मानव जीवन में मौसम का महत्व

Submitted by Hindi on Wed, 07/06/2011 - 13:14
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विज्ञान प्रसार

मौसम चाहे कितना ही सुखद क्यों न हो, यदि वह लगातार कई सप्ताहों तक एक-सा बना रहता है तब भी लोग उससे ऊबने लगते हैं। वे उसमें परिवर्तन चाहने लगते हैं। अगर परिवर्तन नहीं होता तब भी उनका मूड निराशाजनक और उदास हो जाता है। लंबे समय तक एक-सा रहने वाला मौसम शारीरिक दृष्टि से भी लाभदायी नहीं होता।

मौसम उन वस्तुओं में से है जिन्हें हमें सहन करना ही पड़ता है। हम कहीं भी रहते हों-पृथ्वी की सतह पर ही नहीं, उसके गर्भ में अथवा अंतरिक्ष में भी- मौसम के प्रभाव से बच नहीं सकते। अपने जन्म से लेकर मुत्यु तक हमें उसके साथ ही रहना पड़ता है। हम उसमें किंचित मात्र भी परिवर्तन नहीं कर सकते। हम उससे प्रेम करें अथवा घृणा उसे झेलने के अतिरिक्त हमारे पास अन्य कोई चारा नहीं होता। साथ ही हम उससे हमेशा प्रभावित होते रहते हैं। यदि सुबह उठते ही हमें आकाश स्वच्छ और नीला दिखाई देता है, उस समय न तो अधिक गर्मी होती है और न ही सर्दी, मंद बयार बह रही होती है तब हमारा मन अपने–आप प्रसन्न हो उठता है। हम अपनी परेशानियों को भूलने लगते हैं और शारीरिक व्याधियों की पीड़ा में कमी महसूस करने लगते हैं। इसके विपरीत अगर सुबह ही सुबह बहुत तेज बारिश हो रही हो, आंधी बह रही हो, बहुत ठंडी हवा चल रही हो या हवा एकदम बंद हो, तब अनायास ही हम छोटी-छोटी बातों पर भी झल्ला उठते हैं। हमें हर बात पर खीझ आने लगती है। किसी भी काम में हमारा मन नहीं लगता।

इसी प्रकार अगर दिन में तेज बारिश हो रही है अथवा तेज आंधी चल रही है तब हमें अपने कार्यों को किसी ‘बेहतर दिन’ के लिए टालना पड़ सकता है। अगर हमें किसी जरूरी काम की वजह से बाहर निकलना ही पड़ता है। तब पूरी तैयारी के बावजूद भी हमें काफी मुश्किल का सामना करना पड़ जाता है। इसी प्रकार ठंडी रात अथवा तेज गर्म दोपहरी में भी हम, जहां तक हो सकता है, घर से बाहर कदम नहीं रखना चाहते। इसके विपरीत सुहाने मौसम में, वसंती रात में जब न ज्यादा गर्मी होती है और न ही अधिक सर्दी, लोग काफी देर तक बाहर घूमते रहते हैं। सर्दी के दिनों में, सुनहरी धूप में, लोग घंटों पार्क में बैठे रहते हैं या टहलते रहते हैं। सुहाने मौसम में कवि और लेखक तो झूम ही उठते हैं- उनके मस्तिष्क में अनायास ही उद्गार पैदा होने लगते हैं और उनकी लेखनी चलने के लिए मचल उठती है- आम आदमी भी, जो उन जैसा भावुक और संवेदनशील नहीं होता, मस्त हो जाता है। आज तक कोई भी ऐसा कवि नहीं हुआ जिसने चिलचिलाती धूप में अथवा गर्म और उमस भरी शाम को या ठिठुरती सर्द रात में श्रृंगार रस की कविता लिखी हो। ये मौसम उसके अच्छे-भले मूड को भी एकदम चौपट कर देते हैं।

वर्षा ऋतु में, विशेष रूप से आषाढ़-श्रावण के महीनों में (जुलाई-अगस्त के महीनों में), जब वातावरण का ताप 250 सै. या अधिक हो जाता है और वायु में नमी की मात्रा काफी अधिक (आपेक्षिक आर्द्रता 50 प्रतिशत से अधिक) हो जाती है, तब हम बेचैनी महसूस करने लगते हैं। जैसे-जैसे ताप और आर्द्रता बढ़ती जाती है, बेचैन हो उठने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ने लगती है। ताप के 320 सैं. से ऊपर हो जाने पर तो शारीरिक व्याधियां भी आरम्भ हो जाती हैं।

मौसम हमारे शरीर, मन और भावनाओं, सबको, प्रभावित करता है। भीषण गर्मी के बाद जब एकाएक वर्षा होने लगती है तब वायुमंडल का ताप भी तेजी से गिर जाता है। ताप के इस अचानक गिर जाने के प्रभाव हमारे शरीर पर भी पड़ते हैं। कुछ लोग, विशेष रूप से बच्चे, बूढ़े और शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति, इस प्रभाव के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। वे जुकाम, बुखार, निमोनिया आदि के शिकार हो जाते हैं।

इसी प्रकार वर्षा ऋतु के बाद आश्विन और कार्तिक के महीनों में जब दिन में ताप काफी अधिक रहता है पर रात ठंडी होने लगती हैं, ज्वर फैलने हेतु लगभग ‘आदर्श स्थिति’ उत्पन्न हो जाती है।

सर्दी की ऋतु में जब हिमालयी क्षेत्र में जोरदार हिमपात हो जाता है उस समय “बर्फ पड़े शिमला में सर्दी दिल्ली में बढ़ जाए” कहावत के अनुसार न केवल दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्र में वरन् पूरे उत्तर भारत में शीत लहर आ जाती है और इस लहर के साथ ही आ जाती हैं ज्वर और निमोनिया की लहर।

ऐसा हमारे देश के विभिन्न भागों में ही नहीं वरन् संसार के अनेक क्षेत्रों में होता हैं। आमतौर से गर्म जलवायु वाले मध्य अमेरिकी पठार में ‘नॉर्थर’ (उत्तरी ठंडी पवन) के अचानक आ जाने से अनेक लोगों को घातक निमोनिया हो जाता है। उत्तर अमेरिका के समशीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र के आरंभिक वसंत का पल-पल परिवर्तनशील मौसम, लोगों का सिरदर्द बन जाता है।

गिरता हुआ वायुदाब और अपराधों में वृद्धि


यद्यपि मनुष्य हमेशा ही अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं पर पड़ने वाले मौसम के प्रभावों को महसूस करता रहा है पर इन प्रभावों का गहन अध्ययन आरंभ हुआ उन्नीसवीं सदी में। इसका कारण कदाचित् यह था कि उससे पहले ऐसे अध्ययन करने हेतु साधन उपलब्ध ही नहीं थे। उन्नीसवीं सदी तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी की विभिन्न शाखाओं की समुचित प्रगति हो चुकी थी और उपयुक्त साधन उपलब्ध हो गए थे। इसलिए उस समय मौसम के बदलते तेवरों और मानवीय कार्यकलापों के बीच घनिष्ठ संबंधों पर गहन, योजनाबद्ध, अध्ययन आरंभ हुए। इनमें विभिन्न मौसमों में स्कूल की कक्षाओं में विद्यार्थियों के व्यवहार से लेकर पुस्तकालयों में पाठकों द्वारा गल्प पढ़ने मे रुचि, युवक-युवतियों में कोर्टशिप और डेटिंग, मियां-बीबी की तकरार, लोगों के अनायास गुस्सा हो उठने की अथवा अपनी खीझ उतारने की प्रवृत्ति, आपसी मार-पीट, चोरी और डकैती की वारदातें तथा हत्या जैसे अनगिनत मानवीय कार्यकलापों का अवलोकन किया गया। उनसे जो परिणाम मिले वे अत्यंत सनसनीखेज और अनुमानों से कहीं परे थे। उनमें पाया गया कि बैरोमीटर (वायुदाबमापी) के माप के गिरने और लोगों में चिड़चिड़ापन बढ़ जाने के बीच सीधा संबंध होता है। जैसे-जैसे बैरोमीटर का माप (वायुदाब) कम होता जाता है लोगों का चिड़चिड़ापन बढ़ता जाता है। अमेरिका के डॉ. एल्सवर्थ हटिंगटन ने अपनी पुस्तक ‘मेनस्प्रिंग्ज़ ऑफ सिविलिजेशन’ में इन सब का बहुत रोचक वर्णन किया है। इस पुस्तक में उन्होंने ओ.ई. डेक्सटर के प्रयोगों का भी विस्तृत उल्लेख किया है। उनके अनुसार सूखे मौसम में स्कूल में बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए नम मौसम की तुलना में पांच गुना अधिक प्रयास करना पड़ता है। नम मौसम में बच्चे अधिक आज्ञाकारी और विनम्र रहते हैं। वायुमंडल में नमी की कमी होने के साथ-साथ उनमें अनुशासनहीनता बढ़ने लगती है।

अन्य ऋतुओं की तुलना में लोग सर्दियों में गंभीर विषयों की पुस्तकें अधिक पढ़ते हैं। सर्दियों में रजाई के अंदर घुस कर हल्की-फुल्की कहानियां पढ़ने का मन कम होता है।

मौसम और लोगों की हिंसक प्रवृत्तियों के बीच के संबंधों के बारे में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि कड़कड़ाती ठंड में अपराध, विशेष रूप से मार-पीट संबंधी अपराध, बहुत कम होते हैं। शायद हिंसक प्रवृत्ति के व्यक्ति भी उस समय घरों के अंदर ही रहना अधिक पसंद करते हैं। पर जैसे-जैसे मौसम गर्माता जाता है हिंसक प्रवृत्ति उग्र से उग्रतर होती जाती है। इसलिए जुलाई के महीने में मार-पीट लूट-खसोट, हत्या आदि की वारदातें अधिक होती हैं। इस बारे में हमारे देश के उदाहरण भी दिए जाते हैं। पश्चिमी समाजशास्त्रियों के अनुसार वर्ष 1919 से 1941 के बीच भारत में हुए सांप्रदायिक दंगों में से एक-तिहाई अप्रैल से अगस्त तक के महीनों में ही हुए थे। ये महीने हमारे देश में, विशेष रूप से देश के उत्तरी भाग में, भीषण गर्मी और वर्षा के महीने होते हैं। इन महीनों में भी जून में, जब मानसून का आगमन होने लगता है और वायुमंडल का ताप एकदम गिर जाता है दंगों में कुछ कमी देखी गई है। पर जुलाई मास में दंगों की वारदातें फिर बढ़ती पायी गई हैं।

मनुष्य के कार्यकलापों पर पड़ने वाले मौसम के प्रभाव के बारे में एक विचित्र बात और भी है। मौसम चाहे कितना ही सुखद क्यों न हो, यदि वह लगातार कई सप्ताहों तक एक-सा बना रहता है तब भी लोग उससे ऊबने लगते हैं। वे उसमें परिवर्तन चाहने लगते हैं। अगर परिवर्तन नहीं होता तब भी उनका मूड निराशाजनक और उदास हो जाता है।

लंबे समय तक एक-सा रहने वाला मौसम शारीरिक दृष्टि से भी लाभदायी नहीं होता। उसके फलस्वरूप हमारा शरीर मौसम-परिवर्तनों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है। उस पर उनके अपेक्षाकृत अधिक तीव्र प्रभाव पड़ने लगते हैं।

फ्रांस के दक्षिणी भाग में लगातार बहने वाली कोष्ण और नम पवन ‘वेन्त दु मिदि’ को लोग सिर दर्द, आमवातिक पीड़ा, मिर्गी और दमा के दौरों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इसी प्रकार टेंजिअर (अफ्रीका) के निवासी भूमध्यसागर से आने वाली “लवैंतर” पवन को भी सिरदर्द और दमनकारी भावनाओं के लिए उत्तरदायी समझते हैं। अफ्रीका के उत्तरी भागों के निवासियों का मत है कि सहारा रेगिस्तान से आने वाली गर्म, धूलभरी पवन, “सिरोक्को” लोगों को इस हद तक डिप्रैस कर देती है कि वे आत्महत्या करने पर भी उतारू हो जाते हैं।

यदि लंबे समय तक एक से बने रहने वाले मौसम को बहुत उबाऊ, निराशाजनक और अनेक शारीरिक व्याधियों का कारण समझा जाता है तब मौसम में होने वाले अचानक परिवर्तन भी अनेक ‘गड़बड़ियां’ उत्पन्न कर देते हैं- विशेष रूप से उस समय जब परिवर्तन चक्रवातीय तूफान के रूप में होता है। इस प्रकार के परिवर्तन तीव्र एपेंडिसाइटिस, विभिन्न प्रकार की श्वसन व्याधियों और आत्महत्या तक की वारदातों में बहुत वृद्धि कर देते हैं।

वे लोग भी, जो स्वयं चक्रवात से प्रभावित नहीं होते, उसके आने से पहले की परिस्थितियों- वायुदाब में एकाएक कमी हो जाने और नमी की मात्रा में वृद्धि हो जाने- से प्रभावित होने लगते हैं। उन्हें महसूस होने लगता है कि इन परिस्थितियों में उनकी सामान्य मानसिक दक्षता कम हो गयी है। वे कोई कठिन मानसिक कार्य नहीं कर पाते। साथ ही उनमें “निरर्थकता” की भावना घर करने लगती है। इन परिस्थितियों में बच्चे जिद्दी हो जाते हैं और वयस्क झगड़ालू। ऐसे समय पति-पत्नी की तकरारें भी बढ़ जाती हैं। पर जैसे-जैसे वायु दाब बढ़ने लगता है, हवा ठंडी होने लगती है और उसमें नमी की मात्रा घटने लगती है लोगों की मानसिक स्थिति में सुधार होने लगता है।

प्राकृतिक आपदाएं और मौसम


समझा जाता है कि प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली धन और जन की कुल हानि में से 60 प्रतिशत से भी अधिक मौसमी घटनाओं के कारण ही होती है। अगर भूस्खलनों और जंगल के अग्निकांडों से होने वाली हानि भी शामिल कर लें तब धन और जन की हानि का प्रतिशत बढ़कर 85 हो जाता है।

इस बारे में सबसे अधिक दुख की बात यह है कि प्राकृतिक आपदाओं से सबसे अधिक हानि विकासशील देशों में होती है। इन आपदाओं में काल के ग्रास बन जाने वाले व्यक्तियों में से नब्बे प्रतिशत विकासशील देशों के निवासी ही होते हैं। वर्ष 1991 में बांग्लादेश में आए एक चक्रवात ने 1,38,000 व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया था। इससे पहले 1942 में आए चक्रवात ने भी बंगाल में अत्यंत भीषण तबाही मचायी थी। वैसे 1977 में आंध्र तट पर आए और 1998 में कांडला (गुजरात) में आए चक्रवातों की तबाहियां अत्यंत लोमहर्षक थीं।

यदि चक्रवात और टोरनेडो के आतंक लोगों की नींद हराम कर देते हैं तो साल-दर-साल पड़ने वाले सूखों की याद आते ही लोग सिहर उठते हैं। रेगिस्तान में चलने वाली धूल भरी आंधियां, रूस जैसे ठंडे प्रदेशों में आने वाले बर्फीले अंधड़, कई दिनों तक लगातार होने वाली वर्षा, भीषण हिमपात आदि मौसम के ऐसे रूप हैं जिनसे मनुष्य सदा भय खाता रहा है।

इतिहास का निर्माता भी


मौसम केवल हमारे दैनिक कार्यकलापों को ही प्रभावित नहीं करता, वरन् वह हमारे भोजन, वस्त्र, रहन-सहन आदि के तरीकों और यहां तक कि हमारे स्वभाव को भी बदल देता है। ठंडे, बर्फीले प्रदेशों और गर्म क्षेत्रों के निवासियों के भोजन, वस्त्र और रहन-सहन के तरीकों में अत्यधिक अन्तर होता है। सूखे, मरुस्थल प्रदेश के लोग उस भांति नंगे बदन नहीं रह पाते जैसे भूमध्यरैखिक प्रदेशों के लोग, जहां वर्ष भर वर्षा होती है। कहा जाता है कि ब्रिटेन के निवासियों को अच्छा नाविक बनाने में वहां के उस मौसम का बहुत हाथ है जो उसके इर्द-गिर्द के सागरों को कड़ाके की ठंड में भी जमने नहीं देता। यह मौसम कोष्ण जलधारा, गल्फ स्ट्रीम, द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में लायी जाने वाली ऊष्मा के फलस्वरूप उत्पन्न होता है।

गर्म और सूखे राजस्थान के लोगों का हठीला स्वभाव और उनकी जुझारु प्रकृति रेगिस्तान के मौसम का ही परिणाम है। बंगाल और केरल के निवासियों की संगीत तथा अन्य ललित कलाओं में रुचि की पृष्ठभूमि में वहां के मौसम का स्पष्ट आभास है।

मौसम “इतिहास का निर्माता” भी रहा है और उसने अनेक युद्धों को निर्णायक रूप से प्रभावित भी किया है। रूस के जार का यह कथन कि “मेरे दो सेनापति, जनवरी और फरवरी, मुझे कभी धोखा नहीं देते” अतिश्योक्ति नहीं थी। वहां इन दो माहों में इतनी कड़ाके की ठंड पड़ती है कि अन्य ठंडे देशों के निवासी भी उसे सहन नहीं कर पाते। नेपोलियन, जिसे विश्व का सर्वाधिक कुशल सेनापति माना जाता था, अपनी विजय के उन्माद में जार का यह कथन भूल गया और रूस को पूर्ण रूप से पद्दलित करने की इच्छा से आगे बढ़ता ही गया। अन्त में उसे इन रूसी “सेनापतियों” का सामना करना पड़ा और परिणाम हुआ उसकी सेना की भीषण तबाही और शर्मनाक वापसी। इसी प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर की सेनाओं को भी रूसी सर्दी का शिकार होकर पीछे हटना पड़ा था और अंत में पराजय का मुंह देखना पड़ा था।

द्वितीय विश्वयुद्ध की ही एक और महत्वपूर्ण घटना को भी मौसम ने अत्यधिक प्रभावित किया था। वह थी मित्र सेनाओं का नॉरमंडी (फ्रांस के तट) पर अवतरण। वर्ष 1942 के बाद जर्मन सेनाओं को निरन्तर पीछे हटना पड़ रहा था और 1944 तक पीछे हटते-हटते वे यूरोप में ही वापस आ गयी थीं। उस समय मित्र राष्ट्रों ने “दूसरा” मोर्चा खोलने के उद्देश्य से नॉरमंडी में, जो उस समय तक जर्मनी के कब्जे में था, अपनी सेनाएं उतारने की योजना बनाई। वे मई, जून तथा जुलाई महीनों में किसी भी समय जब मौसम उपयुक्त हो और सागर में ऊंचे ज्वार व लहरे न उठ रही हों, इस योजना को कार्यान्वित करना चाहते थे। इसलिए मित्र राष्ट्रों के उच्च कमान ने मौसम विशेषज्ञों से सलाह मांगी। इसके लिए उन्होंने दो तारीखें सुझायीं- 5 जून और 20 जून। उच्च कमान ने 5 जून को चुना। पर उस दिन सब पूर्वानुमानों को झुठला कर तेज तूफान आ गया। इसलिए सेना उतारने के कार्य को अगले दिन, यानी 6 जून, के लिए स्थगित कर दिया गया। पर उस दिन भी न तो आकाश साफ हुआ और न ही सागर शांत। इधर मित्र राष्ट्रों के उतावले सैनिकों को और नहीं रोका जा सकता था इसलिए उस समय जब आकाश में घने बादल छाए हुए थे और सागर में ऊंची-ऊंची लहरे उठ रही थीं, मित्र सैनिक नॉरमंडी के तट पर उतर गए।

उधर जर्मन सैन्य अधिकारियों का यह अनुमान था कि ऐसे खराब मौसम में शत्रु सेनाएं नॉरमंडी के तट पर नहीं उतरेंगी। इसलिए वे मुकाबले के लिए तैयार नहीं थे और उनके सतर्क होने से पहले ही मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने उन पर धावा बोल दिया। अंततः जर्मन सेनाओं को पीछे हटना पड़ा और कुछ महीनों बाद उन्हें पूर्ण पराजय का भी मुंह देखना पड़ा। बाद में मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च सेनापति, आइजेनहावन ने अपनी विजय के लिए 6 जून 1944 के मौसम को “धन्यवाद” दिया। वैसे इस बारे में मजेदार बात यह भी है कि मौसम विशेषज्ञों द्वारा सुझायी गई दूसरी तारीख (20 जून, 1944) को भी इतना जोरदार तूफान आया जितना पिछले 20 वर्षों में कभी नहीं आया था। चीन और जापान में आने वाले चक्रवात “टाइफून” कहलाते हैं। ये हमारे देश में आने वाले चक्रवातों से कहीं अधिक विनाशकारी होते हैं। पर तेरहवीं शताब्दी के एक टाइफून ने जापान को गुलाम बनने से बचा लिया था। उस समय चीन में मंगोल बादशाह, कुबलई खां, का राज्य था। जापान को पद्दलित करने के इरादे से उसने उस पर आक्रमण कर दिया। अपने देश की रक्षा के लिए जापानी बहुत वीरता से लड़े और उन्होंने अपनी भूमि पर कुबलई खांन के सैनिकों को उतरने नहीं दिया। उसी समय एक भयानक टाइफून आ गया। उसने कुबलई खां के जंगी जहाजों को डुबोना शुरू कर दिया। अंत में कुबलई खां के सामने अपनी हार स्वीकार करके पीछे लौटने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा।

उसी समय से जापान में टाइफून को “कमीकाजे” (दैवी पवन) कहा जाने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध में स्वयं की आहुति देकर शत्रु के जहाजों को डुबो देने वाले जापानी पायलटों को भी “कमीकाजे” कहा जाता था। हमारे देश में भी ऐसे दृष्टांतों की कमी नहीं है जब मौसम ने युद्ध में निर्णायक भूमिका अदा की थी। शेरशाह ने हुमायूं को हराने में मौसम की भी भरपूर मदद ली थी। जब हुमायूं ने शेर खां (उस समय तक उसने शेरशाह की उपाधि ग्रहण नहीं की थी) के विद्रोह को दबाने के लिए बिहार पर आक्रमण किया तब शेर खां बंगाल की ओर भागता रहा। उसका पीछा करता हुआ हुमायूं भी बंगाल में जा पहुंचा। उस समय बंगाल में वर्षा आरंभ हो गई। गंगा तथा अन्य नदियों में भयंकर बाढ़ आ गई और दिल्ली वापस जाने के सब रास्ते बंद हो गए। पर हुमायूं निश्चिंत होकर वहां अड्डा जमाए रहा। अब शेर खां अपनी “मांद” से निकला और उसने हुमायूं की सेना पर जोरदार आक्रमण कर दिया। युद्ध में हुमायूं की सेना बुरी तरह पराजित हुई। स्वयं हुमायू भी अपनी जान बड़ी मुश्किल से बचा पाया। इतिहास साक्षी है कि वह गंगा में कूद पड़ा था और एक भिश्ती ने उसकी जान बचायी थी।

भीषण दुर्घटनाओं का कारण भी


सन् 1984 की 2 और 3 दिसंबर के बीच की रात में लगभग एक बजे एक अत्यंत विनाशकारी दुर्घटना घटी थी जिसने भारत में ही नहीं पूरे विश्व में तहलका मचा दिया था। उस रात भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के कारखाने से जहरीली गैंसें, फास्जीन और मेथिल आइसोसायनेट निकलने लगी थीं। वे इतनी विशाल मात्रा में निकल रही थीं कि कुछ क्षणों में ही आसपास की घनी आबादी में पूरी तरह छा गयीं। वे खिड़कियों और दरवाजों की झिरियों से घरों में घुसने लगीं और सोते हुए आदमियों का, बिना किसी पूर्व-चेतावनी के, संहार करने लगीं। दम घुटने के प्रथम अहसास के बाद जिन लोगों ने ताजी हवा के लिए घरों की खिड़कियों और दरवाजे खोले उन्होंने तो निश्चय ही मौत को निमंत्रण दे दिया। इससे ये घातक गैसें एकदम घरों में घुस आईं और उन्होंने बहुत शीघ्रता से मनुष्यों को काल के गाल में पहुंचाना आरंभ कर दिया।

अगली सुबह तक जहरीली गैसों का ‘भंडार’ समाप्त हो गया था और वे वायुमंडल में पूरी तरह विलीन हो चुकी थीं। उनकी सांद्रता इतनी क्षीण हो गई थी कि वे और अधिक हानि नहीं पहुंचा सकती थीं। पर उस समय तक वे लगभग 2500 व्यक्तियों को मृत्यु की गोद में सुला चुकी थीं और लाखों व्यक्तियों को जीवन भर के लिए अपंग बना चुकी थीं। फलस्वरूप हजारों व्यक्ति आज भी (दुर्घटना के लगभग 18 वर्ष बाद भी) शारीरिक व्याधियां झेल रहे हैं और अपनी पूरी जिंदगी झेलते रहेंगे।

उक्त दुर्घटना के बारे में, विशेष रूप से उसके विस्तार के बारे में, अनेक अनुमान लगाए गए हैं। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि अगर दुर्घटना की रात को वर्षा हो रही होती अथवा आंधी चल रही होती तब उसके दुष्परिणाम इतने भयंकर नहीं होते। वर्षा के फलस्वरूप घातक गैसें पानी में घुलकर अथवा उसके साथ बहकर शीघ्र ही धरती पर आ जातीं और वायुमंडल उनसे मुक्त हो जाता।

ऋणायनों में ऑक्सीजन के आयनों की संख्या काफी होती है और वे मनुष्य के लिए हितकारी होते हैं। धनायनों में कार्बन डाइऑक्साइड के आयन काफी मात्रा में होते हैं जो मनुष्य के लिए हानिकारक होते हैं। वायुमंडल में धनायनों की संख्या में वृद्धि करने वाले कारकों में धूम-धुंध, जीवाश्म ईंधनों का जलना, वातानुकलन उपकरणों का प्रचालन आदि शामिल हैं।

इसी प्रकार यदि उस रात आंधी चल रही होती तब निश्चय ही ये गैसें दूर-दूर तक फैल जातीं-यूनियन कार्बाइड के आस-पास के क्षेत्र में ही सांद्रित नहीं रहती। उस समय यद्यपि उनके प्रभाव कहीं बड़े क्षेत्र पर पड़ते पर वे इतने घातक नहीं होते जितने वास्तव में हुए। यह तो हुआ एक अनुमान कि मौसम किसी मानवीय दुर्घटना के दुष्परिणामों को किस प्रकार कम कर सकता था पर ऐसे भी दृष्टांतों की कमी नहीं है जब स्वयं मौसम ही दुर्घटनाओं का कारण बना है। ठंडे प्रदेशों में सर्दियों में होने वाले हिमपात और हर जगह छा जाने वाले कोहरे के फलस्वरूप सड़क और रेल दुर्घटनाएं होती ही रहती हैं। वहां इनके कारण अन्य प्रकार की दुर्घटनाएं भी होती हैं। अनेक बार ये दुर्घटनाएं भीषण रूप धारण कर लेती हैं। दिसम्बर 1952 में कोहरे की मोटी-मोटी परतों ने पूरे लंदन शहर को ढंक लिया था और लगातार चार दिनों तक ढंके रखा। अंत में जब कोहरा छटा तब तक लगभग 4000 व्यक्ति मर चुके थे अथवा मृत्यु के कगार पर पहुंच चुके थे।

लंदन अथवा किसी अन्य शहर के कोहरे से लगातार कई दिनों तक आच्छादित रहे आने की यह पहली घटना नहीं थी, पर इस बार कोहरे में सल्फर डाइऑक्साइड तथा अन्य विषैले पदार्थ भी मिल गए थे। इन्होंने लोगों के श्वसन तंत्र को घातक रूप से प्रभावित किया था।

हमारी देख सकने की क्षमता (दृश्यता) में स्वयं कुहरा तो बाधक बनता ही है पर जब उसमें मानव निर्मित धुआं भी मिल जाता है तब स्थिति और गंभीर हो जाती है। कोहरे और धुआं से बना “धूम-धुंध” (स्मोग) केवल दृश्यता को ही अपेक्षाकृत बहुत कम नहीं करता वरन् हमारे श्वसन तंत्र को भी कुप्रभावित करने लगता है। यदि किसी वजह से धूम-धुंध में कारखानों और मोटर वाहनों से निकलने वाले सल्फर डाइऑक्साइड, अमोनिया, हाइड्रोकार्बन, कार्बन डाइऑक्साइड, आदि जैसे उच्छिष्ट भी मिल जाते हैं तब स्थिति घातकता की हद तक पहुंच जाती है। दुर्भाग्यवश वायु प्रदूषण में वृद्धि होने के साथ ऐसा अनेक बार हो जाता है।

अचानक हो जाने वाले हिमपात भी अनेक दुर्घटनाओं का कारण बनते हैं। उसके कारण ठंडे प्रदेशों में रेल मार्ग और सड़क रुक जाती हैं। पर्वतों के नीचे स्थित सुरंगें बंद हो जाती हैं और पर्वतीय प्रदेशों में भूस्खलन होने लगते हैं। पर्वतीय प्रदेशों में होने वाली तेज वर्षा भी भूस्खलन आरंभ कर देती है। ये भूस्खलन कितने विनाशकारी हो सकते हैं यह बात पहाड़ी क्षेत्र के किसी निवासी से पूछिए। भूस्खलन-प्रभावित इलाकों में धन और जन की तत्काल हानि तो होती ही है, उसके परोक्ष प्रभाव, बाढ़ आदि के रूप में, सुदूर मैदानी इलाकों पर भी पड़ते हैं। भीषण वर्षा, हिमपात आदि के कारण हमारी अलकनंदा नदी (जो देव प्रयाग में भगीरथी के साथ मिलकर गंगा बनती है) के किनारे टूट-टूट कर अक्सर ही उसमें गिरते रहते हैं। अनेक बार किसी बड़ी चट्टान के नदी में गिर जाने से उसका मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इससे पानी का बहाव उस समय तक रुकता रहता है जब तक कृत्रिम झील नहीं बन जाती। परंतु उस समय तक पानी का बल भी बहुत अधिक हो जाता है। उसके समक्ष कृत्रिम झील के किनारे टिक नहीं पाते- टूट जाते हैं और पानी बहुत बड़ी मात्रा में और बहुत वेग से नीचे की ओर चल पड़ता है। इससे नदी के निचले भागों में भयंकर बाढ़ आ जाती है। अलकनंदा में इस प्रकार की बाढ़े आती ही रहती हैं।

रेगिस्तानों में आने वाले धूल भरे अंधड़ भी पहाड़ी प्रदेशों की एकाएक आ जाने वाली वर्षा से कम भयानक नहीं होते। वे लोगों के दैनिक कार्यकलापों में तो बाधक होते ही हैं सड़कों और रेल मार्गों को भी रेत की मोटी चादर से ढक देते हैं। वे कच्चे मकानों की छतें उड़ा देते हैं, बड़े-बड़े पेड़ों को धराशायी कर देते हैं तथा जन-धन को बहुत हानि पहुंचाते हैं।

तेज वर्षा, भीषण हिमपात, आंधी कुहरा आदि हानिकारक होते हैं पर चक्रवात और टारनेडो मौसम के अत्यंत विनाशकारी, रौद्र रूप हैं। उनमें अत्यंत विशाल मात्रा में ऊर्जा समावेशित होती है और उस ऊर्जा का “दुरुपयोग” करके वे जितनी विनाश लीला मचाते हैं, उतनी कोई अन्य प्राकृतिक कारक नहीं मचाता। वे कोष्ण, उष्ण कटिबंधीय सागरों पर, जहां वायु में बहुत अधिक नमी मौजूद होती है और वह गुप्त ऊष्मा (ऊर्जा) से भरपूर होती है अचानक निम्न दाब की स्थिति बन जाने के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। इनमें से अधिकांश सागर पर ही समाप्त हो जाते हैं पर कुछ तटीय प्रदेशों पर आ जाते हैं और अपना विनाशकारी तांडव नृत्य करने लगते हैं।

तूफान लाभदायक भी!


शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो तेज आंधी, तूफान या चक्रवात को पसंद करता हो- विशेष रूप से उस समय जब वह परीक्षा जैसे किसी गंभीर मानसिक कार्य में व्यस्त हो। ऐसे मौसम में जब कमरे से बाहर बहुत तेज हवाएं बह रही हों, मूसलाधार बारिश हो रही हो और पेड़ उखड़-उखड़ कर गिर रहे हों प्रश्न पत्र के उत्तर देना बहुत कठिन कार्य समझा जाता है। ऐसी परिस्थिति में यह आशा की जाती है कि अधिकांश परीक्षार्थी अपनी पूरी मानसिक क्षमता से प्रश्नों को हल नहीं कर पाएंगे और परीक्षा-परिणाम सामान्य से नीचे रहेगा। पर अनेक बार नतीजे इसके एकदम विपरीत पाए गए हैं।

काफी वर्ष पहले अमेरिका के न्यू इंग्लैंड इलाके में उक्त परिस्थितियों में ही एक परीक्षा हो रही थी। उस समय कमरे से बाहर लगभग 130 किमी. प्रति घंटे की गति से अंधड़ चल रहा था। आकाश काले बादलों से घिरा हुआ था। बादल बार-बार गरज रहे थे और रह-रह कर बिजली चमक रह थी। परीक्षा के परिणाम का सामान्य से नीचे रहने की पूरी उम्मीद थी परंतु वह आशा से कहीं अच्छा निकला। जहां 75 प्रतिशत परीक्षार्थियों के उत्तीर्ण होने की भी आशा नहीं थी वहां 96 प्रतिशत व्यक्ति उत्तीर्ण हो गए अर्थात् चक्रवात ने परीक्षार्थियों के लिए मानसिक “उत्तेजक” कार्य किया।

ऐसा अनेक अवसरों पर पाया गया है। तो क्या वायुमंडल के दाब में परिवर्तन हमारे सोचने की क्षमता और भावनाओं को भी प्रभावित कर देता है? इसका एकदम सही उत्तर किसी के भी पास नहीं है। पर कुछ वैज्ञानिकों ने इस संबंध में अपने मत प्रकट किए हैं। इनमें सबसे अधिक मान्य मत के अनुसार इसका कारण है वायुमंडल में ऋण आवेशित आयनों की अधिकता।

जैसा कि आप जानते हैं आयन ऐसे परमाणु या मूलक होते हैं जिन पर आवेश होते हैं। निश्चय ही आयन धन आवेशित हो सकते हैं अथवा ऋण आवेशित। वैज्ञानिकों ने पाया है कि वायुमंडल में धनायनों और ऋणायनों का अनुपात 5:4 होता है अर्थात् ऋण आवेशित आयनों की अपेक्षा धन आवेशित आयनों की संख्या ¼ गुनी अधिक होती है। आयनों का यह अनुपात हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।

ऋणायनों में ऑक्सीजन के आयनों की संख्या काफी होती है और वे मनुष्य के लिए हितकारी होते हैं। धनायनों में कार्बन डाइऑक्साइड के आयन काफी मात्रा में होते हैं जो मनुष्य के लिए हानिकारक होते हैं। वायुमंडल में धनायनों की संख्या में वृद्धि करने वाले कारकों में धूम-धुंध, जीवाश्म ईंधनों का जलना, वातानुकूलन उपकरणों का प्रचालन आदि शामिल हैं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार वायुमंडल में ऋणायनों की तुलना में धनायनों की अधिक मात्रा हमारे शरीर की अनेक क्रियाओं को मंद कर देती है। इससे सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है अगर वातावरण में ऋणायनों की मात्रा बढ़ा दी जाए तब हम अपेक्षाकृत अधिक स्फूर्ति से काम कर सकते हैं। इस निष्कर्ष की पुष्टि के लिए अनेक प्रयोग किए गए हैं। इन प्रयोगों में कुछ मनुष्यों को ऋणायनों के प्रवाह में रखा गया और बाद में उन्हें करने के लिए कुछ काम दिए गए। इससे पाया गया कि उनके देखने की क्षमता में वृद्धि हुई; उनका श्वसन तंत्र बेहतर तरीके से कार्य करने लगा और वे बिना थके अधिक मेहनत कर सके।

इस बारे में यह भी सुझाया गया है कि वायुमंडल में होने वाली कुछ घटनाएं स्वयं ही आयनों में “असंतुलन (ऋणायनों की तुलना में धनायनों की अधिकता) को दुरुस्त” करने का प्रयत्न करती हैं। उदाहरणार्थ तूफान आने के एकदम पहले वायुमंडल में धनायनों की मात्रा (कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा) बढ़ जाती है और तूफान के दौरान इसका उल्टा हो जाता है यानि ऋणायनों (ऑक्सीजन के आयनों) की मात्रा बढ़ने लगती है। वैसे अब तक वैज्ञानिक निश्चयपूर्वक यह नहीं बता पाए हैं कि मौसम के बदलते तेवरों के साथ हमारी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं में परिवर्तन क्यों होते हैं। यद्यपि अनेक वैज्ञानिक इस रहस्य का उद्घाटन करने में प्रयत्नरत हैं परंतु यह कार्य अत्यंत जटिल और दुरूह है। इसमें बहुत श्रम और समय लगेगा। इसलिए उत्तर अब भी परिकल्पना के रूप में ही दिया जाता है।

वास्तव में वैज्ञानिक अब भी मौसम की अनेक गतिविधियों से अनभिज्ञ हैं। वे नहीं जानते कि किसी स्थान के मौसम में एकाएक ऐसे परिवर्तन क्यों हो जाते हैं जिनका वे अपने संपूर्ण ज्ञान की मदद से भी पूर्वानुमान नहीं लगा पाते। अनेक बार वे यह नहीं समझ पाते कि किसी स्थान पर एकाएक आंधी या तूफान क्यों आ जाता है, या तेज चक्रवात एकाएक क्यों थम जाता है अथवा हर चार-पांच वर्ष बाद मानसून कमजोर क्यों पड़ जाता है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम मौसम के बारे में उपलब्ध जानकारियों का लेखा-जोखा लेने के प्रयत्न ही न करें। हम यह जानने के प्रयत्न न करें कि मौसम क्या है, उसको निर्धारित और नियंत्रित करने वाले कारकों के गुणधर्म क्या हैं? अकेले वे कैसे कार्य करते हैं और अन्य कारकों के साथ किस प्रकार अंतः क्रियाएं करते हैं, आदि- आदि। साथ ही हम अपने वरुणदूत, मानसून, से होने वाली वर्षा का पूर्वानुमान लगाने हेतु कौन से प्रयोग कर रहे हैं। साथ ही यह भी जानने की कोशिश न करें कि मौसम के पूर्वानुमान कैसे लगाए जाते हैं।