लसीका

Submitted by Hindi on Tue, 08/23/2011 - 13:27
लसीका लगभग रंगहीन स्कंदित एवं हलका क्षारीय द्रव है, जो लसीकावाहिकाओं में रहता है। यदि रुधिर वाहिकाओं के आस पास के ऊतकों की सूक्ष्मदर्शी से परीक्षा की जाए, तो ज्ञात होगा कि कोशिकाओं और रुधिर वाहिकाओं के बीच के स्थान में सूक्ष्म वाहिकाओं का घना जाल है। इन वाहिकाओं की दीवार बनाने तथा इन्हें ऊतक स्थलों से पृथक करने का कार्य अत्यंत पतली अंत: कला कोशिकाएँ करती हैं। इस जालिका में विभिन्न सुनिश्चित नालियों से, जिन्हें लसीकावाहिनियाँ कहते हैं, संचार होता है। यदि तरल पदार्थ अधिक हो जाता है, तो वह इन लसीकावाहिनियों से निकल जाता है। सभी लसीकावाहिनियों का मुख वक्ष की ओर होता है और उनके आपस में मिलने से लसीकामहावाहिनी बनती है।

प्लाज़्मा में से कोशिका की दीवारों से नि:स्रावित ऊतक-तरल से लसीका की व्युत्पत्ति होती है। लसीका सभी ऊतक तत्वों का संभरण करती है और ग्रंथियों के स्रावनिर्माण में भी योगदान करती है। तरल का आधिक्य अंत:कला कोशिकाओं में से या उनके बीच से गुजर, परिसर कर लसीकावाहिनीजाल में गिरता है और यहाँ से लसीका कांड द्वारा लसीकामहावाहिनी में ले जाया जाता है, जो इसे पुन: रुधिर को लौटा देती है।

लसीका के गुणधर्म- लसीकामहावाहिनी से प्राप्त लसका रूप और रचना में विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न होती है। उपवास कर रहे पशुओं में लसीका पारदर्शक और हल्का पीतवर्ण तरल होती है। यदि वसायुक्त आहार खाने के थोड़ी ही देर बाद पशु से लसीका प्राप्त की जाए, तो वसा के सूक्ष्म कणों की उपस्थिति के कारण वह दुधिया होती है।

सूक्ष्मदर्शी परीक्षण- लसीका में वर्तमान लसीकाणु रुधिर के से ही होते हैं। सभी लसीकावाहिनियाँ अपने मार्ग में कहीं न कहीं लसीकाग्रंथि में से हाकर गुजरती हैं, और ग्रंथियाँ उन्हें लसीकाणु प्रदान करती हैं। महावाहिनी की लसीकावाहिनी से निकलने के बाद लसीका धीरे धीरे जमती है और फाइब्रिन (fibrin) का वर्णहीन थक्का बनता है। इसमें करीब छ: प्रतिशत ठोस पदार्थ होते हैं, जो प्लाज़्मा में वर्तमान पदार्थों के अनुरूप और उसी अनुपात में होते हैं सिवाय इसके कि इसमें प्रोटीन की मात्रा कहीं कम होती है।

कुत्ते के सीरम और लसीका की तुलना

घटक

सीरम, ग्राम प्रतिशत

लसीका, ग्राम प्रतिशत

कुल ठोस पदार्थ

8.3

5.2

क्लोराइड

0.392

0.413

ग्लूकोज़

0.123

0.124

अप्रोटीन नाइट्रोजन (एन.पी.एन.)

0.0272

0.0270

प्रोटीन नाइट्रोजन

0.90

0.57



जब किसी कारण रुधिर की रचना में परिवर्तन होता है, तब उसी तुलना में लसीका की रचना में भी परिवर्तन होता है।

लसीका का उत्पादन- शरीर में लसीका की कुल मात्रा में समय समय पर परिवर्तन होता है। इसके उत्पादन के लिए दो प्रकार के कारक उत्तरदायी होते हैं : (1) यांत्रिक और (2) रासायनिक।

यांत्रिक कारक कोशिकाओं में रुधिर के चाप और वाहिकाओं के सक्रिय विस्तारण की मात्रा पर निर्भर रहते हैं। रासायनिक कारक रक्तवाहिकाओं के बाहर अवस्थित कोशिकाओं के उपापचय पर निर्भर रहते हैं। किसी भी केशिका क्षेत्र में ऊतक-तरल की मात्रा केशिका पारगम्यता और वाहिकाओं में रुधिर के तथा ऊतक-स्थलों में तरल के चाप के अंतर पर निर्भर रहती है। ऊतक तरल का चाप बहुधा बहुत कम (लगभग 20 मिमी. जल का) होता है। इसलिए स्पष्ट है कि केशिका चाप घटने, या बढ़ने पर निस्रवण चढ़े और उतरेगा। मुख्य कारक तो रुधिर केशिकाओं की दीवारों की पारगम्यता ही है ।

लसीका संचालन- लसीका का आगे की ओर प्रवाह कुछ तो उस चाप द्वारा प्रभावित होता है जिसपर लसीका, लसीका केशिकाओं में प्रविष्ट होती है और कुछ निकट की धमनियों के स्पंदन से; किंतु यह कंकाल पेशियों के संकुचन पर भी निर्भर होता है। छोटे लसीका मूलांकुरों में लसीका का चाप जल के 8 से 10 मिमी. तक पहुँच सकता है। लसीकामहावाहिनी में, जहाँ यह कंठ की बृहद् शिराओं में खुलती है, चाप शिराओं के चाप के समकक्ष ही होता है, अर्थात्‌ पार के 4 से. मिमी. तक।

चूँकि सभी लसीकावाहिनियाँ कपाटयुक्त होती हैं, बाह्य चाप लसीका को एक ही दिशा में प्रवाहित होने देता है, यानी लसीकामहावाहिनी और बृहद्शिराओं की ओर। पेशीय व्यायाम लसीका संचार में सबसे बड़ा भाग लेता है।

लसीका ग्रंथियाँ- अनेक अभिवाही वाहिनियाँ ग्रंथि के प्रांतस्था (cortex) भाग में खुलती है और लसीका इसमें से अंत:स्रवित होती है और एक अपवही वाहिनी अंत:स्रावित लसीका को अंतस्था या मज्जक: (medulla) से बाहर ले जाती है। निर्गत लसीका में अभिवाही धारा की अपेक्षा कम से कम 30 गुने अधिक लसीकाणु (lymphocyte) होते हैं। लसीकाग्रंथियाँ लसीका धारा द्वारा लाए गए कण संग्रह करती हैं और जीवाणुओं एवं विषों को निष्क्रिय बनाती हैं। ग्रंथि में उपस्थित लसीकाणु और मोनोसाइट (monocyte) यह कार्य करते हैं और बहुधा देखा गया है कि जब ऊतक जीवाणुओं द्वारा संक्रांत हो जाते हैं, तो अनुप्रवाह लसीकाग्रंथियाँ सूज आती है और दुखने लगती हैं।

लसीका वाहिनियों के कार्य- केशिका के धमनी सिरे पर रक्त से तरल पारस्रुत (transudate) होता है। इसका अधिकतर जलीय अंश शिरा के सिरे पर पुन: अवशोषित हो जाता है, पर प्रोटीन लसीका में चले जाते हैं। लसीकाकेशिका इस कारण विशेष वाहिका है जहाँ से प्रोटीन लौटाया जाता है।

अन्य कोलायड के, या कणीय पदार्थों के, जो ऊतकस्थलों में प्रविष्ट कराए गए हों अवशोषण से भी यह संबद्ध है।

लसीका का प्रवाह बढ़ानेवाली दशाएँ- ये दशाएँ निम्नलिखित हैं : (1) केशिका-चाप-वृद्धि  शिरावरोध के फलस्वरूप जब शिराचाप जल के 12 या 15 सेंमी. से ऊपर बढ़ता है, तब केशिकाओं से निस्पंदन भी बढ़ता है। केशिकाओं से निस्पंदन की गति शिराचाप की वृद्धि के समानुपात में होती है।

किसी एक शिराचाप पर निस्यंदन की गति पहले तेजी से बढ़ती है, पर शनै: शनै: शिथिल होती जाती है और अंत में बंद हो जाती है। केशिका के अंदर तरल स्थैतिक दाब विरोधी तरल संचय के कारण होनेवाली केशिका में अतिरिक्त केशिका चाप वृद्धि निस्यंदन की गति में यह गिरावट उत्पन्न करती है। कोशिकीय बाह्य तरल का संचयन उन क्षेत्रों में अधिक होता है जहाँ गठन ढीला होता है और त्वचा आसानी से तन सकती है।

निर्वाहिका (portal) क्षेत्र में शिराओं में चापवृद्धि, जो निर्वाहिका शिरा, या यकृतशिराओं को अवरुद्ध करके की जा सकती है, उदरांग ऊतकों में निस्यंदन की वृद्धि और लसीका महावाहिनी में प्रवाहित लसीका के आयतन में भारी वृद्धि करती है।

(2) केशिकाओं की दीवारों की पारगम्यता में वृद्धि- इसका प्रत्यक्ष प्रभाव होता है : (क) ताप में वृद्धि तथा (ख) केशिका विष जैसे पेपटोन, स्ट्राबेरी का सत्व, क्रेफिश, हिस्टामीन तथा विजातीय प्रोटीनें तथा ऊतकों को ऑक्सीजन (O2) पूर्ति की कमी संभवत: अंत:कला को हानि पहुँचाकर पारग्यम्यता उत्पन्न करते हैं।

(3) अतिबली विलयन- ये ऊतक स्थानों से विशेषकर पेशियों और अंगों के अधस्तवक्‌ ऊतकों से तरल खींच लेते हैं। फलस्वरूप रुधिर के आयतन में वृद्धि होती है और भारी मात्रा में तरल का नि:सरण होता है, जो लतिका महावाहिनी में लसीका की मात्रा बढ़ा देता है।

(4) कार्यसक्रियता में वृद्धि- जब कोई ग्रंथि, या पेशी, सक्रिय होती है, तब लसीका प्रवाह में वृद्धि होती है। विश्राम की अवस्था में पेशियों और अधस्तवक्‌ ऊतकों से लसीका प्रवाह बहुत हल्का होता है और लसीका की प्रोटीन मात्रा अधिक होती है। सक्रिय अवस्था में प्रोटीन सांद्रता घटती है, क्योंकि अपेक्षाकृत कम मात्रा में पारस्रुत जल का रुधिर में पुन: अवशोषण होता है और अधिक मात्रा में लसीका वाहिनियों में वह जाती है। पेशी का संकुंचन वाहिनियों में लसीका प्रवाहित करने में पंप का सा प्रभाव डालता है।

कार्य सक्रियता में वृद्धि होने पर प्रवाह में वृद्धि के कारण ये हैं : (क) उपापचर्यजों (metabolite) की उत्पत्ति, जिससे ऊतक तरलों का रसाकर्षण दाब बढ़ता है और इसलिए वाहिकाओं से अधिक तरल आकर्षित होता है। (ख) वाहिकाविस्फारण और केशिकाचाप में वृद्धि।

(5) मर्दन तथा निश्चेष्ट संचलन- कुछ सीमा तक ये पेशीय सक्रियता की भाँति कार्य करते हैं। ये रुधिर प्रवाह और केशिका चाप को संवर्धित कर लसीका का निर्माण बढ़ाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हस्त प्रोग और पेशियों का संचलन लसीका का लसीका वाहिनियों में नोदान करते हैं।

सं.ग्रं.  (1) वान्सं, जे.एम. और ट्रुएटा, जे. लांसेट, 1941, 1, 623; (2) रिचर्ड्स, डी.डब्लू. : अमे.ज.मेङि, 1949, 6, 772, (3) स्टलिंग, ई.एच. : द पलुइड्स ऑव्‌ द बॉडी, कॉन्स्टेबुल, लंदन 1909। (रामचंद्र शुक्ल)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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