खतरे में जयसमंद झील (Jaisamand Lake) की बेशकीमती देशी मछलियाँ, संरक्षण बेहद जरुरी 

Submitted by Shivendra on Sat, 01/11/2020 - 09:39

जयसमंद झीलजयसमंद झील।

एशिया की दूसरी सबसे बड़ी मीठे जल की कृत्रिम झील “जयसमंद” राजस्थान प्रदेश की अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के दक्षिण-पूर्व उदयपुर जिला मुख्यालय से करीब 51 कि.मी. दूर उदयपुर-सलूम्बर मार्ग पर स्थित है l प्राकृतिक सौंदर्य से लबरेज यह झील राजस्थान के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है, जो ढेबर झील नाम से भी जाती है l 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गोमती नदी के आर-पार बने एक संगमरमर के बांध द्वारा निर्मित यह विशाल झील अपने प्राकृतिक परिवेश व बाँध की स्थापत्य कला की सुन्दरता से परिपूर्ण, वर्षों से पर्यटकों का आकर्षण का महत्वपूर्ण स्थान बनी हुई है l लबालब होने पर इसका क्षेत्रफल लगभग 87 वर्ग कि.मी. तक फैल जाता है l घने वनों से आच्छादित करीब सात छोटे-बड़े टापू इसमें मौजूद हैं, जो इसकी खूबसूरती को और बढाते हैं l इसकी जल भराव क्षमता लगभग 14 हजार 650 एमसीएफटी हैl  वहीं इसकी अधिकतम गहराई करीब 102 फीट है l यह सालों में कभी-कभार ही छलकती है, परंतु जब भी छलकती है तो कमाल की छलकती है l इस दृश्य को कैमारे में कैद करने व देखने हजारों लोग कोसों दूर चले आतें हैं l  

कृत्रिम झीलों में से यह अव्वल दर्जे की झील है, जिसकी उर्वरता एवं उत्पादन क्षमता दोनों ही गजब की है l इसके जल में भरपूर फास्फोरस, कार्बनिक पदार्थ तथा विभिन्न प्रजाति की अनेक वनस्पतियाँ एवं तरह-तरह के कई छोटे-बड़े अकशेरुकी व हड्डी युक्त जीव बहुतायत में मौजूद हैं l इसमें नाना प्रकार के असंख्य विभिन्न प्रजाति के पादक व जंतु प्लवक ऐसे हैं जो मछलियों का प्रमुख आहार हैं l इस झील का पारिस्थितिकीय तंत्र स्थिर, सुदृढ़ एवं विशाल होने के साथ-साथ इसमें कई तरह की छोटी-बड़ी भोजन श्रृंखलाएं विद्यमान हैं, जो जीवों को जीवित रखने में सक्षम है l इसीलिए यह अव्वल दर्जे की युट्रोफिक झीलों की श्रेणी में शुमार है l फिलहाल यह झील प्रदूषण से मुक्त है, लेकिन अत्याधिक मानवीय गतिविधियां व हस्तक्षेप तथा इसमें स्थित व्यावसायिक होटल होने के कारण इसके प्रदूषित होने का संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता l  

जयसमंद झील (Jaisamand Lake) न केवल पर्यटकों का आकर्षण का केंद्र है बल्कि इसके आस-पास व तट पर बसे कई गाँवों व गरीब तबके के आदिवासियों की जीवन रेखा भी है l हर साल लगभग 16 हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि इस झील से सिंचित होती है, जिससे ये सालभर हर किस्म की कृषि उपज लेते रहतें हैं और इनको पर्याप्त आय हो जाती है l इसके अतिरिक्त, यह झील आदिवासियों अथवा मछुआरों के लिए दैनिक व सतत आमदनी और रोजगार का प्रमुख स्त्रोत भी है l क्योंकि इस झील का मत्स्य उत्पादन प्रतिवर्ष टनों में होता है l झील में कई प्रजाति की मछलियाँ हैं लेकिन व्यापारी महत्त्व की पंद्रह से बीस प्रजाति की मछलियाँ ऐसी हैं, जिनका स्वाद देश के अन्य जलाशयों की मछलियों से बिल्कुल भिन्न व ज्यादा स्वादिष्ट होने से इनकी बाजार में हर वक्त जबरदस्त मांग रहती है l इससे आदिवासी मछुआरों को इनसे भरपूर आमदनी होती है l भारतीय मेजर कार्प्स में सबसे ज्यादा कीमती कतला, रोहू और मृगल मछलियाँ हैं, लेकिन माइनर कार्प्स में लेबिओ और पुन्टिअस तथा लांचि और सिंगाड़ा जैसी परभक्षी मछलियों की मांग भी बाजार में अधिक होने से इनके अच्छे दाम मिल जाते है l ये मछलियाँ देश के कई राज्यों में ऊँचे दामों बिकती है l इस झील से पूर्व में 50 कि.ग्रा. से अधिक वजनी कतला मछलियाँ पकड़ी गई हैं l

चार दशक पूर्व किसी को यह मालूम नहीं था कि इस झील में अफ़्रीकी मूल की खतरनाक आक्रामक स्वभाव की तिलापिया नाम की मछलियाँ भी मौजूद हैं l ये कैसे और कब इस झील में प्रवेश कर गयी, इसकी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है l सूत्रों की माने तो 80 दशक में इस झील में कार्प्स मछलियों के बीज छोड़ने के दौरान गलती से या अनजाने में इस खूंखार मछली के बीज भी विसर्जित हो गए l कारण जो भी रहा हो पर इसके बेतहासा आबादी के आतंक से व्यापारी महत्त्व की बेशकीमती देशी मछलियाँ जबरदस्त त्रस्त हैं, वहीं अब इनका अस्तित्व खतरे की जद में है l यद्यपि भारत में इस मछली के पालन पर फिशरीज़ रिसर्च कमेटी ऑफ इंडिया द्वारा 1959 से ही पूर्ण प्रतिबंध लगा रखा है, बावजूद कई राज्यों में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी मांग अधिक होने से इसका पालन बेधड़क हो रहा है l इसका उपयोग जलीय खरपतवार को ख़त्म करने के लिए भी अक्सर किया जाता है l 

तिलापिया मछलीतिलापिया मछली।

विदेशी मूल की इस मछली का आक्रामक स्वभाव होने से देशी मछलियाँ इससे डरी- डरी व दूर रहती हैं l यह जो भी मिले उसे खाकर ज़िंदा रह जाती है l अर्थात यह सर्वहारी मछली है l इसमें विपरीत परिस्थितियों में भी जीने की अद्भुत क्षमता होती है l इसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होने से इसके मरने के अवसर काफी कम होतें हैं l यह दो तीन महीनों में ही जल्द वयस्क व प्रजनन योग्य हो जाती है तथा साल में कई बार प्रजनन करती है l नर कई मादाओं के साथ प्रजनन करता है, जिससे इनकी आबादी तेजी से बढ़ जाती है l मादा पेंदे में घोंसला बना कर अंडे देती है l ये दूसरी प्रजाति की मछलियों के निषेचित अंडे व बच्चों को देखते ही खा जाती है, लेकिन ये अपने बच्चों को अपने मुंह में तब तक सुरक्षित रखती है जब तक ये तैरने के योग्य न हो जाए l इन्हीं वजह से तिलापिया ने इस झील में सालों साल अपनी आबादी को लगातार तेजी से बढाती गई l वहीं दूसरी ओर व्यापारी महत्त्व की बेशकीमती मछलियों के अंडे व बच्चों को खा जाने से इन मछलियों की आबादी साल दर साल कम होती ही गई l प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार इस झील के फिश केचेज में वर्ष 1990-91 में तिलापिया की आबादी लगभग न्यून अवस्था में थी, जो 1996-97 व 2012-13 में बढ़कर क्रमश: 54% व 82% की हो गई l  वहीं व्यापारिक महत्त्व की मछलियों की आबादी न्यूनतम स्तर आ गयी l उदयपुर स्थित मत्स्यिकीय महाविद्यालय के पूर्व डीन प्रो. एल. एल. शर्मा की जानकारी के अनुसार 2019 में इस झील के फिश केचेज में भारतीय मेजर व माइनर कार्प्स तथा परभक्षी मछलियों की कुल आबादी में 90% से अधिक तिलापिया मछलियों की हिस्सेदारी पायी गई, जो चिंताजनक है l ये आंकड़े चौंकाने वाले भी हैं और हेरत में डालने वोले भी l क्योंकि इस प्राकृतिक असंतुलन से जहां राज्य सरकार को प्रतिवर्ष लाखों का आर्थिक घाटा होता है l वहीं आदिवासी मछुआरों की आमदनी कई गुना कम हो जाती है l दूसरी ओर, इसकी बेतहासा आबादी होने से प्रकृति प्रेमियों व पर्यावरणविदों को देशी प्रजाति की मछलियों का इस झील से विलुप्त होने तथा जैव-विविधता को अत्यधिक नुकसान होने का भय है l 

तिलापिया की बेतहासा आबादी से इन मछलियों के मध्य स्थान व भोजन के लिए आपस में संघर्ष होना स्वाभाविक है, जिसका प्रतिकूल असर इनके आकार व वजन पर पड़ा है l वजन व आकार दोनों के घटने से बाजार में इनका बहुत ही कम मूल्य आता है l जिससे सरकार व मछुआरों दोनों को आर्थिक नुकसान होता है l यदि समय रहते नहीं चेता गया तो आने वाले सालों में इस झील में इसका ही साम्राज्य हो जाएगा, जो और खतरनाक व भयावह स्थिति होगी l इसलिए समय रहते इस तिलापिया मछलियों की बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाना बेहद जरुरी है l यद्यपि इस खरपतवार प्रजाति को जयसमंद से मुक्त करना असंभव ही नहीं नामुमकिन भी है l लेकिन इनको इनकी लारवल अवस्था में ही विशेष निर्मित जाल से पकड़ने पर इनकी बढ़ती आबादी पर एक हद तक अंकुश लग सकता है l अन्य वैज्ञानिक कारगर उपाय अपनाने से भी इस भयावह समस्या से थोड़ी राहत और मिल सकती है l लेकिन एक ओर चिंता जो सताती है वो यह कि कहीं ये मछलियाँ प्रदेश के अन्य बड़े जलाशयों में नहीं पंहुच जाए, जो और खतरनाक है l

एमेरिटस प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं लेखक, उदयपुर एमेरिटस प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं लेखक, उदयपुर

 

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