मेघ

Submitted by Hindi on Thu, 09/01/2011 - 09:40
मेघ की सामान्य सतह के ऊपर स्थित वायु में जल के सूक्ष्म कणों अथवा, हिमकणों, या इन दोंनों ही के दृश्य संग्रह को मेघ कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मेघ मानचित्रावली में मेघो को 20 मुख्य कुलोंश् में वर्गीकृत किया गया है। आकृति एवं रचना के आधार पर इनके 14 उपविभाग तथा पारदर्शिता और ज्यामितीय विन्यास के आधार पर नौ सामान्य प्रकार बनाए गए हैं। ऊँचाई के अनुसार मेघ कुलों की सूची नीचे दी जा रही है।

(अ) उच्च मेघ (High clouds)- इन मेघों की सामान्य ऊँचाई 5 से 13 किमी. तक होती है। इसके निम्नलिखित प्रकार है:

(1) पक्षाभ (Cirrus) मेघ- संकेत Ci, ये मेघ श्वेत कोमल तंतुओं और श्वेत, या मुख्यतया श्वेत चप्पों के रूप में दिखाई पड़ते हैं। ये श्वेत संकरी पट्टियों में फैले दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें रेशमी चादर के समान चमक होती है। ये वायु में निलंबित सूक्ष्म हिमकणों से निर्मित होते हैं तथा रेशेदार दिखाई पड़ते हैं।

(2) पक्षाभकपासी (Cirrocumulus) मेघ- संकेत Cc, ये पतले श्वेत चप्पों, या स्तरों में होते हैं।

(3) पक्षाभस्तरी (Cirrostratus) मेघ- संकेत Cs, इनका रूप प्राय: श्वेत पतली चादर के समान होता है। ये रेशेदार, चिकने एवं पारदर्शक होते हैं।

(ब) मध्य मेघ (Middle clouds)- इन मेघों की सामान्य ऊँचाई दो से सात किमी. तक है। इनके निम्नलिखित प्रकार है:

(1) मध्यकपासी (Altocumulus) मेघ- संकेत Ac, ये समस्थलीय गोलाकार संहति में देखे जाते हैं और बहुधा छायादार होते हैं।

(2) मध्यस्तरी (Altostratus) मेघ- संकेत As, ये घने पक्षाभस्तरी के समान होते हैं।

(3) वर्षास्तरी (Nimbostratus) मेघ- संकेत Ns, ये घने काले रंग के, अथवा घूसर मेघ स्तर निम्न ऊँचाई के आसम और आकृतिहीन बादल होते हैं।

(स) निम्न मेघ (Low clouds)- इन मेघों की सामान्य ऊँचाई शून्य से दो किमी. तक होती है। इसके निम्नलिखित प्रकार है:

(1) स्तरीकपासी (Stratocumulus) मेघ- संकेत Sc, ये मेघ विशाल गोलाकार संहति में, या हलके धूसर रंग के बेलनाकार समूहों में पाए जाते हैं।

(2) स्तरी (Stratus) मेघ- संकेत St, ये मघ घने कुहरे से मिलते जुलते प्राय: एक सम स्तरवाले तथा धूसर रंग के होते हैं।

(3) कपासी (Cumulus) मेघ- संकेत Cu, ये स्थूल एवं सघन उदग्र विकास वाले होते है।

(4) कपासी वर्षा (Cumulonimbus) मेघ- संकेत Cb, ये भारी एवं सघन मेघ लंबवत्‌ विस्तार वाले होते हैं।

अंतिम दो कुलों को हम एक स्वतंत्र वर्ग मान सकते हैं। ये मेघ उदग्र विकास वाले होते हैं जिनका ऊपरी विस्तार तो पक्षाभ की तरह 13 किमी. तक होता है, पर न्यूनतम औसत ऊँचाई 0.5 किमी. ही है। ऊँचाई के अनुसार मेघों का यह वर्गीकरण शीतोष्ण कटिबंधीय स्थिति के लिये सम्यक्‌ है। ध्रुवीय क्षेत्रों में दिए गए मेघ कुलों की ऊँचाई कम तथा उष्ण कटिबंध में अधिक पाई जाती है। मध्यस्तरी, वर्षास्तरी, कपासी, कपासीवर्षा, तथा कुछ अन्य प्रकार के बादल कभी निर्धारित ऊँचाई से अधिक विस्तार वाले भी होते हैं। इनके अलावा आकाश की स्थिति को दर्शाने के लिये ऊँचाई के अनुसार वर्गीकृत मेघों के लिये 30 संकेत संख्याओं का भी उपयोग किया जाता है। दैनिक मौसम प्रतिवेदन में विभिन्न ऊँचाइयों पर मेधाच्छादन की मात्रा, मेघों की गति की दिशा तथा आधार की ऊँचाई भी दी जाती है।

मेघों से संबंधित मौसम- वायुमंडल में होने वाली भौतिक क्रियाओं के परिणाम होने के कारण मेघ मौसम के सूचक होते हैं। मध्यस्तरी, वर्षास्तरी तथा कपासीवर्षा मेघों से वर्षा सार्थक मात्रा में होती है। स्तरी, कपासी, मध्यकपासी और स्तरीकपासी मेघों से हलकी वर्षा संभव है। हिम रवों से निर्मित होने के कारण पक्षाभ, पक्षाभकपासी, तथा पक्षाभस्तरी मेघ तुषार वृष्टि को जन्म देते हैं। अधिकांश तुषार तो भूमि पर पहुँचने के पहले ही वाष्पीकृत हो जाता है, पर नीचे यदि जल कणों से भरे घने बादल हों, तो हिमकण उन्हें ग्रहण कर आकार में बढ़ता है और ताप के अनुसार तुषार, या जल वृष्टि के रूप में सतह पर गिरता है कपासी वर्षा मेघों से तेज बौछारों में वर्षा होती है। तड़ित, झंझा एवं टॉरनेडो में मुख्य रूप से यही मेघ होते हैं। इनसे तुषार वृष्टि और ओले भी संभावित हैं। स्तरी मेघों से फुहारों में तथा कपासी मेघों से हलकी बौछारों में वर्षा होती है। मध्यस्तरी या वर्षास्तरी मेघों से लंबे समय तक स्थिर तथा अनवरत वर्षा होती है।

मौसम का पूर्वानुमान- (देखें, ऋतु पूर्वानुमान और ऋतु विज्ञान)।

मेघों की माप- मौसम के पूर्वानुमान के हेतु प्रेक्षक को प्रत्येक मेघस्तर पर वायु की गति, दिशा एवं अन्य गुणों की वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होता है। यदि आकाश पूर्णाच्छादित है, तो एक स्वतंत्र गुब्बारा छोड़कर उसकी कोणीय स्थिति को थ्योडोलाइट की सहायता से प्रत्येक मिनट पर ज्ञात किया जाता है। गुब्बारे के ऊपर उठने की गति ज्ञात रहती हे। इसका अनुसरण तब तक किया जाता है, जब तक गुब्बारा आकाश में मेघों के भीतर लुप्त न हो जाए। अन्य विधि के अनुसार नेफोस्कोप की सहायता से एक मिनट तक मेघ के एक चुने हुए भाग की आभासी गति तथा दिशा को उसके परावर्तन का अनुसरण करते हुए निश्चित किया जाता है।श् नेफोस्कोप में एक रजतित क्षैतिज दर्पण होता है जिसकी परिधि पर 360 दिगंश के मापक होते हैं। एक बद्ध नैत्रिका से अवलोकन किया जाता है। नेफेस्कोप की सहायता से वायु की गति को समान त्रिभुजों की विधि से नापा जाता है। इसके लिये मेघ के आधार की ऊँचाई ज्ञात करना आवश्यक है। इसे मेघ के प्रकार से आकलित किया जा सकता है, पर शुद्ध माप के लिये सीलिंग बैलून (ceilling balloon), सीलिंग लाइट प्रोजैक्टर (ceilling light projector), सीलोमीटर (ceilometer) तथा अस्थनिक लघुतरंग (1 सेंमी.) वाले रेडार आदि यंत्र काम में लाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त मेघों की ऊँचाई प्रकाशीय परासमापी (optical range finder) की सहायता से त्रिभुजीकरण की विधि से, अथवा पहाड़ियों पर पर्वतों से मेघों में अंतच्छेदन ज्ञात कर, या ओस बिंदु के सूत्र का उपयोग कर ज्ञात की जाती है। अंतिम विधि में जब वायु मेघ के आधार तक पूर्ण रूप से मिश्रित होती है, तब कपासी मेघ के आधार की ऊँचाई निम्न सूत्र से आकलित की जाती है:

सीलिंग की ऊँचाई- 225 (T-Tα)

जहाँ T=ताप, Tα=ओसबिंदु। रात्रि को या अंधकार के समय आधार की ऊँचाई सीलिंग लाइट प्रोजेक्टर की सहायता से ज्ञात की जाती है। एक छोटे से सर्चलाइट से प्रकाश का एक सँकरा किरणपुंज उदग्र दिशा में मेघ के आधार पर डाला जाता हे। इस किरणपुंज का विस्तार 30° से कम होता है। 152.4 मीटर से 305 मीटर की दूरी पर स्थित प्रेक्षक प्रकाश-स्थल की ऊँचाई निम्नलिखित सूत्र से ज्ञात करता है:

सीलिंग की ऊँचाई- l tan h

जहाँश् l = आधार रेखा की लंबाई, h = उदयकोण।

अ = सर्चलाइट, ब = प्रेक्षक और स = मेघ के आधार की ऊँचाई अ ब = आधार रेखा

यदि मेघ का आधार समान हो तो शीर्षकोण शुद्धता के साथ मापा जाता है। आदर्श अवस्था में लगभग 5 किमी. तक के मेघ के आधार की ऊँचाई मापने में लगभग 758 मीटर तक की अशुद्धि पाई जाती है। दिन के समय सर्चलाइट से प्रक्षिप्त प्रकाश मंद होता हे और ठीक से दृष्टिगोचर नहीं होता, क्योंकि आकाश प्रकाश स्थल से 10 लाख गुना अधिक चमकीला होता है।

अत: दिन के समय आधार की ऊँचाई सिलोमीटर (ceilometer) से ज्ञात की जाती है। एक निश्चित और पूर्वज्ञात आवृत्ति वाले प्रकाश को मेघ के आधार पर प्रक्षिप्त कर एक विशिष्ट दूरदर्शक यंत्र से प्रकाश स्थल को देखा जाता है। इस दूरदर्शक यंत्र में लेंस के फोकस पर एक फोटो विद्युत्‌ सेल होता हैं। इसके साथ एक विद्युत्‌ फिल्टर प्रयुक्त होता है, जो अन्य संकेतों को त्यागकर ज्ञात आवृत्ति वालों को ग्रहण करता है। इन विद्युत्‌ संकेतों को पर्याप्त मात्रा में प्रवर्धित कर एक विद्युत्‌ मीटर को कार्यशील किया जाता है। इस पर आधार की ऊँचाई पढ़ी जा सकती है। सीलोमीटर की सहायता से दिन को लगभग 3 किमी. की ऊँचाई तक की माप शुद्धता के साथ की जा सकती है। नागरिक एवं सैनिक हवाई अड्डों पर इनका उपयोग किया जाता है।

रेडार उपकरणों की सहायता से मेघों के आधार की ऊँचाई, उदग्र विस्तार तथा रचना का ज्ञान यथार्थता के साथ किया जाता है।

अतिसंतृप्त वाष्प का द्रवण- यदि जल वाष्प से संतृप्त वायु का ताप घटकर ओसबिंदु ताप अथवा उसके समीप हो जाए, तो वायु अतिसंतृप्त हो द्रवण, अथवा ऊर्ध्वपातन की क्रिया को जन्म देती है। यदि वायु ठंढी हो जाए तो उसके जलवाष्प ग्रहण करने की क्षमता कम हो जाती है। घनीभवन की क्रिया दो परिवर्तनशील उपादानों पर निर्भर करती है: (1) शीतलता की मात्रा तथा (2) वायु की आपेक्षिक आर्द्रता। यदि वायु में आपेक्षिक आर्द्रता कम है, तो द्रवण के लिये वायु के ताप को बहुत अधिक घटने की आवश्यकता होगी। इसके विपरीत, यदि वायु में आपेक्षिक आर्द्रता अधिक है, तो उसका ताप अल्प मात्रा में कम होने पर द्रवण की क्रिया होती है। यद्यपि ठोस रूप में द्रवण की क्रिया सें. से नीचे किसी भी ताप पर हो सकती है फिर भी 4.5 ताप तक अधिकांश द्रवण द्रवरूप में होते हैं। कोलाइडी स्थिरता के कारण ही इतने कम ताप पर जलवाष्प द्रव रूप में रह सकता है।

वायुमंडल में द्रवणकी क्रिया सूक्ष्म केंद्रों के चारों ओर होती है। आर्द्रताग्राही सूक्ष्म धूलिकणों, लवण कणों, अथवा कोयला मिट्टी-तेल जैसे पदार्थो के दहन से प्राप्त धूम कणों पर जलवाष्प द्रवित होकर एकत्र होता है। जब अतिसंतृप्ति 4.2 के मान पर पहुंच जाती है, तब इलेक्ट्रॉन तथा आवेशयुक्त आयन पर जलकण बनने लगते हैं।

स्थिर दबाब और स्थिर आयतन पर विशिष्ट ऊष्मा का अनुपात है। यदि प्रसारण का अनुपात 1.25 से कुछ अधिक हो, तो धूल कणों से रहित वायु में जल की कुछ ही बूंदे उत्पन्न होती हैं तथा कुहरा बनता है। पर यदि प्रसारण का अनुपात 1.38 से अधिक हो, तो घने मेघ बनते हैं। इस अवस्था में अतिसंतृप्ति का मान 8 होता है। विलसन ने बताया कि जलवाष्प की उपस्थिति में द्रवण केंद्र के रूप में धन (positive) और ऋण आयन (nagative)1.25 के प्रसारण अनुपात में तथा धन आयन 1.31 के प्रसारण अनुपात में प्रभावी होते हैं। द्रवण केंद्र के रूप में आवेशयुक्त आयन की प्रभावशीलता संतृप्त वायुमंडल में जल बूंदों के विभिन्न आकार के वाष्पीकरण पर निर्भर करती है। जलकणों का निर्माण तभी होता है, जब वाष्प की स्थिति से द्रव का जमाव केंद्र (आयन) पर हो।

जब वायुमंडल में वाष्प संतृक्त अवस्था में होता है, तब समतल पृष्ठ वाले बिंदुओं की अपेक्षा गोलाकार जल बिंदुओं पर वाष्प का दबाब अधिक होने के कारण शीघ्र वाष्पीकृत होने की प्रवृत्ति होती है। मेघ पथ जानने के उपकरण----मेघों की रचना सूक्ष्म जल, या हिमकणों के संग्रह से होती है, जो उच्च गति वाले आयनित कणों पर निर्मित होते हैं। गतिवान्‌ होने पर ये आयनित कण सूक्ष्म जलबिंदुओं के वाष्पीय पश्चपुच्छ (trail) छोड़ते जाते हैं। ये आँखों से दृश्य होते हैं तथा इनका फोटो भी लिया जा सकता है। इसका अनुसरण करने पर मेध का संभावित मार्ग निर्धारित किया जा सकता है। इनका अध्ययन अभ्रप्रकोष्ठ (cloud chamber) यंत्र की सहायता से किया जाता है। ये यंत्र दो प्रकार के होते हें:

(1) विल्सन (Wilson) का अभ्रकोष्ठ तथा (2) विसरण (diffusion) अभ्रकोष्ठ।

विल्सन का अभ्रकोष्ठ- (देखें विल्सन का अभ्रकोष्ठ)।

विसरण अभ्रकोष्ठ- यह एक सतत सूक्ष्मग्राही मेघ कोष्ठ होता है, जिसमे उच्च ऊर्जा वाले त्वरित्र होते हैं। इसे ई. डब्ल्यू. कोवांस, टी. एस. नीडल्स सी. ई. नेल्सन ने सन्‌ 1950 में बनाया था। कोवांस का प्रथम कोष्ठ 30 सेंमी. व्यास और 15 सेमी. गहराई वाला वायुपूरित बेलनाकार काँच का पात्र है। इसे मेथिल ऐल्कोहॉल के कड़ाह पर रखा जाता हे जिसे शुष्क हिम से शीतल किया जाता है। कोष्ठ के ऊपरी भाग में रखा गया अल्पोष्ण मेथिल ऐल्कोहॉल वाष्पीकृत हो जाता है और वाष्प नीचे शीतल कड़ाह की ओर विसरीत होता है। कोष्ठ की तली से 5 सेमी. से 10 सेमी. की ऊँचाई पर मेघ पथ दृष्टिगोचर होते हैं। बेलन को काँच के एक प्लेट से ढँकते हैं, जिससे बाजू से प्रकाश देने पर पथ स्पष्ट रूप से दिखाई पड़े। सन्‌ 1954 में 22,000 गॉस के उदग्र चुंबकीय क्षेत्र में 35 आण्वीय दबाब पर क्रियाशील 19 व्यास वाला हाइड्रोजन पूरित विसरण मेघकोष्ठ बनाया गया। इस वर्ष अंतरिक्ष किरणों का अध्ययन करने के लिये 1.2 मी.2.4 मी. का एक बड़े सतत सूक्ष्मग्राही मेघकोष्ठ का निर्माण किया गया। इस पर क्षण में 1,100 तक अंतरिक्ष किरणों को गुजरते हुए देखा जा सकता है।

अभ्र कोष्ठ का अनुप्रयोग- इस यंत्र से कई महत्वपूर्ण आविष्कार हुए हैं। ऐक्स किरण, अंतरिक्ष किरणें एवं विखंडनाभि क्रियाओं के अध्ययन में यह एक शक्तिशाली उपकरण है।

वृष्टि प्रस्फोट (clouds burst)- आकस्मिक रूप से अल्प अवधिवाली अत्यधिक और मूसलाधार वृष्टि प्रस्फोट कहा जाता है। ये स्थानीय प्रकृति की होती हैं और संवाहनिक वायु धाराओं के द्वारा उत्पन्न होती हैं। अधिकांश वृष्टि प्रस्फोट तड़ित झझांओं से संबंधित होते हैं। इन तूफानों में प्रचंड गति से ऊपर उठती हुई वायुधाराएँ आकाश के घनीभूत जल बिंदुओं को भूमि पर गिरने से रोकती है। इस भाँति अत्यधिक ऊँचाई पर अधिक मात्रा में जल की बूंदे एकत्र हो जाती हैं। जब ऊर्ध्वगामी वायुधाराएँ कमजोर हो जाती हैं, तब यह समस्त जल एक ही समय में गिर जाता है। पहाड़ी भागों में इस प्रकार के वृष्टि प्रस्फोट अधिक होते है। इसका कारण तड़ित झंझा की ऊष्णवायु धाराओं में पर्वतीय ढालों पर से होकर तीव्र गति से ऊपर उठने की प्रवृत्ति होती है। पर्वतीय भागों में वृष्टि प्रस्फोट से आकस्मिक और विनाशकारी बाढ़े आती हैं क्योंकि ढालों पर से होकर गिरता हुआ जल घाटियों और नलिकाओं में जमा हो जाता है। वृष्टि प्रस्फोट में वृष्टि की तीव्रता बहुत अधिक होती है। उदाहरणार्थ 29 नवंबर, 1911 ई. को पनामा के पोर्ट वेल में 3 मिनट की अवधि में 6 सेंमी. तथा अप्रैल 1926 को सानग्रेबियत (केलीफोनिया) के ओपिड कैंप में 1 मिनट में 2.5 सेमी. वर्षा नापी गई है। गिरते हुए जल के द्वारा भूमि पर निर्मित गर्तो के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वृष्टि की तीव्रता इससे भी अधिक होती है। (भूपनारायण त्रिपाठी)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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