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सामयिक वार्ता, जुलाई 2013
महाराष्ट्र के इस साल के भयानक सूखे की तुलना 1972 से की गई है। लेकिन 1972 की तुलना में 2012 में बारिश की हालत बेहतर रही है। दरअसल गन्ने की खेती के अंधाधुंध प्रसार, बड़े बांधों पर गैर जरूरी जोर, संसाधनों की बर्बादी और पानी की उपेक्षा से कृत्रिम मानव-निर्मित संकट पैदा हुआ है। महाराष्ट्र इस वर्ष सबसे भयानक सूखे का सामना कर रहा है। केंद्रीय कृषी मंत्री शरद पवार और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान दोनों ने कहा है कि इस वर्ष का सूखा 1972 के मुकाबले ज्यादा भीषण हैं। 1972 के सूखे को अकाल की संज्ञा दी गई थी। इन राजनेताओं द्वारा इस वर्ष के सूखे की तुलना 1972 के सूखे से करना ऐसा आभास देने की कोशिश है कि 1972 के समान इस वर्ष का सूखा भी एक प्राकृतिक विपदा है।
अलबत्ता, यदि हम 17 सूखा प्रभावित जिलों (अहमदनगर, पुणे, शोलापुर, सतारा, सांगली, औरंगाबाद, जालना, बीड़, लातूर, उस्मानाबाद, नांदेड़, अकोला, नासिक, धुले, जलगांव, परभणी और बुलढाणा) में 1972 व 2012 में बारिश के आंकड़ों की तुलना सामान्य बारिश के पैटर्न से करें, तो एक अलग ही तस्वीर सामने आती है। बारिश के हिसाब से देखें तो इस वर्ष के सूखे को 1972 से बदतर नहीं कहा जा सकता।
इसके बावजूद यदि महाराष्ट्र का हालत खराब है तो इसके कई कारण हैं – महाराष्ट्र सरकार, महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरण (जिसकी स्थापना 2005 में विश्व बैंक के सहयोग से की गई थी) और केंद्र सरकार द्वारा अव्यावहारिक व गैर-जरूरी बड़े बांध बनाने के फैसले, गलत फसलों का चयन, गैर-प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को पानी दिया जाना, पानी की स्थानीय प्रणालियों की उपेक्षा तथा पानी का गैर-जवाबदेह प्रबंधन।
जरा 1972 व 2012 के बारिश के आंकड़ों पर नजर डालते हैं। जून 2012 में सामान्य से 50 प्रतिशत कम बारिश वाले जिले 8 (1972 में 3) थे, जुलाई में एक भी नहीं था (1972 में 9), अगस्त में 3 (1972 में 9) थे, और सितंबर में सिर्फ 1 (1972 में 6) तथा अक्टूबर में मात्र 2 (1972 में 17) थे।1972 व 2012 में सामान्य से 50 प्रतिशत कम बारिश वाले जिलों की संख्या की तुलना से एक बात और समझ में आती है कि पूरे वर्षाकाल में और जून को छोड़कर शेष समस्त महीनों में 1972 की बारिश 2012 से कहीं कम रही थी।
इन 17 जिलों की सामान्य बारिश, 1972 में वास्तविक बारिश और 2012 में वास्तविक बारिश के आंकड़ों को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि मात्र दो जिलों (सांगली और धुले) में 2012 की बारिश 1972 के मुकाबले उल्लेखनीय रूप से कम रही है। अन्य 2 जिलों (जालना और सातारा) में 2012 की बारिश 1972 की तुलना में थोड़ी ही कम रही। शेष 13 जिलों में 2012 की बारिश 1972 की अपेक्षा अधिक रही है।
1972 और 2012-13 के सूखों की तुलना करते हुए यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 1971 में भी बारिश कम हुई थी जबकि 2011 में महाराष्ट्र में बारिश सामान्य से अधिक हुई थी और अधिकांश बांध पूरे भर गए थे। 2011-12 के महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था, ‘2011 में प्रांत में वर्षा सामान्य से 102.3 प्रतिशत रही थी।’ राज्य कृषि आयुक्त ने 2011 में कहा था, ‘बारिश के अच्छे वितरण के चलते फसल अच्छी रही है। औसत से अधिक बारिश ने लगभग सारे बांधों को भर दिया है, जो रबी के मौसम में मददगार होगा।’
1972 के बाद 40 सालों में महाराष्ट्र ने बड़ी संख्या में बड़े बांध बनाए हैं। इनका घोषित मकसद तो सूखा प्रभावित इलाकों की मदद करना है। मसलन, औरंगाबाद में जायकवाड़ी परियोजना (1976 में पूर्ण हुई) है, बीड़ में माजलगांव परियोजना (जायकवाड़ी चरण 2), जालना में ऊपरी दूधना और निचली दूधना परियोजनाएं हैं। उस्मानाबाद कुछ हद तक उजनी बांध पर और कुछ हद तक कृष्णा घाटी की परियोजनाओं पर निर्भर है। शोलापुर पूरी तरह उजनी पर निर्भर है। सूखा प्रभावित जिलों के अधिकांश बांधों में फिलहाल उपयोगी भंडारण (लाइव स्टोरेज) शून्य या लगभग शून्य है। इन सारी परियोजनाओं और 2012 में भूजल उपयोग की बढ़ी हुई सुविधाओं की बदौलत 2012 में बारिश में कमी के असर को झेलने में मदद मिलनी चाहिए थी। वैसे भी 2012 में बारिश में कमी 1972 की अपेक्षा कम ही है।
मगर केंद्रीय कृषि मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का दावा है कि 2012 के हालात 1972 के मुकाबले बदतर हैं। तो इसके क्या कारण हैं?
एक तथ्य तो यह है कि महाराष्ट्र में जहां 1970-71 में गन्ना का रकबा 1,67,000 हेक्टेयर था, वहीं 2011-12 में यह छः गुना से ज्यादा बढ़कर 10,22,000 हेक्टेयर हो चुका था (महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण, 2012-13)। देश की सबसे ज्यादा चीनी मिलें (209) महाराष्ट्र में ही हैं। गन्ने की खेती में काफी पानी लगता है।
आंकड़े दर्शाते हैं कि कुछ सूखा प्रभावित जिले (शोलापुर, पुणे, अहमदनगर, सांगली, सातारा, उस्मानाबाद, बीड़, लातूर, नासिक, जालना, परभणी और औरंगाबाद) राज्य में चीनी उत्पादन के गढ़ हैं। महाराष्ट्र के कुल चीनी उत्पादन में से 79.5 प्रतिशत इन्हीं जिलों में होता है। महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण, 2012-13 के मुताबिक, “31 दिसंबर 2012 तक देश के चीनी उत्पादन में से महाराष्ट्र का हिस्सा 35.3 प्रतिशत था।” अर्थात महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित जिले देश की कुल चीनी में से 28 प्रतिशत का उत्पादन करते है।
मार्च 2013 में पूणे, शोलापुर, अहमदनगर और नासिक जैसे कुछ सूखा प्रभावित जिलों की यात्रा के दौरान हमने देखा कि सड़क के दोनों तरफ गन्ने के खेत खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इनमें से कई खेतों में गन्ना अगस्त 2012 के बाद लगाया गया था, जबकि उस समय तक पता चल चुका था कि उस वर्ष महाराष्ट्र सूखे का सामना करने वाला है। दरअसल, वसंतदादा पाटील चीनी संस्थान द्वारा प्रकाशित शुगर डायरी 2013 में बताया गया है कि शोलापुर जिले में 20 नए चीनी कारखानों को स्वीकृति दी गई है (अन्य लोगों ने हमें बताया कि यह आंकड़ा वास्तव में 31 है)। इनमें से 5 माधा में हैं जो शरद पवार का चुनाव क्षेत्र है।
शोलापुर सूखे के चलते गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है और माधा में स्थिति बदतर है। मगर राजनेताओं के स्वामित्व वाले सूगर मिल को धड़ल्ले से मंजूरियां मिल रही हैं। बिल्डर्स इन्हीं सूखा प्रभावित क्षेत्रों में स्विमिंग पूल युक्त भवनों के विज्ञापन कर रहे हैं। और तो और, महाराष्ट्र सरकार प्रतिदिन कृष्णा व भीमा घाटी से लाखों घन मीटर पानी कोंकण क्षेत्र को भेज रही हैं, जहां अच्छी वर्षा (औसत 300 से.मी.) होती है।
अधिकांश इलाकों में पानी की कमी का सामना गरीब लोग और मवेशी कर रहे हैं। लगता तो यह है कि जिन लोगों के पास पैसा और ताकत है, उन्हें जितना चाहें और जिस भी काम के लिए चाहें पानी मिल रहा है। कोई अचरज की बात नहीं कि एनडीटीवी ने 29 मार्च 2013 के अपने कार्यक्रम में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं पर आरोप लगाया था कि वे सूखे की परिस्थिति में पानी की चोरी कर रहे हैं।
हैरत की बात है कि 19 मार्च 2013 के बाद प्रकाशित महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण, 2012-13 में इस बात का जिक्र नहीं है कि राज्य सूखे की चपेट में है। सर्वेक्षण में बताया गया है कि 2012 के मानसून के दौरान महाराष्ट्र में बारिश की कमी 9.7 प्रतिशत रही और 10 जिलों तथा 136 तालुका में कमी 25 प्रतिशत की है। फिर भी सर्वेक्षण में कहा गया है कि 13 जिलों (औरंगाबाद, जालना, बीड़, उस्मानाबाद, नांदेड़, अहमदनगर, नासिक, जलगांव, पुणे, सातारा, सांगली, शोलापुर और बुलढाणा) में पानी की उपलब्धता की स्थिति चिंताजनक है।
महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरण और राज्य की अन्य संस्थाएं जायकवाड़ी और उजनी बांधों तथा इनके ऊपर के बांधों में जल स्तर का प्रबंधन करने में पूरी तरह असफल रही हैं। सूखा प्रभावित क्षेत्र में गन्ने का रकबा तथा गन्ना पिराई पर अंकुश लगाने या उजनी के बैकवॉटर क्षेत्र के आसपास गन्ने की फसल पर नियंत्रण के कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए। इसके अलावा नांदुर मध्यमेश्वर जैसे कई बांधों के ऊपर अपस्ट्रीम क्षेत्र या माजलगांव परियोजना के नहर तंत्र से उद्वहन को भी नियंत्रित नहीं किया गया। इसी प्रकार से सीधे नदियों में से पानी लेकर गन्ना उगाने के कार्यों पर भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया और न ही कई गैर-जरूरी पानी-खर्ची गतिविधियों पर रोक लगाई गई। दरअसल, सारे प्रयास सूखा प्रभावित इलाकों में गन्ने का रकबा बढ़ाने या अन्य पानी-खर्ची गतिविधियों को बढ़ावा देने की दिशा में हुए हैं।
1972 के भीषण सूखे के 40 साल बाद, सिंचाई परियोजनाओं पर अरबों रुपया खर्च करने और जल प्रबंधन के लिए अनगिनत संस्थाएं और प्राधिकरण स्थापित करने के बावजूद महाराष्ट्र इस साल बदतर स्थिति में है।
जहां 1972 के सूखे को प्राकृतिक विपदा कहा जा सकता है, वहीं 2012-13 का सूखा सरकार और राजनेताओं द्वारा अपनाई गई गलत जल प्रबंधन नीतियों का नतीजा है। इसमें सूखा प्रभावित इलाकों के लिए अनुपयुक्त निहायत पानी-खर्ची फसल चक्र शामिल है। इसके अलावा शीर्ष से संचालित संस्थाएं भी जिम्मेदार हैं जिनमें स्थानीय भागीदारी और पारदर्शिता का अभाव है। संवेदनशील आपदा प्रबंधन प्रणाली तथा बदलती जलवायु में जल प्रबंधन के एक दूरगामी नजरिए का भी अभाव है और भ्रष्टाचार तो है ही।
लेखक द्वय साउथ एशियन नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल से जुड़े हैं। अंग्रेजी से रूपांतर सुशील जोशी ने किया है।
पताः डेम्स, रिवर्स एंड पीपुल, 86-डी, एडी ब्लॉक, शालीमार बाग, दिल्ली-110088
फोनः 011-27484654, ht.sandrp@gmail.com
अलबत्ता, यदि हम 17 सूखा प्रभावित जिलों (अहमदनगर, पुणे, शोलापुर, सतारा, सांगली, औरंगाबाद, जालना, बीड़, लातूर, उस्मानाबाद, नांदेड़, अकोला, नासिक, धुले, जलगांव, परभणी और बुलढाणा) में 1972 व 2012 में बारिश के आंकड़ों की तुलना सामान्य बारिश के पैटर्न से करें, तो एक अलग ही तस्वीर सामने आती है। बारिश के हिसाब से देखें तो इस वर्ष के सूखे को 1972 से बदतर नहीं कहा जा सकता।
इसके बावजूद यदि महाराष्ट्र का हालत खराब है तो इसके कई कारण हैं – महाराष्ट्र सरकार, महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरण (जिसकी स्थापना 2005 में विश्व बैंक के सहयोग से की गई थी) और केंद्र सरकार द्वारा अव्यावहारिक व गैर-जरूरी बड़े बांध बनाने के फैसले, गलत फसलों का चयन, गैर-प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को पानी दिया जाना, पानी की स्थानीय प्रणालियों की उपेक्षा तथा पानी का गैर-जवाबदेह प्रबंधन।
जरा 1972 व 2012 के बारिश के आंकड़ों पर नजर डालते हैं। जून 2012 में सामान्य से 50 प्रतिशत कम बारिश वाले जिले 8 (1972 में 3) थे, जुलाई में एक भी नहीं था (1972 में 9), अगस्त में 3 (1972 में 9) थे, और सितंबर में सिर्फ 1 (1972 में 6) तथा अक्टूबर में मात्र 2 (1972 में 17) थे।1972 व 2012 में सामान्य से 50 प्रतिशत कम बारिश वाले जिलों की संख्या की तुलना से एक बात और समझ में आती है कि पूरे वर्षाकाल में और जून को छोड़कर शेष समस्त महीनों में 1972 की बारिश 2012 से कहीं कम रही थी।
इन 17 जिलों की सामान्य बारिश, 1972 में वास्तविक बारिश और 2012 में वास्तविक बारिश के आंकड़ों को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि मात्र दो जिलों (सांगली और धुले) में 2012 की बारिश 1972 के मुकाबले उल्लेखनीय रूप से कम रही है। अन्य 2 जिलों (जालना और सातारा) में 2012 की बारिश 1972 की तुलना में थोड़ी ही कम रही। शेष 13 जिलों में 2012 की बारिश 1972 की अपेक्षा अधिक रही है।
1972 और 2012-13 के सूखों की तुलना करते हुए यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 1971 में भी बारिश कम हुई थी जबकि 2011 में महाराष्ट्र में बारिश सामान्य से अधिक हुई थी और अधिकांश बांध पूरे भर गए थे। 2011-12 के महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था, ‘2011 में प्रांत में वर्षा सामान्य से 102.3 प्रतिशत रही थी।’ राज्य कृषि आयुक्त ने 2011 में कहा था, ‘बारिश के अच्छे वितरण के चलते फसल अच्छी रही है। औसत से अधिक बारिश ने लगभग सारे बांधों को भर दिया है, जो रबी के मौसम में मददगार होगा।’
1972 के बाद 40 सालों में महाराष्ट्र ने बड़ी संख्या में बड़े बांध बनाए हैं। इनका घोषित मकसद तो सूखा प्रभावित इलाकों की मदद करना है। मसलन, औरंगाबाद में जायकवाड़ी परियोजना (1976 में पूर्ण हुई) है, बीड़ में माजलगांव परियोजना (जायकवाड़ी चरण 2), जालना में ऊपरी दूधना और निचली दूधना परियोजनाएं हैं। उस्मानाबाद कुछ हद तक उजनी बांध पर और कुछ हद तक कृष्णा घाटी की परियोजनाओं पर निर्भर है। शोलापुर पूरी तरह उजनी पर निर्भर है। सूखा प्रभावित जिलों के अधिकांश बांधों में फिलहाल उपयोगी भंडारण (लाइव स्टोरेज) शून्य या लगभग शून्य है। इन सारी परियोजनाओं और 2012 में भूजल उपयोग की बढ़ी हुई सुविधाओं की बदौलत 2012 में बारिश में कमी के असर को झेलने में मदद मिलनी चाहिए थी। वैसे भी 2012 में बारिश में कमी 1972 की अपेक्षा कम ही है।
मगर केंद्रीय कृषि मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का दावा है कि 2012 के हालात 1972 के मुकाबले बदतर हैं। तो इसके क्या कारण हैं?
मानव-निर्मित सूखा
एक तथ्य तो यह है कि महाराष्ट्र में जहां 1970-71 में गन्ना का रकबा 1,67,000 हेक्टेयर था, वहीं 2011-12 में यह छः गुना से ज्यादा बढ़कर 10,22,000 हेक्टेयर हो चुका था (महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण, 2012-13)। देश की सबसे ज्यादा चीनी मिलें (209) महाराष्ट्र में ही हैं। गन्ने की खेती में काफी पानी लगता है।
आंकड़े दर्शाते हैं कि कुछ सूखा प्रभावित जिले (शोलापुर, पुणे, अहमदनगर, सांगली, सातारा, उस्मानाबाद, बीड़, लातूर, नासिक, जालना, परभणी और औरंगाबाद) राज्य में चीनी उत्पादन के गढ़ हैं। महाराष्ट्र के कुल चीनी उत्पादन में से 79.5 प्रतिशत इन्हीं जिलों में होता है। महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण, 2012-13 के मुताबिक, “31 दिसंबर 2012 तक देश के चीनी उत्पादन में से महाराष्ट्र का हिस्सा 35.3 प्रतिशत था।” अर्थात महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित जिले देश की कुल चीनी में से 28 प्रतिशत का उत्पादन करते है।
मार्च 2013 में पूणे, शोलापुर, अहमदनगर और नासिक जैसे कुछ सूखा प्रभावित जिलों की यात्रा के दौरान हमने देखा कि सड़क के दोनों तरफ गन्ने के खेत खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इनमें से कई खेतों में गन्ना अगस्त 2012 के बाद लगाया गया था, जबकि उस समय तक पता चल चुका था कि उस वर्ष महाराष्ट्र सूखे का सामना करने वाला है। दरअसल, वसंतदादा पाटील चीनी संस्थान द्वारा प्रकाशित शुगर डायरी 2013 में बताया गया है कि शोलापुर जिले में 20 नए चीनी कारखानों को स्वीकृति दी गई है (अन्य लोगों ने हमें बताया कि यह आंकड़ा वास्तव में 31 है)। इनमें से 5 माधा में हैं जो शरद पवार का चुनाव क्षेत्र है।
शोलापुर सूखे के चलते गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है और माधा में स्थिति बदतर है। मगर राजनेताओं के स्वामित्व वाले सूगर मिल को धड़ल्ले से मंजूरियां मिल रही हैं। बिल्डर्स इन्हीं सूखा प्रभावित क्षेत्रों में स्विमिंग पूल युक्त भवनों के विज्ञापन कर रहे हैं। और तो और, महाराष्ट्र सरकार प्रतिदिन कृष्णा व भीमा घाटी से लाखों घन मीटर पानी कोंकण क्षेत्र को भेज रही हैं, जहां अच्छी वर्षा (औसत 300 से.मी.) होती है।
अधिकांश इलाकों में पानी की कमी का सामना गरीब लोग और मवेशी कर रहे हैं। लगता तो यह है कि जिन लोगों के पास पैसा और ताकत है, उन्हें जितना चाहें और जिस भी काम के लिए चाहें पानी मिल रहा है। कोई अचरज की बात नहीं कि एनडीटीवी ने 29 मार्च 2013 के अपने कार्यक्रम में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं पर आरोप लगाया था कि वे सूखे की परिस्थिति में पानी की चोरी कर रहे हैं।
हैरत की बात है कि 19 मार्च 2013 के बाद प्रकाशित महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण, 2012-13 में इस बात का जिक्र नहीं है कि राज्य सूखे की चपेट में है। सर्वेक्षण में बताया गया है कि 2012 के मानसून के दौरान महाराष्ट्र में बारिश की कमी 9.7 प्रतिशत रही और 10 जिलों तथा 136 तालुका में कमी 25 प्रतिशत की है। फिर भी सर्वेक्षण में कहा गया है कि 13 जिलों (औरंगाबाद, जालना, बीड़, उस्मानाबाद, नांदेड़, अहमदनगर, नासिक, जलगांव, पुणे, सातारा, सांगली, शोलापुर और बुलढाणा) में पानी की उपलब्धता की स्थिति चिंताजनक है।
निष्कर्ष
महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरण और राज्य की अन्य संस्थाएं जायकवाड़ी और उजनी बांधों तथा इनके ऊपर के बांधों में जल स्तर का प्रबंधन करने में पूरी तरह असफल रही हैं। सूखा प्रभावित क्षेत्र में गन्ने का रकबा तथा गन्ना पिराई पर अंकुश लगाने या उजनी के बैकवॉटर क्षेत्र के आसपास गन्ने की फसल पर नियंत्रण के कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए। इसके अलावा नांदुर मध्यमेश्वर जैसे कई बांधों के ऊपर अपस्ट्रीम क्षेत्र या माजलगांव परियोजना के नहर तंत्र से उद्वहन को भी नियंत्रित नहीं किया गया। इसी प्रकार से सीधे नदियों में से पानी लेकर गन्ना उगाने के कार्यों पर भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया और न ही कई गैर-जरूरी पानी-खर्ची गतिविधियों पर रोक लगाई गई। दरअसल, सारे प्रयास सूखा प्रभावित इलाकों में गन्ने का रकबा बढ़ाने या अन्य पानी-खर्ची गतिविधियों को बढ़ावा देने की दिशा में हुए हैं।
1972 के भीषण सूखे के 40 साल बाद, सिंचाई परियोजनाओं पर अरबों रुपया खर्च करने और जल प्रबंधन के लिए अनगिनत संस्थाएं और प्राधिकरण स्थापित करने के बावजूद महाराष्ट्र इस साल बदतर स्थिति में है।
जहां 1972 के सूखे को प्राकृतिक विपदा कहा जा सकता है, वहीं 2012-13 का सूखा सरकार और राजनेताओं द्वारा अपनाई गई गलत जल प्रबंधन नीतियों का नतीजा है। इसमें सूखा प्रभावित इलाकों के लिए अनुपयुक्त निहायत पानी-खर्ची फसल चक्र शामिल है। इसके अलावा शीर्ष से संचालित संस्थाएं भी जिम्मेदार हैं जिनमें स्थानीय भागीदारी और पारदर्शिता का अभाव है। संवेदनशील आपदा प्रबंधन प्रणाली तथा बदलती जलवायु में जल प्रबंधन के एक दूरगामी नजरिए का भी अभाव है और भ्रष्टाचार तो है ही।
लेखक द्वय साउथ एशियन नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल से जुड़े हैं। अंग्रेजी से रूपांतर सुशील जोशी ने किया है।
पताः डेम्स, रिवर्स एंड पीपुल, 86-डी, एडी ब्लॉक, शालीमार बाग, दिल्ली-110088
फोनः 011-27484654, ht.sandrp@gmail.com