमाला की ओर नजर डाली जा सकती है।
एक शोधक का अनुमान है कि कोई चार करोड़ साल पहले ढेर सारा फास्फोरस पर्यावरण में छूटा था, जिससे घने जंगल उग आये थे। इन जंगलों के फलते-फूलते असंख्य पेड़-पौधों ने वायुमण्डल से इतना कार्बन डाइऑक्साइड सोख लिया था कि उससे पृथ्वी के वायुमण्डल का तापमान ठंडा हो गया था। आज जैसा जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उसका ठीक उल्टा तब हुआ। लेकिन इतना फास्फोरस आया कहाँ से कि उसने हमारे ग्रह का नक्शा तक बदल दिया?
यह फास्फोरस समुद्रतल से निकला था, हिमालय के ऊपर उठने की वजह से। उस समय आये बहुत ही भयंकर भूचाल ने समुद्र तल को चार किलोमीटर ऊपर उठा दिया था। आज यही तिब्बत है, दुनिया का सबसे ऊँचा पठार। आज भी यह फास्फोरस हिमालय से बहकर आने वाली नदियों की कांप में मिलता है। यह गाद फसलों के लिये अच्छी इसीलिये होती है क्योंकि उसमें फास्फोरस जैसे खनिज उर्वरक होते हैं। इन नदियों के किनारे दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले इलाके बसे हुए हैं। बल्कि हमारे यहाँ ही क्या, दुनिया भर में जहाँ कहीं मानव सभ्यता का उदय हुआ है वहाँ नदियों से लोगों को पानी ही नहीं, गाद से बेशकीमती उर्वरक भी खेती के लिये मिलते रहे हैं, फिर चाहे वह मेसोपोटामिया रहा हो या मिस्र या चीन या सिंधु घाटी।
हर जीव फास्फोरस की इस विशाल लीला का पात्र होता है। सभी प्राणियों को फास्फोरस का महत्त्व सहज ही पता होता है। जहाँ फास्फोरस वहाँ वनस्पति, जहाँ वनस्पति वहाँ शाकाहारी प्राणी, जहाँ शाकाहारी प्राणी वहाँ मांसाहारी भी। मनुष्य भी इस लीला की एक छोटी सी इकाई है। परन्तु इस लीला का मर्म मनुष्य भूल चला है क्योंकि फास्फोरस आज बाजार में बोरियों में बिकने लगा है, नालियों में बहने लगा है। 19वीं शताब्दी में जिस समय यूरोप में आधुनिक सीवर प्रणाली बननी शुरू हुई थी, आधुनिक कृषि के जनक युस्टुस फॉन लीबिह जीवित थे। उन्होंने सीवर प्रणाली को उर्वरकों की आपराधिक बर्बादी बताया था।
लंदन का सीवर बनने के बाद उसमें बहने वाले मलमूत्र के उर्वरकों की सालाना कीमत उन्होंने तब चालीस लाख पाउंड आँकी थी। उस समय का चालीस लाख पाउंड आज की कीमतों के हिसाब से कितने लाख करोड़ पाउंड होगा, यह हिसाब लगाना बेकार ही होगा। श्री युस्टुस ने कहा था कि देशों की समृद्धि, सभ्यता और संस्कृति का विकास इस पर निर्भर होगा कि सीवर के प्रश्न का उत्तर कैसे खोजा जाता है। आज अगर हम आसपास देखें तो इस सवाल के भयावह जवाब पाएँगे।
आज सीवर से जुड़ा शौचालय होना मूल अधिकार माना जाता है। आधुनिक कृषि के जनक की आँखों से देखें तो इसे फास्फोरस और दूसरे उर्वरकों को बर्बाद करने का ‘अधिकार’ भी कहा जा सकता है। श्री युस्टुस की दृष्टि में और आज की सीवर मानसिकता में एक मूल अन्तर है। मनुष्य के शरीर का मिट्टी से सम्बन्ध उनके लिये सहज था। उनके पास उतनी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी जितनी आज, उनके मरने के करीब 150 साल बाद, हमारे पास है। परन्तु उन्हें यह पता था कि मनुष्य का अस्तित्व उसके पर्यावरण से अलग नहीं है। आज हम अपने आसपास जैसी व्यवस्था बना रहे हैं उसमें हम खुद को प्रकृति से अलग और ऊपर रख कर देखते हैं।
इस दृष्टि दोष को समझने के लिये एक बार फिर सूक्ष्म जीवों के संसार में लौटना होगा। नाइट्रोजन को हवा से खींचकर यूरिया बनाने का काम पानी और मिट्टी में रहने वाले जीवाणु न जाने कब से करते चले आ रहे हैं। जैसे मनुष्य की आँत में अनगिनत पालतू जीवाणु भोजन को सुपाच्य बनाते हैं, ठीक वैसे ही पौधे भी अपनी जड़ों में अनगिनत छोटे या सूक्ष्म प्राणी पालते हैं। इनमें से कई हवा से नाइट्रोजन खींचते हैं और उसे ऐसे रूप में बदलते हैं कि पौधों की जड़ें उसे सोख सकें।
जीव विज्ञान में जड़ों को पौधों की आँत ही कहा जाता है। अगर हमारे पाचन तंत्र ने जीवाणुओं से मित्रता कर ली है तो पौधों ने भी मनपसन्द जीवाणु ढूँढ लिये हैं। लेकिन हमारी आँत का वातावरण बन्द होता है, जीवाणुओं को यहाँ सुरक्षित घर मिल जाता है। मिट्टी में रहने वाले जीवाणुओं के पास यह सुविधा नहीं होती। फिर ये रहते कहाँ हैं? ये अपना घर बनाते हैं मरे हुए प्राणियों और पौधों के अवशेषों में, जिसे हम खाद कहते हैं। बनावटी उर्वरकों की खाद नहीं, गोबर जैसी जैविक माल वाली खाद, जिसमें कार्बन होता है। एक बार ‘मकान’ मिल जाये तो रोटी-कपड़े का इन्तजाम तो जीवाणु खुद कर लेते हैं। पौधों की जड़ें इन जीवाणुओं का ठीक वैसे ही पोषण करती हैं जैसे हमारी आँत मित्र जीवाणुओं का करती हैं।
आधुनिक खेती और हरित क्रान्ति के सदियों पहले से हमारी खेती जीवाणुओं के भरोसे ही चलती आई है। किसानों को जीवाणु दिखते नहीं थे, लेकिन वे हमेशा उनके रहने के ‘मकान’ खाद के रूप में खेत में डालते आये हैं। जमीन को लगातार जोतने और उर्वर रखने का और कोई तरीका पहले नहीं था। एशिया के देशों में इस सिद्धान्त का अभ्यास सदियों से हो रहा है।
इसका एक प्रसिद्ध अध्ययन सन 1908 में हुआ जब अमेरिकी सरकार के कृषि भूमि प्रबन्धन विभाग के मुखिया फ्रैंकलिन किंग ने चीन, जापान और कोरिया का दौरा किया। मिट्टी को उपजाऊ रखने के किसानों के जतन देखकर वे अचम्भित रह गए। अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने एक किताब लिखी, जो सन 1911 में उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने छपवाई। शीर्षक था ‘फार्मर्स ऑफ फोर्टी सेंचुरीज’, यानी 40 सदियों के किसान।
हमारे कृषि विज्ञान तंत्र का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह किसानों को बेवकूफ मानता है और उनके ‘उद्धार’ को अपना कर्तव्य बताता है। भारत सरकार के कृषि शोध संस्थान आज भी इसी पर अनुसन्धान कर रहे हैं कि अगली हरित क्रान्ति कैसे आये। कृषि विज्ञान का हर पहलू बनावटी उर्वरक, भूजल के दोहन और महंगे संकर बीजों पर केन्द्रित है। खेती का और कोई तरीका इस मानसिकता में है ही नहीं। सरकारी कार्यक्रमों के विफल होने पर हमारे कृषि वैज्ञानिक निजी कम्पनियों का मुँह ताक रहे हैं। इस किताब में उन्होंने पूर्वी एशिया में मनुष्य के मल-मूत्र के खाद के रूप में उपयोग का वर्णन भी किया है। एक उदाहरण है शंघाई शहर का, जहाँ सन 1908 में एक ठेकेदार ने 31,000 डॉलर के सोने के सिक्के देकर शहर से 78,000 टन मल-मूत्र इकट्ठा करने का एकाधिकार खरीद लिया था। यह मल-मूत्र आसपास के गाँवों में खाद के रूप में बिकता था। चीन के शहर मल-मूत्र साफ करने के लिये धन खर्च नहीं करते थे, बल्कि उसे बेचकर अपना खजाना भरते थे। मल-मूत्र को खरीदने वाले उसकी कीमत सोने में चुकाते थे। उनके लिये असली सोना मल-मूत्र की उर्वरता में था।
श्री फ्रैंकलिन ने चीन की खेती की तुलना अमेरिका के खेतों से की थी, जहाँ अच्छी उर्वरक भूमि भी 100 साल की खेती में ही खस्ता होने लगी थी, खनन से निकले बनावटी उर्वरकों के ढेर इस्तेमाल के बाद भी। इन उर्वरकों के खतरे श्री फ्रैंकलिन ने सन 1911 में ही बतला दिये थे। उन्होंने खेद जताया कि यूरोप और अमेरिका के लोग हर साल कितने करोड़ टन उर्वरक समुद्र में बहा देते हैं। यही नहीं, उन्हें आश्चर्य हुआ कि जिस सीवर प्रणाली से इतने उर्वरक बर्बाद होते हैं, उसे यूरोप और अमेरिका के लोग सभ्यता के प्रति अपना सबसे बड़ा योगदान मानते हैं।
अपने देश के लोगों की बात करते हुए श्री फ्रैंकलिन ने लिखा कि मनुष्य बेशकीमती साधनों को कूड़ा बनाने वाला सबसे तेज प्राणी है। पता नहीं कितनी शताब्दियों की जीवनलीला से बने उर्वरक समुद्र में बहाना ऐसी फिजूलखर्ची है जिसकी कीमत दूसरे प्राणी तो चुकाएँगे ही, मनुष्य भी चुकाएगा। उन्होंने कई तथ्यों और सुन्दर उपमाओं से पूर्वी एशिया की इस प्रवृत्ति की तारीफ की, जिसमें समस्याओं का समाधान आसपास ही ढूँढा जाता है, बजाय कोई दूर की कौड़ी लाने के, जैसे दक्षिण अमेरिका से गुआनो और सॉल्टपीटर लाना। यही कारण था कि अमेरिका की तुलना में आधी खेतिहर जमीन की उपज से ही चीन के किसान अपनी घनी आबादी का भरण-पोषण कर रहे थे।
चीन में लोग शौच जाने के बाद धोने के बजाय पोंछते थे। सूखे शौचालयों के नीचे मल-मूत्र के ऊपर पानी नहीं गिरता था, तो कीचड़ नहीं होता था। इसलिये उसे इकट्ठा करना कठिन नहीं था। पूर्वी एशिया के देशों में तो किसान सड़क पर शौचालय बनाकर छोड़ देते थे। आने-जाने वालों से मनुहार होती थी उनका शौचालय इस्तेमाल करने की। किसान मल-मूत्र इकट्ठा कर अपने खेत में डालते थे। लेकिन मनुष्य के मलमूत्र का सीधे खेतों में इस्तेमाल बीमारियों का कारण भी था। इसी वजह से पूर्वी एशिया के देशों में कच्ची सब्जी या फल खाने का चलन नहीं रहा। पानी उबाल के पीने की आदत का भी कारण यही माना जाता है।
हिमालय के इस तरफ, दक्षिण एशिया में भी कई जगह किसान अपने मलमूत्र का खाद की तरह उपयोग करते रहे हैं, जैसे लद्दाख। महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में मनुष्य मल से बनी खाद की उपमा सोने से की जाती है और उसे ‘सोनखत’ कहा जाता है। कई किसान समाजों में मलत्याग करने के लिये लोग अपने खेत में ही जाते थे। गाँवों में इस तरह के किस्से आज भी सुनने को मिलते हैं, जिसमें मलत्याग के साथ खुरपी जैसे यंत्र भी जुड़े हैं। हमारे यहाँ खेती में गोबर की खाद का चलन ज्यादा रहा है, क्योंकि गाय-बैल भी हमारे यहाँ खूब रहे हैं।
यह व्यवहार का विषय था, शोध का नहीं, इसलिये इस पर शास्त्रीय जानकारी आसानी से नहीं मिलती है। इस पर पहला आधुनिक अध्ययन किया अंग्रेज कृषि वैज्ञानिक एलबर्ट हावर्ड ने, जिन्हें आज जैविक खेती का अगुआ और मार्ग प्रदर्शक कहा जाता है। श्री एलबर्ट सन 1905 में भारत सरकार के वनस्पति वैज्ञानिक नियुक्त हुए थे। कुछ संस्थानों के निदेशक और कुछ रजवाड़ों के सलाहकार के रूप में भी उन्होंने काम किया। इस दौरान उनका इन्दौर शहर में रहना हुआ, जहाँ उन्होंने किसानों का हुनर और व्यवहार समझने की कोशिश की। सन 1943 में उन्होंने अपने अनुभव एक अंग्रेजी किताब में लिखे, जिसका शीर्षक था ‘एन एग्रीकल्चरल टेस्टामेंट’। आज यह किताब जैविक खेती की दुनिया में गीता जैसी साख रखती है।
जिन किसानों से सीखकर श्री एलबर्ट ने यह किताब लिखी थी वे अपनी खेती के लिये जैविक जैसा कोई विशेषण नहीं लगाते थे। वे ठीक वैसी ही खेती कर रहे थे जैसी उन्होंने अपने पुरखों से सीखी थी। उनका ज्ञान और खेती का हुनर व्यावहारिक था, सहज था। वह किसी और की खेती के तरीके बदलने या अपने तरीकों का प्रचार करने के लिये नहीं बना था। वह तो खेती करने के लिये ही था बस।
श्री एलबर्ट की खास रुचि थी खेत की मिट्टी और उसके उपजाऊपन में। भारत में तबादले के पहले वे दुनिया के कई और हिस्सों में वैज्ञानिक आँखों से खेती का परीक्षण कर चुके थे। श्री फ्रैंकलिन की ही तरह उन्हें भी यूरोप और अमेरिका में खेती के तरीकों में कई कमियाँ दिखी थीं। इसमें खास था बनावटी उर्वरकों का इस्तेमाल, जो पहले विश्वयुद्ध के बाद बने अमोनिया के कारखानों से आ रहा था। किसान सस्ता यूरिया, फास्फेट और पोटाश जी भर कर मिट्टी में डाल रहे थे। इस मानसिकता के पीछे श्री अलबर्ट बनावटी उर्वरक बनाने वालों का बाजारू शिकंजा देखते थे।
इस नई खेती के दो और लक्षण उन्होंने बतलाए। मशीनों के आने के बाद खेतों से जानवर गायब हो गए थे और मुनाफे के लिये बड़े-बड़े खेतों में एक ही फसल उगाई जाने लगी थी। इसकी तुलना में श्री एलबर्ट ने भारत और चीन में होने वाली खेती को समय-सिद्ध बतलाया। उन्होंने यह पाया कि इस तरह की खेती में उर्वरता घूमकर वापस मिट्टी में वैसे ही पहुँचती है जैसे जंगल में उर्वरकों का कुदरती चक्र चलता है। जैसे जंगल में तरह-तरह की वनस्पतियाँ मिट्टी में उर्वरकों का सन्तुलन बनाकर रखती हैं, ठीक वैसे ही किसान फसल बदल-बदल कर खेतों की उर्वरता भी बचाते रहे हैं। श्री एलबर्ट को पता था कि एक ही खेत में कई फसलें उगाने से मिट्टी का स्वभाव अच्छा रहता है, जैसे जंगल में कई तरह के पौधों के रहने से होता है।
इसे श्री एलबर्ट ने दलहन की खेती से समझने की कोशिश की। उन्हें दिखा कि फलीदार दलहन को अनाज की फसलों के साथ उगाने से दोनों को लाभ होता है। उन्होंने लिखा कि विज्ञान को ठीक से पता नहीं है। कि यह सम्बन्ध काम कैसे करता है। आज हम सब जानते हैं कि दलहन की फसलों की जड़ों में ऐसे जीवाणु पलते हैं जो हवा से नाइट्रोजन खींचते हैं।
श्री फ्रैंकलिन और श्री एलबर्ट, दोनों ने ही लिखा है कि यूरोप के कृषि वैज्ञानिक यह मानने को तैयार नहीं थे कि दलहन की फसल उगाने से हवा से नाइट्रोजन मिट्टी में आती है। तीस साल की बहस के बाद सन 1888 में जब यह सिद्ध हुआ, उसके बाद ही यूरोप के वैज्ञानिकों ने इसे माना। दोनों लेखक कहते हैं कि एशिया के किसान यह बात सदियों से सहज ही जानते रहे हैं। यह भी कि प्राकृतिक खाद के इस्तेमाल से मिट्टी में पानी पकड़ कर रखने का बूता बढ़ जाता है और भारी बारिश में मिट्टी का कटाव भी कम होता है।
पालतू पशुओं का मोल भी श्री एलबर्ट को समझ में आया। जंगली पशुओं के गोबर से जमीन के उर्वरक वापस वन की जमीन में पहुँच जाते हैं। मवेशियों का गोबर खेती में कुछ वैसा ही काम करता है। हमारे यहाँ आज भी कुछ जगहों पर किसान फसल कटने के बाद घुमंतू गड़रियों को बुलाते हैं, उनसे आग्रह करते हैं कि पुआल पर वे अपने पशुओं को चराएँ। जानवरों को चारा मिल जाता है और किसानों को उनकी मेंगनी, गोबर। जहाँ खेत पर पुआल या डंठल जरूरत जितने नहीं होते, वहाँ किसान गड़रियों को खेत पर उनके जानवर ‘बैठाने’ के लिये नगद रकम भी देते हैं। यह सम्बन्ध पहले बहुत गहरा हुआ करता था। किसानों और खानाबदोश लोगों में बहुत आपसदारी हुआ करती थी। बंजारा समाज मवेशियों की मजबूत नस्लें तैयार करते थे, खास तौर से ताकतवर बैलों की। वे घूम-घूम कर इनका व्यापार करते थे। इस लेन-देन से जमीन की उर्वरता का चक्र भी सहज ही घूमता रहता था, न जाने कब से। खानाबदोश लोग उर्वरता के व्यापारी भी थे। हमारी खेती की जमीन न जाने कितनी पीढ़ियों से उर्वरता के इस अनुदान से समृद्ध रही है, फर्टिलाइजर सब्सिडी के आने के बहुत पहले से।
मिट्टी की उर्वरता केवल भौतिक या रसायन विज्ञान या भूगोल का विषय नहीं है। कई वैज्ञानिक मिट्टी को केवल जीवधारी तंत्र ही नहीं, खुद एक प्राणी मानते हैं। जैसे मिट्टी की उर्वरता से उसके ऊपर जंगल उग आता है या फसल पैदा हो जाती है ठीक वैसे ही खुद मिट्टी के भीतर भी असीमित जीवन पनपता है। जीवन की इस भूमिगत विविधता का असर मिट्टी के ऊपर दिखता है जब पेड़-पौधे इस जीवन के सागर में अपनी जड़ें डालकर थोड़ा सा रस खींच लेते हैं।श्री एलबर्ट की 70 साल पहले लिखी किताब पढ़ते हुए लगता है कि वे यूरोप और अमेरिका में तब होने वाली खेती की ही आलोचना नहीं कर रहे हैं, बल्कि भारत में जैसी खेती आज फैलती जा रही है उसकी समस्याओं की रूपरेखा भी खींच रहे हैं। यूरोप और अमेरिका में तो अब खेती पूरी तरह कृषि उत्पाद बेचने वाली कम्पनियों के इशारों पर चलती है। वहाँ खेती इतनी महंगी हो चुकी है कि खरबों के सरकारी अनुदान के बिना वह हो ही नहीं सकती। सन 2012 में ऐसे विकसित देशों ने 258 अरब डॉलर का सीधा अनुदान अपने किसानों को दिया था। यह राशि किसानों से होती हुई कृषि उत्पाद बेचने वाली कम्पनियों तक जाती है। असल में यह अनुदान खेती के बदले इन कम्पनियों का धन्धा चलाने का ही काम करता है।
चीन और भारत भी इसी अनुदान वाली खेती की ओर जा रहे हैं। चीन में सूखे शौचालय अब पिछड़ेपन के चिन्ह बन चुके हैं। जो शहर अपना मल-मूत्र बेचकर धन कमाते थे, वे आज करोड़ों खर्च कर मैला बहाने वाले सीवर बनाते हैं। भारत में अब गोबर की खाद मिलना उतना आसान नहीं रहा। इसके कारण हैं चूल्हा जलाने के लिये गोबर के कंडों का इस्तेमाल और फसलों का बदला जाना। पहले ज्वार और बाजरा, दलहन और तिलहन जैसी फसलों का चलन ज्यादा था, जिनसे मवेशियों का चारा भी निकल आता था। सरकार की अनाज खरीदने और उसे राशन की दुकानों पर बेचने की नीतियों से धान और गेहूँ ने दूसरी फसलों को उजाड़ा है। फिर संकर किस्म की जिन फसलों पर हरित क्रान्ति टिकी है वे बौनी होती हैं। उनसे चारा भी कम ही निकलता है।
कुछ समृद्ध कहे जाने वाले इलाकों के किसान अब फसल काटने के बाद पुआल को जलाने लगे हैं, क्योंकि मशीनों से होने वाली खेती में पुआल का कोई इस्तेमाल नहीं बचा है। पंजाब और हरियाणा में ऐसा कई सालों से हो रहा है। अब यह चलन मध्य प्रदेश के गेहूँ वाले विदिशा जैसे क्षेत्रों में भी आ गया है। एक वैज्ञानिक अनुमान कहता है कि हर साल हमारे यहाँ पुआल के रूप में कोई 50 करोड़ टन फसलों के अवशेष बचते हैं। इनमें से 8-14 करोड़ टन जला दिये जाते हैं। इससे उर्वरकों की बर्बादी तो होती ही है, वायु प्रदूषण भी होता है। अक्टूबर के आसपास, कटाई के मौसम में दिल्ली जैसे शहरों के ऊपर हर साल एक धुएँ की चादर सी आ जाती है, जो पंजाब और हरियाणा में पुआल जलाने का नतीजा है।
ऐसे में जिन पशुपालकों के पास साधन हैं, वे बाजार से खरीदकर मवेशियों को बाड़े में ही खली खिलाते हैं। जिनके पास ये साधन नहीं हैं उनके मवेशी शामिलाती चारागाह में चरते हैं। गाँव-गाँव में ऐसी सार्वजनिक जमीन या तो कई सालों की घोर चराई के कारण बिगड़ गई है, या सरकारों ने इसे भूमिहीनों को बाँट दिया है। ऐसी जमीन पर शक्तिशाली लोगों के कब्जे भी आम बात है। गाँव के समाज का टूटना सार्वजनिक साधनों के बिगड़ने से सीधा जुड़ा हुआ है, चाहे वे जलस्रोत हों या चारागाह। गाँव-गाँव घूमने वाले कृषि वैज्ञानिक ही बताते हैं कि जितने जतन से पहले गोबर की खाद तैयार की जाती थी, वैसा अब नहीं होता। किसान बनावटी उर्वरकों के जादू का इन्तजार करते हैं।
हमारे समाज का एक हिस्सा यह मानता है कि ये सब पुरानी बातें हैं और इन्हें लेकर रोना-धोना बेकार है। इसका कहना है कि बदलाव शाश्वत है और हम नई दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं। जोर देकर कहा जाता है कि इस बदलाव की हवा ने ही हमें हरित क्रान्ति दी थी। चाहे विदेशों से खरीदे उर्वरकों के दम पर ही हो, लेकिन हम अनाज उगाने में आत्मनिर्भर हो गए हैं। यह बात कुछ इलाकों के बारे में सही भी है। पंजाब और तटवर्ती आन्ध्र जैसे इलाकों में नहरों की सिंचाई और बनावटी उर्वरक इस्तेमाल करने से पैदावार खूब बढ़ी थी। किसानों की आमदनी भी।
लेकिन आज इन इलाकों में माहौल वैसा नहीं है जैसा 30 साल पहले था। आज सिंचाई नहरों की हालत बिगड़ती जा रही है। सिंचाई भूजल से ही होती है, जिसका स्तर और गुणवत्ता गिर रही है। हरित क्रान्ति से आई पंजाब की खुशहाली का रंग फीका पड़ने की कहानी भी अब पुरानी हो चली है। लेकिन जिन सरकारी कृषि शोध संस्थानों की मदद से यह हरित क्रान्ति आई, वे आज भी अपनी पुरानी सफलता का ही खम ठोक रहे हैं। आज की समस्याओं से निपटने का उनके पास कोई विचार, कोई युक्ति नहीं है।
कृषि वैज्ञानिक ही नहीं, किसान भी किसी जादुई खोज का इन्तजार कर रहे हैं। ‘एक नई हरित क्रान्ति’, या ‘सदाबहार हरित क्रान्ति’ का। या फ्रिट्ज हेबर के हवा से नाइट्रोजन खींचने के नुस्खे जैसे ही किसी और आविष्कार का। यह चमत्कार कहाँ से आएगा, यह दिख नहीं रहा है। यह सकारात्मकता आशा से निकली है या विज्ञान में अन्धविश्वास से, यह भी यकीन से नहीं कहा जा सकता है।
बात-बात में उपज और बढ़ाने की माँग की जाती है, यह दुहाई देकर कि हर किसी को भोजन देने का एकमात्र तरीका महंगी तकनीक और प्रौद्योगिकी में ही है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र का ‘फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन’ कई साल से कह रहा है कि दुनिया में कुल जितना भोजन पैदा किया जाता है, उसका एक-तिहाई फेंक कर बर्बाद किया जाता है अमीर देशों में। कुछ अनुमान तो कहते हैं कि कुल पैदावार का आधा फेंका जाता है। अगर इस बर्बादी को कम किया जाये तो पैदावार बढ़ाने की कोई जरूरत ही न रहे। लेकिन इस बर्बादी को रोकने में किसी की रुचि नहीं है। उससे व्यापार और उद्योग को कोई लाभ नहीं होता।
कुछ कृषि वैज्ञानिक खुल कर कहते हैं कि हमारी कृषि विज्ञान व्यवस्था अब हमारे किसानों के काम की नहीं रही। उनका कहना है कि हमारी व्यवस्था तब तक ठीक काम करती है जब तक विदेश में हुआ शोध यहाँ सीधा लागू हो सके। जिन पुस्तकों से हमारे वैज्ञानिक पढ़ते हैं, वो विदेशों में, वहाँ के हालात के हिसाब से लिखी गई किताबें हैं। जो बातें इधर और उधर एक सी हैं, वे तो उन्हें ठीक पता रहती हैं। पर यहाँ के खास लक्षण उन किताबों से नहीं समझे जा सकते, क्योंकि हमारी परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखी ही नहीं गई हैं। उन बातों को अनुभवी किसानों से समझा जा सकता है। लेकिन हमारे कृषि विज्ञान तंत्र का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह किसानों को बेवकूफ मानता है और उनके ‘उद्धार’ को अपना कर्तव्य बताता है।
भारत सरकार के कृषि शोध संस्थान आज भी इसी पर अनुसन्धान कर रहे हैं कि अगली हरित क्रान्ति कैसे आये। कृषि विज्ञान का हर पहलू बनावटी उर्वरक, भूजल के दोहन और महंगे संकर बीजों पर केन्द्रित है। खेती का और कोई तरीका इस मानसिकता में है ही नहीं। सरकारी कार्यक्रमों के विफल होने पर हमारे कृषि वैज्ञानिक निजी कम्पनियों का मुँह ताक रहे हैं। सबसे ज्यादा उम्मीद है फसलों की आनुवंशिकी बदल कर बनाए गए ‘जेनेटिक इंजीनियरी’ के बीजों से। इनसे खेती के नए चमत्कार निकलेंगे ऐसी उम्मीद चारों तरफ है। अगर इनमें से कोई जादू की पुड़िया निकल आई तो भी यह तय है कि वह बहुत महंगी होगी। हमारे किसानों की सबसे बड़ी समस्या खेती में लगने वाले माल की बढ़ती लागत है। ऐसे में और महंगा सामान कितना कारगर होगा। समझना मुश्किल नहीं है। मुनाफे की दौड़ में सोने के अंडे देने वाली हमारी मिट्टी की बलि चढ़ रही है।
मिट्टी की यह नई पढ़ाई नए बनावटी उर्वरक बनाने और बेचने पर केन्द्रित है। इसमें फसल के कीड़ों का अध्ययन नए कीटनाशक बेचने के लिये ही होता है। किसानों को भी इसकी आदत पड़ रही है। हर नया कीटनाशक, हर नया उर्वरक, हर नया बीज हड़बड़ी में खरीदा जाता है। लेकिन ‘मृदा’ कही जाने वाली मिट्टी की उपजाऊ ऊपरी परत सदियों में बनती है। इसे नया बनाकर बेचा नहीं जा सकता।
धरती की सतह तरह-तरह की चट्टानों से बनती है। समय के साथ चट्टानें टूटती हैं। हवा-पानी के कटाव और धूप की गर्मी से ठोस चट्टानें भुरभुरी होती जाती हैं, उनका रूप बजरी जैसा बनने लगता है। फिर बजरी से रेत बनती है, और रेत से गाद। इसका सबसे महीन रूप चिकनी मिट्टी है। एक इलाके की चट्टानें बनने के समय उसका जैसा रासायनिक स्वभाव रहा हो, कुछ वैसा ही स्वभाव उस जगह की मिट्टी का बनता है। अगर कहीं फास्फेट की चट्टानें रही हों तो वहाँ कि मिट्टी में कुदरती फास्फोरस होता है।
खाद का एक विशाल स्रोत है हमारा मल-मूत्र जिसे हम ताजे पानी में डालकर बहा देते हैं, नदियों और तालाबों को दूषित करने के लिये। हमारे मल में कार्बन की भरमार होती है और ऐसे जीवाणुओं की भी जो इस कार्बन को पचा कर मिट्टी के लायक बना सकें। मिट्टी में रहने वाले जीवाणुओं को ऊर्जा के लिये कार्बन चाहिए होता है और प्रोटीन बनाने के लिये नाइट्रोजन। अगर मिट्टी में कार्बन वाले जैविक तत्व का अनुपात नाइट्रोजन की तुलना में बीस से तीस गुना न हो, तो मिट्टी में कितना भी नाइट्रोजन और फास्फोरस हो, फसल को बहुत लाभ नहीं होता।।मिट्टी की ऊपरी परत में हर तरह के प्राणी के अवशेष गलकर, सड़कर मिलते रहते हैं। इन जैविक अवशेषों पर कई तरह के छोटे और सूक्ष्म जीव-जीवाणु जीते हैं। साँस लेने और मल विसर्जन करने के दौरान ये जीव सहज ही मिट्टी में मौजूद उर्वरकों और जैविक अवशेषों को ऐसे रूप में बदल देते हैं जो पौधे अपनी जड़ों से सोख सकें। अगर मिट्टी में उर्वरता कम भी हो तो जीवाणुओं की वजह से यह पौधों को सरलता से मिल जाते हैं। अगर जीवाणु कम हों तो ढेर से उर्वरक भी फसल के काम के नहीं रहते, उल्टा अनपचे उर्वरक मिट्टी बिगाड़ते ही हैं।
मिट्टी की उर्वरता केवल भौतिक या रसायन विज्ञान या भूगोल का विषय नहीं है। कई वैज्ञानिक मिट्टी को केवल जीवधारी तंत्र ही नहीं, खुद एक प्राणी मानते हैं। जैसे मिट्टी की उर्वरता से उसके ऊपर जंगल उग आता है या फसल पैदा हो जाती है ठीक वैसे ही खुद मिट्टी के भीतर भी असीमित जीवन पनपता है। जीवन की इस भूमिगत विविधता का असर मिट्टी के ऊपर दिखता है जब पेड़-पौधे इस जीवन के सागर में अपनी जड़ें डालकर थोड़ा सा रस खींच लेते हैं।
भारत जैसे भूमध्य रेखा के आसपास के गर्म इलाकों की मिट्टी, दूर ध्रुवों के पास के शीतोष्ण इलाकों की मिट्टी से अलग होती है। फिर चाहे उनकी चट्टानों का स्वभाव एक सा ही क्यों न रहा हो। भूमध्य के पास सूरज की किरणें सीधी पड़ती हैं। गर्मी में मिट्टी से पानी सूख जाता है और जैविक अवशेष गलने या सड़ने की बजाय टूटकर बिखर जाते हैं। फिर उनमें जीवन पनपने की उम्मीद नहीं रहती और रेगिस्तान बन जाता है। यही कारण है कि गर्म देशों की मिट्टी में जैविक माल कम होता है। इसकी तुलना में शीतोष्ण इलाकों की मिट्टी में पड़े जैविक तत्व का पानी सूखता नहीं है। वह मिट्टी में बहुत समय तक रहता है, मिट्टी की उर्वरता को बाँध कर रखता है।
कृषि विज्ञान की हमारी किताबें शीतोष्ण देशों में हुए निरीक्षण और प्रयोगों से बनी हैं। उनमें यह एक लानत की तरह लिखा जाता है कि हमारी मिट्टी में जैविक तत्व, यानी कार्बन कम है। बात तो यह सही है, लेकिन इस जानकारी का कोई लाभ नहीं है। हम अपना वातावरण तो बदल नहीं सकते। इन किताबों में यह नहीं सिखाया जाता कि अगर पानी और सूक्ष्म जीवों का ठीक तालमेल बैठ जाये, तो जैसा घना और विविध जीवन गर्म इलाकों में पनपता है वैसा कहीं भी और नहीं पनप सकता।
भूमध्य रेखा के वर्षावन इसका सबसे प्रचुर उदाहरण हैं। जैसे शीतोष्ण के जंगल कई सौ किलोमीटर तक एक से पेड़ों के होते हैं वैसे ही वहाँ के खेतों में भी दूर-दूर तक एक ही फसल दिखती है। इसके विपरीत गर्म इलाकों के अच्छे खेत यहाँ के जंगलों की तरह विविध और सबरंगी होते हैं। यहाँ पर शीतोष्ण इलाकों जैसी एक समान खेती करना समझदारी कतई नहीं है। फिर भी नहर से सींची हुई ठंडे देशों की औद्योगिक खेती का सपना हमारे किसानों को दिखाया जाता है।
हमारे कृषि अनुसन्धान संस्थानों में ‘मृदा विज्ञान’ के प्रति गहरी दृष्टि कतई नहीं है। कुछ कृषि वैज्ञानिक खुद बताते हैं कि मिट्टी का अध्ययन केवल बनावटी उर्वरकों को बेचने की पढ़ाई बनकर रह गया है कि किस फसल के लिये कितना यूरिया, कितना फास्फेट और कितना पोटाश लगाना चाहिए। वैज्ञानिकों के सम्बन्ध किसानों की बजाय उर्वरक और दूसरे रसायन बेचने वाली कम्पनियों के साथ ज्यादा गाढ़े होते हैं। इसमें उन उर्वरकों पर ध्यान नहीं गया है जिनकी जरूरत फसलों को कम मात्रा में होती है, लेकिन जिनके बिना फसल की सेहत कमजोर रह जाती है। इन उर्वरकों का बाजार नहीं है इसलिये इनकी बिक्री में मुनाफा भी नहीं है। जाहिर है, इन पर शोध भी कम ही हुआ है। ऐसे में कोई 30 तत्व हैं जो वनस्पतियों को किसी-न-किसी मात्रा में चाहिए होते हैं। इनमें 18 जरूरी हैं, जैसे लोहा, जस्ता और ताम्बा। कोई 12 ऐसे हैं, जिनकी जरूरत बस नाममात्र होती है। ऐसा माना जाता है कि इनकी सूक्ष्म मात्रा न होने पर बाकी तत्वों का असर कम होता जाता है।
इन उर्वरक तत्वों को फसल के लायक बनाने का प्राकृतिक स्रोत है मिट्टी में जैविक खाद का होना। यही खाद हमारी असली थल सेना को पालती है। जीवाणुओं की उस सेना को जो मिट्टी में रह कर हमारी खाद्य सुरक्षा का काम करती है। इस सेना को विदेश से खरीदे हथियार या आयात किये हुए बनावटी उर्वरकों की जरूरत नहीं होती। उसे तो बस जैविक खाद ही चाहिए।
इस खाद का एक विशाल स्रोत है हमारा मल-मूत्र जिसे हम ताजे पानी में डालकर बहा देते हैं, नदियों और तालाबों को दूषित करने के लिये। हमारे मल में कार्बन की भरमार होती है और ऐसे जीवाणुओं की भी जो इस कार्बन को पचा कर मिट्टी के लायक बना सकें। मिट्टी में रहने वाले जीवाणुओं को ऊर्जा के लिये कार्बन चाहिए होता है और प्रोटीन बनाने के लिये नाइट्रोजन।
अगर मिट्टी में कार्बन वाले जैविक तत्व का अनुपात नाइट्रोजन की तुलना में बीस से तीस गुना न हो, तो मिट्टी में कितना भी नाइट्रोजन और फास्फोरस हो, फसल को बहुत लाभ नहीं होता। बल्कि उर्वरकों की बर्बादी ही होती है। जब फसल कटती है तो मिट्टी के उर्वरक बाहर निकाल दिये जाते हैं। दस साल पुराना एक अनुमान कहता है कि हर तरह के उर्वरकों को खेतों में छिड़कने के बावजूद, भारत की उपजाऊ मिट्टी से हर साल कोई एक करोड़ टन उर्वरक का शुद्ध घाटा होता है। यह संख्या एक बार दोहराने लायक है। एक करोड़ टन।
इन उर्वरकों के एक हिस्से को वापस मिट्टी में डालने का एक उम्दा तरीका है मनुष्य का पेशाब। इसे सीवर और जल स्रोतों में बहाने की बजाय अगर ठीक तरीके से खेतों में पहुँचा दिया जाये तो फास्फोरस का यह बेशकीमती जरिया है। मनुष्य का शरीर कुल जितना फास्फोरस त्यागता है उसका आधा पेशाब के रास्ते निकलता है। दुनिया भर की आबादी में कोई 30 लाख टन फास्फोरस एक साल में घूमता है। फिर पेशाब में नाइट्रोजन भी खूब होता है।
फास्फोरस पर अनुसन्धान करने वाले एक वैज्ञानिक ने पृथ्वी को एक अन्तरिक्षयान की उपमा दी है। ऐसा यान जिसमें एक निश्चित मात्रा में उर्वरक और दूसरे प्राकृतिक साधन हैं। वे कहते हैं कि इन साधनों को साधना के साथ इस्तेमाल करना चाहिए, कचरा मानकर फेंकना नहीं चाहिए। उनकी बात आगे बढ़ा कर देखें, तो इन उर्वरकों को किफायत के साथ वापस खेत तक पहुँचाने के लिये कुछ वैसा ही माहौल चाहिए जैसा कारखानों में होता है, यानी खूब सारे लोगों का मल-मूत्र एक ही जगह पर एक साथ मिल जाये। जैसा शहरों में मिल सकता है।
जरूरत ऐसी व्यवस्थाओं की है जो इस उर्वरक को थोक में इकट्ठा करके, निर्दोष बनाकर, खेतों में पहुँचाएँ, कुछ वैसे ही जैसे पूर्वी कोलकाता की जलभूमि तक शहर का मैला पहुँचता है। लेकिन हर शहर का भूगोल कोलकाता जैसा नहीं होता, जिसमें मैला पानी ढाल के सहारे ठीक जगह पहुँच सके। इसके कई समाधान हो सकते हैं। दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे लोग हैं जो इस पुराने, प्राकृतिक तरीके से शुचिता की व्यवस्था करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में भी।
ये लोग हर शरीर को उर्वरता के स्रोत की तरह देखते हैं। छोटी चीजों को ध्यान से देखने वाली इस दृष्टि में कुदरत की विराट लीलाएँ साकार हो उठती हैं। ऐसे काम में पुराने, समय-सिद्ध विचारों की भी जगह है और वैज्ञानिक अनुसन्धान से निकलने वाले नए शोध की भी।
‘सोनखत’ की ही तरह अंग्रेजी का वह पुराना शब्द लीजिए जो जैविक खाद के लिये इस्तेमाल होता है, ‘मैन्योर’। फ्रांसीसी भाषा से आये इस शब्द का पुराना अर्थ हैः हाथ से किया जाने वाला काम। इसका मतलब यह भी है कि गोबर को अपने हाथ से जमीन में डालना। दुनिया भर के किसानों को पता था कि खाद को अपने हाथ से जमीन में डालना होता है। हमारे इस सीवर के जमाने में भी ऐसे कई लोग हैं जो यह काम कर रहे हैं।
वे लोग जो मल को जल में नहीं डालते। उसे वापस उसके घर, थल में पहुँचाते हैं।