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अश्मिका, जून 2015
मौसम परिवर्तन एवं वैश्विक तापमान वृद्धि वर्तमान पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य में मानव सभ्यता हेतु गम्भीर चिन्ता का विषय बन कर उभर रहे हैं। वैज्ञानिक एवं गैर वैज्ञानिक वर्ग जलवायु परिवर्तन के सभ्भावित कारणों, उनसे होने वाली समस्याओं एवं उनसे बचने व क्षति कम करने के उपायों को ढूंढने में लगा है। विश्व के अधिकांश संस्थानों में हो रहे शोध कार्य वर्तमान जलवायु परिवर्तन व तापमान वृद्धि को मानवीय कार्यकलापों का परिणाम मान रहे हैं किन्तु लगभग 5 अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी के अस्तित्व से लेकर सम्पूर्ण भू-गर्भीय समय मापक्रम पर यदि नजर दौड़ाई जाए तो स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन का प्राकृतिक चक्र इस पृथ्वी पर मानव के अवतरण के पूर्व से ही अनवरत चलता आ रहा है। मानव विज्ञान के अनुसार मानव का पृथ्वी पर उद्भव पाषाण काल के दौरान लगभग 25 लाख वर्ष पूर्वमानवी पूर्वज के रूप में हुआ था एवं लगभग 20,000 वर्ष पूर्व ही मानव दुनिया के विभिन्न भागों में पहुँच पाया था। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि आदि मानव लगभग 2 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका महाद्वीप में पैदा हुआ। जबकि विश्व की पहली मानव सभ्यता के अवशेष दक्षिण इराक के सुमेर नामक स्थान पर ईसा से 4000-3000 वर्ष पूर्व के चिन्हित किये गये हैं।
विश्व के वैज्ञानिक व चिन्तक मानते हैं कि इंसान ने प्रकृति में अधिकांश हस्तक्षेप वर्ष 1760-1840 की औद्योगिक क्रान्ति के दौरान उत्पन्न प्रदूषण व अवैज्ञानिक कार्यकलापों द्वारा किया है इस सर्वाधिक हस्तक्षेप की अवधि का इतिहास भी वर्तमान से मात्र 254 वर्ष पुराना ही है। वैज्ञानिक परीक्षणों से स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का इतिहास मानव सभ्यता से कई गुना पुराना है तो फिर क्या मानवीय कार्यकलापों को जलवायु परिवर्तन हेतु जिम्मेदार माना जा सकता है? बल्कि यह कहा जा सकता है कि भूगर्भीय मापक्रम के हिसाब से प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप की अवधि नगण्य है। आग के दहकते गोले से लेकर सामान्य जीव-जन्तुओं हेतु अनुकूल जलवायु परिवर्तन तक का सफर भी पृथ्वी ने बिना किसी इंसानी क्रियाकलापों के हस्तक्षेप से ही पूरा किया है तो आज जलवायु परिवर्तन का स्थानीय, आंचलिक एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इतना हाय-तौबा क्यों मचा है? क्या कुछ वैश्विक संस्थायें जलवायु परिवर्तन हेतु तथा कथित जिम्मेदार क्रियाकलापों पर प्रतिबन्ध घोषित कर विकासशील देशों के विकास का पहिया मन्द करना चाहते हैं ?

जबकि पृथ्वी के 71% जलीय भू-भाग में भी असंख्य ज्वालामुखी फटते। वर्तमान के प्रमाणिक इतिहास में लगभग 600 ज्वालामुखी सक्रिय माने जाते हैं जिनमें से 50-70 आज भी सक्रिय हैं। यह कहा जाता है कि पृथ्वी पर 20 ज्वालामुखी हर समय लाखों टन गैस, लावा, राख आदि का उत्सर्जन करते ही रहते हैं जोकि विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन का कारण बन सकते हैं। फिलीपीन्स देश में वर्ष 1991 में माउन्ट पीनाट्यूबो ज्वालामुखी (चित्र-2) विस्फोट ने लाखों टन गैस का उत्सर्जन कर वातावरण के तापमान को काफी कम कर दिया था। चित्र-3 में पीनाट्यूबो व एलचिकोन नामक ज्वालामुखी द्वारा उत्सर्जित गैसों के प्रभाव से वर्ष 1979-2010 के दौरान तापमान में आये बदलाव को प्रस्तुत किया गया है एवं साथ में एलनीनो का प्रभाव भी दृष्टिगोचर है। इसी प्रकार वर्ष 1815 में जावा के टामबोरा व वर्ष 1883 में इन्डोनेशिया के क्राकेटाऊ ज्वालामुखी द्वारा इतनी गैसों का उत्सर्जन हुआ कि पृथ्वी की सतह का तापमान तीन वर्षों तक 1.3 डिग्री सेन्टीग्रेड कम हो गया। वर्ष 1783-1784 में आइसलैण्ड के लाखी ज्वालामुखी से निकले गैस व राख से सम्पूर्ण यूरोप व उत्तरी अमेरिका का तापमान 3 वर्षों के लिये 1 डिग्री सेन्टीग्रेड कम हो गया था।


विश्व के सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्ष रेखा के बढ़ने एवं धरती पर वनीकरण से वातावरण में अधिकाधिक कार्बन डाइआक्साइड का विघटन होकर ऑक्सीजन का उत्पादन व कार्बन पेड़-पौधे के रूप में संग्रहीत होता है। तथाकथित वैश्विक तापमान वृद्धि की धारणा को हिमालय परिस्थिति तंत्र आज भी स्वीकार नहीं करता। हिमालय क्षेत्र के ग्लेश्यिर व नदियां भी एक समान व्यवहार नहीं कर रहे हैं। एक ओर 75% ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं, किन्तु 8 प्रतिशत फैल रहे हैं तथा 17% ग्लेशियर स्थिर हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ नदियों में जल उत्सर्जन बढ़ रहा है तथा कुछ में घट रहा है। जलवायु कारक जैसे तापमान व वर्षा आदि भी लघु एवं दीर्घकालिक रूप से तापमान वृद्धि प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं।



(नोट : प्रस्तुत आलेख स्वयं के अनुभव, क्षेत्र सर्वेक्षण व विभिन्न प्रकाशित शोध कार्यों व तथ्यों के आधार पर तैयार किया गया है।)
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पी.एस. नेगी
वा. हि. भूवि. सं., देहरादून