मालवा

Submitted by Hindi on Tue, 08/30/2011 - 14:45
मालवा भारत के मध्य भाग में स्थित वह सुविख्यात ऐतिहासिक प्रदेश जो मालवा के पठार के साथ ही नर्मदा की घाटी तक फैला हुआ है। यों तो इस प्रदेश की राजनीतिक सीमाएँ समय-समय पर बदलती रही है, परंतु सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराओं के आधार पर मालवा प्रदेश की सीमाओं का निर्धारण इस प्रकार किया जा सकता है। उत्तर-पश्चिम में मुकुंदवाड़ा दर्रा से होती हुई शिवपुरी से कुछ ही दक्षिण में इसकी उत्तरी सीमा निकलती है। पूर्वी सीमा पर चंदेरी, विदिशा, भोपाल और होशंगाबाद के क्षेत्र मालवा के अंतर्गत पड़ते है। पश्चिम में मालवा और गुजरात प्रदेशों की सीमाओं का निर्धारण दोहद नगर से होता रहा है। उससे उत्तर में कांठल (भूतपूर्व प्रतापगढ़ राज्य) तथा दक्षिणी बागड़ (भूतपूर्व बाँसवाड़ा राज्य) और दक्षिण में राठ क्षेत्र (वर्तमान झाबुआ जिला) मालवा के ही अंग है। नर्मदा घाटी में असौरगड़ किले की अग्रभूमि को छोड़ते हुए पश्चिमी नेमाड़ से लेकर होशंगाबाद जिले तक का सारा क्षेत्र भी मालवा के अंतर्गत आता है। वर्तमान मध्यप्रदेश के पश्चिमार्द्ध में मालवा प्रदेश के अधिकतम भाग का एकीकरण हो गया है।

प्रागैतिहासिक काल में मालवा में निषाद और द्राविड़ संस्कृतियाँ फैली हुई थीं, जिनके अवशेष महेश्वर, नागदा और उज्जैन आदि स्थानों पर की गई खुदाई में मिले हैं। आक्रमणकारी आर्यो ने द्रविड़ों को पराजित कर इस प्रदेश पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया, परंतु पराजित द्रविड़ों से भी आर्यों ने बहुत कुछ पाया। आर्यो के विश्वासों और भावनाओं के साथ द्राविड़ी परंपराओं का समन्वय वैदिक काल में ही होने लगा था। तब मालवा की आदिम आर्य संस्कृति का विकास पुण्यसलिता क्षिप्रा, चंबल, नर्मदा आदि नदियों के तटों पर हुआ। अवंतिका, माहिष्मती (महेश्वर), विदिशा, पद्मावती, दशपुर (मंदसौर) आदि नगर हजारों वर्षो से भारत भर में विख्यात रहे हैं।

माहिष्मती के हैहय साम्राज्य के समय मालवा में राजनीतिक संगठन के साथ ही सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की नींव पड़ी। महाजनपदों का उदय होने पर अवंति के प्रद्योतों और उनके बाद विदिशा और पद्मावती पर शासन करनेवाले नागों के समय में मालवा में सांस्कृतिक, आध्यात्मिक तथा व्यापारिक परंपराओं का बहुत विकास हुआ। अशोक के धर्मप्रचार में दूर देशों तक जानेवाले भिक्षुओं तथा बाद में वहाँ पहुँचनेवाले बौद्धधर्मावलंबी प्रकांड विद्वानों में मालवा के निवासियों की भी संख्या बहुत बड़ी थी। महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग और बड़े सार्थवाह उज्जैन और माहिष्मती में ही होकर गुजरते थे तथा वहाँ बने माल को दूर-दूर तक पहुंचाते थे। तब मालवा दो विभागों में विभक्त था, पूर्वी भाग दशार्ण अथवा आकर क्षेत्र कहलाता था और पश्चिमी भाग अवंतिका क्षेत्र।कुछ ही शताब्दियों के बाद शकों ने मालवा पर भी अपना आधिपत्य जमा लिया। तब तक रावी और चिनाव के दोआब से दक्षिण की ओर बढ़ते-बढ़ते मालवगण टोंक मेवाड़ के प्रदेश में आ पहुँचे थे। पड़ोसी शक्तियों के साथ मिलकर वे अब शकों का सामना करने लगे और अंत में सन्‌ 225 ई. के लगभग उन्होंने शकों का आधिपत्य पूर्णतया समाप्त कर अपने मालव गणराज्यों की स्वाधीनता घोषित की, जो कोई सवा सौ वर्षो तक अक्षुण रही। संभवत: इसी काल में मालवगण इस सारे पठार प्रदेश पर फैल गए जिससे आगे चलकर यह प्रदेश उन्हीं के नाम से मालव प्रदेश कहलाया।

मालवा में सदियों से चल रही सांस्कृतिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक कलात्मक, आदि सभी परंपराएँ गुप्त काल में ऐसी सुद्दढ़ हो गई कि बर्बर हूणों के प्रलयंकारी आक्रमण भी उनका निर्मूलन नहीं कर पाए। मालवगण भी तब तक इस प्रदेश के जन साधारण में विलीन हो गए थे और उनका स्वाधीनताप्रेम तथा जनतंत्रीय भावनाएँ इस प्रदेश की विशेषताओं में सम्मिलित हो गई, जो कालांतर में यशोधर्मन के व्यक्तित्व में प्रस्फुटित हुई, जिसने दशपुर के पास हूणों को पूर्णतया पराजित कर उन्हें मालवा से निकाल बाहर किया।

मालवगणों ने इस प्रदेश को जो सांस्कृतिक एकता दी थी उसे वहाँ परमारों के राज्य ने पूर्ण स्थायित्व प्रदान किया और तदनंतर मालवा प्रदेश राजनीतिक एकता के साथ ही भौगोलिक इकाई भी बन गया। प्रतिहार साम्राज्य के विश्रृंखलनकाल में सन्‌ 967 ई. के लगभग मालवा के प्रतापी परमार शासक सीयक ने अपनी स्वाधीनता घोषित की। सीयक के उत्तराधिकारी वाक्पतिराज मुंज तथा बाद में राजा भोज के शासनकाल में मालवा पुन: साहित्य और संस्कृति का प्रमुख केंद्र बन गया। विद्वानों के प्रश्रयदाता होने के साथ ही वे दोनों स्वयं बड़े विद्वान और सत्कवि थे। संस्कृत साहित्य को पूर्णतया समृद्ध बनाने में उन्होंने पूरा योगदान दिया। वराहमिहिर से प्रारंभ खगोल शास्त्र की परंपरा को भोज ने आगे बढ़ाया। जन साधारण की समृद्ध वाणी, मालवा की स्थानीय प्राकृत की ओर भी भोज ने विशेष ध्यान दिया, उसने स्वयं अनेक प्राकृत काव्यों की रचना की और प्राकृत का व्याकरण भी लिखा।

भोज की मृत्यु के साथ ही मालवा के परमार राज्य की अवनति प्रारंभ हो गई। गुजरात के चालुक्य राजाओं के साथ भोज का विरोध उसकी मृत्यु के बाद भी वंशपरंपरागत चलता रहा जिससे परमार राज्य अधिकाधिक शक्तिहीन और संकुचित होता गया। सन्‌ 1080 ई. के लगभग उदयादित्य ने अवश्य ही परमार राज्यवंश के महत्व, गौरव और शक्ति के पुनरुत्थान के लिये भरसक प्रयत्न किए थे। परंतु गुजरात के साथ चल रहा वैमनस्य मालवा के लिये घातक प्रमाणित हुआ, राजगद्दी पर बैठने के कुछ ही बाद कुमारपाल चालुक्य ने मालवा को जीतकर अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कुमारपाल की मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य विश्रृंखलित हो गया, तब मालवा को स्वाधीन कर परमार राजवंश ने पुन: वहाँ अपना राज्य स्थापित कर लिया।

मालवा अब मुख्यतया स्थानीय राज्य रह गया था। होयशाल, देवगिरी तथा गुजरात के पड़ोसी राज्यों के साथ उसे बारंबार संघर्ष करना पड़ रहा था। सुभट वर्मा ने राज्यवृद्धि की, परंतु वह स्थायी नहीं हो सकी। देवपाल के राज्यारोहण के साथ ही परमार राज्य का पतन बड़ी शीघ्रता से होने लगा। सन्‌ 1233 ई. में दिल्ली के तुर्क सुलतान इल्तुतमिश ने भेलसा पर अधिकार कर उज्जैन तक धावा मारा। वहाँ महाकाल के प्राचीन मंदिर को ध्वस्त किया और बहुत लूटमार के बाद वापस दिल्ली को लौट गया। तब वहाँ पर पुन: परमार राजाओं का आधिपत्य हो गया, परंतु इस मुसलमानी आक्रमण ने परमार राज्य की रही सही सत्ता और प्रतिष्ठा को जड़ से हिला दिया। वह अब धीरे-धीरे विश्रृंखलित होने लगा। रणर्थंभोर का नवोदित चौहान राज्य भी मालवा पर आक्रमण करने लगा। पड़ोसी राज्य मालवा राज्य के निकटस्थ भागों पर अपना अधिकार जमाने लगे और भेलसा आदि दूरस्थ विभागों के स्थानीय सामंत स्वाधीन हो गए। सन्‌ 1292 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने भेलसा को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। मालवा को जीतकर वहाँ अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिये अलाउद्दीन खिलजी ने सन्‌ 1305 ई. के उत्तरार्ध में अपने सेनानायक ऐन-उल-मुल्क को ससैन्य वहाँ भेजा। तब राय महलिक देव मालवा का शासक और कोका उसका मंत्री था। युद्ध में परमार सेना की हार हुई, कोको खेत रहा और महलिक देव ने मांडू किले में शरण ली। ऐन-उल्‌-मुल्क ने तब उस किले को जा घेरा और अंत में उसे भी जीत लिया। महलिक देव युद्ध में काम आया। यों मालवा के परमार राज्य का अंत हो गया और मालवा प्रदेश दिल्ली सल्तनत का एक प्रांत बन गया।

अलाउद्दीन खिलजी ने तब ऐन-उल्‌-मुल्क को ही मालवा सूबे का प्रथम सूबेदार नियुक्त किया था, कोई तेरह वर्ष तक वह इसी पद पर लगातार बना रहा। सल्तनत का उपजाऊ प्रांत होने के साथ ही मालवा का अपना सैनिक महत्व भी था, क्योंकि सुदूर दक्षिण को जानेवाले सभी मुख्य मार्ग उसी में होकर गुजरते थे। अत: वहाँ विशेष सैनिक व्यवस्था रहती थी। तब धार नगर ही इस प्रांत की राजधानी था। इब्नबतूता के अनुसार तब धार से दिल्ली तक के मार्ग पर सर्वत्र कोस-कोस पर मीनार बने हुए थे, जिनसे यात्रियों को बहुत सुविधा होती थी। तब भी मालवा खेती के लिये बहुत प्रसिद्ध था और वहाँ गेहूँ विशेष रूप से बहुत उत्तम होता था। धार के पान भी तब दिल्ली तक जाते थे। सन्‌ 1335 ई. में मालवा में भयंकर अकाल पड़ा जो तदनंतर कई वर्ष तक बना रहा। इधर सारे साम्राज्य में यत्र तत्र विद्रोह होने लगे थे, अत: मालवा में कड़ाई के साथ शासनप्रबंध करने के हेतु मुहम्मद तुगलक के अजीज खंभार को वहाँ का सूबेदार बनाया। अजीज ने धार में अमीरा ने सदा तथा वहाँ के कई प्रमुख सैनिकों को बंदी कर उनको मरवा डाला। मालवा में तब कोई विद्रोह नहीं हुआ परंतु गुजरात आदि पड़ोसी प्रांतों में विद्रोह अत्यधिक भड़क उठे।

फिरोज तुगलक के शासनकाल में मालवा का शासन शांतिपूर्वक यथावत्‌ चलता रहा, परंतु उसके निकम्मे उत्तराधिकारियों के समय में दिल्ली सल्तनत शक्तिहीन और विश्रृंखलित होने लगी। तब दिलावर अली गोरी मालवा का सूबेदार था। उसने अधिकाधिक सेना एकत्र कर समूचे मालवा पर अपना सदृढ़ आधिपत्य स्थापित कर लिया। तैमूर से पराजित होकर जब सुलतान महमूद तुगलक दिल्ली से भागकर गुजरात पहुँचा, तब सन्‌ 1400 ई. में वहाँ से वह दिलावर अली के पास चला आया और कुछ समय तक धार में रहने के बाद सन्‌ 1401 ई. में वह वापस दिल्ली को लौट गया। उसके धार से यों चले जाने के बाद दिलावर अली ने स्वयं को मालवा का स्वाधीन सुलतान घोषित कर दिया। उसके उत्तराधिकारी पुत्र होशंगशाह ने मांडू को अपनी राजधानी बनाया। होशंगशाह तथा उसके बाद अन्य कई सुलतानों ने समय-समय पर मांडू में अनेकों सुंदर महल, मसजिदें, मकबरे, बावड़ी आदि बनवाएं जिनके कारण ही मांडू के वे भग्नावशेष भारतीय स्थापत्य कला के सुंदरतम स्मारक के रूप में आज भी अतीव आकर्षक और सर्वथा दर्शनीय है।

पड़ोसी राज्यों के साथ मालवा के सुलतानों का संघर्ष प्रारंभ से ही चलने लगा। गुजरात के सुलतानों से वे कई बार पराजित भी हुए। होशंगशाह ने अचलदास खींची को सन्‌ 1423 ई. में पराजित कर गागरोन का किला अपने अधिकार में कर लिया। होशंगशाह के बाद उसके पुत्रों को अपनी राह से हटाकर उसी के फुफेरे भाई मलिक मुगिस का पुत्र महमूद खिलजी स्वयं मालवा का सुल्तान बन गया। उसने अपने राज्य का बहुत विस्तार किया। मेवाड़ के राणा कुंभा के साथ उसके कई युद्ध हुए, जिनमें अपनी विजय के स्मारक के रूप में कुंभा ने चित्तौड़ तथा मांडू में क्रमश: कीर्तिस्तंभ तथा मीनार बनवाए। महमूद खिलजी के शासनकाल में मालवा राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा चरम सीमा तक पहुंच गई थी। उसके बाद के दोनों सुलतानों ने अपना समय ऐश्वर्य-विलास और राग रंग में ही बिताया, तब मांडू में साहित्य, संगीत, स्थापत्य आदि ललित कलाओं को विशेष प्रोत्साहन मिला।

परमार राजाओं के समय से ही जैन धर्मावलंबी वणिक समाज का प्रभाव और महत्व मालवा में अधिकाधिक बढ़ने लगा था। उद्योग धंधे और व्यापार उनके हाथ में थे ही, तब से वे शासन व्यवस्था में भी पदारूढ़ होने लगे थे। मालवा पर मुसलमानी आधिपत्य हो जाने के बाद भी इन जैन धर्मावलंबियों का यह महत्व किसी प्रकार कम नहीं हुआ, प्रत्युत मालवा की इस स्वाधीन सल्तनत में वे ऊँचे-ऊँचे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होकर उसके शासन का संचालन करते थे। अत: तब मांडू जैनियों के लिये एक प्रमुख तीर्थ तथा जैन विद्वानों का विशिष्ट केंद्र बन गया।

द्वितीय महमूद खिलजी ने सन्‌ 1512 ई. में मेदिनीराय पूरबिया राजपूत को अपना वजीर बनाया, जिससे सलहदी तँवर आदि राजपूत सामंतो का मालवा के शासन में प्रभाव दिनों दिन बढ़ने लगा। तब इसी कारण राजपूतों के साथ मुसलमान अमीरों तथा सेनानायकों को आपसी वैमनस्य हो गया। कुछ ही समय के बाद महमूद खिलजी भी मेदिनीराय तथा उसके राजपूत साथियों के विरुद्ध हो गया। तब तो गुजरात के सुलतान तथा मेवाड़ के राणा साँगा से सैनिक सहायता प्राप्त कर दोनों विरोधी पक्षों में आपसी युद्ध होने लगे, जिससे मालवा राज्य शक्तिहीन और विश्रृंखलित हो गया। बाबर ने सन्‌ 1528 ई. में चंदेरी पर अधिकार कर लिया। उसके तीन वर्ष बाद गुजरात के सुलतान बहादुर शाह ने मांडू को जीतकर महमूद खिलजी को कैद कर लिया तथा मालवा को गुजरात राज्य में सम्मिलित कर लिया। सन्‌ 1535 ई. में हुमायूँ ने बहादुरशाह को मंदसौर तथा मांडू में पराजित कर मालवा पर गुजरात के आधिपत्य का अंत कर दिया। तदंनतर जब शेरशाह सूर दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तब उसने मालवा को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया, तथा सन्‌ 1542 ई. में शुजात खाँ को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। उसके उत्तराधिकारी पुत्र बाज़ बहादुर ने सन्‌ 1555 ई. में स्वयं को मालवा का स्वाधीन सुलतान घोषित किया। कुछ वर्षो बाद अकबर ने मालवा विजय के लिये मुगल सेनाएँ भेजीं। उन्होंने मार्च, 1561 ई. में सारंगपुर के युद्ध में बाज़ बहादुर को हराकर मालवा पर अधिकार कर लिया, अगले वर्ष बाज बहादुर ने पुन: मालवा पर अधिकार कर लिया, किंतु वह सुस्थिर नहीं हो पाया और सन्‌ 1562 ई. के उत्तरार्ध में मालवा स्थायी रूपेण मुगल साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया। इसके दो वर्ष बाद रानी दुर्गावती को हराकर जब मुगलों ने गोंडवाना के गढ़ा-मंडला क्षेत्र जीत लिए तब उन्हें भी मालवा प्रांत में सम्मिलित कर दिया गया।

मुगल साम्राज्य में सम्मिलित होते ही इस प्रांत के सुप्रबंध का आयोजन किया गया। उज्जैन नगर को पुन: मालवा प्रांत की राजधानी बना दिया। शासन तथा राजस्व संबंधी अनेकानेक सुधार समय समय पर किए जाते रहे। सन्‌ 1579-80 में ही मालवा प्रांत की शासकीय व्यवस्था का पूर्ण स्वरूप बन पाया। तदनुसार मालवा प्रांत को उज्जैन, रायसेन, चंदेरी, सारंगपुर, मांडू, हंडिया, गागरोन, कोटड़ी, पिड़ावा, बीजागढ़, गढ़ा, मंदसौर और नंदुरबार की बारह सरकारों (जिलों) में विभक्त किया गया। प्रत्येक सरकार के अंतर्गत कई परगने थे, जिनकी संख्या वहाँ की परिस्थिति के अनुसार निर्धारित की गई। मालवा में तब कुल मिलाकर 301 परगने थे। आवश्यकतानुसार यदा कदा किए गए यत्किंचित्‌ परिवर्तनों के साथ यही शासनव्यवस्था मुगल साम्राज्य के पतन तक निरंतर चलती रही।

कोई सवा सौ वर्षों से भी अधिक समय तक शक्तिशाली मुगल सम्राटों के शासन में रहकर मालवा प्रांत अधिकाधिक समृद्ध होता गया। अनेकानेक नए व्यापारमार्ग खुल गए थे और सूरत आदि बंदरगाहों के द्वारा विदेशों तक से बराबर व्यापार चलता रहता था। मालवा में तब महीन धागे के कपड़े बुने जाते थे। वहाँ की 'छींट' छपे हुए तथा अन्य रंग बिरंगे कपड़ों की विदेशों तक में बड़ी माँग थी। 'अफीम, गन्ना, अंगूर, सुगंधित द्रव्य, खरबूजे और खाने के पान जैसी बहुमूल्य फसलें वहाँ बहुतायत से पैदा होती थीं।' प्रांत की आमदनी भी बढ़ते-बढ़ते लगभग दुगुनी हो गई थी।

मुगल सम्राटों की राजपूतों को साम्राज्य का आधारस्तंभ बनानेवाली नीति का मालवा पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा। यहाँ के कई एक स्थानीय राजघरानों को महत्व और क्षमता प्राप्त हुई। यही नहीं, मेवाड़ और मारवाड़ के कई छोटे राजकुमारों या उनके वंशजों को उन्होंने मालवा में अनेकों जागीरें दीं। पश्चिमी मालवा के सभी राठौड़ राज्यों का प्रारंभ ऐसी ही जागीरों से हुआ था। मालवा में आ बसनेवाले सभी राजपूत सेनानायकों के साथ उनके भाई-भतीजे, सगे-संबंधी तथा अन्य अधीनस्थ सेनानायक भी मालवा चले आये, जिनमें से कई ने आगे चलकर प्रांत की अराजकतापूर्ण परिस्थिति से पूरा-पूरा लाभ उठाकर अपने-अपने अधीन अनेक छोटे बड़े ठिकानों, जागीरों तथा जमींदारियों की स्थापना की।

मुगल साम्राज्य काल में मालवा की शांति को यत्र-तत्र होने वाले छोटे स्थानीय उपद्रव ही कदाचित्‌ भंग करते थे। धरमत का युद्ध ही सत्रवहीं शताब्दी की एकमात्र महत्वपूर्ण घटना थी। जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह के सेनापतित्व में शाही सेना को औरंगजेब और मुराद की सम्मिलित सेना ने पराजित किया था (अप्रैल 1658)। मुगल-मेवाड़ युद्ध के समय कुछ वर्ष (1679-1681 ई.) तक मालवा की उत्तर पश्चिमी सीमा पर कुछ अशांति उत्पन्न हुई थी, परंतु उस युद्ध की समाप्ति के साथ ही उसका भी अंत हो गया।

किंतु ईसा की 17 वी शताब्दी के अंत के साथ ही मालवा में अशांति, विद्रोह और अराजकता का प्रारंभ हुआ। सन्‌ 1699 ई. में कृष्णाजी सावंत के नेतृत्व में मराठों ने प्रथम बार नर्मदा पार कर मालवा में लूट मार की। 'जो मार्ग इस प्रकार तब खुला वह 18 वीं शताब्दी के मध्य में जब तक मालवा पूर्णतया मराठों के आधिपत्य में न आ गया किसी प्रकार बंद नहीं हुआ।' बहादुर शाह के शक्तिहीन उत्तराधिकारियों के शासनकाल में परिस्थिति दिनों दिन बिगड़ती ही गई। नर्मदा के उत्तरी तीर पर पिलसुद के युद्ध में मालवा के सूबेदार सवाई जयसिंह ने 10 मई, 1715 ई. के दिन आक्रमणकारी मराठों के एक बड़े दल को पूर्णतया पराजित किया। परंतु उसका प्रभाव स्थायी नहीं हुआ। पेश्वा बाजीराव से प्रेरित कई मराठा दल बारंबार मालवा पर आक्रमण करने लगे। 29 नवंबर, 1728 ई. के दिन अमझरा के युद्ध में शाही सेना की पूर्ण पराजय के बाद समूचा दक्षिणी मालवा मुगलों के हाथ से निकल गया। फरवरी, 1733 ई. में मंदसौर के युद्ध में सवाई जयसिंह की हार के बाद उत्तरी मालवा पर भी मुगलों का अधिकार नहीं रहा। मालवा पर पुन: मुगल आधिपत्य स्थापित करने का निजाम का अंतिम प्रयत्न भी दिसंबर 14,1737 ई. के भोपाल के युद्ध में हुई पराजय के कारण विफल हुआ। अत: नादिरशाह के आक्रमण के फलस्वरूप अशक्त और विश्रृंखलित हो मुगल सम्राट् ने सितंबर 7,1741 ई. को शाही सनद द्वारा मालवा प्रांत पेशवा बालाजीराव को दे दिया।

वस्तुत: यह सब कागजी कार्यवाई मात्र थी। मालवा से चौथ आदि करों से प्राप्त द्रव्य का बटवारा दिसंबर, 1731 ई. में ही पेशवा ने मल्हार राव होलकर, राणोजी सिंधिया, आनंदराव पवार आदि में कर दिया था। जनवरी, 1734 ई. में मल्हार राव को खासगी की जागीर भी मिली। सन्‌ 1735 ई. से ही राणोजी ने उज्जैन को मालवा में अपने पड़ाव का एकमात्र स्थान बना लिया था। पेशवा से सरंजाम पाकर इन घरानों ने मालवा के कई एक भागों पर पूर्ण आधिपत्य भी स्थापित कर लिया, जिससे आगे चलकर मालवा में इन घरानों के अलग-अलग राज्यों की स्थापना हुई। मालवा में मराठों की स्थापना होने से पहले ही दोस्त मुहम्मद नाम अफ़गान ने भोपाल को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिण पूर्वी भाग में अपना राज्य स्थापित कर लिया था, जो मराठों के आक्रमणों और विरोध के होते हुए भी उसके उत्तराधिकारियों के अधिकार में बराबर बना रहा।

मालवा पर पूर्ण आधिपत्य प्राप्त होने के बाद भी मराठा शासकों ने प्रांतीय शासनसंगठन में एकता स्थापित करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। सारा प्रांत विभिन्न मराठा सेनानायकों में बँट गया। यहाँ के स्थानीय राजाओं तथा जमींदारों पर टाँका तय कर उसे वसूल करने के अधिकार भी उन मराठा सेनानायकों में बाँट दिये गये। मराठा सेनापतियों और शासकों का प्राय: सारा समय प्रांत से बाहर के ही मामलों में बीत जाता था तथा अपने अधिकारक्षेत्र की शासनव्यवस्था की ओर भी वे ध्यान नहीं दे पाते थे। स्थानीय राजा, जागीरदार और जमींदार अधिक स्वतंत्र और शक्तिशाली हो गए तथा छोटी बड़ी अनेक नई जागीर-जमींदारियाँ भी स्थापित हो गई। विभिन्न मराठा सेनानायकों के आपसी झगड़ों के कारण भी प्रांत में कई उलझने खड़ी हो जाती थीं। मराठा सेनानायकों को द्रव्य की आवश्यकता सदैव बनी रहती थी, किंतु मालवा की आर्थिक स्थिति दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी। अत: प्रांत की आमदनी बढ़ाने के उद्देश्य के महादजी सिंधिया जब मालवा के शासन को सुव्यवस्थित करने लगे तब राजपूत राजाओं, जमींदारों से उनकी मुठभेड़ हो गई, जिससे मालवा में राजपूत-मराठा संघर्ष फिर प्रारंभ हो गया। इससे अंग्रेजों ने पूरा लाभ उठाया।

अंग्रेजों के साथ हुई बसई की संधि (1802 ई.) के बाद पेशवा का मालवा के साथ कोई संबंध नहीं रह गया तथा मालवा में शासनारूढ़ मराठा सरदार स्वाधीन हो गए। मालवा के सभी मराठा सरदारों के सरंजामों तथा अधिकार क्षेत्रों के अनेकानेक छोटे बड़े टुकड़े प्रारंभ से ही प्रांत के विभिन्न भागों में दूर दूर तक छितरे हुए थे। विरोधी सरदारों के अधीन क्षेत्रों के सान्निध्य के कारण भी इन सरदारों को अपने-अपने विभागों के शासन पर अत्यधिक व्यय के बाद भी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। वहाँ शांति और सुरक्षा बनाए रखना सर्वथा असंभव हो जाता था। अत: ईसा के 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में जब सिंधिया-होलकर-विरोध चरम सीमा पर पहुँच गया था और प्राय: सारे यूरोपीय सेनानायकों के चले जाने के कारण मराठा सेनाओं की शक्ति क्षीण हो गई थी तब मालवा में 'गर्दी का वक्त' प्रारंभ हुआ। पहले कई वर्षो तक यशवंतराव होलकर और अमीर खाँ की सेनाओं ने सर्वत्र लूटमार की, जिनमें पिंडारी, पठान, मराठे, भील आदि सभी प्रकार के उपद्रवी दल सम्मिलित थे। सन्‌ 1813 ई. के बाद कोई 50,000 से भी अधिक पिंडारियों के बड़े बड़े दल मालवा के एक छोर से दूसरे छोर तक भयंकर लूट मार करने लगे। समूचे प्रांत में असीम अराजकता फैल गई।

लार्ड हेस्टिंग्ज ने तब सन्‌ 1817 ई. में तटस्थता की नीति त्याग कर मालवा पर भी अंग्रेजी आधिपत्य स्थापित करने का निर्णय किया। अमीर खाँ टोंक का नवाब बना दिया गया। महिदपुर के युद्ध में होलकर पूर्णतया पराजित हुआ। चारों ओर से शक्तिशाली सेनाओं का घेरा डालकर बड़ी ही तत्परता के साथ सन्‌ 1828 ई. में पिंडारियों का अंत कर डाला। मालवा में शांति स्थापित हो जाने के बाद वहाँ की राजनीतिक व्यवस्था की समस्या सामने आई। सिधियां, होलकर, भोपाल आदि प्रमुख शासकों के साथ अंग्रेजों ने संधियाँ कर ली थीं। किंतु वहाँ के राजपुत राजाओं, तथा मराठा राज्यों के अधीन राजपूत सामंतों, गिरासियों के साथ उनके सही संबंधों और उन सभी राज्यों, ठिकानों तथा जमींदारियों की सीमाओं का निर्धारण तब भी करना था। सर जान मालकम ने विभिन्न पक्षों में आपसी समझौते करवाए, और सारे पारस्परिक दावों, माँगों और विरोधों को निपटाकर उन निर्णयों को भविष्य में पूर्णतया कार्यान्वित करवाते रहने के बारे में अंग्रेजी शासन की ओर से लिखित आश्वासन दिए। मराठा राज्यों के अधीन राजपूत सामंतों संबंधी ये आश्वासन सन्‌ 1921 ई. में समाप्त किए गए। मालवा के सभी राज्यों की देखरेख तथा नियंत्रण के लिये गवर्नर जनरल ने इंदौर में एक प्रमुख अंग्रेज अधिकारी को अपना 'एजंट' नियुक्त किया और उसके अधीन 'पोलिटिकल एजंट' नियुक्त किए गए। स्थान-स्थान पर अंग्रेजी सेना की सैनिक छावनियाँ भी डाल दी गईं। यह राजनीतिक इकाई तभी से 'सेंट्रल इंडिया एजंसी' कहलाने लगी। ग्वालियर का रेसीडेंट भी सन्‌ 1854 से 1921 ई. तक इसी एजेंसी के अधीन रहा।

शांतिस्थापना से प्रदेश में खेती बाड़ी उद्योगधंधों और व्यापार में वृद्धि होने लगी। किंतु सभी राज्यों का शासनप्रबंध तब भी मध्यकालीन ढर्रे का था और दुर्व्यवस्था को दूर करने के लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं किए जा रहे थे। जनसाधारण की सुविधा, हित या उन्नति की ओर यत्किंचित्‌ भी ध्यान नहीं दिया जाता था। अंग्रेज अधिकारियों के अत्यधिक आग्रह पर ही मालवा में प्रथम शासकीय विद्यालय सन्‌ 1841 में इंदौर में खोला गया। सारे प्रदेश में अंग्रेजों का सैनिक नियंत्रण और दबाव बढ़ता जा रहा था। वहाँ के नाबालगी शासन के निर्देशन के मामले को लेकर अंग्रेजों ने सन्‌ 1843 ई. में ग्वालियर राज्य को पूरी तरह अपने अधीन कर लिया। सन्‌ 1844 ई. में इंदौर राजगद्दी के उत्तरधिकार के प्रश्न को भी अंग्रेजों ने अपने ही इच्छानुसार तय किया। तदनंतर दोनों ही राज्यों का नाबालगी शासन अंग्रेज अधिकारियों की ही देख-रेख में चलने लगा। तब ग्वालियर में भी विद्यालय खोला गया और इंदौर में प्रथम सार्वजनिक अस्पताल स्थापित हुआ।

सन्‌ 1857 ई. में जब उत्तरी भारत में बड़ा सैनिक विद्रोह प्रारंभ हुआ, तब उसका प्रभाव इस प्रदेश पर भी पड़ा। नीमच, ग्वालियर, इंदौर और मऊ की सेनाओं ने भी विद्रोह किया। अपनी सेना में भी विद्रोह हो जाने पर 1 जून, 1858 ई. के दिन सिंधिया को ग्वालियर से भागकर आगरा चला जाना पड़ा और वहाँ विद्रोहियों का अधिकार हो गया। कोई 17 दिन बाद उन्हें पराजित कर सर ह्यू रोज ने ग्वालियर पर पुन: सिंधिया का अधिपत्य स्थापित कर दिया। इधर नीमच, इंदौर और मऊ के विद्रोही सैनिक वहाँ से राजस्थान तथा ग्वालियर की ओर चले गए, परंतु तभी बाहर के कई अन्य उपद्रवी सैनिक आदि पश्चिमी मालवा में जा पहुँचे और वहाँ स्थानीय लोगों से मिलकर उन्होंने धार, मंदसौर आदि छोटे-छोटे कई स्थानों में विद्रोह का झंडा खड़ा किया। अमझरा के सिवाय प्राय: सभी राज्यों के शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया। अत: वहाँ कहीं भी विद्रोहियों को विशेष सफलता नहीं मिली और हेनरी ड्यूरेंड ने सन्‌ 1857 ई. के अंत तक उन्हें पूर्णतया दबा दिया। धार राज्य को तब अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था किंतु बाद में पुन: वहाँ के राजा को दे दिया गया।

इस विद्रोह के शांत होने के बाद भारत का शासन सीधे इंग्लैंड की सम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया के नाम पर चलाया जाने लगा, जिससे मालवा के राजाओं तथा अंग्रेजी शासन के संबंध अधिक गहरे और दृढ़ हो गए। अनेकानेक प्रमुख महाराजाओं को दत्ताकाधिकार की सनदें दी गई, सभी राजाओं आदि की समान परंपराएँ निश्चित की गई, और उनके राजकुमारों, सामंतपुत्रों आदि की अंग्रेजी शिक्षा के लिये सन्‌ 1876 ई. में इंदौर में एक विशेष विद्यालय खोला गया। अब राजाओं पर अंग्रेज अधिकारियों का नियंत्रण हर तरह से बढ़ गया और राज्यों के शासनप्रबंध में सुधार करने के लिये भी वे उनपर दबाव डालने लगे। अत: इंदौर, ग्वालियर जैसे प्रमुख राज्यों में तदर्थ, प्रयत्न प्रारंभ हुए। लगान संबंधी बंदोवस्त नये सिरे से किया गया। अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून कायदे लागू कर न्यायालयों की व्यवस्था नए ढंग से की गई। पुलिस व्यवस्था में सुधार किए गए। शिक्षाप्रसार के लिये अधिक विद्यालय खोले जाने लगे और उच्च शिक्षा के हेतु ग्वालियर, इंदौर और उज्जैन में महाविद्यालय (कालेज) भी स्थापित किए गए। अस्पतालों की संख्या में वृद्धि की जाने लगी। इंदौर और ग्वालियर नगरों में नगरपालिकाएँ स्थापित की गई। आगे चलकर ये सब सुधार अन्य बड़े छोटे राज्यों में भी कार्यान्वित किए जाने लगे। ईसा की 20 वीं सदी के प्रारंभ के बाद इन सब सुधारों की गति और भी बढ़ गई।

अंग्रेज शासक अपने कुछ विशेष आयोजनों को इस प्रदेश में भी कार्यान्वित करने लगे जिससे भारत के अन्य प्रदेशों के साथ भी उसका निकट संपर्क और स्थायी संबंध स्थापित होने लगा तथा आर्थिक एकता बढ़ने लगी। बड़े-बड़े नगरों को मिलानेवाली सैकड़ों मील लंबी अनेकानेक सड़के बनने लगीं। रेलगाड़ियाँ चलने लगीं। सारे महत्वपूर्ण नगरों और कस्बों में डाक-तार घर खोले गए। सभी राज्यों में राहदारी वसूल करना बंद करवा दिया। अंग्रेजों द्वारा चलाए गए सिक्कों का सर्वत्र प्रचलन किया गया और विभिन्न राज्यों के निजी सिक्के बंद होते गए। उच्च शिक्षा का नियंत्रण विश्वविद्यालय द्वारा होने लगा।

19 वीं सदी के अंतिम युगों में अंग्रेजों के अधीन प्रांतों में राजनीतिक चेतना होने लगी थी। बंग भंग के बाद वहाँ स्वदेशी की लहर भी फैली। मालवा में शिक्षा की वृद्धि तथा आवागमन के साधनों के बढ़ने के फलस्वरूप इनका प्रभाव वहाँ भी पड़ने लगा, परंतु वह इंदौर, ग्वालियर और उज्जैन नगरो तथा वहाँ भी कुछ ही विशेष वर्गो तक सीमित रहा। महात्मा गांधी के राजनीतिक क्षेत्र में अवतीर्ण होने के बाद भी बहुत समय तक राजनीतिक हलचलें इसी प्रकार अति सीमित क्षेत्रों में ही चलती रहीं। कांग्रेस ने भी देशी राज्यों के मामलें में सीधे हस्तक्षेप करने की नीति अपनाई। परंतु सन्‌ 1930 ई. के सत्याग्रह आंदोलन के समय से कई राज्यों में राजनीतिक हलचलें प्रारंभ हुई जिनके फलस्वरूप तदनंतर वहाँ प्रजामंडलों का संगठन होने लगा। ग्वालियर राज्य में ऐसा संगठन 'सार्वजनिक सभा' कहलाया। 'अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद्' की शाखा के रूप में जब 'मध्यभारत देशी राज्य लोक परिषद्' की स्थापना की गई तब इस प्रदेश के सभी प्रजामंडल उससे संबद्ध हो गए। द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद यह परिषद् अधिक सक्रिय हुई और मध्यभारत राज्यनिर्माण संबंधी प्रयत्नों में इसने महत्वपूर्ण भाग लिया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद यह परिषद् अधिक सक्रिय हुई और मध्यभारत राज्यनिर्माण संबंधी प्रयत्नों में इसने महत्वपूर्ण भाग लिया। स्वाधीनताप्राप्ति के बाद वह भारतीय कांग्रेस में समाविष्ट हो गई।

प्रथम महायुद्ध के कुछ पहले से ही अंग्रेजी शासन भारतीय नरेशों के प्रति अपनी नीति बदलने लगा था। पहले जैसी रुखाई अब नहीं रही, प्रत्युत उनका सहयोग प्राप्त करने का भी प्रयत्न किया जाने लगा। सन्‌ 1921 ई. में सभी पूर्णाधिकार प्राप्त नरेशों का एक 'नरेंद्रमंडल' दिल्ली में स्थापित किया गया। राज्य शासनों में अधिकाधिक सुधार के लिये प्रयत्न होने लगे। यद्यपि सन्‌ 1921 ई. में ग्वालियर में 'मजलिस आम' की स्थापना की गई थी, इस प्रदेश में लोकतंत्रीय संस्थाओं का वस्तुत: प्रारंभ सन्‌ 1936 ई. में इंदौर में धारा सभा तथा सन्‌1939 ई. में ग्वालियर में 'प्रजासभा' और 'सामंत सभा', तथा सीतामाऊ में 'राज्य परिषद्‌ की स्थापना के साथ हुआ था। द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद इन संस्थाओं का समुचित विस्तार नहीं हो सका। तथापि सन्‌ 1948 ई. के प्रारंभ में ग्वालियर और इंदौर राज्यों में लोकप्रिय मंत्रिमंडल बन गए जो अपने अपने महाराजा की छत्रछाया में वहाँ शासन करने लगे।

सन्‌ 1930 ई. से भारत में संघराज्य की स्थापना के बारे में विचार होने लगा। अंत में तदर्थ इंग्लैड की संसद ने सन्‌ 1935 ई. का 'गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट' स्वीकृत किया। देशी राज्यों में भी उसे कार्यान्वित करने के लिये चर्चाएँ चल रही थीं कि द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ हो गया। छोटे छोटे राज्यों के समूहीकरण की भी आवश्यकता स्पष्ट होने लगी। महायुद्ध की समाप्ति के बाद परिस्थितियाँ बहुत जल्दी-जल्दी बदलती गईं। छोटे-छोटे राज्यों के समूहीकरण का उपयुक्त्त तरीका सोचा जाने लगा। स्वाधीन भारत का 'संविधान' बनाने के लिये दिसंबर, 1946 ई. में संविधान परिषद् का प्रथम अधिवेशन नई दिल्ली में प्रारंभ हुआ। तदनंतर अंग्रेजी शासन ने विभाजन के साथ ही भारत को स्वाधीनता देने का निर्णय किया। तब इस प्रदेश के सभी राज्य भारत के साथ संबद्ध हो गए। उनके प्रतिनिधि भी संविधान परिषद् में सम्मिलित हो चुके थे। यों 15 अगस्त, 1947 के दिन इस प्रदेश पर से भी अंग्रेजों का आधिपत्य समाप्त हो गया।

अंग्रेजों के भारत त्याग के साथ ही सेंट्रल इंडिया एजेंसी का रानीतिक संगठन भी समाप्त हो गया था। अत: स्वाधीन भारत का नया संविधान बनने तक के अंतरिम काल में इस प्रदेश के सभी राज्यों के साथ अत्यावश्यक संपर्क बनाए रखने के लिय भारत शासन ने इंदौर में रीजनल कमिश्नर (प्रादेशिक आयुक्त) की नियुक्ति की। भारत के उप-प्रधान मंत्री सरदार पटेल के निर्देशानुसार सन्‌ 1948 ई. के प्रारंभ में इस प्रदेश के विभिन्न राज्यों का एकीकरण करने के लिये यहाँ के सभी राजाओं तथा इस प्रदेश के प्रमुख रानीतिक नेताओं के साथ विचारविमर्श प्रारंभ हुआ। भोपाल के नवाब ने कुछ समय के लिये भोपाल को स्वतंत्र इकाई के रूप में रखने का निश्चय किया। अत: अब ग्वालियर और इंदौर के साथ इस प्रदेश के अन्य सब ही राज्यों का एकीकरण कर मध्य भारत राज्य के निर्माण का निर्णय अप्रैल 22, 1948 ई. के दिन किया गया। सभी राजाओं के वार्षिक निजी खर्च की रकमें तय कर दी गई, उनकी निजी संपत्ति को निर्धारित कर दिया और उनके परंपरागत समान तथा विशेषाधिकारों को मान्य कर लिया गया। 30 जून, 1948 ई. के दिन यहाँ के सभी राजाओं ने अपने अपने राज्याधिकार इस नवसंगठित 'मध्य भारत' राज्य को सौंप दिए। सिंधिया इस राज्य के प्रमुख बने। राज्य की विधान सभा संगठित की गई। राजनीतिक नेताओं का लोकप्रिय मंत्रिमंडल राज्य का शासन चलाने लगा। भोपाल के नवाब ने भी अप्रैल, 1949 ई. में अपने राज्याधिकार भारत शासन को सौंप दिए।

26 जनवरी, 1950 ई. के दिन भारत का संविधान इस प्रदेश में भी लागू हो गया और तब तदनुसार मध्य भारत और भोपाल राज्य भारतीय गणराज्य के अंतर्गत क्रमश: 'ख' और 'ग' श्रेणी के राज्य बन गए। सन्‌ 1952 ई. के प्रारंभ में वयस्क मताधिकार के आधार पर भारत में आम चुनाव कराए गए, जिनमें दोनो ही राज्यों की विधान सभाओं में कांग्रेस दल का अत्यधिक बहुमत प्राप्त हुआ। सन्‌ 1953 ई. के अंत में भारत शासन ने राज्यों के पुनर्गठन के लिये एक विशेष आयोग नियुक्त्त किया। उसके सुझावों को मान्य कर नवंबर, 1956 ई. में नए मध्य प्रदेश का संगठन किया गया जिसमें मध्य भारत और भोपाल राज्य विलीन कर दिए गए। नर्मदा घाटी का जो मालवा क्षेत्र कोई सवा सौ वर्षो से अंग्रेजों के अधीन तथा तत्कालीन मध्य प्रांत के अंतर्गत था, वह भी अब इस नए मध्य प्रदेश में सम्मिलित होकर उसकी पुनर्गठित इंदौर और भोपाल कमिश्नरियों में मिल गया। यों इस नए मध्य प्रदेश के अधिकतम भाग का पुन: एकीकरण हो गया है।

आधुनिक शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप ईसा की 20 वीं सदी के प्रारंभ से ही मालवा प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा तथा शासकीय कार्यवाही हिंदी के ही माध्यम से होती रही है, परंतु जनसाधारण आज भी बोलचाल में स्थानीय मालवी बोली का ही प्रयोग करते है जो हिंदी की ही एक बोली मानी जा सकती है। स्थानीय प्राकृत से निकली इस बोली पर राजस्थानी, गुजराती और मराठी भाषाओं का प्रभाव पड़ा है। पड़ोसी क्षेत्र की भाषा से प्रभावित होने के कारण उसका स्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ा बहुत बदल जाता है। मालवी बोली का विशेष लिखित साहित्य नहीं है, परंतु उसका लोक साहित्य विशेषतया लोकगीत प्रचुर मात्रा में आज भी प्राप्य तथा प्रचलित है।

इस प्रदेश ने आधुनिक युग में भी हिंदी साहित्य के उत्थान और विकास में विशेष योगदान दिया है। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य संमेलन के सन्‌ 1918 तथा 1935 ई. के ऐतिहासिक अधिवेशन महात्मा गांधी के सभापतित्व में इंदौर में हुए थे। यों दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार का महत्वपूर्ण निर्णय इसी मालव भूमि में लिया गया था।

सं. ग्रं.- दी हिस्ट्री ऐंड कल्चर ऑव दी इंडियन पीपुल, भारतीय विद्याभवन प्रकाशन, सभी खंड, दी केंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया, खंड 1, 3, 4,5, और 6; मध्यभारत का इतिहास, हरिहर निवास द्विवेदीकृत, खंड 1 और 4; हिस्ट्री ऑव मेडीवल इंडिया, ईश्वरीप्रसाद कृत, आईन-इ-अकबरी, अबुफ़ज़ल कृत, अंग्रेजी अनुवाद भाग 2, इंडिया ऑव औरंगजेब, युदनाथ सरकार कृत, मालवा में युगांतर, रघुवीरसिंह कृत, खंड 1-2, अठारह सौ सत्तावन, सुरेन्द्रनाथ सेन कृत, इंपीरियल गैजेटियर ऑव इंडिया, प्रविशियल सीरीज, सेट्रल इंडिया, सी. ई. ल्यूअर्ड कृत, इंडियन स्टेट्स ऐंड दी न्यू रेजीम, रघुबीरसिंह कृत, देशी-राज्य शासन, भगवानदास केला कृत, दी स्टोरी ऑव दी इंटीग्रेशन ऑव दी इंडियन स्टेट्स वी. पी. मेनन कृत, मध्य भारत जनपदीय अभिनंदन ग्रंथ, सत्यदेव विद्या-लंकार कृत। [रघुबीर सिंह]

Hindi Title


विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)




अन्य स्रोतों से




संदर्भ
1 -

2 -

बाहरी कड़ियाँ
1 -
2 -
3 -