कल तक गांव में अतिथि सत्कार में गुड़, जल, विनम्रता सहजता से परोसा जाता रहा। अब वही जल जब कारखाने से गांव लौट रहा है तो वह 'बिसलरी' बोला जाता है। कारखाने को करना कुछ नहीं होता बस किसी पम्पिंग सेट से निकलते जल को कुछ कीटनाशक मिला कर प्लास्टिक के बोतल में भर दिया जाता है और यही पानी सरकार के दस्ते करम से 45 रुपये से लेकर 300 रुपये तक धड़ल्ले से बेचा जा रहा है। तुर्रा यह कि अब गांव भी इसी मर्ज में आ उलझा है।
जौनपुर के एक अति पिछड़े इलाके महराजगंज ब्लाक के एक गांव में एक संस्था काम कर रही है 'समताघर'। कारखाने की लूट के खिलाफ यह संस्था मुतवातिर कामकर रही है और लोगों को सचेत कररही है।विशेष कर गांवों को कि वे अपनेप्रकृति प्रदत्त श्रोतों पर वापस चलें। मसलन पानी की समस्या।गांव में कुए से चलकर बिसलरी तक पहुंचने के बीच कई पड़ाव आए हैं, जिसने देश के भोले- भाले अवाम के साथ व्यापारिक छल किया।संगठित साजिश, जिसमें व्यापारी की कुटिलता,
मीडिया की कमाऊ प्रवृत्ति, सियासत में फैली अज्ञानता और अवाम का भोलापन पूरी बिसात को ही पलट दिया। तमाम खनिज पदार्थों से भरपूर कुंए के जल को कहा गया कि इसमें फला तत्व अधिक है, यह पानी स्वास्थ्य के लिए नुकसान देय है।
विकल्प ?
हैंड पम्प लगवाओ। गांव में हैंडपम्प ने प्रवेश लेते ही अर्थशास्त्र के कई पन्नों को फाड़ कर तहस नहस कर दिया। क्योंकि कुएं से पानी निकालने का अपना एक ढांचा था। पानी केवल इंसान के लिए नहीं था, खेत और खेत से जुड़े पशु भी उसी साधन पर आश्रित थे। खेत की सिंचाई होतीथी, भराई नहीं। सिंचाई और भराई में बहुत फर्क है। सिंचाई के लिए बैल जरूरी था, पानीनिकालने के लिए चमड़े की मोट का इंतजाम करना होता था।
पानी से भरी मोट को खींचने के लिए मोटी रस्सी लगती थी, जिसे किसान खुद अपने खेतमें उगाए रेसेदार पौधों से तैयार करता था। गरज यह कि पम्पिंग सेट ने किसान को सहूलियत केनाम पर उसके तमाम स्वावलम्बी संसाधनों को जड़ से मिटा दिया और अब किसान गुलाम बनाखड़ा है। किसान के अपने श्रोतों से खिसका कर उसे बाजार की गुलामी में डाल दिया गया। जिससे उसे आज दोहरी मार पड़ रही है। किसानके दरवाजे से पशु धन नदारत है। उसकी पारंपरिक खेती से कई अन्न गायब हैं।क्योंकि अब उनकी उपयोगिता ही नहीं रही। मसलन सनई , पटुआ, अरण्डी, कोदो, माकुन वगैरह। देसी मार के साथ किसान को अंतरराष्ट्रीय लूट का भी शिकार बनाया जा रहा है। संक्षेप में -
किसान को मोटे अनाज की खेती से हटा कर बारीक अन्न की खेती करने का ऐसा प्रलोभन दिया गया कि खलिहान ही खत्म हो गए। अब खेत की पैदावार सीधे खेत से उठा ली जा रही है। दुनिया जब अपने कम होते जल के लिए परेशान है और अपने किसान को मोटे अनाज की खेती के लिए तमाम प्रलोभन दे रही है। ऐसे में हमारे किसान को कहा जा रहा है कि बारीक अनाज उपजावो। गेहूं, धान, वगैरह। अगर जल खपत के आंकड़े को देखा जाय तो एक किलो धान को पैदा करने के लिए कई हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इसी तरह गेहूं के साथ भी यही है। इसके बरक्स मोटे अनाज जैसे ज्वार बाजरा, अरहर, चना वगैरह को कत्तई पानी नहीं चाहिए होता।
आज भारत अपनी पीठ ठोंक रहा है कि वह गेहूं और चावल का बेहतर निर्यातक है जब कि यह पूरे अर्थशास्त्र और लूट से अनभिज्ञ है। किसान को एक बार फिर अपनी किसानी पर पुरनविचार करने की जरूरत है।