महामारी विज्ञान

Submitted by Hindi on Sat, 08/27/2011 - 16:10
महामारी विज्ञान (Epidemiology) सामान्य धारणानुसार महामारी विज्ञान का संबंध मानवरोगों के प्रकोप में सहसा वृद्धि के विभिन्न कारणों से है। महामारी की दशा में रोग की आपतन संख्या, व्यापकता और प्रसारक्षेत्र में आकस्मिक वृद्धि हो जाती है। यह शब्द प्राय: संक्रामक और घातक रोगों की वृद्धि से उत्पन्न आपतकाल का द्योतक रहा है, परंतु गत वर्षो में इस विज्ञान का क्षेत्र अधिक व्यापक हो गया है और प्राचीन धारणा में भी महत्वपूर्ण अंतर हो गया है। अब यह शास्त्र केवल अकस्मात्‌ प्रकुप्त महामारी के सिद्धांत का ही विवेचन नहीं करता है, वरन्‌ साधारण तथा महामारी दोनों ही स्थितियों में किसी भी रोग या विकार के जनता पर होनवाले सामूहिक प्रभाव से संबंधित है। इस विज्ञान के लिये यह भी आवश्यक नहीं है कि रोग परजीवी जीवाणुजन्य संक्रामक हो। जनता में व्याप्त असंक्रामक रोगों और शरीर की अवस्थाविशेष का विवेचन इस विज्ञान की सीमा के बाहर नहीं है। चिकित्सा क्षेत्र के अंतर्गत किसी संक्रामक व्यापार, कायिक (organic) अथवा क्रियागत विकार अथवा रोग की जनता में आवृति तथा वितरण निर्धारित करनेवाले विभिन्न कारणों और दशाओं के परस्पर संबंध का ज्ञान महामारी विज्ञान कहा जाता है। विकृति विज्ञान (pathology) व्यक्ति के शरीर के अंग प्रत्यंगों में रोगजन्य विकार का परिचायक है और महामारी विज्ञान जन समुदाय में समष्टिगत रोग विधान का बोधक।

रोगकारी परजीवी जीवाणु द्वारा सफल संक्रमण तभी संभव है, जब वह किसी रोगग्रहणशील मनुष्य के शरीर की विभिन्न रक्षापंक्तियों से युक्त व्यूहरचना को भेद कर, उपयुक्त मार्ग से प्रविष्ट हो, देह की कोशिकाओं में वंशवृद्धि द्वारा जीवविष (toxin) उत्पन्न कर, परपोषी मनुष्य देह पर आक्रमण करे और उसे रोगग्रस्त कर सके। रोग की उत्पत्ति परजीवी रोगाणु (microbes) की संहार शक्ति तथा परपोषी मनुष्य की रोग प्रतिरोध शक्ति के बलाबल पर निर्भर है। यदि संहार शक्ति मनुष्य की प्रतिरोध शक्ति की अपेक्षा निर्बल है, तो रोग उत्पन्न नहीं होता। यदि दोनों का बल समान सा है, तो दोनों ही सहअस्तित्व अथवा युद्ध विराम की स्थिति में स्थायी-अस्थायी-शांति बनाकर रहते है। जब किसी पक्ष का बल अपेक्षाकृत बढ़ जाता है, तब संघर्ष पुन: प्रारम्भ हो जाता है। यदि संहारक शक्ति मनुष्य की प्रतिरोध शक्ति से अधिक बलवती होती है, तो संक्रमण कार्य की प्रगति बढ़ती रहती है और आक्रांत मनुष्य रोगग्रस्त हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि रोग की तीव्रता न तो केवल संहार शक्ति की माप है और न मनुष्य की प्रतिरोध शक्ति के अभाव की। रोग तो वास्तव में आक्रामक की संहार शक्ति के विरूद्ध आक्रांत की प्रतिरोध शक्ति की प्रतिक्रिया की असफलता का परिणाम है। रोग की तीव्रता दोनों के बलाबल के अनुपात पर निर्भर है। यह अनुपात घटता बढ़ता रहता है, जिससे परस्पर संतुलन मं अंतर पड़ता रहता है।

जीवाणु की संख्या × जीवाणु की संहार शक्ति
रोगकारिता  -------------------------------------------
मनुष्य देह की प्रतिरोध शक्ति

संक्रमण का जो प्रभाव व्यष्टि पर पड़ता है, उसी के अनुरूप समष्टि पर भी पड़ता है। रोगाणु की संहार शक्ति उसकी संख्या, आक्रामकता, जनन-क्षमता तथा जीवविष निर्माण की सामर्थ्य पर निर्भर करती है और जनता की रोग प्रतिरोधक शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिरोध शक्ति के फलस्वरूप सामूहिक प्रतिरक्षा पर निर्भर है। इन दोनों विरोधी शक्तियों का सामूहिक जनता पर जो प्रभाव पड़ता है, उसी के परिणामस्वरूप रोग विशेष का प्रसार, व्यापकता, वितरण, आव्‌ति आदि की संभावना होती है। प्रयोगशाला में रोग ग्रहण शील तथा प्रतिरक्षित प्राणिसमूहों पर कृत्रिम संक्रमण के प्रभाव का अध्ययन करने से अनेक तथ्यों की जानकारी प्राप्त की गई है। रोगग्रहणशीलता, प्रतिरक्षा अथवा रोगक्षमता तथा जीवाणु की संहारशक्ति के परस्पर अनुपात पर निर्भर होनेवाली रोगकारिता के आधार पर जनसमुदाय को निम्नलिखित विशेष वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इन वर्गों के मध्य में पृथक्कारी कोई व्यक्त सीमा नहीं है, किंतु क्रमिक रूप से उत्तरोत्तर भेद होने के कारण प्रत्येक वर्ग एक दूसरे से इंद्रधनुषी विभिन्नता प्रकट करता हुआ श्रेणीबद्ध है:

1. असंक्रमित, प्रतिरक्षित जनसमुदाय -


इस वर्ग में उन मनुष्यों की गणना होती है, जिनमें रोग विशेष का संक्रमण नहीं होने पाया हो और यदि कभी हो भी जाय तो उस रोग से प्रतिरक्षित होने के कारण जीवाणु की संहार शक्ति विफल हो जायगी और ये मनुष्य रोग से बचे रहेंगे। प्रतिरक्षा सापेक्ष होती है। इस कारण यदि संक्रमण अत्यधिक तीव्र हुआ, तो रोग से पूर्ण रक्षा की संभावना नहीं रहती। जनता में इस वर्ग के प्राणी यदि अधिक संख्या में हों, तो सामूहिक प्रतिरक्षा के प्रभाव वश संक्रमण महामारी का रूप नहीं धारण करता, किंतु कुछ अल्प प्रतिरक्षित मनुष्य यदा-कदा, अथवा यत्र-तत्र संक्रमण से प्रभावित हो सकते है; परंतु यदि प्रतिरक्षित व्यक्तियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, तो रोग का वेग उसी अनुपात में बढ़ जाता है। संक्रमण की संभावना पर्यावरण की स्वच्छता, जन सकुंलता, रोग की प्रसार गति, जनता के अस्वास्थ्यकर रहन-सहन आदि पर अवलंबित होती है। उदाहरणार्थ, शीतलारोधी टीके द्वारा प्रतिरक्षित सैनिकों में, जिनका रहन सहन स्वास्थ्यानुकूल स्वच्छ-वातावरण में होता है, शीतला का रोग विशेष रूप से तीव्र नहीं होने पाता।

2. अंसक्रमित, रोगग्रहणशील जनसमुदाय -


इस वर्ग में वे मनुष्य होते हैं, जिन्हें रोग विशेष का संक्रमण नहीं हो पाया, किंतु रोग से प्रतिरक्षित न होने के कारण संक्रमण होने पर रोग के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकते। इस वर्ग के मनुष्यों के आधिक्य से जनता की सामूहिक प्रतिरक्षा का स्तर गिर जाता है और संक्रमण हो जाने पर रोग का प्रकोप महामारीवत्‌ हो जाता है। यदि जनता में रोगग्रहणशील व्यक्तियों की संख्या सीमित न हो या अक्‌स्मात बढ़ जाय, तो रोग भयंकर रूप से फैलता है। प्रथम वर्ग के वे मनुष्य जिनकी प्रतिरक्षा घट गई हो, रोग प्रभावशील वर्ग के मनुष्यों की चपेट में रोगक्रांत हो सकते हैं। मेले, त्योहारों तथा तीर्थों में स्थान स्थान से मनुष्यों के आवागमन से अथवा बाढ़, अकाल, युद्ध, वाणिज्य, व्यवहार, औद्योगीकरण आदि से रोगग्रहणशील व्यक्तियों की संख्या अकस्मात्‌ बढ़ जाती है और रोग के संक्रामण रूप धारण कर लेने की संभावना हो जाती है। महामारी की संभावना दूर करने के हेतू रोगनिरोधक टीके द्वारा रोगशील व्यक्तियों की संख्या यथासंभव सीमित कर दी जाती है। इस वर्ग के मनुष्य रोगाग्नि को भड़काने के लिये ईंधन के समान होते हैं और जनता के लिय आपदजनक सिद्ध होते हैं। प्राय: सभी बालक रोगग्रहणशील होते हैं। रोग-प्रतिरोध-शक्ति कुपोषण, थकान, अजीर्ण, रक्तहीनता, चिंता, दूषित वायु, सीलन, जनसंकुलता, अनिद्रा, अधिक शीत या ताप चिरकालिक रोगावस्था आदि से घट जाती है। कृत्रिम प्रतिरक्षण अस्थायी होने के कारण कुछ समय बाद घट जाता है।

3. लक्षणहीन संक्रमित जनसमुदाय -


इस वर्ग के मनुष्य प्रतिरक्षित होते हैं ओर रोधक शक्ति के कारण स्वयं रोगी नहीं होते। संक्रमण होने पर परजीवी जीवाणु इनके शरीर में पनपते रहते हैं, परंतु वे रोग उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते। ये मनुष्य स्वयं स्वस्थ होने हुए भी रोगवाहक होते हैं और रोगग्रहणशील व्यक्तियों में रोग का प्रसार करते हैं। कुछ रोगों में इस वर्ग के मनुष्य कई वर्षों तक रोगवाहक बने रहते हैं। महामारी फैलने पर रोगवाहकों की संख्या बढ़ जाती है। यदि रोगग्रहणशील प्राणियों का अभाव न हो और निरंतर कुछ बने रहें, तो रोगवाहक उनमें यदा कदा संक्रमण उत्पन्न कर रोग प्रकट करते रहते हैं। इस प्रकार उस स्थान में रोग स्थायी रूप धारण कर लेता है। परजीवी जीवाणु के स्वस्थ परपोषी होने के कारण इस वर्ग के रोगवाहक मनुष्य संक्रमण के आश्रय बने रहते हैं। डिप्थीरिया, आंत्र ज्वर (enteric fever), प्रवाहिका, तानिकाशोथश् (meningitis) आदि में रोगवाहक अधिकतर पाए जाते हैं। लक्षणों के अभाव में इसका पता लगाना कठिन है और उपचार द्वारा इनकी रोगवाहकता दूर करने का प्रयास भी प्राय: विफल होता है।

4. अलक्षित संक्रमित जनसमुदाय -


इस वर्ग के मनुष्यों में रोग के वास्तविक लक्षण नहीं प्रकट होते, किंतु स्वल्प माँद्य अथवा कुछ अस्वस्थता हो जाती है। अस्पष्ट लक्षणों से युक्त अस्वस्थता अनेक प्रकार के रोगों का पूर्वरूप हो सकती है। सांकेतिक लक्षणों के अभाव में रोग का निदान नहीं हो पाता और रोगजन्य पीड़ाविशेष के अभाव में, ये अलक्षित या लुप्त रोगी अपने नित्य के काम में लगे रहते हैं और रोगग्रहणशील व्यक्तियों में रोग फैलाते रहते हैं। ये भी रोगवाहक होते हैं और रोग का प्रसार करते रहते हैं।

5. असष्ट लक्षणयुक्त रोगी (Atypical cases) -


इस वर्ग के मनुष्यों में रोग के लक्षण स्पष्ट तो नहीं होते, किंतु कुछ सांकेतिक लक्षणों के कारण रोग विशेष का संदेह उत्पन्न हो जाता है। निदान में कुछ कठिनाई अवश्य पड़ सकती है। इसका कारण यह है कि लक्षण अप्रतिरूपी (atypical) ही होते हैं। रोग का रूप अविकसित अथवा अपरिणत होता है और रोगी रोगवाहक होते हैं।

6. साधारण रोगी (Typical cases) -


इस वर्ग के मनुष्यों में रोग के लक्षण स्पष्ट और प्रतिरूपी (typical) होते हैं, परंतु रोग विशेष उपद्रवी अथवा कठिन नहीं होता। ऐसे रोगी रोगवाहक तो होते ही हैं, परंतु यदि शय्याग्रस्त हो जाएँ तो परिवार के व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य मनुष्यों से संसर्ग न होने के कारण रोग प्रसार सीमित ही रहता है। शीघ्र ही निदान कर इनको चिकित्सालय में प्रवेश करा दिया जाय, तो रोग के प्रसार को रोकने में सहायता मिलती है। रोग शांत होने के पश्चात्‌ भी ये मनुष्य कुछ समय तक रोगवाहक बने रहते है।

7. कठिन रोगी -


इस वर्ग के रोगी की तीव्रता के कारण स्वयं शय्याग्रस्त हो जाते हैं और रोगवाहक होते हुए भी विशेष रूप से रोग प्रसार नहीं कर पाते। यदि क्षय रोग के समान रोग चिरकालिक हो, तो परिवार में या निकटस्थ व्यक्तियों में रोगप्रसार होता रहता है। मरणासन्न रोगी भी रोगवाहक होते हैं, परंतु निकटस्थ व्यक्तियों के लिये ही।

नवजात शिशु अपनी माता से प्राप्त कुछ रोग-प्रतिरोधक-शक्ति रखते हैं। यह शक्ति आनुवांशिक नहीं होती और अस्थायी होती है। स्तनधारी शिशुओं में यह शक्ति कुछ अधिक काल तक रहती है। जन्म के कुछ मास पश्चात्‌ ही नवजात शिशु रोगग्रहणशील हो जाता है। अस्वस्थ और कुपोषित बालक विशेष रूप से रोगग्रहणशील होते हैं। हलके और बारंबार होनेवाले संक्रमण बालक में प्रतिरक्षा शक्ति उत्पन्न कर उसे बढ़ाते रहते हैं। जनता में रोग का महामारी के रूप में प्रसार जनता की सामूहिक रोग प्रतिरक्षा तथा जीवाणु की आक्रामक और संहार शक्ति के परस्पर बलाबल पर और साथ ही जल, भोजन, वायु, कीट और अन्य संगदूषित वस्तुओं के द्वारा रोगप्रसार की संभावना पर अवलंबित है। प्रतिरक्षित तथा रोगग्रहणशील मनुष्यों की संख्या का अनुपात और वातावरण की स्वच्छता जनता में रोग का प्रसार, वितरण तथा आवृति के निर्णायक हैं।उपर्युक्त विभिन्न वर्गों के मनुष्यों में प्रथम वर्गवालों को निदान और चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे निरापद रहते हैं। दूसरे वर्ग को उचित आहार, स्वस्थ आचरण तथा अन्य उपायों से अपनी रोग-प्रतिरक्षा-शक्ति बढ़ानी चाहिए। संक्रमण से अपनी रक्षा करना आवश्यक है, कारण कि संक्रमण हो जाने पर रोग से बचना कठिन होगा। थोड़ी थोड़ी मात्रा में हलके संक्रमण से, अथवा रोगनिरोधी टीके से, इनमें प्रतिरोध शक्ति उत्पन्न करना उपयोगी है। संक्रमणरहित रोगग्रहणशील बालकों की, बीoसीoजीo के टीके द्वारा, क्षय रोग से रक्षा इसी सिंद्धांतानुसार की जाती है। तृतीय, चतुर्थ तथा पंचम वर्ग के मनुष्यों के शरीर में रोगकारी जीवाणु न्यूनाधिक मात्रा में उपद्रव मचाते रहते हैं, परंतु ये मनुष्य देह में रोगविशेष उत्पन्न करने में पूर्ण सफल नहीं हो पाते। ये मनुष्य स्वस्थ बने रहते हैं, या स्वल्प मांद्य के लक्षण प्रकट करते हैं। ये रोगवाहक होने के कारण जनता के लिये विशेष आपत्तिकर हैं। निदान और चिकित्सा की व्यवस्था इनके लिये लाभकारी नहीं है। ये रोगवाहक होते हुए भी जनता से विशेष संपर्क रखते हैं और जल, भोजन, वायु आदि को दूषित कर रोग संक्रमण के कारण होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को वातावरण की शुद्धता तथा अपने व्यक्तिगत स्वास्थ्य पर ध्यान देकर, इन रोगवाहकों द्वारा अपने व्यक्तिगत स्वास्थ्य पर ध्यान देकर, इन रोगवाहकों द्वारा प्रसारित रोगकारी जीवाणुओं के संक्रमण से अपने को सुरक्षित रखना चाहिए। रोगवाहक स्वयं सावधान रहें और अपने मल मूत्र आदि द्वारा संक्रमण का प्रसार न होने दें, तो जनता में रोग फैलने की संभावना कम हो जायगी। षष्ठ तथा सप्तम वर्ग के रोगियों को चिकित्सा के लिये किसी अच्छे चिकित्सालय में अनिवार्य रूप से प्रवेश कराकर इनके द्वारा रोगप्रसार होने की संभावना को यथासंभव दूर कर देना उचित है। इन रोगियों को जनता से संपर्क नहीं रखना चाहिए।

जिन रोगों में तृतीय, चतुर्थ तथा पंचम वर्ग के रोगवाहक प्राणी अपेक्षाकृत अधिक होते हैं, वे स्थानिक रोग का रूप ग्रहण कर जनता में अपना घर लेते हैं। छिटपुट रूप से यदाकदा नए रोगी होते रहते है और संक्रमण तथा जनता में एक संतुलन स्थापित हो जाता है। संतुलन बिगड़ने पर रोगग्रस्त मनुष्यों की संख्या बढ़ जाती है और फिर नया संतुलन स्थिर हो जाता है। ऐसी अवस्थाओं में द्वितीय वर्ग के रोगग्रहणशील व्यक्तियों की संख्या यदि जनता के आवागमन से सहसा बढ़ जाय, तो रोग महामारी का रूप ले सकता है। महामारी के प्रकोप होने पर रोगग्रहणशील व्यक्ति होकर मरते हैं, या निरोग हो जाने पर प्रतिरक्षित हो जाते हैं। उनकी संख्या फिर कम हो जाती है और रोग प्रतिरोधी व्यक्तियों की संख्या उसी अनुपात से बढ़ जाती है। इसी क्रम से समय पर रोगग्रहणशील व्यक्तियों की संख्या बढ़ने पर, और रोगी अथवा रोगवाहकों द्वारा संक्रमण होने पर, महामारी का प्रकोप होता है और फिर रोगप्रतिरोधी व्यक्तियों की संख्या बढ़ने पर, या रोगग्रहणशील व्यक्तियों के कम हो जाने पर, महामारी शांत हो जाती है।

महामारी की आवृति


उपर्युक्त सिद्धांत के अनुसार होती रहती है। यह आवृति दो प्रकार की होती है: अल्पकालिक और दीर्धकालिक। अल्पकालिक आवृति प्राय: प्रत्येक वर्ष जलवायु के परिवर्तन के कारण जीवाणुओं की वृद्धि होने पर होती है। अत्यधिक शीत, ताप और शुष्कता जीवाणुओं के लिये अनुकूल नहीं है। अनुकूल जलवायु होने पर उनकी संख्या में वृद्धि होती है, जिसके फलस्वरूप रोग की भी वृद्धि होती है। श्वास द्वारा प्रवेश पानेवाले संक्रमण, दूषित वायु द्वारा, शीतकाल में अधिक होते हैं। तब मनुष्य शीत से बचने के लिये बंद कमरों में जनसंकुल वातावरण में अधिक समय व्यतीत करते हैं। कीटों की संख्या बढ़ने पर, या जब उन्हें मनुष्य का रक्त चूसने का अधिक अवसर मिलता है, तब कीटप्रसारित रोग फैलते हैं। दूषित भोजन से फैलने वाले रोग मक्खियों के बढ़ने पर अधिक होते हैं। दीर्धकालिक आवृति रोगशील व्यक्तियों की संख्या बढ़ने पर होती है, या संक्रमण की तीव्रता बढ़ने पर। शीतला का प्रकोप प्रत्येक वर्ष बसंत ऋतु में प्रबल हो जाता है, परंतु पाँच से आठ वर्ष के अंतर में, जब रोगशील और अप्रतिरक्षित व्यक्तियों की संख्या क्रमश: बढ़ जाती है, रोग अधिक भयंकर हो जाता है। जिन रोगों में रोगी के अंदर प्रतिरोधशक्ति उत्पन्न नहीं होने पाती, वे बारबार होते रहते और प्राय: बने ही रहते हैं।

रोग का वितरण:


विशेषत: संक्रमण की सानुकूलता के अनुसार होता है। जल के समीप रहनेवालों में मलेरिया, जनसंकुल वातावरण में काम करनेवालों में वायुसंचारित श्वासरोग और अस्वच्छ स्थान में रहनेवालों में दूषित भोजन द्वारा प्रसारित रोग अधिक होते हैं। मनुष्य की उम्र का भी रोग के वितरण पर प्रभाव पड़ता है। जिस जीवाणु की संक्रामक शक्ति अधिक होती है और उससे उत्पन्न प्रतिरक्षा स्थायी होती है वह प्राय: बालरोग उत्पन्न करता है। बाल्यकाल में प्राप्त रोगजन्य प्रतिरक्षा उस रोग को युवावस्था में पुन: नहीं होने देती, इस कारण वह रोग मुख्यत: बालरोग ही बना रहता है। प्राय: सभी बालरोगों से वयस्क इसी कारण बचे रहते हैं। व्यावसायिक रोग प्रतिकूल और अस्वस्थ वातावरण में कार्य करने वाले श्रमिकों को होते हैं। स्त्रियों की प्रतिरोध शक्ति प्रसवकाल में बहुत घट जाती है और तब क्षय तथा अन्य संक्रमण, जो पहले प्रभावहीन अथवा निर्बल थे, प्रबल हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्य अनेक रोगों की जनता में आवृति तथा वितरण का अध्ययन महामारी विज्ञान द्वारा किया जाता है। प्रत्येक रोग की व्यापकता संबंधी जानकारी प्राप्त करने के लिये महामारी संबंधी सर्वेक्षण किया जाता है, जिसके द्वारा स्वस्थ जनता, रोगी तथा वातावरण की अनुकूल, प्रतिकूल स्थितियों का वैज्ञानिक विवेचन और अध्ययन किया जाता है। रोगनिरोधक उपायों का ज्ञान चिकित्साशास्त्र के अध्ययन से प्राप्त हो सकता है परंतु केवल रोगों के लक्षण, निदान, चिकित्सा आदि का ज्ञान रोगनिरोध के लिये अपर्याप्त है। विभिन्न रोगों पर सफल आक्रमण करने के लिये चिकित्साशास्त्री केवल एक सैनिक मात्र है और महामारीवेत्ता अनुभवी और कुशल सेनापति, जो अपने तथा शत्रु के बलाबल का विचार कर अपने सीमित साधनों से अपनी रक्षापंक्ति सुदृढ़ करता हुआ शत्रु की निर्बल अवस्था का पता लगाकर अपनी अल्पतम हानि और अधिकतम लाभ के उद्देश्य से उपयुक्त अवसर और स्थान पर शत्रु पर घातक आक्रमण करने में सफल होता है। जन समुदाय में रोगों का निरोध जनता के सामूहिक प्रयास से ही संभव है। युद्ध काल में सभी वर्गों के मनुष्यों को उत्साहपूर्ण सहयोग देकर प्रत्यक्ष या अप्रत्याक्ष रूप से युद्ध कार्य करना पड़ता है। सभी सैनिक तथा असैनिक व्यक्तियों के सक्रिय सहयोग के बिना सेनापति कुछ नहीं कर सकता। इसी प्रकार रोगों पर विजय प्राप्त करने के लिये महामारी-विज्ञान-वेत्ता को सभी का पूर्ण सहयोग प्राप्त होना आवश्यक है। जनता में व्याप्त रोग संबंधी जानकारी के अतिरिक्त महामारीवेत्ता को आवश्यक वैधानिक अधिकार मिलने चाहिए। रोग के विरूद्ध यह युद्ध सृष्टि के आदि काल से चलता आया है और निरंतर बना रहेगा। इसमें कभी युद्ध-विराम तथा शांति की संभावना नहीं है। जीवन ही संधर्षमय है, इसलिये जीवनसंग्राम से पराड्मुख होना आत्मघात है। रोगान्मूलन द्वारा मानव जीवन को सुखी बनाना ही सर्वोच्च सेवाधर्म है।

[भवानीशंकर याज्ञिक]

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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