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जल चेतना - तकनीकी पत्रिका, जनवरी 2015
यदि वर्षा का जल समुचित ढंग से संचयन किया जाये तो भूजल का स्तर भी बना रहेगा और अतिरिक्त जल बहकर घाटियों और पास की नदियों में चला जाएगा जिससे नदी और छोटे जल स्रोत भी पानीदार हो जाएँगे और बहाव का पैटर्न भी सामान्य बना रहेगा। और यह तभी सम्भव है जब बारिश का पानी जहाँ गिरे वहीं रोक लिया जाये। ‘शहर का पानी शहर में, खेत का पानी खेत में’ के माॅडल पर पानी का समुचित संचय हो।
जल एक प्राकृतिक संसाधन तो है ही उससे अधिक यह मानवीय संसाधन है क्योंकि इससे मानवीय अस्तित्व जुड़ा है। जल, साँस और भोजन की तरह बुनियादी और जीवन्त आवश्यकता है। विडम्बना यह है कि पृथ्वी पर मानव जीवन की पुनर्संरचना के संकेत मिलने लगे हैं क्योंकि आधुनिक मनुष्य ने जीवन के आधारभूत तत्त्व को ही पूरी तरह प्रदूषित कर दिया है। औद्योगिकता की अति और उससे होने वाले प्रदूषण, बड़े बाँधों का निर्माण और उससे होने वाला विस्थापन, पानी पर गरमाती राजनीति और उससे होने वाले जलस्रोतों के बँटवारे तथा पानी को बाजार की वस्तु बनाना और इस सार्वजनिक सम्पदा का निजीकरण, मानवीय अस्तित्त्व के संकट और जीवन क्षरण के कारण बन रहे हैं। यदि जीवन में जल इतना अनिवार्य है तो जल में जीवन अवश्य होता होगा। अब तो यह वैज्ञानिक शोधों ने भी सिद्ध कर दिया है कि जल में जीवन होता है (डाॅ. मसारूइमोटो)। जल (H2O) की संरचना हाइड्रोजन और आॅक्सीजन के संयोग से हुई है। लेकिन क्या इस ज्ञानमात्र से इसे बनाया जा सकता है। पानी की असली सामर्थ्य यही है कि पानी से सब कुछ बनता है किन्तु सब कुछ से पानी नहीं बनाया जा सकता। इसे कभी नहीं बनाया जा सकता। इसे सिर्फ बचाया जा सकता है। इसलिये आज अगर मानवीय चिन्ता का प्राथमिक बिन्दु जल संरक्षण नहीं बनता तो हम जीवन द्रोही होंगे। हमारे शरीर में भी केवल खून ही नहीं बल्कि दो हिस्से तो पानी ही है। शरीर के भीतर पानी होने के लिये आवश्यक है कि बाहर उससे भी अधिक पानी हो। क्योंकि जल सिर्फ जलचरों के लिये ही नहीं होता बल्कि थलचरों, नभचरों और यहाँ तक कि अचरों के लिये भी आवश्यक है। पानी चर-अचर सब कुछ है। एक तरल और गतिशील जीवन का नाम ही पानी है। पानी से ही जीवन के गुणसूत्र हैं। इसलिये जल ही जीवन है।हमने एक महानगरीय जीवन में जल के महत्त्व को समझने की दृष्टि से दिल्ली के एक नगरीय गाँव शाहपुर जट का अध्ययन किया क्योंकि दिल्ली की एक धनी और बड़ी आबादी दिल्ली के ऐसे ही करीब 300 गाँव में रहती है। अब सवाल उठता है कि नगरीय गाँव किसे कहे? किसी भी समुदाय का आकार और उसकी जनसंख्या का घनत्त्व वहाँ के लोगों के व्यवहार प्रतिमानों को प्रभावित करते हैं (हाॅट एवं रिस: 1851)। किसी भी समुदाय की श्रेणी का निर्धारण उसकी जनसंख्या का आधार, उसकी प्रशासनिक व्यवस्था और वहाँ की सामाजिक संरचना और मूल्य व्यवस्था के आधार पर किया जा सकता है। नगरों में आबादी जैसे-जैसे विजातीय स्वरूप लेती जाती है उसमें धीरे-धीरे कई वर्ग पनपने लगते हैं और परिणामस्वरूप नई प्रकार की अन्तःक्रियाएँ जन्म लेती हैं। द्वितीय समूह बनने लगते हैं तथा औपचारिक व्यवस्था आकार पाने लगती है। ये सभी उसे नगरीय बनावट प्रदान करते हैं। किसी नगरीय गाँव में परम्परागत सामाजिक संरचना व मूल्यों का प्रभाव वहाँ पर आने वाले बाहरी लोगों पर भी पड़ता है और इन अप्रवासियों का प्रभाव वहाँ की सम्पूर्ण सामाजिक संरचना पर भी दिखाई देता है। इसमें अलग-अलग अवधि के अप्रवासियों, मकानों के निजी स्वामित्त्व के अलग-अलग प्रतिमान निवास सम्बधी आर्थिक परिवर्तन, व्यवस्थागत कृषि कार्यों में लगना आदि (देसाई: 1864)। वहीं जाति तथा धार्मिक समूहों का अलग-अलग पड़ोस के रूप में एक साथ रहना बताता है कि द्वितीय और तृतीय नातेदारों से बने संयुक्त परिवारों का आधिक्य इन जगहों पर पाया जाता है। अनजानापन तथा व्यक्तिवादिता व्यक्तियों व समूहों की निरन्तर गतिशीलताओं का परिणाम है।
भारत में जो नगरीकरण हुआ वह कई तरह की विचित्रताएँ लिये हुए है उसके विभिन्न प्रतिमान हैं। जहाँ तक एक नगरीय गाँव का सवाल है उनमें कई प्रकार की विचित्र अवस्थाएँ उत्पन्न हुई। कहीं-कहीं तो गाँव में नगर उठ खड़े हुए हैं जैसे दिल्ली के कुछ गाँव में, भिलाई और दुर्गापुर के कुछ गाँव में। विकास की सारी प्रक्रिया में जहाँ एक ओर ग्रामीण क्षेत्रों में नगरीय क्षेत्र विकसित हुए वहीं दूसरी ओर नगरीय क्षेत्रों में ग्रामीण संरचना वाले क्षेत्र रह गए हैं। अध्ययन बताते हैं कि नगरीकरण के विकास के साथ पारस्परिक सम्बन्ध, पारिवारिक व्यवस्था, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्था परिवर्तित होती जा रही है। वहीं भारत के विभिन्न हिस्सों में शहर और गाँव की व्यावसायिक संरचना एक दूसरे को प्रभावित कर रही है। ग्रामीण और नगरीय क्षेत्र विकसित हो रहे हैं। नगरीय क्षेत्रों में दो तरह के ग्रामीण क्षेत्र मौजूद हैं एक तो वे जो बहुत प्राचीन बसे हुए हैं, दूसरे वे जो बहुत नए हैं। प्राचीन गाँव में भी दो तरह के गाँव है। एक तो वे जो विकसित होते शहर के अन्दर ही रह गए और घिर गए हैं लेकिन अपनी संरचना को समाप्त नहीं कर पाये। दूसरे वे जो शहर के बाहर या सीमान्त पर हैं। गाँव की जाति आधारित परम्परागत व्यावसायिक संरचना अब आधुनिक व्यावसायिक संरचना से स्थानान्तरित हो रही है।
राजधानी दिल्ली में पानी की स्थिति
बरसात का पानी बहकर कई नदी नालों के जरिए यमुना में जाकर मिलता है। घरों से निकला पानी प्रतिदिन उसी वर्षा के पानी के साथ बहकर बसन्त कुंज से निकला सिटी और डिफेंस काॅलोनी से गुजरता हुआ राष्ट्रपति भवन के पीछे से आकर बारापुला के नीचे से गुजरते हुए यमुना में मिलता है। छोटे-बड़े करीब 17 नाले यमुना में गिरते हैं। वजीराबाद में यमुना का पानी लगभग पूरी तरह बाँध लिया जाता है उसके नीचे यमुना में सिर्फ गन्दा पानी ही बहता है। दिल्ली में बरसाती पानी नीचे नालों के माध्यम से बह जाता है या फिर खादर और डाबर इलाकों में जमा हो जाता है। यही पानी फिर भूजल के रूप में प्रकट होता है। जिसको कुओं के द्वारा नांगलोई, महरौली, नजफगढ़ और शाहदरा प्रखण्डों में ट्यूबवेल के द्वारा निकाल कर उपयोग में लाया जाता है। बाकी क्षेत्रों में वजीराबाद से यमुना के पानी को पाइप लाइन के द्वारा भेजा जाता है। दक्षिणी दिल्ली के छतरपुर क्षेत्र में भी भूजल है। पहले शहर का विस्तार रिज और यमुना के मध्य था। जैसे-जैसे शहर का विस्तार रिज को पार कर पश्चिमी क्षेत्रों में बढ़ता गया वहाँ का दूषित पानी भी नजफगढ़ नाले से होता हुआ वजीराबाद के ऊपर यमुना में आकर गिरने लगा जिससे पानी लगातार दूषित होता चला जा रहा है।
वास्तव में दिल्ली में जल संकट कुप्रबन्धन का परिणाम है। यह मानव निर्मित है न की प्राकृतिक। कुछ आवश्यकता से अधिक उपभोग कर रहे हैं तो कुछ की जरूरत भी पूरी नहीं हो पाती। समस्या को उल्टा करके देखा जाता है। हरदम सप्लाई बढ़ाने की बात होती है जबकि दिल्ली के पास अपना कोई जलस्रोत भी नहीं है। आये दिन जल विवाद पर पड़ोसी राज्यों की धमकियाँ आम बात है। पानी के निजीकरण से वितरण में और ज्यादा असमानता आएगी। अमीरों का उपभोग बढ़ेगा और गरीबों का घटेगा जिससे उनकी जीवन गुणवत्ता सीधे तौर पर प्रभावित होगी।
यह अध्ययन राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के दक्षिण जिले का है। जो एक नगरीय गाँव ‘शाहपुर जट’ के जल संकट के विशेष सन्दर्भ में है। अध्ययन के लिये इस क्षेत्र का चुनाव इसलिये किया गया क्योंकि जल संकट की दृष्टि से दिल्ली का दक्षिणी जिला सबसे अधिक त्रस्त है। यह दिल्ली का ऊँचा एरिया है जहाँ भूजल स्तर भी काफी नीचे है और पानी वितरण की सार्वजनिक व्यवस्था भी सर्वाधिक लचर है। दक्षिण दिल्ली के महरौली गाँव में गत वर्षों में जल की सबसे कम उपलब्धता रही है। इसलिये प्रस्तुत अध्ययन को जल संकट के विभिन्न कारणों, परिणामों और प्रभावों की दृष्टि में दक्षिण दिल्ली के एक नगरीय गाँव पर केन्द्रित किया गया और उन्हें समझने के प्रयासों के साथ ही इस क्षेत्र में जल संकट के सम्भावित समाधानों को भी खोजने की दिशा में तथ्य जुटाने के प्रयास किये गए हैं।
नगरीय गाँव ‘शाहपुर जट’ के विभिन्न हिस्सों के 162 परिवारों से जल से जुड़े आँकड़े लिये गए। अध्ययन के प्रथम चरण में प्रत्येक परिवार से जल सम्बन्धी सामान्य सूचनाएँ एकत्रित की गई। परिवार के एक व्यक्ति का सघन साक्षात्कार किया गया। विभिन्न सूचनाओं को साक्षात्कार अनुसूची के माध्यम से एकत्र किया गया। दूसरे चरण में ग्रामीणों से समूह चर्चाएँ और औपचारिक-अनौपचारिक बातचीत के माध्यम से जल संकट के कारणों को समझने का प्रयास रहा। सम्पूर्ण क्षेत्र-कार्य (Field Work) के दौरान अवलोकन को एक अतिरिक्त अध्ययन विधि के तौर पर इस्तेमाल करते हुए सार्वजनिक जल व्यवस्था की आधारभूत संरचना, पाइप लाइन का विस्तार, अवैध कनेक्शनों की स्थिति, लीकेज एवं अन्य स्थितियों का जायजा लिया गया। तृतीय चरण में गाँव के प्राचीन जल स्रोतों, तालाबों, जोहड़ों, कुओं के बारे में गाँव के बुजुर्गों से जानने का प्रयास किया गया।
नगरीय गाँव के निवासियों द्वारा जल के उपयोग और दुरुपयोग की बात तो तब आती है जब उन्हें पर्याप्त जलापूर्ति होती हो। दक्षिण दिल्ली के महरौली गाँव में प्रतिदिन मात्र 20 लीटर प्रति व्यक्ति के हिसाब से जलापूर्ति होती है। वहीं दिल्ली के पाॅश एरिया छावनी क्षेत्र में 510 लीटर प्रति व्यक्ति/प्रतिदिन की जलापूर्ति है। दिल्ली जल बोर्ड के इस आँकड़े से ही स्पष्ट है कि दिल्ली में कौन पानी का उपयोग करता है और कौन दुरुपयोग? इससे स्पष्ट है कि कौन पानी का संकट झेलता है और कौन पानी से खेलता है? सूचना दाताओं ने 30 से 60 मिनट प्रतिदिन पानी आने की बात स्वीकार की। 59 प्रतिशत सूचनादाता आधे घंटे से एक घंटे तक पानी आपूर्ति बताने वाले पाये गए। वहीं आधे घंटे से भी कम आपूर्ति वाले लोग भी कम नहीं थे ऐसे लोगों का प्रतिशत 27.7 प्रतिशत तक पाया गया। मात्र 3.7 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने डेढ़ घंटे तक पानी आने की सूचना प्रदान की। 24 घंटे में मात्र आधे से एक घंटे पानी की आपूर्ति होना किसी भी स्तर पर मानकों के अनुरूप नहीं है जल आपूर्ति के समय से ही जल संकट का पता चल जाता है जबकि यह नगरीय ग्रामीण बसाहट दिल्ली के पाॅश हिस्से दक्षिणी दिल्ली में है और उसके चारों ओर प्रथम क्षेत्रों की काॅलोनियाँ हैं (हौज खास, पंचशील, एशियाड विलेज क्लब आदि है)।
तालिका से स्पष्ट है कि ग्रामीणों द्वारा पानी का उपयोग प्रतिदिन कितनी बाल्टी परिवार के स्तर पर किया जा रहा है या जरूरी है। प्राप्त तथ्यों से सामने आया कि सर्वाधिक उत्तरदाताओं ने दिन भर में दस से बीस बाल्टी पानी उपयोग की बात स्वीकार की। ऐसा कहने वालों का प्रतिशत सर्वाधिक 38.2 प्रतिशत था वही 22.8 प्रतिशत परिवार ऐसे थे जो 20-30 बाल्टियाँ तक उपयोग करते थे। 12.3 प्रतिशत सहभागियों ने 30-40 बाल्टियों के उपयोग की बात कहीं। मात्र 12 परिवार ऐसे थे जो 40 से ऊपर बाल्टियों को इस्तेमाल करते थे। लगभग इतने ही उत्तरदाताओं ने अन्दाजा न होने की बात कही। दिल्ली के नगरीय गाँवों में, जहाँ अधिकांश मध्यम आकार के और संयुक्त प्रकार के परिवारों का आधिक्य है, वहाँ लगभग 40 प्रतिशत परिवारों को 10-20 बाल्टी पानी उपलब्ध होना मानकों के कहीं तक भी अनुरूप नहीं है। वही 10 प्रतिशत परिवारों को दस बाल्टी से कम पानी उपलब्ध है। मात्र 23 प्रतिशत परिवार 20-30 बाल्टी पानी का उपभोग करते हैं। मात्र 12 प्रतिशत परिवार 30-40 बाल्टी इस्तेमाल कर पाते हैं। 2 परिवार ऐसे थे जो 40 बाल्टी से ऊपर पानी इस्तेमाल कर रहे थे।
दिल्ली के विस्तार और विकास में ये नगरीय गाँव जरिया जरूर बने हैं पर विकास के हर मास्टर प्लान में ये उपेक्षित होते गए। सरकारी नीतियों की ये उपेक्षा ही इन गाँवों में आधारभूत संकटों का मुख्य कारण बनी। दक्षिणी दिल्ली के शाहपुर जट गाँव में जल संकट के कारणों की पड़ताल करने के दौरान पाया कि 40.7 प्रतिशत ग्रामीणोें के लिये पानी मुख्य समस्या बना हुआ है। वहीं 50 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने पानी सीवर बिजली को वरीयता क्रम में मुख्य समस्या के तौर पर स्वीकारा है। सफाई को समस्या बताने वालों का प्रतिशत मात्र 6 था। वहीं तीन प्रतिशत उत्तरदाताओं के लिये गाँव में कोई भी समस्या नहीं थी। वास्तव में नगरीय गाँवों के लिये ‘जल संकट’ ही मुख्य समस्या है और उससे उनकी अधिकांश समस्याएँ जुड़ी हैं। सीवर समस्या भी कहीं-न-कहीं पानी की कमी के कारण ही उत्पन्न होती है। बिजली व सफाई उनके जीवन में पानी से बहुत बाद में महत्त्व रखती है। अतः पानी की कमी बड़ी समस्या है। मजबूत आर्थिक स्थिति वाले लोग तो पानी खरीदकर या सामूहिक टैंकर मँगवाकर उस कमी को पूरा कर लेते हैं और अपने उपभोग का सूचकांक नीचे नहीं गिरने देते हैं। जलापूर्ति में कमी कमजोर आर्थिक स्थिति और गरीब लोगों, मजदूरों तथा बाहरी लोगों के लिये इन बसाहटों में बड़ी और गम्भीर समस्या है। महानगरों की तरफ रोजगार की तलाश में लोगों का अधिक संख्या में आना तथा दूसरी ओर महानगर के उपेक्षित पिछड़े इलाकों में आधारभूत संरचना का कमजोर होना बड़ा कारण हैं। जहाँ 46.3 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने जनसंख्या के दबाव को जल संकट की मुख्य वजह बताया, वहीं 25 प्रतिशत सहभागियों ने पानी वितरण की असमानता को मुख्य कारण बताया।
11.8 सूचनादाताओं ने अवैध कनेक्शनों को पानी संकट के लिये जिम्मेदार बताया और 17.3 प्रतिशत ने पाइपों से पानी लीकेज को जल संकट की जड़ बताया। इन गाँवों में लगातार बढ़ती बाहरी आबादी इस संकट को बढ़ा रही है। पानी वितरण की असमानता तो जग जाहिर कारण है ही।
दिल्ली के नगरीय गाँव में जल संकट के परिणामों की परिणति विभिन्न रूपों में सामने आ रही है। आये दिन दिल्ली के अखबार जल संकट की स्थितियों से उत्पन्न परिणामों जल विवादों, लड़ाई झगड़ों, आपसी प्रतिस्पर्धा, जलचोरी और सीना जोरी के समाचारों से भरे रहते हैं। जहाँ तक शाहपुर जट गाँव में जल संकट के परिणामों का सवाल है तो अध्ययन के दौरान अनेक बार अनौपचारिक बातचीत में यह उभरकर सामने आया कि इस गम्भीर समस्या को ग्रामीण स्थानीय कारकों का परिणाम मानते हैं। सर्वेक्षण के दौरान 12 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने अवैध कनक्शनों को अपने क्षेत्र में जल संकट का कारण बताया। इससे स्पष्ट है कि ग्रामीण जल संकट की इस उलझी हुई समस्या को अपने आस-पास की ही वजह मानते है जबकि यह उस सम्पूर्ण व्यवस्था के दोषों का परिणाम है जो जलापूर्ति के अन्यायपूर्ण वितरण से शुरू होती है। यहीं कुछ लोगों के द्वारा पानी के चोरी करने और अवैध कनेक्शनों के परिणाम के रूप में उभरकर सामने आता है।
इसी के साथ जल संकट के अनेक परिणाम समाज को भुगतने पड़ते हैं। आपस में बढ़ते तनाव, जलस्रोतों को लेकर झगड़े, ये सब जल संकट के परिणामों के रूप में समझे जा सकते हैं। इस गाँव मे संयुक्त परिवार व्यवस्था बड़े स्तर पर मौजूद है और बड़े आकार के परिवारों की मौजूदगी इन गाँवों में देखी गई। आय के स्तर पर अधिकांश परिवार 5 से 10 हजार रुपए प्रतिमाह आय स्तर के ही हैं जिनके लिये पानी को खरीदकर इस्तेमाल करना सहज नहीं है। अतः इससे स्पष्ट है कि कम जलापूर्ति के कारण और कम आय स्रोतों के कारण इस जल संकट का प्रभाव सीधा उनके जीवन पर पड़ता है तथा उनकी गुणवत्ता को प्रभावित करता है। अनौपचारिक बातचीत में उभरकर आया कि कुछ परिवार मजबूरी वश जरूरी खर्चाें में कटौती कर पानी को खरीदते हैं। बड़े परिवारों की आय का एक बड़ा हिस्सा पानी संकट से उभरने में ही जाया हो जाता है। इन नगरीय गाँव में जितना एकल परिवारों को पसन्द किया जा रहा है (24 प्रतिशत) उससे अधिक प्रतिशत (24.7 प्रतिशत) अभी भी बड़े परिवारों को पसन्द करने वाले वहाँ मौजूद हैं। अतः इन नगरीय गाँवों में पारम्परिक परिवार व्यवस्था बहुत हद तक अपना आकार बचाए हुए है। निष्कर्षतः यह स्पष्ट है कि भारत में नगरीकरण की रफ्तार कितनी भी तेज हो अभी भी भारतीयों के लिये संयुक्त परिवार का आकर्षण बरकरार है। नगरीय गाँव का यह अध्ययन बताता है कि लगभग दो तिहाई परिवार संयुक्त प्रकार के हैं या संयुक्त परिवार प्रणाली की तरह जी रहे हैं।
निष्कर्ष
1. अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि सर्वाधिक सूचनादाता (59 प्रतिशत) ने पानी की कम समय सप्लाई (30-60 मिनट/दिन) की बात स्वीकार की जो जल संकट की गम्भीर समस्या को इंगित करता है।
2. अध्ययन में यह भी स्पष्ट हुआ कि जहाँ 38.2 प्रतिशत व्यक्ति 10 से 20 बाल्टी पानी का उपयोग करते हैं, वहीं 7.40 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे भी हैं जिन्हे काफी मात्रा में पानी आपूर्ति होती है। पानी का यह असमान वितरण पानी की चोरी, अवैध कनेक्शनों और दंबगई के चलते होता है। गाँव के जो प्रभावशाली लोग हैं वे अधिक पानी कब्जा लेते हैं।
3. गाँव में सर्वाधिक प्रतिशत (72.2 प्रतिशत) संयुक्त परिवारों को पाया गया जोकि गाँव के परम्परागत रहन-सहन को जीवन्त बनाए हुए हैं। स्पष्ट है कि इन बड़े परिवारों में पानी की खपत ज्यादा होती होगी और आपूर्ति का समय कम होने की वजह से संकट स्वाभाविक है।
4. गाँव में जनसंख्या दबाव व पानी का असमान वितरण जल संकट का मुख्य कारण है। उत्तरदाताओं ने जल संकट में जनसंख्या आधिक्य की भूमिका 46.29 प्रतिशत व 24.69 प्रतिशत ने पानी वितरण की असमानता को जिम्मेदार ठहराया।
5. गाँव में 35.80 प्रतिशत लोग निम्न आय वाले थे जिनकी अधिकतर आय पानी पर ही खर्च हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि जल उपलब्धता में निम्न आय वर्ग वालों को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
6. अधिकांश उत्तरदाता 31.48 प्रतिशत गाँव में केवल अपनी पैतृक सम्पत्ति को सम्भाले हुए थे, कुछ पुरानी सम्पत्ति के किराए के लिये या किसी विशेष आयोजन अथवा घटना के दौरान गाँव आते थे।
7. सर्वेक्षण से स्पष्ट हुआ कि गाँव का शैक्षिक स्तर बहुत ही कम था। 32.09 प्रतिशत हाईस्कूल व 25.30 प्रतिशत इंटर शिक्षा प्राप्त उत्तरदाता थे जिससे पता चलता है कि अधिकांश ग्रामीण निम्न व मध्य स्तर तक ही शिक्षित थे और जल सकंट को दूर करने के उपायों से अनभिज्ञ।
8. दैनिक समाचार पत्रों के अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली में जल संकट को लेकर निरन्तर पानी के समाचारों में वृद्वि हुई जो कि अप्रैल में 18.7 प्रतिशत व जून में 30 प्रतिशत तक हो गई।
9. दैनिक समाचार पत्रों के अध्ययन से पाया गया कि पानी को लेकर शिकायत/विरोध प्रर्दशन व झगड़े/रंजिश एवं दुघर्टनाओं के समाचार बड़े पैमाने पर स्थान पा रहे हैं।
अध्ययन से स्पष्ट है कि कहाँ जल का अभाव है और कहाँ जल का प्रभाव है और ऐसा क्यों है? देश की राजधानी में कौन पानी का उपयोग करता है, कौन इसके संकट को झेलता है और कौन पानी से खेलता है? यह पानी की प्रतिदिन आपूर्ति, उसकी उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता से स्पष्ट हो जाता है। विभिन्न जातियों और विभिन्न संस्कृतियों के सम्मिश्रण वाले इस शहरीकृत गाँव चारों ओर से प्रथम श्रेणी की पाॅश काॅलोनियों जैसे हौजखास, एशियाड विलेज, पंचशील जैसे समृद्ध और सम्पन्न क्षेत्रों के बीच बसता है। इन आस-पास के इलाकों में जल संकट के प्रत्यक्ष प्रभाव कभी देखने में नहीं आये जबकि गाँव के लोगों की पानी के लिये लगी कतारें, टैंकरों के इर्द-गिर्द भीड़ और पानी को लेकर बाट जोहते ग्रामीण अक्सर देखे जाते हैं क्योंकि गाँव में परम्परागत स्रोत लगभग पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं। कुछ वृद्ध ग्रामीणों से पूछने पर सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि करीब दस कुएँ गाँव में मौजूद थे जो आज सभी मृतप्रायः है। न ही कोई जोहड़, पोखर या तालाब अब गाँव में बचा है। जागरुकता और ज्ञान के अभाव के कारण अनपढ़ ग्रामीणों में वाटर हार्वेस्टिंग के आधुनिक तौर-तरीकों की भी समझ का अभाव है। इन सबका संयुक्त प्रभाव जल सकंट के बड़े कारण के रूप में देखा जा सकता है। विकास की अन्धी दौड़ में गाँव कंक्रीट के जंगल की तरह फैल रहा है। विकास की सरकारी नीतियों में ये दिल्ली की ग्रामीण बसावटें लगातार उपेक्षित हैं जिन सबका परिणाम इस तरह के आधारभूत संकटों के रूप में सामने आ रहा है। इन्हीं का परिणाम है कि ग्रामीणों में रोज जल सकंट को लेकर लड़ाई-झगड़े, विवाद, अधिकाधिक जल भण्डारण करने की स्पर्धा, पानी की चोरी, छोटे-छोटे कलह आम होते जा रहे हैं। घूस देकर पानी के कनेक्शनों की चोरी करना, अतिरिक्त पाइपलाइन डलवा लेना, टैंकरों को गलत ढंग से बेचना-खरीदना जैसे भ्रष्टाचार सब इसी का परिणाम है।
गत 50-60 वर्षों में दिल्ली में पानी की खपत तीन गुणा बढ़ी है। झुग्गियों, गाँवों और पिछड़े इलाकों में मात्र 30 प्रतिशत ही पानी मिल पाता है। रिहायशी इलाकों में यह वितरण भरपूर है। पानी की कमी वाले इलाकों में पानी के टैंकरों द्वारा पानी भिजवाया जाता है। जिसके लिये 975 टैंकरों का सहारा लिया जाता है। जिनमें 575 टैंकर दिल्ली जल बोर्ड के व 400 प्राइवेट हैं। एक टैंकर प्रतिदिन प्रति शिफ्ट 330 रुपए लेता है। इस प्रकार वर्ष के औसतन 35 करोड़ रुपए टैंकर पर व्यय होते हैं। सरकारी अनुमान बताते हैं कि पाइप द्वारा पानी पहुँचाने में 55 रुपए प्रति वर्ग मीटर खर्च आता है अतः वर्ष में 2.5 लाख से ज्यादा घरों में इस खर्च से पानी पहुँचाया जा सकता है।
जल संकट का समाधान जल संरक्षण, जल स्रोतों के विकास, संवर्धन और उचित प्रबन्धन मेें छिपा है। उस प्रकृति पोषक जीवनशैली में उसका हल है जिसे बचपन से ही स्कूली शिक्षा और अनौपचारिक ढंग से संस्कार के तौर पर हर मनुष्य में रोपने की आवश्यकता है। जीवन में जल की महत्ता को समझने और समझाने की आवश्यकता है। महानगरीय जीवन में जल संकट का समाधान जल के संरक्षण से सम्भव है। यदि वर्षाजल का समुचित ढंग से संचयन किया जाये तो भूजल का स्तर भी बना रहेगा और अतिरिक्त जल बहकर घाटियों और पास की नदियों में चला जाएगा जिससे नदी और छोटे जलस्रोत भी पानीदार हो जाएँगे और बहाव का पैटर्न भी सामान्य बना रहेगा और यह तभी सम्भव है जब बारिश का पानी जहाँ गिरे वहीं रोक लिया जाये। ‘शहर का पानी शहर में, खेत का पानी खेत में’ के माॅडल पर पानी का समुचित संचय हो। वर्षा का पानी मानवीय आवश्यकताओं के लिये बड़ा वरदान है एक अजस्र स्रोत है। विश्व में जहाँ औसतन 87 सेमी बारिश होती है वहीं भारत में वर्ष में औसतन 117 सेमी बारिश होती है। दिल्ली की 500 किमी लम्बी सड़कों पर बहने वाले बरसाती पानी का संचय ही यदि दिल्ली वासी समुचित ढंग से कर लें तो वाटर हार्वेस्टिंग के तरीके अपनाकर इस वर्षाजल का संचयन दिल्ली को जल संकट से चमत्कारिक ढंग से उबार सकता है। इसी के साथ नदी-नालों पर चेकडैम बनाकर जल को रोका जा सकता है तथा भूजल और स्थल जल के तमाम स्रोतों को प्रदूषण से बचाया जा सकता है। गैर जरूरी कार्यों और जल के दुरुपयोग में कमी लाकर जल संरक्षण किया जा सकता है। इस प्रकार महानगरीय जीवन में जल संकट को छोटी-छोटी पहलों से दूर किया जा सकता है।
निष्कर्षतः देश की राजधानी दिल्ली आज जल सकंट की घोर चपेट में है जो अनेकों तकनीकी खामियों, आॅपरेशनल दिक्कतों और वित्तीय समस्याओं का परिणाम है। जल प्रबन्धन की अकुशलता, वितरण प्रणाली का चुस्त-दुरूस्त न होना, भूजल दोहन के समय अधिकांश पानी का बर्बाद हो जाना और जलापूर्ति के दौरान पानी की एक बड़ी मात्र लीकेज के रूप में बर्बाद हो जाना, भूजल स्तर का तीस से पचास मीटर तक नीचे चला जाना, तीव्र गति से बढ़ती आबादी, औद्योगिकरण और नगरीकरण का अन्धाधुन्ध फैलाव जल संकट की जड़ हैं जो एक गम्भीर समस्या बनता जा रहा है और समय रहते समुचित समाधान की माँग कर रहा है।
डाॅ. राकेश राणा
असिसटेंट प्रो. समाजशास्त्र,
पी.टी. जे.एन. पी.जी. कॉलेज,
बांदा, उत्तर प्रदेश,