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नेशनल दुनिया, 29 अप्रैल 2013
भारत तीव्र गति से उर्जा अधिसंरचना निर्माण की राह में मजबूत चुनौतियों का सामना कर रहा है। खासकर हाल के वर्षो में ऊर्जा और बिजली संबंधी जरूरतें बेहद तेज गति से बढ़ी हैं और इस प्रवृत्ति के भविष्य में जारी रहने की पूरी गुंजाईश है। वर्तमान में भारत के पास कुल संस्थापित क्षमता 211 गीगावाट की है। उम्मीद है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के अंत तक भारत की उच्चतम मांग 335 गीगावाट तक पहुंच जाएगी। इसके जवाब में भारत को अपनी कुल संस्थापित क्षमता को करीब 415-440 गीगावाट तक पहुंचाना होगा, तभी वह इस मांग को पूरा कर पाएगा।
इसका मतलब यह होगा कि अगले छह सालों में भारत को अब अपनी कुल संस्थापित क्षमता को पिछले 60 सालों में तैयार हुई क्षमता के दोगुना के करीब स्थिति को प्राप्त करना होगा। इसे हासिल करने के लिए अभी निर्माण में लग रही गति को पांच गुणा तक बढ़ाना होगा। इस चुनौती को इस रोशनी में भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि पहली पंचवर्षीय योजना से लेकर अब तक क्षमता विस्तार लक्ष्यों में लगातार कम उपलब्धि हासिल हुई है।
कुलांचे मारते ऊर्जा रूपी रथ ने पहले ही भारत की जीवाश्म ईंधन आपूर्ति को सोख लिया है और अब यह कोयला खदानों के जरिए देश के बचे जंगलों के दोहन की ओर इसे धकेल रहा है। इससे कई समस्याएं से नाजुक वन्यजीवन परिवेश पर मंडराता खतरा और वनों पर निर्भर स्थानीय समुदायों के अपनी मातृभूमि से विस्थापन आदि पैदा हो रही है।
इसके साथ ही बिजली उत्पादन के लिए जरूरी सिंचाई व जलाशय के लिए नदियों के प्रवाह को मोड़ने से जल संकट भी गहरा रहा है। निश्चय ही यह भारत के लिए बड़ी चुनौती है कि वह अपने सामाजिक व वातावरणीय न्याय के सिद्धांत पर कोई समझौता किए बगैर ऊर्जा की बढ़ती मांग पूरा करते हुए उच्च आर्थिक विकास दर सुनिश्चित करे।
भारत का ईंधन आयात घाटा पिछले कुछ सालों में काफी बढ़ता गया है, जिससे पहले से खतरनाक स्तर को छूता देश का वित्तीय घाटा और गहरा गया है। इसने देश की ऊर्जा सुरक्षा को गंभीर खतरे में डाल दिया है। आने वाले दिनों में कोयला ही ऊर्जा उत्पादन का प्रधान स्रोत होने वाला है। बावजूद इस तथ्य के कि भारत दुनिया के कुल कोयला का करीब दस प्रतिशत भंडार रखता है, वर्ष 2009 में कोयला का आयात शून्य से बढ़कर बीते वित्तीय वर्ष में 50 मिलियन टन हो गया। अभी हो रहे इस्तेमाल के स्तर पर भारत का कोयला भंडार अगले 45 सालों में खत्म होने का अनुमान है। एशिया में कोयले की बढ़ती मांग और इसके वैश्विक मूल्य के बढ़ते जाने से भारत के ऊर्जा क्षेत्र पर भारी दबाव पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का आकलन है कि कोयला में नाममात्र की मूल्य वृद्धि अगले दो दशक में तिगुने स्तर तक पहुंच जाएगी। कोयला, गैस और तेल के मूल्यों ने हालिया वर्षों में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं और यह प्रवृत्ति आगे भी कायम रहेगी। चूंकि भारत अपने कच्चे तेल की ज़रूरतों का 75 से 0 फीसद हिस्सा विदेश से आयात करता है, ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में आई उथल-पुथल की कमज़ोरी से भारत ऊर्जा सुरक्षा की नीति खतरे में रहती है।
जलवायु परिवर्तन का महाखतरा विश्व 21वीं सदी की शुरुआत से ही सबसे महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में सामना कर रहा है। हालांकि भारत के लिए जलवायु परिवर्तन जैसी परिघटना का प्रभाव खुद को महज पर्यावरणीय दायरे तक सीमित नहीं रखता बल्कि वह इसकी सामाजिक व आर्थिक स्थिरता, इसके प्राकृतिक संसाधनों और गरीब व हाशिये पर पड़े लोगों की आजीविका को विभिन्न तरीके से चोट पहुंचाने का माद्दा रखता है। जलवायु परिवर्तन के भयावह प्रभावों को रोकने के लिए वैश्विक तापमान वृद्धि को हर हालत में 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। यह अब भी संभव है, पर समय तेजी से सरकता जा रहा है। इसे इसकी सीमा में बांधे रखने के लिए वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 21वीं सदी के मध्य तक शून्य के करीब लाने की भरपूर कोशिश करनी होगी।
भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में 2005 के मानक पर वर्ष 2020 तक 20 से 25 फीसद ग्रीनहाउस गैसें कम करने का वादा किया है और यह वचन दिया है कि उसकी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों के स्तर को पार नहीं करेगी।
वर्तमान में भारत कार्बन उत्सर्जन के मामले में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश है, इसलिए अगर यह पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर अपनी पहले जैसी निर्भरता बनाए रखता है तो उत्सर्जन दर और बढ़ेगी।
इसका मतलब यह होगा कि अगले छह सालों में भारत को अब अपनी कुल संस्थापित क्षमता को पिछले 60 सालों में तैयार हुई क्षमता के दोगुना के करीब स्थिति को प्राप्त करना होगा। इसे हासिल करने के लिए अभी निर्माण में लग रही गति को पांच गुणा तक बढ़ाना होगा। इस चुनौती को इस रोशनी में भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि पहली पंचवर्षीय योजना से लेकर अब तक क्षमता विस्तार लक्ष्यों में लगातार कम उपलब्धि हासिल हुई है।
जीवाश्म ईंधन की दुविधा
कुलांचे मारते ऊर्जा रूपी रथ ने पहले ही भारत की जीवाश्म ईंधन आपूर्ति को सोख लिया है और अब यह कोयला खदानों के जरिए देश के बचे जंगलों के दोहन की ओर इसे धकेल रहा है। इससे कई समस्याएं से नाजुक वन्यजीवन परिवेश पर मंडराता खतरा और वनों पर निर्भर स्थानीय समुदायों के अपनी मातृभूमि से विस्थापन आदि पैदा हो रही है।
इसके साथ ही बिजली उत्पादन के लिए जरूरी सिंचाई व जलाशय के लिए नदियों के प्रवाह को मोड़ने से जल संकट भी गहरा रहा है। निश्चय ही यह भारत के लिए बड़ी चुनौती है कि वह अपने सामाजिक व वातावरणीय न्याय के सिद्धांत पर कोई समझौता किए बगैर ऊर्जा की बढ़ती मांग पूरा करते हुए उच्च आर्थिक विकास दर सुनिश्चित करे।
ऊर्जा सुरक्षा को गंभीर खतरा
भारत का ईंधन आयात घाटा पिछले कुछ सालों में काफी बढ़ता गया है, जिससे पहले से खतरनाक स्तर को छूता देश का वित्तीय घाटा और गहरा गया है। इसने देश की ऊर्जा सुरक्षा को गंभीर खतरे में डाल दिया है। आने वाले दिनों में कोयला ही ऊर्जा उत्पादन का प्रधान स्रोत होने वाला है। बावजूद इस तथ्य के कि भारत दुनिया के कुल कोयला का करीब दस प्रतिशत भंडार रखता है, वर्ष 2009 में कोयला का आयात शून्य से बढ़कर बीते वित्तीय वर्ष में 50 मिलियन टन हो गया। अभी हो रहे इस्तेमाल के स्तर पर भारत का कोयला भंडार अगले 45 सालों में खत्म होने का अनुमान है। एशिया में कोयले की बढ़ती मांग और इसके वैश्विक मूल्य के बढ़ते जाने से भारत के ऊर्जा क्षेत्र पर भारी दबाव पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का आकलन है कि कोयला में नाममात्र की मूल्य वृद्धि अगले दो दशक में तिगुने स्तर तक पहुंच जाएगी। कोयला, गैस और तेल के मूल्यों ने हालिया वर्षों में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं और यह प्रवृत्ति आगे भी कायम रहेगी। चूंकि भारत अपने कच्चे तेल की ज़रूरतों का 75 से 0 फीसद हिस्सा विदेश से आयात करता है, ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में आई उथल-पुथल की कमज़ोरी से भारत ऊर्जा सुरक्षा की नीति खतरे में रहती है।
ग्रीनहाउस गैस और भारत
जलवायु परिवर्तन का महाखतरा विश्व 21वीं सदी की शुरुआत से ही सबसे महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में सामना कर रहा है। हालांकि भारत के लिए जलवायु परिवर्तन जैसी परिघटना का प्रभाव खुद को महज पर्यावरणीय दायरे तक सीमित नहीं रखता बल्कि वह इसकी सामाजिक व आर्थिक स्थिरता, इसके प्राकृतिक संसाधनों और गरीब व हाशिये पर पड़े लोगों की आजीविका को विभिन्न तरीके से चोट पहुंचाने का माद्दा रखता है। जलवायु परिवर्तन के भयावह प्रभावों को रोकने के लिए वैश्विक तापमान वृद्धि को हर हालत में 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। यह अब भी संभव है, पर समय तेजी से सरकता जा रहा है। इसे इसकी सीमा में बांधे रखने के लिए वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 21वीं सदी के मध्य तक शून्य के करीब लाने की भरपूर कोशिश करनी होगी।
भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में 2005 के मानक पर वर्ष 2020 तक 20 से 25 फीसद ग्रीनहाउस गैसें कम करने का वादा किया है और यह वचन दिया है कि उसकी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों के स्तर को पार नहीं करेगी।
वर्तमान में भारत कार्बन उत्सर्जन के मामले में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश है, इसलिए अगर यह पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर अपनी पहले जैसी निर्भरता बनाए रखता है तो उत्सर्जन दर और बढ़ेगी।