मिस्र स्थिति : 31°35' उ. अ. से 22°उ. अ. तथा 25°पू. दे. से 37° पू. दे.। अफ्रीका के उत्तर-पूर्वी भाग में सिनाइ प्रायद्वीप सहित नील नदी की निचली घाटी में, जिसके दोनों और रेगिस्तान पड़ते हैं, एक वर्गाकार देश है। इसका क्षेत्रफल लगभग 3,86,000 वर्ग मील, अधिकतम लंबाई 675 मील तथा चौड़ाई 760 मील है। इसका समुद्र तट सपाट है। अरब की पहाड़ियाँ यहाँ की मुख्य पर्वतश्रेणी है। देश की अधिकतम ऊँचाई समुद्रतल से लगभग 8,600 फुट तथा निम्नतम ऊँचाई लगभग 100 फुट तक है। संसार की सबसे लंबी नील नदी यहाँ बहती है तथा मुख्य खाड़ियाँ स्वेज और ऐबुकिर की खाड़ी हैं।
धरातल- प्राकृतिक लक्षण के विचार से नील नदी के चारों ओर मिस्र के आबाद हिस्से को दो भागों में बाँट सकते हैं : (क) निचला मिस्र, जो नील नदी के डेल्टा वाले भाग में पड़ता है। ये उत्तरी मिस्र भी कहलाता है, जो भूमध्य सागर से लेकर काहिरा तक विस्तृत है। (ख) उच्च मिस्र, जो दक्षिणी सीमा तक नील नदी की घाटी की पतली पट्टी में विस्तृत है। इस प्रकार मिस्र की ढालश् नील नदी के अनुरूप सामान्यत: दक्षिण से उत्तर की ओर है।
मिस्र का भूपृष्ठ केवल नील नदी के आस पास अधिक चौरस है। नदी के पश्चिम की भूमि धीरे धीरे ऊँची होती गई है (लगभग 1,000 फुट तक),जहाँ हवा के प्रभाव से निर्मित चिकनी चट्टानें तथा लिबिया की रेगिस्तानी बालू दृष्टिगोचर होती है। नदी के पूर्वी ओर अरब के रेगिस्तान का विस्तार पाया जाता है, जो और आगे चलकर लाल सागर के निकट लगभग 7,000 फुट ऊँची पहाड़ियों के रूप में परिणत हो जाता है। नदी के पश्चिमी ओर काहिरा के उत्तर में लगभग 50 मील दूर फायूम की उपजाऊ निम्नभूमि है।
मिस्त्र का अधिक भाग जलविहीन है। केवल नील नदी ही जल का स्रोत है। निचले मिस्त्र में नील से नहरें भी निकाली गई हैं जिनका उपयोग जलमार्गो के रूप में तथा खेतों की सिंचाई के लिये किया जाता है। विश्वविख्यात स्वेज नहर भूमध्य सागर तथा लाल सागर को उत्तर-पूर्वी मिस्त्र में सिनाइ प्रायद्वीप से होकर जोड़ती है। कहीं कहीं पर मरूद्यान भी दृष्टिगोचर होते हैं, जहाँ भूमिगत जल के प्रभाव के कारण अत्यधिक पौधे उग सकते हैं।
मिस्त्र में शुष्क तथा गर्म रेगिस्तानी जलवायु पाई जाती है। दिन में सूर्य की प्रखरता के कारण अत्यधिक गरमी तथा रात में बालू की शीतलता के कारण अत्यधिक ठंडक पड़ती है भूमध्यसागरीय तट को छोड़कर देश के अधिकांश भाग में वर्षा नहीं होती। भूमध्यसागरीय तट की औसत वार्षिक वर्षा आठ इंच के लगभग है। ऊपरी नील की ओर यह औसत केवल एक इंच के लगभग रह जाता है। मिस्त्र में दक्षिण की ओर से आने वाली हवाओं को खामसिन कहते हैं। इन हवाओं के साथ गरमी में बालू एवं धूल के भीषण तूफान आते हैं।
मिस्त्र की जनसंख्या लगभग 2,80,30,000 (अनुमानित 1963) है। यहाँ की 9/10 जनसंख्या नील नदी के दोनों ओर एक पतली पट्टी में निवास करती है। नील के डेल्टों तथा घाटी में कहीं कहीं जनसंख्या का घनत्व 1,500 व्यक्ति प्रति वर्ग मील हो गया है। कुछ भ्रमणशील जातियाँ लिबिया के रेगिस्तान में एक मरूद्यान से दूसरे मरूद्यान में घूमती रहती हैं, परंतु मिस्त्र के रेगिस्तानों के बहुत से भाग बिल्कुल ही जनविहीन हैं।
कार्य और रहन सहन के आधार पर मिस्त्र के निवासियों को तीन समूहों में विभाजित कर सकते है: (क) फेलाहिन अथवा कृषक, इनकी संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 2/3 है जो अपने पूर्वजों की भाँति सैकड़ों वर्षो से खेती करते आ रहे हैं। इनकी आकृति इनके पूर्वजों की ही भाँति भिन्न-भिन्न है। ये अरबी भाषा बोलने तथा सामन्यत: मुस्लिम धर्म को मानने वाले होते हैं, यद्यपि कुछ लोग ईसाई धर्म को भी मानते हैं। (ख) बद्दू, इनका वर्ग बहुत छोटे पैमाने पर हैं। ये रेगिस्तान के अरबी भाषा बोलने वाले आदिवासी होते हैं। कुछ बद्दू नदी के किनारे अथवा हरे भरे मरूद्यानों में स्थायी खेमों में निवास करते हैं। कुछ लोग एक रेगिस्तान से दूसरे रेगिस्तान में अपनी भेड़ों तथा घोड़ों को लेकर भ्रमण किया करते हैं और छोटे मोटे भूभागों पर निवास करते हैं। (ग) व्यापारी तथा व्यवसायी, यह सबसे छोटा समूह है जो शहरों में निवास करता है। इसमें अधिकतर विदेशी खासकर यूनानी, तुर्की, इतालवीय, अंग्रेज तथा फ्रंासीसी सम्मिलित हैं।
कृषि- मिस्त्र के लोगों का मुख्य धंधा कृषि है। खेत अधिकतर नील नदी के निकट लगभग 12 मील की चौड़ाई में फैले हैं। कम वर्षा या वर्षारहित दिनों में नील की घाटी में कृषि सिंचाई पर निर्भर करती है। बाढ़ के समय नदी का पानी खेतों में फैल जाने के कारण साल में एक बार अपने आप सिंचाई हो जाती है और खेतों में बाढ़ द्वारा लाई हुई नई उपजाऊ मिट्टी भी बिछ जाती है। इसी समय शीघ्र फसलें रोपकर मिट्टी में नमी के विद्यमान रहने तक आवश्यक उत्पादन कर लिया जाता है। अब तो बाढ़ के जल को नियंत्रित एवं संचित करने के लिये आर-पार बड़े बड़े बाँध तथा फाटक बन गए हैं और आवश्यकतानुसार पानी को नहरों द्वारा खतों में पहुँचाकर दो या कभी तीन फसलें प्रति वर्ष उगा ली जाती हैं। मिस्त्र की मुख्य फसलों में लंबी रेशे वाली कपास, गेहूँ, धान, गन्ना, फलियाँ (बीन), प्याज, मसूर, शकरकंद, खजूर आदि हैं।
उद्योगधंधे- उद्योगों में मिस्त्र बहुत पिछड़ा हुआ है,परंतु अब इसपर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
खनिज पदार्थ- मिस्त्र के पूर्वी पर्वतों से सोना, ऐस्वैन और ऐल बहारिया के निकट से लोहा, जस्ते की प्राचीन खानों के निकट सिनाइ प्रायद्वीप से मैंगनीज, नील डेल्टा के दलदल से नमक और पूर्वी तट के किनारे तेल के अतिरिक्त फॉस्फेट, जस्ता, फिटकरी, जिप्सम, बेरिल, ग्रेनाइट, सैडस्टोन तथा चूना पत्थर आदि प्राप्त जाते हैं।
यातायात- नील नदी मिस्त्र के लिये एक बहुत बड़ा जलमार्ग है। रेलें मिस्त्र के आधुनिक शहरों को आपस में जोड़ती है सड़के देश के आबाद भागों में स्थित हैं। वायुयान देश के मुख्य शहरों को एक दूसरे के साथ तथा अफ्रीका, यूरोप, भारत एवं सुदूर पूर्व के नगरों को जोड़ते हैं। रेगिस्तानी बालू के क्षेत्रों में, जहाँ यात्रा का अन्य कोई साधन संभव नहीं है, वहाँ ऊटों द्वारा यातायात संभव होता है।
काहिरा, एलेग्जेंड्रेया, अस्यूट, डैमिएटा, एल ऐलामेन, एल मंसूरा, पोर्ट सईद, स्वेज, मेंफिस, थीबीज, टॉन्टॉ आदि मिस्त्र के आधुनिक नगर हैं। काहिरा यहाँ की राजधानी है। (रा. स. ख.)
इतिहास और संस्कृति- यह प्रदेश बड़ा ऊबड़खाबड़ है। इसमें कम से कम छह स्थलों पर नदी पर्वतीय शिलाओं को काटकर सीधा मार्ग बनाने में सफल नहीं हो पाई है। ये स्थल महाप्रपात कहलाते हैं। अंतिम महाप्रपात, जो मिस्त्र की ओर से गिनने पर पहला कहा जाएगा, एलिफेंटाइन के समीप है। इसके उत्तर में नील की निचली या उत्तरी घाटी है। यही मिस्त्र देश है। इसे भी दो भागों में विभाजित किया जाता है: दक्षिणी मिस्र जिसमें केवल घाटीवाला प्रदेश सम्मिलित किया जाता है और उत्तरी मिस्र जिसके अंतर्गत नील का मुहाना आता है। मिस्र के मध्यवर्ती भाग में नील के 10 से 20 मील चौड़ी और 30 से 40 फुट मोटी उर्वर मिट्टी की पट्टी बना दी है। यह उर्वर प्रदेश, जो मिस्र के कुल क्षेत्रफल का केवल 3.5 प्रतिशत है, 10,000 वर्गमील से अधिक नहीं है। यह भारत के केरल राज्य के लगभग बराबर है। मिस्र का यही भाग मनुष्य के निवास योग्य है। इसीलिये इतिहास पिता हेरोडोटस ने मिस्र को नील का वरदान कहा था।
आधुनिक काल में मिस्री विद्या का अध्ययन नेपोलियन के मिस्री अभियान (1897 ई.) और शांपोल्यों (1790-1832 ई.) नामक फ्रेंच विद्वान् द्वारा रोजेटा प्रस्तर की सहायता से मिस्री चित्राक्षर लिपि के उद्वाचन से प्रारंभ होता है। मिस्र के अधिकांश स्मारक धरातल के ऊपर हैं, इसलिये इनपर उत्कीर्ण अभिलेखों का अध्ययन करने के लिये इनकी लिपि से परिचय मात्र की आवश्यकता थी। मिस्त्री इतिहास पर प्रकाश डालनेवाले प्राचीन लेखकों में हेरोडोटस तथा डायोडोरस प्रमुख हैं, परंतु उनके विवरण विशेष ज्ञानवर्धक नहीं हैं। सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन रचना है तीसरी शती ई. पू. के मनेथो नामक मिस्री पुजारी की। आजकल उसकी कृति का जूलियस अफ्रीकेनस, यूसीबियस तथा जोसेफस प्रभृति परवर्ती लेखकों की रचनाओं मे उद्वरणों के रूप में सुरक्षित लगभग आधा भाग ही प्राप्य है। इसमें मनेथो ने प्राचीन मिस्री राजाओं को सूचीबद्ध करके उन्हें तीस वंशों में विभाजित किया था। यह विभाजन अनेक दोषों के बावजूद अत्यंत उपयोगी और सत्य के काफी निकट सिद्ध हुआ है।
प्रागैतिहासिक युग में उत्तरी मिस्र में लीबियन और सेमेटिक जातियाँ निवास करती थीं। इनके अतिरिक्त एक तीसरी जाति और थी जिसके सदस्यों का सिर बड़ा, चेहरा गोल और नाक छोटी होती थी। यह जाति दक्षिणी मिस्र में प्रागैतिहासिक युग में अज्ञात थी, परंतु ऐतिहासिक युग में धीरे-धीरे वहाँ भी फैल गई थी। दक्षिणी मिस्र में निवास करने वाली जाति जिसका ज्ञान हमें उस युग की समाधियों से प्राप्त अवशेषों और मूर्तियों आदि से होता है छोटे सिर वाली थी। जैसा मिस्र की ट्यूबसम आकृति से स्पष्ट है, नील की उपरली घाटी में इसका प्रवेश निश्चित रूप से मिस्र के दक्षिण से हुआ होगा।
सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से मिस्री इतिहास को कई भागों में विभाजित किया जाता है। प्रथम दो वंशों के शासनकाल में मिस्रीश् सभ्यता से प्राग्वंशीय सभ्यता विशेष भिन्न नहीं थीं, इसलिये मिस्त्री सभ्यता के प्राचीनतम युग का अध्ययन करते समय प्रथम दो वंशों के शासनकाल को उसी में सम्मिलित कर लिया जाता है। तीसरे वंश की स्थापना से लेकर बीसवें वंश के पतन तक के सुदीर्घ युग में मिस्री सभ्यता के तीन काल माने गए हैं। 'प्राचीन राज्य युग' अथवा 'पिरेमिड युग' जिसमें तीसरे से छठे वंशों ने राज्य किया; 'मध्य राज्य युग' जिसमें 11वें और 12वें वंशों ने राजय किया; तथा 'साम्राज्य युग' जिसमें 18 वें से लेकर 20 वें वंशों ने शासन किया। इन युगों के मध्यवर्ती युगों में और 20 वें वंश के पतन के पश्चात् मिस्र प्राय: आंतरिक दौर्बल्य और विदेशी आक्रमणों का शिकार रहा।
प्राग्वंशीय मिस्र प्रारंभ में छोटे छोटे नगर राज्यों में विभाजित था। ये नगर 4000 ई. पू. के लगभग संयुक्त होकर दो राज्यों में एकीकृत हो गए:-उत्तरी अथवा नील के मुहाने का राज्य और दक्षिणी अथवा नील की घाटी का राज्य। नेखेब (आधुनिक अलकाब) दक्षिणी राज्य की राजधानी थी। इसके राजा लंबा श्वेत मुकुट धारण करते थे। उनका राजप्रासाद नेखेन और कोषागार 'श्वेत भवन' कहलाता था। उनका राजचिह्न लिली पौधे की शाख एवं संरक्षिका ग्ध्रृादेवी नेखबत थी। उत्तरी राज्य की राजधानी बूटो, संरक्षिका इसी नाम की नागदेवी और उसका विशिष्ट रंग लाल थी। इसलिये उसके राजा लाल मुकुट धारण करते थे और उनके राजप्रासाद और कोषागार क्रमश: 'पे और रक्तभवन' कहलाते थे। उनके राजचिह्न पेपाइरस का गुच्छा और मधुमक्खी थे।
उत्तरी और दक्षिणी राज्यों को संयुक्त करके राजनीतिक एकता और प्रथम वंश की स्थापना दक्षिणी मिस्र में एबाइडोस के समीप स्थित तेनी (यूनानी थिस अथवा थिनिस) नामक स्थान के निवासी मेना (यूनानी मेनिज) ने की थी। उसके बाद प्रथम दो वंशों के 18 नरेशों ने 420 वर्ष (लगभग 3400-2980 ई. पू. तक) राज्य किया। तृतीय सहस्राब्दी ई. पू. के प्रारंभ में द्वितीय वंश के पतन और जोसेर के नेतृत्व में तृतीय वंश की स्थापना (2980 ई. पू.) से मिस्र के इतिहास के पिरेमिड अथवा प्राचीन राज्य युग का प्रारंभ हुआ जो 2475 ई. पू. में छठे वंश के पतन तक चला। जोसेर के शासनकाल में मेंफिस (मेन नो फेर) का प्रभुत्व दृढ़रूपेण स्थापित हुआ और उसके मंत्री इम्होतेप ने सक्कर के सीढ़ीदार पिरेमिड का निर्माण करके पाषाण वास्तुकला को जन्म दिया। जोसेर के एक उत्तराधिकारी नेफु ने विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन दिया, उत्तरी नूबिया में विद्रोही जातियों को परास्त किया तथा पहले ढ़लवाँ पिरेमिड का निर्माण कराया। मिस्र के चौथे वंश के संस्थापक खूफू ने मिस्र का विशालतम पिरेमिड बनवाया तथा उसके पुत्र खेफे ने एक लघुतर पिरेमिड और संभवत: विशाल स्फिंकस भी बनवाया। पंचम वंश के संस्थापक यूसेरकाफ तथा उसके पुत्र सहुरे ने मिस्र की नौशक्ति में वृद्धि की तथा फिनीशिया और देवभूमि 'पुंट' पर सफल आक्रमण किए। परंतु इसके बावजूद उनके शासनकाल में रे के पुजारियों, सामंतों और सेनापतियों की महत्वाकांक्षाएँ बढ़ जाने के कारण फेराओ की शक्ति शनै: शनै: कम होती गई। राजपद की इस ्ह्रासोन्मुखी प्रतिष्ठा को बढ़ाने का महानीय कार्य किया छठे वंश के प्रथम दो फेराओ तेती द्वितीय और पेपी प्रथम ने। पेपी प्रथम के एक उत्तराधिकारी पेपी द्वितीय ने, जो राज्यारोहण के समय शिशु मात्र था, मनेथो के अनुसार 94 वर्ष राज्य किया। विश्व इतिहास में उसके शासनकाल को दीर्घतम माना जा सकता है।
2475 ई. पू. में छठे वंश के पतन के बाद लगभग तीन सौ वर्ष तक मिस्र में घोर अव्यवस्था रही और स्थानीय सामंत लगभग स्वतंत्र रूपेण शासन करने लगे। उनकी शक्ति तोड़ने में कुछ सफलता ग्यारहवें वंश (2160-2000 ई. पू.) के राजाओं ने प्राप्त की। लेकिन लगभग समस्त मिस्र के स्वामी होते हुए भी वे सामंतवादी व्यवस्था को बदलने में असमर्थ रहे। उनसे अधिक सफलता बारहवें वंश (2000-1788 ई. पू.) के शासकों को मिली। इस वंश का संस्थापक एमेन म्हेत प्रथम था। इन दो वंशों के राजाओं का शासनकाल सांस्कृतिक प्रगति के लिये प्रसिद्ध है।
1788 ई. पू. में 12वें वंश के पतन के साथ सामंतों में सत्ता हड़पने के लिये पुन: संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस अराजकता के कारण वे 1765 ई. पू. में एशिया से आने वाले हिक्सोस नामक आक्रमणकारियों को नहीं रोक पाए। हिक्सोस सांस्कृतिक दृष्टि से मिस्रियों से बहुत पिछड़े थे। लेकिन वे अश्वों और रथों के प्रयोग से परिचित थे, इसलिये मिस्रियों को लगभग दो सौ वर्ष तक अपने अधीन रखने में सफल रहे (13 वाँ-17वाँ वंश)। उनको देश से खदेड़ने का महनीय कार्य किया अहमोस प्रथम ने। उसके द्वारा अठारहवें वंश की स्थापना से मिस्री इतिहास का 'साम्राज्य युग' प्रारंभ होता है। उसके एक उत्तराधिकारी थटमोस प्रथम ने अपनी सत्ता कार्शैमिश तक स्थापित की। उनकी पुत्री हतशेपशुत विश्व इतिहास की पहली पूर्ण सत्तासंपन्न शासिका थी। हतशेपशुत के उत्तराधिकारी थटमोस तृतीय को 'प्राचीन मिस्र का नेपोलियन' कहा जाता है। उसने पश्चिमी एशिया पर पंद्रह बार आक्रमण किए थे। उन्नीसवें वंश के शासकों में रेमेसिस द्वितीय सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वह साहसी और बलवान् था। युद्धकला में भी उसकी उतनी ही रुचि थी जितनी प्रेमव्यापार में। फिलिस्तीन विजय के बाद उसने हित्तियों के विरुद्ध कादेशाँ की प्रसिद्ध लड़ाई लड़ी। 1261 ई. पू. में उसने हित्तियों से इतिहास प्रसिद्ध संधि की। वह महान् भवन निर्माता भी था।
बीसवें वंश के काल में फेराओ रेमेसिस तृतीय के शासन काल तक मिस्र का कुछ एशियाई प्रांतों पर नियंत्रण बना रहा। लेकिन उसके बाद स्थिति शीघ्रता से बिगड़ी और बारहवीं शती ई.पू. के मध्य तक मिस्र का एशियाई साम्राज्य अतीत की कहानी रह गया। इस वंश का पतन और 21 वें वंश की स्थापना 1090 ई. पू. में हुई। उसके बाद मिस्र एक शती तक दुर्बल परंतु, स्वतंत्र रहा। दसवीं शती के मध्य उसकी स्वतंत्रता का भी अंत हो गया और कई शती तक क्रमश: लीबियनों, इथियोपियनों असीरियनों का प्रभुत्व उसे मानना पड़ा।
663 ई. पू. में नील के मुहाने के पश्चिमी भाग में स्थित साइस स्थान के एक महत्वाकांक्षी शासक साम्तिक ने असीरियन सेनाओं को निकाल बाहर किया और कई शती बाद मिस्र में एक स्वतंत्र राज्य (26 वाँ वंश) की स्थापना की। उसके उत्तराधिकारी 525 ई. पू. तक राज्य करते रहे। नीको द्वितीय के शासनकाल में तो उन्होंने एशिया पर भी आक्रमण किए। उनके शासनकाल को साइतयुग कहा जाता है। 525 ई. पू. में उनका पतन हो गया और मिस्र हखामशी साम्राज्य में मिला लिया गया। फारसी आधिपत्य के अंत (332 ई. पू.) के बाद मिस्र पर पहले यूनानियों (332-48 ई. पू.) और तत्पश्चात् रोमनों ने शासन किया। 30 ई. पू. में इसे रोम साम्राज्य का एक प्रांत बना लिया गया। इस प्रकार मिस्र की पाँच सहस्र वर्ष पुरानी सभ्यता और पृथक राजनीतिक अस्तित्व का अंत हुआ।
मिस्री शासन व्यवस्था पूर्णत: धर्मतांत्रिक थी। मिस्री नरेश सूर्यदेव रे के प्रतिनिधि होने के कारण स्वयं देवता माने जाते थे। मृत्यु के बाद उनकी पूजा उनके पिरेमिड के सामने बने मंदिर में होती थी। यह विश्वास कालांतर में इतना दृढ़ हो गया कि चौथी शताब्दी ई. पू. में सिकंदर को भी अपने को एमन-रे का पुत्र घोषित करके मिस्री जनता को संतुष्ट करना पड़ा था। उनके प्रजाजन उनका नाम तक लेने से झिझकते थे, इसलिये इन्हें प्राय: 'अच्छा देवता' अथवा 'पेर ओ' (बाइबिल का फेरओ) कहा जाता था। राज्य की आय का एक बहुत बड़ा भाग उनके हरम और परिवार के भरण पोषण पर व्यय किया जाता था। सिद्धांतत: वे राज्य के सर्वेसर्वा होते थे। वे न केवल राज्याध्यक्ष होते थे वरन् सर्वोच्च, सेनापति, सर्वोच्च पुजारी और सर्वोच्च न्यायाधीश भी होते थे। लेकिन व्यवहार में सामंतो, पुरोहितों, प्रभावशाली पदाधिकारियों और चहेती महारानियाँ की इच्छाएँ तथा राज्य की परंपराएँ उनकी निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। वे कानून के निर्माता न होकर उसके संरक्षक माने जाते थे। फेरओं के बाद राज्य का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति प्रधान मंत्री था। वह राज्य का प्रधान वास्तुकार, प्रधान न्यायाधीश और राजाभिलेख संग्रहालय का अध्यक्ष होता था। तीसरे वंश के तीन मंत्री इम्होतेप, केगेग्ने तथा टा:होतेप ने अपने ज्ञान के बल पर अतुल कीर्ति अर्जित की। मिस्री राज्य का एक अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारी 'प्रधान कोषाध्यक्ष' था। वह संपूर्ण देश की वित्त व्यवस्था को नियंत्रित रखता था। शासकीय सुविधा के लिये मिस्र लगभग 40 प्रांतों मे विभाजित था। ये वास्तव में वे प्राचीन राज्य थे जिनको एकीकृत करके प्रथम वंश के पहले दो राज्य - उत्तरी और दक्षिणी - स्थापित किए गए थे। लेकिन अब इन पर स्वतंत्र राजाओं के स्थान पर फेरओ द्वारा नियुक्त गवर्नर राज्य करते थे। मध्य राज्य युग में प्रांतीय गवर्नरों तथा सामंतों की शक्ति विशेष रूप से बढ़ी और साम्राज्य युग में सम्राट की।
मिस्री समाज पाँच वर्गो में विभाजित था- राजपरिवार, सामंत, पुजारी, मध्यमवर्ग तथा सर्फ और दास। भूमि सिद्धांतत: फेरओ के हाथ में थी। व्यवहार में उसने इसे अधिकांशत: पुजारियों, पुराने राजाओं के वंशजों और सामंतों में विभाजित कर दिया था। उनकी बड़ी-बड़ी जागीरों में दास और सर्फ काम करते थे। मध्यम वर्ग में लिपिक, व्यापारी, कारीगर, और स्वतंत्र किसान सम्मिलित थे। प्राचीन राज्य युग में सबसे अधिक प्रतिष्ठा राजपरिवार, सामंतो और पुजारियों की थी। मध्य राज्य युग में सामंतों के साथ मध्यम वर्ग को महत्व मिला तथा साम्राज्य युग में सैनिक वर्ग को। वर्ग व्यवस्था आश्चर्यजनक रूप से लचीली थी। हर व्यक्ति कोई भी पेशा अपना सकता था। केवल राजपरिवार के सदस्य इस अधिकार से वंचित थे। सर्फ भी प्राय: उच्च पदों पर पहुंच जाते थे। लेकिन उच्च और निम्न वर्ग के लोगों के रहन सहन में भारी अंतर था। धनी लोग विशाल हवादार भवनों में रहते थे और निर्धन गंदे मोहल्ले की छोटी-छोटी झोपड़ियों में।
समाज की इकाई परिवार था। विध्यनुसार प्रत्येक व्यक्ति की केवल एक पत्नी हो सकती थी और उसी की संतान को परिवारिक संपत्ति उत्तराधिकार में मिलती थी। फेरओ भी इस नियम के अपवाद नहीं थे। लेकिन समृद्ध पुरुष अनेक उपपत्नियाँ रखते थे। मिस्री समाज के प्रत्येक वर्ग में भाई बहिन के विवाह की प्रथा थी, इसलिये पति पत्नी में बाल्यावस्था से ही स्नेह संबंध रहता था। समाज में स्त्रियों को अत्यंत प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। मैक्समूलर के अनुसार किसी अन्य जाति ने स्त्रियों को उतना उच्च वैधानिक सम्मान प्रदान नहीं किया जितना मिस्रियों ने।
मिस्रियों के आर्थिक जीवन का आधार कृषिकर्म था। वे मुख्यत: गेहूँ, जौ, मटर, सरसों, अंजीर, खजूर, सन तथा अंगूर और अन्य अनेक फलों की खेती करते थे। मिस्र में कृषिकर्म, अपेक्षया आसान था। बिना हल चलाए भी मिस्री किसान कई फसलें पैदा कर सकते थे। सिंचाई व्यवस्था का आधार नील नदी थी। किसानों को उपज का 10 से 20 प्रतिशत भाग कर के रूप में देना होता था। कर, खाद्यान्न आदि के रूप में दिए जाते थे। दूसरा प्रमुख उद्यम पशु-पालन था। उनके प्रमुख पालतू पशु थे गाय, भेड़, बकरी, और गधा। असीरिया और नूबिया से वे देवदारु, हाथीदाँत और आबनूस का आयात करते थे और इनसे अपने फेरओ और सामंतों के लिये बहुमूल्य फर्नीचर बनाते थे। वे कई प्रकार के जलपोत बनाने की कला में भी कुशल थे। चमड़े और खालों से वे भाँति भाँति के वस्त्र और ढाल इत्यादि तथा पेपाइरस पौधे से कागज, हलकी नावें, चप्पलें, चटाईयाँ, और रस्सियाँ आदि बनाते थे। उत्तम कोटि के लिनन वस्त्रों की बहुत माँग थी। मिस्रियों के इन उद्योग धंधों को झाँकी उनके रिलीफ चित्रों में सुरक्षित है।
मिस्र निवासी अति प्राचीन काल से बहुदेववादी थे। उन्होंने अपने देवताओं की कल्पना प्राय: मनुष्यों अथवा पशुपक्षियों अथवा मिलेजुले रूप में की। उनके अधिकांश देवता प्राकृतिक शक्तियों के दैवी रूप थे। सूर्य, चंद्र तथा नील नदी को ही नहीं वरन् झरनों, पर्वतों, पशुपक्षियों, लताकुंजों, वृक्षों और विविध वनस्पतियों तक को वे दैवी शक्ति से अभिहित मानते थे। आकाश की कल्पना उन्होंने नूत नाम की दैवी अथवा हथौर नाम की दैवी गौ के रूप में की थी। मेंफिस का प्रमुख देवता टा: किसी प्राकृतिक शक्ति का दैवीकरण न होकर कलाओं और कलाकारों का संरक्षक था। सूर्य की उपासना मिस्र में लगभग सभी जगह विभिन्न नामों और रूपों में होती थी। उत्तरी मिस्र में उसकी पूजा का मुख्य केन्द्र ओन (यूनानियों का हेलियोपोलिस)नाम का स्थान था। यहाँ उसे रे कहा जाता था और उसकी कल्पना पश्चिम की ओर गमन करते हुए वृद्ध पुरुष के रूप में की गई थी। थीबिज में उसका नाम एमन था। दक्षिणी मिस्र में उसका प्रमुख केन्द्र एडफू नामक स्थान था। वहाँ उसकी उपासना बाज पक्षी के रूप में होरुस नाम से होती थी। संयुक्त राज्य की स्थापना होने पर सूर्य के इन विभिन्न रूपों को अभिन्न माना जाने लगा और उसका संयुक्त नाम एमन-रे लोकप्रिय हो गया। उसका प्रतीक 'पक्षयुक्त सूर्चचक्र' मिस्र का राजचिह्न था। मिस्रियों के विश्वास के अनुसार सबसे पहले उसी ने फेरओं के रूप में शासन किया था। सूर्यदेव के आकाशगामी हो जाने पर पृथ्वी पर उसके प्रतिनिधि फेरओं राज्य करने लगे। इनमें सबसे पहला स्थान ओसिरिस को दिया गया है। यद्यपि कहीं-कहीं उसको सूर्य का पुत्र भी कहा गया है, तथापि वह मूलत: नील नदी, पृथ्वी की उर्वर शक्ति तथा हरीतिमा का दैवीकरण प्रतीत होता है। एक नरेश के रूप में वह अत्यंत परोपकारी और न्यायप्रिय सिद्ध हुआ। शासनकार्य में उसे अपनी बहिन और पत्नी आइसिस से बहुत सहायता मिली। उसके दुष्ट भ्राता सेत ने उसकी धोखे से हत्या कर दी। बाद में आइसिस ने होरुस नामक पुत्र को जन्म दिया। उसका पालन-पोषण उसने मुहाने वाले प्रदेश में गुप्त रूप से किया। युवावस्था प्राप्त करने के बाद होरुस ने घोर संघर्ष करके सेत को पराजित किया और अपने पिता के अपमान और वध का प्रतिशोध लिया।
मध्य राज्य युग में ओसिरिस का महत्व बहुत बढ़ा और यह माना जाने लगा कि प्रत्येक मृतात्मा परलोक में ओसिरिस के न्यायालय में जाती है। वहाँ औसिरिस अपने 42 अधीन न्यायाधीशों की सहायता से उसके कर्मो की जाँच करता है। जो मृतात्माएँ इस जाँच में खरी उतरती थीं उन्हें यारूलोक में स्वर्गीय सुखों का उपभोग करने के लिये भेज दिया जाता था और जिनका पार्थिव जीवन दुष्कर्मों से परिपूर्ण होता था उन्हें घोर यातनाएँ दी जाती थीं।
साम्राज्य युग में पुजारी वर्ग अत्यंत धनी और सत्ताधारी हो गया। इससे मध्य राज्य युग में धर्म और सदाचार में जो घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुआ था वह टूट गया। अब स्वयं धर्म के संरक्षक भोग-विलास का जीवन व्यतीत करने लगे। 'देवताओं' के मनोरंजक के हेतु नियुक्त देवदासियाँ वस्तुत: उनका ही मनोरंजन करती थीं। अब उन्होंने मृतकों को परलोक का भय दिखाकर यह दावा करना शुरू किया कि अगर वे चाहें तो अपने जादू के जोर से पापिष्ठों को भी स्वर्ग दिला सकते हैं। इतना ही नहीं, वे खुले आम ऐसे पापमोचक प्रमाणपत्र बेचते थे। इन प्रमाणपत्रों की तुलना मध्यकालीन यूरोप में ईसाई पादरियों द्वारा बेचे जानेवाले पापमोचक प्रमाणपत्रों (इंडल्जेंसेज) से की जा सकती है। मिस्री धर्म की यह वह अवस्था थी जब 1375 ई. पू. में अमेनहोतेप चतुर्थ मिस्र का अधीश्वर बना। उसने प्रारंभ से ही पुजारी वर्ग में फैले भ्रष्टाचार और राजनीति पर उनके अवांछनीय प्रभाव का विरोध किया और एटन नामक एक नये देवता की उपासना को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। उसकी प्रशंसा में उसने अपना नाम भी अख्नाटन रख लिया। एटन मूलत: सूर्यदेव रे का ही नाम था। लेकिन अख्नाटन ने उसे केवल मिस्र का ही नहीं, समस्त विश्व का एकमात्र देवता बताया। क्योंकि एटन निराकार था, इसलिये अख्नाटन ने उसकी मूर्तियाँ नहीं बनवाईं। लेकिन जनसाधारण उसकी महिमा को हृदयंगम कर सके, इसलिये उसने 'सूर्यचक्र' को उसका प्रतीक माना। एटन की उपासना में न बहुत अधिक चढ़ावे की आवश्यकता थी, न जटिल कर्मकांड, तंत्रमंत्र और पुजारियों की भीड़ की। केवल हृदय से एटन के आभार को मानना और उसकी स्तुति करते हुए श्रद्धा के प्रतीक रूप कुछ पत्र, पुष्प और फल चढ़ाना पर्याप्त था। उसके परलोकवाद में नरक की कल्पना नहीं मिलती क्योंकि वह यह सोच भी नहीं सकता था कि दयालु पिता एटन किसी को नारकीय पीड़ाएँ दे सकता है।
अख्नाटन ने प्रारंभ में अन्य देवताओं के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार किया किंतु पुजारियों के उग्र विरोध पर उसने अन्य देवताओं के मंदिरों को बंद करवा दिया। उनके पुजारियों को निकाल दिया, अपनी प्रजा को केवल एटन की पूजा करने का आदेश दिया और सार्वजनिक स्मारकों पर लिखे हुए सब देवताओं के नाम मिटवा दिए। लेकिन अख्नाटन के विचार और कार्य उसके समय के अनुकूल नहीं थे। इसलिये उसकी मृत्यु के साथ उसका धर्म भी समाप्त हो गया। उसके बाद, उसके दामाद तूतेनखाटन ने पुराने धर्म को पुन: प्रतिष्ठित किया, पुजारियों के अधिकार लौटा दिए, और अपना नाम बदलकर तूतेनखामेन रख लिया।
मिस्र की प्राचीन लिपि चित्राक्षर लिपि (हाइरौग्लाइफिक) कही जाती है। 'हाइरोग्लाइफ' यूनानी शब्द है। इसका अर्थ है 'पवित्र चिह्न'। इस लिपि में कुल मिलाकर लगभग 2000 चित्राक्षर थे। इनमें कुछ चित्रों में मनुष्य की विभिन्न आकृतियाँ आदि है। ये चिह्न तीन प्रकार के हैं: भावबोधक, ध्वनिबोधक तथा संकेतसूचक। चित्राक्षरों को बनाते समय वस्तुओं के यथार्थ रूप को अंकित करने का प्रयास किया जाता था, इसलिये इसे लिखने में बहुत समय लगता था। इस कठिनाई को दूर करने के लिये प्रथम वंश के शासनकाल में ही मिस्रियों ने एक प्रकार की द्रुत अथवा घसीट (हाइरेटिक) लिपि का विकास कर लिया था। मिस्रियों ने प्राचीन राज्य युग में 24 अक्षरों की एक वर्णमाला का आविष्कार करने में भी सफलता प्राप्त की थी। उन्होंने वर्णमाला को भावबोधक और घ्वनिबोधक चित्रोें से सहायक रूप में प्रयुक्त किया, स्वतंत्र माध्यम के रूप में नहीं। आठवीं श्ताब्दी ई. पू. के लगभग मिस्रियों ने 'हाइरेटिक लिपि' से भी शीघ्रतर लिखी जानेवाली लिपि का आविष्कार किया जिसे 'डिमाटिक' कहा जाता है। यह एक प्रकार की शार्टहैंड लिपि कही जा सकती है।
मिस्र में प्राचीन राज्य काल से ही पेपाइरस (नरकुल के गूदे से बना कागज) लिखने का सामान्य साधन था। चर्मपत्रों को तथा मृद्भांडों के टुकड़ों को भी लिखने के लिये काम में लाया जाता था। उन पर चित्राक्षर नरकुल की लेखनी से भी बनाए जाते थे और ब्रुश से भी।
मिस्री साहित्य प्रकृत्या व्यावहारिक था। उनकी अधिकांश कृतियाँ ऐसी हैं जो किसी न किसी व्यावहारिक उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये लिखी गई थीं। इसीलिये वे महाकाव्यों, नाटकों और यहाँ तक कि साहित्यक दृष्टि से आख्यानों की भी रचना कभी नहीं कर पाए। उनके जिन आख्यानों की चर्चा की गई है, वे सब साम्राज्य युग के अंत तक केवल जनकथाओं के रूप में प्रचलित थे। उनको कभी पृथक् साहित्यिक कृतियों के रूप में लिपिबद्ध नहीं किया गया। पिरेमिड युग की विशिष्ट धार्मिक रचनाएँ पिरेमिड टेक्सट्स हैं। इनमें मृतक संस्कार में काम आने वाले वे मंत्र, पूजागीत और प्रार्थनाएँ आदि सम्मिलित हैं जिन्हें मृत फेरओ के पारलौकिक जीवन को संकट रहित करने के लिये उसके पिरेमिडों की भित्तियों पर उत्कीर्ण कर दिया जाता था। इनसे ही कालांतर में 'कॉफिन टेक्सट्स' तथा 'बुक ऑव दि डेड' का विकास हुआ। शेष साहित्य भी प्रकृत्या व्यावहारिक है। उदाहरणार्थ इम्होतेप, केगेम्ने तथा टा:होतेप इत्यादि मंत्रियों ने अपने अनुभवजनित ज्ञान को लेखबद्ध किया। ये कृतियाँ 'नीतिग्रंथ' कहलाती हैं। मध्य राज्ययुगीन रचनाओं में 'मुखर कृषक का आवेदन', 'इपुवेर की भविष्यवाणी' 'एमेनम्हेत का उपदेश' तथा 'वीणावादक का गान' प्रमुख हैं।
विज्ञान के केवल उन्हीं क्षेत्रों में मिस्रियों की रुचि थी जिनकी व्यावहारिक जीवन में आवश्यकता पड़ती थीं। जिज्ञासा के सीमितश् होने के बावजूद उन्होंने कुछ क्षेत्रों में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। उदाहरणार्थ उन्होंने ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति का काफी सही अंदाज करके आकाश का मानचित्र बना लिया था। सौर पंचांग का आविष्कार उनकी महत्वपूर्ण सफलता थी। गणित के मुख्य नियम जोड़, घटाना और भाग व्यापार और प्रशासन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये काफी पहले आविष्कृत हो चुके थे। लेकिन गुणा से वे अंत तक अपरिचित रहे। इसका काम वे जोड़ से चलाते थे। शून्य और दशमलव विधि से भी वे अपरिचित थे। बीजगणित और रेखागणित की प्राथमिक समस्याओं को हल करना उन्हें आ गया था, लेकिन विषम चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने में दिक्कत का अनुभव करते थे। वृत्त, अर्द्धगोलाक और सिलिंडर का क्षेत्रफल निकालने में काफी सफलता प्राप्त कर ली थी। भवनों की आधारयोजना बनाने में वे असाधारण रूप से कुशल थे। उनके कारीगर स्तंभों और मेहरातों के प्रयोग से परिचित थे। चिकित्साशास्त्र में भी उन्होंने पर्याप्त प्रगति कर ली थी।
मिस्रियों के लिये कला उनके राष्ट्रीय जीवन को अभिव्यक्त करने का माध्यम थी। इसका सर्वोत्तम प्रमाण उनके पिरेमिड हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि मिस्री नरेशों ने इन्हें राज्य की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ने पर जनता को रोजगार देने के लिये बनवाया था। लेकिन यह असंभव लगता है। जिस समय ये पिरेमिड बनाए गए थे मिस्र समृद्ध देश था, इसलिये इनका निर्माण आर्थिक संगठन के दौर्बल्य का कारण माना जा सकता है, परिणाम नहीं। वास्तव में मिस्रियों ने पिरेमिडों की रचना अपने राज्य और उसके प्रतीक फेरओं की अनश्वरता और गौरव को अभिव्यक्त करने के लिये की थी। अगर फेरओं अमर थे तो उनकी मृत देह की सुरक्षा और उसके निवास के हेतु उनकी महत्ता के अनुरूप विशाल और स्थायी समाधियों का निर्माण आवश्यक था। हेरोडोटस के अनुसार गिजेह के 'विशाल पिरेमिड' को एक लाख व्यक्तियों ने बीस साल में बनाया था। यह तेरह एकड़ भूमि में बना है और 480 फुट ऊँचा तथा 755 फुट लंबा हैं। इसमें ढाई ढाई टन भार के 23 पाषाणखंड लगे हैं। ये इतनी चतुरता से जोड़े गए हैं कि कहीं कहीं तो जोड़ की चौड़ाई एक इंच के हजारवें भाग से कम है।
साम्राज्य युग में मिस्री वास्तुकला का प्रदर्शन मंदिरों का निर्माण में हुआ। पिरेमिडों के समान ये मंदिर भी प्राय: कठोरतम पाषाण से बनाए गए है और अत्यंत विशाल है। कानार्क का मंदिर संभवत: विश्व का विशालतम भवन है। यह 1300 फुट (लगभग चौथाई मील) लंबा है। इसका मध्यवर्ती कक्ष 170 फुट लंबा और 338 फुट चौड़ा है। इसकी छत छह पंक्तियों मेें बनाए गए 136 स्तंभों पर टिकी है जिनमें मध्यवर्ती बारह स्तंभ 79 फुट ऊँ चे हैं और उनमें से प्रत्येक के शीर्षभाग पर सौ व्यक्ति खड़े हो सकते हैं। मिस्री नूबिया में निर्मित आबू सिंबेल का मंदिर वस्तुत: एक गुहामंदिर है। यह 175 फुट लंबा और 90 फुट ऊँचा है। इसके मध्यवर्ती कक्ष की छत 20 फुट ऊँचे 8 स्तंभों पर आधारित है जिनके साथ ओसिरिस की 17 फुट ऊँची मूर्तियाँ बनी है। लक्सोर का मंदिर अमेनहोतेप तृतीय ने बनवाया था। किंतु वह इसे पूरा नहीं कर पाया।
वास्तुकला के समान विशालता, सुदृढ़ता और रूढ़िवादिता भी मिस्री मूर्तिकला की विशेषताएँ थीं। राजाओं की मूर्तियाँ अधिकांशत: कठोर पाषाण से विशाल आकार और भाव-विहीन मुद्रा में बनाई जाती थीं। उन्हें प्राय: कुर्सी पर पैर लटका कर मेरुदंड को सीधा किये और हाथों को जाँघों पर रखे बैठने की मुद्रा में अथवा हाथ लटकाए बायाँ पैर आगे बढ़ाकर चलने की मुद्रा में दिखाया गया है। थटमोस तृतीय और रेमेसिस द्वितीय की मूर्तियाँ तो आकाश को छूती लगती है। खेफे के पिरेमिड के सामने स्थित विशाल 'स्फिक्स्' नामक मूर्ति संभवत: विश्व की विशालतम मूर्ति है। इसका शरीर सिंह का है और सिर फेरओ खफ्रेे का। इन सबसे भिन्न हैं अख्नाटन के काल में बनी कुछ मूर्तियाँ जिनमें स्वयं अख्नाटन और उसकी रानी नफ्रोतीति की मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके निर्माता कलाकार पुरानी परंपराओं के बंधनों से मुक्त थे। ऐसी कुछ मूर्तियाँ सामान्य जनों की भी मिली हैं। इनमें काहिरा संग्रहालय में सुरक्षित प्राचीन राज्य के एक ओवरसियर की काष्ठश् की प्रतिमा, जिसका केवल सिर अवशिष्ट है, बहुत प्रसिद्ध है। यह 'शेख की मूर्ति' नाम से विख्यात है। लूब्रे संग्रहालय की 'लिपिक की मूर्ति' भी अत्यंत प्राणवान् प्रतीत होती है।
मिस्र में मंदिरों और मस्तबाओं (समाधियों) में रिलीफ चित्र बनाने वाले कलाकारों की भी बहुत माँग थी। ऐसी मूर्तियाँ बनाते समय अंकित वस्तु की लंबाई चौड़ाई तो आसानी से दिखा दी जाती थी, लेकिन मोटाई अथवा गोलाई दिखाने में दिक्कत होती थी। इसलिये उनके रिलीफ चित्रों में काफी अस्वाभाविकता आ गई है। लेकिन इस दोष के बावजूद मिस्री रिलीफ चित्र दर्शनीय हैं और प्राचीन मिस्री सभ्यता और रीति रिवाजों पर ज्ञानवर्द्धक प्रकाश डालते हैं।
मिस्र की चित्रकला के अधिकांश नमूने नष्ट हो चुके है, लेकिन जो शेष हैं, धार्मिक और राजनीतिक रूढ़ियों से अप्रभावित लगते हैं। ऐसा लगता है, मिस्र में चित्रकला का जन्म पिरेमिड युग में हो जाने पर भी विकास काफी बाद में हुआ। इसलिये यह कला धर्म की परिधि से बाहर रह गई। मिस्री चित्रकला के उपलब्ध नमूनों में सर्वोत्तम अख्नाटन के समय के हैं। चित्रकला के अतिरिक्त साम्राज्ययुगीन मिस्री अन्य अनेक ललित कलाओें में भी दक्ष हो चुके थे। तूतेनखामेन की 1922 ई. में उत्खनित समाधि से अब से लगभग 3300 वर्ष पूर्व छोड़े गए बहुमूल्य काष्ठ, चर्म और स्वर्ण निर्मित फर्नीचर उपकरण, आबनूस और हस्तिदंत खचित बाक्स, स्वर्ण और बहुमूल्य पाषाणों से सज्जित रथ, स्वर्णपत्रमंडित सिंहासन, श्वेत पाषाण के सुंदर भांड तथा जरी के सुंदर शाही वस्त्र, उपलब्ध हुए हैं। इनसे साम्राज्ययुगीन मिस्र की कला की प्रगति और वैभव का पता चलता है।
सं. ग्रं.- श्रीराम गोयल : विश्व की प्राचीन सभ्यताएँ, पृ. 307-84। [श्री राम गोयल]
धरातल- प्राकृतिक लक्षण के विचार से नील नदी के चारों ओर मिस्र के आबाद हिस्से को दो भागों में बाँट सकते हैं : (क) निचला मिस्र, जो नील नदी के डेल्टा वाले भाग में पड़ता है। ये उत्तरी मिस्र भी कहलाता है, जो भूमध्य सागर से लेकर काहिरा तक विस्तृत है। (ख) उच्च मिस्र, जो दक्षिणी सीमा तक नील नदी की घाटी की पतली पट्टी में विस्तृत है। इस प्रकार मिस्र की ढालश् नील नदी के अनुरूप सामान्यत: दक्षिण से उत्तर की ओर है।
मिस्र का भूपृष्ठ केवल नील नदी के आस पास अधिक चौरस है। नदी के पश्चिम की भूमि धीरे धीरे ऊँची होती गई है (लगभग 1,000 फुट तक),जहाँ हवा के प्रभाव से निर्मित चिकनी चट्टानें तथा लिबिया की रेगिस्तानी बालू दृष्टिगोचर होती है। नदी के पूर्वी ओर अरब के रेगिस्तान का विस्तार पाया जाता है, जो और आगे चलकर लाल सागर के निकट लगभग 7,000 फुट ऊँची पहाड़ियों के रूप में परिणत हो जाता है। नदी के पश्चिमी ओर काहिरा के उत्तर में लगभग 50 मील दूर फायूम की उपजाऊ निम्नभूमि है।
मिस्त्र का अधिक भाग जलविहीन है। केवल नील नदी ही जल का स्रोत है। निचले मिस्त्र में नील से नहरें भी निकाली गई हैं जिनका उपयोग जलमार्गो के रूप में तथा खेतों की सिंचाई के लिये किया जाता है। विश्वविख्यात स्वेज नहर भूमध्य सागर तथा लाल सागर को उत्तर-पूर्वी मिस्त्र में सिनाइ प्रायद्वीप से होकर जोड़ती है। कहीं कहीं पर मरूद्यान भी दृष्टिगोचर होते हैं, जहाँ भूमिगत जल के प्रभाव के कारण अत्यधिक पौधे उग सकते हैं।
मिस्त्र में शुष्क तथा गर्म रेगिस्तानी जलवायु पाई जाती है। दिन में सूर्य की प्रखरता के कारण अत्यधिक गरमी तथा रात में बालू की शीतलता के कारण अत्यधिक ठंडक पड़ती है भूमध्यसागरीय तट को छोड़कर देश के अधिकांश भाग में वर्षा नहीं होती। भूमध्यसागरीय तट की औसत वार्षिक वर्षा आठ इंच के लगभग है। ऊपरी नील की ओर यह औसत केवल एक इंच के लगभग रह जाता है। मिस्त्र में दक्षिण की ओर से आने वाली हवाओं को खामसिन कहते हैं। इन हवाओं के साथ गरमी में बालू एवं धूल के भीषण तूफान आते हैं।
मिस्त्र की जनसंख्या लगभग 2,80,30,000 (अनुमानित 1963) है। यहाँ की 9/10 जनसंख्या नील नदी के दोनों ओर एक पतली पट्टी में निवास करती है। नील के डेल्टों तथा घाटी में कहीं कहीं जनसंख्या का घनत्व 1,500 व्यक्ति प्रति वर्ग मील हो गया है। कुछ भ्रमणशील जातियाँ लिबिया के रेगिस्तान में एक मरूद्यान से दूसरे मरूद्यान में घूमती रहती हैं, परंतु मिस्त्र के रेगिस्तानों के बहुत से भाग बिल्कुल ही जनविहीन हैं।
कार्य और रहन सहन के आधार पर मिस्त्र के निवासियों को तीन समूहों में विभाजित कर सकते है: (क) फेलाहिन अथवा कृषक, इनकी संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 2/3 है जो अपने पूर्वजों की भाँति सैकड़ों वर्षो से खेती करते आ रहे हैं। इनकी आकृति इनके पूर्वजों की ही भाँति भिन्न-भिन्न है। ये अरबी भाषा बोलने तथा सामन्यत: मुस्लिम धर्म को मानने वाले होते हैं, यद्यपि कुछ लोग ईसाई धर्म को भी मानते हैं। (ख) बद्दू, इनका वर्ग बहुत छोटे पैमाने पर हैं। ये रेगिस्तान के अरबी भाषा बोलने वाले आदिवासी होते हैं। कुछ बद्दू नदी के किनारे अथवा हरे भरे मरूद्यानों में स्थायी खेमों में निवास करते हैं। कुछ लोग एक रेगिस्तान से दूसरे रेगिस्तान में अपनी भेड़ों तथा घोड़ों को लेकर भ्रमण किया करते हैं और छोटे मोटे भूभागों पर निवास करते हैं। (ग) व्यापारी तथा व्यवसायी, यह सबसे छोटा समूह है जो शहरों में निवास करता है। इसमें अधिकतर विदेशी खासकर यूनानी, तुर्की, इतालवीय, अंग्रेज तथा फ्रंासीसी सम्मिलित हैं।
कृषि- मिस्त्र के लोगों का मुख्य धंधा कृषि है। खेत अधिकतर नील नदी के निकट लगभग 12 मील की चौड़ाई में फैले हैं। कम वर्षा या वर्षारहित दिनों में नील की घाटी में कृषि सिंचाई पर निर्भर करती है। बाढ़ के समय नदी का पानी खेतों में फैल जाने के कारण साल में एक बार अपने आप सिंचाई हो जाती है और खेतों में बाढ़ द्वारा लाई हुई नई उपजाऊ मिट्टी भी बिछ जाती है। इसी समय शीघ्र फसलें रोपकर मिट्टी में नमी के विद्यमान रहने तक आवश्यक उत्पादन कर लिया जाता है। अब तो बाढ़ के जल को नियंत्रित एवं संचित करने के लिये आर-पार बड़े बड़े बाँध तथा फाटक बन गए हैं और आवश्यकतानुसार पानी को नहरों द्वारा खतों में पहुँचाकर दो या कभी तीन फसलें प्रति वर्ष उगा ली जाती हैं। मिस्त्र की मुख्य फसलों में लंबी रेशे वाली कपास, गेहूँ, धान, गन्ना, फलियाँ (बीन), प्याज, मसूर, शकरकंद, खजूर आदि हैं।
उद्योगधंधे- उद्योगों में मिस्त्र बहुत पिछड़ा हुआ है,परंतु अब इसपर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
खनिज पदार्थ- मिस्त्र के पूर्वी पर्वतों से सोना, ऐस्वैन और ऐल बहारिया के निकट से लोहा, जस्ते की प्राचीन खानों के निकट सिनाइ प्रायद्वीप से मैंगनीज, नील डेल्टा के दलदल से नमक और पूर्वी तट के किनारे तेल के अतिरिक्त फॉस्फेट, जस्ता, फिटकरी, जिप्सम, बेरिल, ग्रेनाइट, सैडस्टोन तथा चूना पत्थर आदि प्राप्त जाते हैं।
यातायात- नील नदी मिस्त्र के लिये एक बहुत बड़ा जलमार्ग है। रेलें मिस्त्र के आधुनिक शहरों को आपस में जोड़ती है सड़के देश के आबाद भागों में स्थित हैं। वायुयान देश के मुख्य शहरों को एक दूसरे के साथ तथा अफ्रीका, यूरोप, भारत एवं सुदूर पूर्व के नगरों को जोड़ते हैं। रेगिस्तानी बालू के क्षेत्रों में, जहाँ यात्रा का अन्य कोई साधन संभव नहीं है, वहाँ ऊटों द्वारा यातायात संभव होता है।
काहिरा, एलेग्जेंड्रेया, अस्यूट, डैमिएटा, एल ऐलामेन, एल मंसूरा, पोर्ट सईद, स्वेज, मेंफिस, थीबीज, टॉन्टॉ आदि मिस्त्र के आधुनिक नगर हैं। काहिरा यहाँ की राजधानी है। (रा. स. ख.)
इतिहास और संस्कृति- यह प्रदेश बड़ा ऊबड़खाबड़ है। इसमें कम से कम छह स्थलों पर नदी पर्वतीय शिलाओं को काटकर सीधा मार्ग बनाने में सफल नहीं हो पाई है। ये स्थल महाप्रपात कहलाते हैं। अंतिम महाप्रपात, जो मिस्त्र की ओर से गिनने पर पहला कहा जाएगा, एलिफेंटाइन के समीप है। इसके उत्तर में नील की निचली या उत्तरी घाटी है। यही मिस्त्र देश है। इसे भी दो भागों में विभाजित किया जाता है: दक्षिणी मिस्र जिसमें केवल घाटीवाला प्रदेश सम्मिलित किया जाता है और उत्तरी मिस्र जिसके अंतर्गत नील का मुहाना आता है। मिस्र के मध्यवर्ती भाग में नील के 10 से 20 मील चौड़ी और 30 से 40 फुट मोटी उर्वर मिट्टी की पट्टी बना दी है। यह उर्वर प्रदेश, जो मिस्र के कुल क्षेत्रफल का केवल 3.5 प्रतिशत है, 10,000 वर्गमील से अधिक नहीं है। यह भारत के केरल राज्य के लगभग बराबर है। मिस्र का यही भाग मनुष्य के निवास योग्य है। इसीलिये इतिहास पिता हेरोडोटस ने मिस्र को नील का वरदान कहा था।
आधुनिक काल में मिस्री विद्या का अध्ययन नेपोलियन के मिस्री अभियान (1897 ई.) और शांपोल्यों (1790-1832 ई.) नामक फ्रेंच विद्वान् द्वारा रोजेटा प्रस्तर की सहायता से मिस्री चित्राक्षर लिपि के उद्वाचन से प्रारंभ होता है। मिस्र के अधिकांश स्मारक धरातल के ऊपर हैं, इसलिये इनपर उत्कीर्ण अभिलेखों का अध्ययन करने के लिये इनकी लिपि से परिचय मात्र की आवश्यकता थी। मिस्त्री इतिहास पर प्रकाश डालनेवाले प्राचीन लेखकों में हेरोडोटस तथा डायोडोरस प्रमुख हैं, परंतु उनके विवरण विशेष ज्ञानवर्धक नहीं हैं। सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन रचना है तीसरी शती ई. पू. के मनेथो नामक मिस्री पुजारी की। आजकल उसकी कृति का जूलियस अफ्रीकेनस, यूसीबियस तथा जोसेफस प्रभृति परवर्ती लेखकों की रचनाओं मे उद्वरणों के रूप में सुरक्षित लगभग आधा भाग ही प्राप्य है। इसमें मनेथो ने प्राचीन मिस्री राजाओं को सूचीबद्ध करके उन्हें तीस वंशों में विभाजित किया था। यह विभाजन अनेक दोषों के बावजूद अत्यंत उपयोगी और सत्य के काफी निकट सिद्ध हुआ है।
प्रागैतिहासिक युग में उत्तरी मिस्र में लीबियन और सेमेटिक जातियाँ निवास करती थीं। इनके अतिरिक्त एक तीसरी जाति और थी जिसके सदस्यों का सिर बड़ा, चेहरा गोल और नाक छोटी होती थी। यह जाति दक्षिणी मिस्र में प्रागैतिहासिक युग में अज्ञात थी, परंतु ऐतिहासिक युग में धीरे-धीरे वहाँ भी फैल गई थी। दक्षिणी मिस्र में निवास करने वाली जाति जिसका ज्ञान हमें उस युग की समाधियों से प्राप्त अवशेषों और मूर्तियों आदि से होता है छोटे सिर वाली थी। जैसा मिस्र की ट्यूबसम आकृति से स्पष्ट है, नील की उपरली घाटी में इसका प्रवेश निश्चित रूप से मिस्र के दक्षिण से हुआ होगा।
सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से मिस्री इतिहास को कई भागों में विभाजित किया जाता है। प्रथम दो वंशों के शासनकाल में मिस्रीश् सभ्यता से प्राग्वंशीय सभ्यता विशेष भिन्न नहीं थीं, इसलिये मिस्त्री सभ्यता के प्राचीनतम युग का अध्ययन करते समय प्रथम दो वंशों के शासनकाल को उसी में सम्मिलित कर लिया जाता है। तीसरे वंश की स्थापना से लेकर बीसवें वंश के पतन तक के सुदीर्घ युग में मिस्री सभ्यता के तीन काल माने गए हैं। 'प्राचीन राज्य युग' अथवा 'पिरेमिड युग' जिसमें तीसरे से छठे वंशों ने राज्य किया; 'मध्य राज्य युग' जिसमें 11वें और 12वें वंशों ने राजय किया; तथा 'साम्राज्य युग' जिसमें 18 वें से लेकर 20 वें वंशों ने शासन किया। इन युगों के मध्यवर्ती युगों में और 20 वें वंश के पतन के पश्चात् मिस्र प्राय: आंतरिक दौर्बल्य और विदेशी आक्रमणों का शिकार रहा।
प्राग्वंशीय मिस्र प्रारंभ में छोटे छोटे नगर राज्यों में विभाजित था। ये नगर 4000 ई. पू. के लगभग संयुक्त होकर दो राज्यों में एकीकृत हो गए:-उत्तरी अथवा नील के मुहाने का राज्य और दक्षिणी अथवा नील की घाटी का राज्य। नेखेब (आधुनिक अलकाब) दक्षिणी राज्य की राजधानी थी। इसके राजा लंबा श्वेत मुकुट धारण करते थे। उनका राजप्रासाद नेखेन और कोषागार 'श्वेत भवन' कहलाता था। उनका राजचिह्न लिली पौधे की शाख एवं संरक्षिका ग्ध्रृादेवी नेखबत थी। उत्तरी राज्य की राजधानी बूटो, संरक्षिका इसी नाम की नागदेवी और उसका विशिष्ट रंग लाल थी। इसलिये उसके राजा लाल मुकुट धारण करते थे और उनके राजप्रासाद और कोषागार क्रमश: 'पे और रक्तभवन' कहलाते थे। उनके राजचिह्न पेपाइरस का गुच्छा और मधुमक्खी थे।
उत्तरी और दक्षिणी राज्यों को संयुक्त करके राजनीतिक एकता और प्रथम वंश की स्थापना दक्षिणी मिस्र में एबाइडोस के समीप स्थित तेनी (यूनानी थिस अथवा थिनिस) नामक स्थान के निवासी मेना (यूनानी मेनिज) ने की थी। उसके बाद प्रथम दो वंशों के 18 नरेशों ने 420 वर्ष (लगभग 3400-2980 ई. पू. तक) राज्य किया। तृतीय सहस्राब्दी ई. पू. के प्रारंभ में द्वितीय वंश के पतन और जोसेर के नेतृत्व में तृतीय वंश की स्थापना (2980 ई. पू.) से मिस्र के इतिहास के पिरेमिड अथवा प्राचीन राज्य युग का प्रारंभ हुआ जो 2475 ई. पू. में छठे वंश के पतन तक चला। जोसेर के शासनकाल में मेंफिस (मेन नो फेर) का प्रभुत्व दृढ़रूपेण स्थापित हुआ और उसके मंत्री इम्होतेप ने सक्कर के सीढ़ीदार पिरेमिड का निर्माण करके पाषाण वास्तुकला को जन्म दिया। जोसेर के एक उत्तराधिकारी नेफु ने विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन दिया, उत्तरी नूबिया में विद्रोही जातियों को परास्त किया तथा पहले ढ़लवाँ पिरेमिड का निर्माण कराया। मिस्र के चौथे वंश के संस्थापक खूफू ने मिस्र का विशालतम पिरेमिड बनवाया तथा उसके पुत्र खेफे ने एक लघुतर पिरेमिड और संभवत: विशाल स्फिंकस भी बनवाया। पंचम वंश के संस्थापक यूसेरकाफ तथा उसके पुत्र सहुरे ने मिस्र की नौशक्ति में वृद्धि की तथा फिनीशिया और देवभूमि 'पुंट' पर सफल आक्रमण किए। परंतु इसके बावजूद उनके शासनकाल में रे के पुजारियों, सामंतों और सेनापतियों की महत्वाकांक्षाएँ बढ़ जाने के कारण फेराओ की शक्ति शनै: शनै: कम होती गई। राजपद की इस ्ह्रासोन्मुखी प्रतिष्ठा को बढ़ाने का महानीय कार्य किया छठे वंश के प्रथम दो फेराओ तेती द्वितीय और पेपी प्रथम ने। पेपी प्रथम के एक उत्तराधिकारी पेपी द्वितीय ने, जो राज्यारोहण के समय शिशु मात्र था, मनेथो के अनुसार 94 वर्ष राज्य किया। विश्व इतिहास में उसके शासनकाल को दीर्घतम माना जा सकता है।
2475 ई. पू. में छठे वंश के पतन के बाद लगभग तीन सौ वर्ष तक मिस्र में घोर अव्यवस्था रही और स्थानीय सामंत लगभग स्वतंत्र रूपेण शासन करने लगे। उनकी शक्ति तोड़ने में कुछ सफलता ग्यारहवें वंश (2160-2000 ई. पू.) के राजाओं ने प्राप्त की। लेकिन लगभग समस्त मिस्र के स्वामी होते हुए भी वे सामंतवादी व्यवस्था को बदलने में असमर्थ रहे। उनसे अधिक सफलता बारहवें वंश (2000-1788 ई. पू.) के शासकों को मिली। इस वंश का संस्थापक एमेन म्हेत प्रथम था। इन दो वंशों के राजाओं का शासनकाल सांस्कृतिक प्रगति के लिये प्रसिद्ध है।
1788 ई. पू. में 12वें वंश के पतन के साथ सामंतों में सत्ता हड़पने के लिये पुन: संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस अराजकता के कारण वे 1765 ई. पू. में एशिया से आने वाले हिक्सोस नामक आक्रमणकारियों को नहीं रोक पाए। हिक्सोस सांस्कृतिक दृष्टि से मिस्रियों से बहुत पिछड़े थे। लेकिन वे अश्वों और रथों के प्रयोग से परिचित थे, इसलिये मिस्रियों को लगभग दो सौ वर्ष तक अपने अधीन रखने में सफल रहे (13 वाँ-17वाँ वंश)। उनको देश से खदेड़ने का महनीय कार्य किया अहमोस प्रथम ने। उसके द्वारा अठारहवें वंश की स्थापना से मिस्री इतिहास का 'साम्राज्य युग' प्रारंभ होता है। उसके एक उत्तराधिकारी थटमोस प्रथम ने अपनी सत्ता कार्शैमिश तक स्थापित की। उनकी पुत्री हतशेपशुत विश्व इतिहास की पहली पूर्ण सत्तासंपन्न शासिका थी। हतशेपशुत के उत्तराधिकारी थटमोस तृतीय को 'प्राचीन मिस्र का नेपोलियन' कहा जाता है। उसने पश्चिमी एशिया पर पंद्रह बार आक्रमण किए थे। उन्नीसवें वंश के शासकों में रेमेसिस द्वितीय सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वह साहसी और बलवान् था। युद्धकला में भी उसकी उतनी ही रुचि थी जितनी प्रेमव्यापार में। फिलिस्तीन विजय के बाद उसने हित्तियों के विरुद्ध कादेशाँ की प्रसिद्ध लड़ाई लड़ी। 1261 ई. पू. में उसने हित्तियों से इतिहास प्रसिद्ध संधि की। वह महान् भवन निर्माता भी था।
बीसवें वंश के काल में फेराओ रेमेसिस तृतीय के शासन काल तक मिस्र का कुछ एशियाई प्रांतों पर नियंत्रण बना रहा। लेकिन उसके बाद स्थिति शीघ्रता से बिगड़ी और बारहवीं शती ई.पू. के मध्य तक मिस्र का एशियाई साम्राज्य अतीत की कहानी रह गया। इस वंश का पतन और 21 वें वंश की स्थापना 1090 ई. पू. में हुई। उसके बाद मिस्र एक शती तक दुर्बल परंतु, स्वतंत्र रहा। दसवीं शती के मध्य उसकी स्वतंत्रता का भी अंत हो गया और कई शती तक क्रमश: लीबियनों, इथियोपियनों असीरियनों का प्रभुत्व उसे मानना पड़ा।
663 ई. पू. में नील के मुहाने के पश्चिमी भाग में स्थित साइस स्थान के एक महत्वाकांक्षी शासक साम्तिक ने असीरियन सेनाओं को निकाल बाहर किया और कई शती बाद मिस्र में एक स्वतंत्र राज्य (26 वाँ वंश) की स्थापना की। उसके उत्तराधिकारी 525 ई. पू. तक राज्य करते रहे। नीको द्वितीय के शासनकाल में तो उन्होंने एशिया पर भी आक्रमण किए। उनके शासनकाल को साइतयुग कहा जाता है। 525 ई. पू. में उनका पतन हो गया और मिस्र हखामशी साम्राज्य में मिला लिया गया। फारसी आधिपत्य के अंत (332 ई. पू.) के बाद मिस्र पर पहले यूनानियों (332-48 ई. पू.) और तत्पश्चात् रोमनों ने शासन किया। 30 ई. पू. में इसे रोम साम्राज्य का एक प्रांत बना लिया गया। इस प्रकार मिस्र की पाँच सहस्र वर्ष पुरानी सभ्यता और पृथक राजनीतिक अस्तित्व का अंत हुआ।
मिस्री शासन व्यवस्था पूर्णत: धर्मतांत्रिक थी। मिस्री नरेश सूर्यदेव रे के प्रतिनिधि होने के कारण स्वयं देवता माने जाते थे। मृत्यु के बाद उनकी पूजा उनके पिरेमिड के सामने बने मंदिर में होती थी। यह विश्वास कालांतर में इतना दृढ़ हो गया कि चौथी शताब्दी ई. पू. में सिकंदर को भी अपने को एमन-रे का पुत्र घोषित करके मिस्री जनता को संतुष्ट करना पड़ा था। उनके प्रजाजन उनका नाम तक लेने से झिझकते थे, इसलिये इन्हें प्राय: 'अच्छा देवता' अथवा 'पेर ओ' (बाइबिल का फेरओ) कहा जाता था। राज्य की आय का एक बहुत बड़ा भाग उनके हरम और परिवार के भरण पोषण पर व्यय किया जाता था। सिद्धांतत: वे राज्य के सर्वेसर्वा होते थे। वे न केवल राज्याध्यक्ष होते थे वरन् सर्वोच्च, सेनापति, सर्वोच्च पुजारी और सर्वोच्च न्यायाधीश भी होते थे। लेकिन व्यवहार में सामंतो, पुरोहितों, प्रभावशाली पदाधिकारियों और चहेती महारानियाँ की इच्छाएँ तथा राज्य की परंपराएँ उनकी निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। वे कानून के निर्माता न होकर उसके संरक्षक माने जाते थे। फेरओं के बाद राज्य का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति प्रधान मंत्री था। वह राज्य का प्रधान वास्तुकार, प्रधान न्यायाधीश और राजाभिलेख संग्रहालय का अध्यक्ष होता था। तीसरे वंश के तीन मंत्री इम्होतेप, केगेग्ने तथा टा:होतेप ने अपने ज्ञान के बल पर अतुल कीर्ति अर्जित की। मिस्री राज्य का एक अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारी 'प्रधान कोषाध्यक्ष' था। वह संपूर्ण देश की वित्त व्यवस्था को नियंत्रित रखता था। शासकीय सुविधा के लिये मिस्र लगभग 40 प्रांतों मे विभाजित था। ये वास्तव में वे प्राचीन राज्य थे जिनको एकीकृत करके प्रथम वंश के पहले दो राज्य - उत्तरी और दक्षिणी - स्थापित किए गए थे। लेकिन अब इन पर स्वतंत्र राजाओं के स्थान पर फेरओ द्वारा नियुक्त गवर्नर राज्य करते थे। मध्य राज्य युग में प्रांतीय गवर्नरों तथा सामंतों की शक्ति विशेष रूप से बढ़ी और साम्राज्य युग में सम्राट की।
मिस्री समाज पाँच वर्गो में विभाजित था- राजपरिवार, सामंत, पुजारी, मध्यमवर्ग तथा सर्फ और दास। भूमि सिद्धांतत: फेरओ के हाथ में थी। व्यवहार में उसने इसे अधिकांशत: पुजारियों, पुराने राजाओं के वंशजों और सामंतों में विभाजित कर दिया था। उनकी बड़ी-बड़ी जागीरों में दास और सर्फ काम करते थे। मध्यम वर्ग में लिपिक, व्यापारी, कारीगर, और स्वतंत्र किसान सम्मिलित थे। प्राचीन राज्य युग में सबसे अधिक प्रतिष्ठा राजपरिवार, सामंतो और पुजारियों की थी। मध्य राज्य युग में सामंतों के साथ मध्यम वर्ग को महत्व मिला तथा साम्राज्य युग में सैनिक वर्ग को। वर्ग व्यवस्था आश्चर्यजनक रूप से लचीली थी। हर व्यक्ति कोई भी पेशा अपना सकता था। केवल राजपरिवार के सदस्य इस अधिकार से वंचित थे। सर्फ भी प्राय: उच्च पदों पर पहुंच जाते थे। लेकिन उच्च और निम्न वर्ग के लोगों के रहन सहन में भारी अंतर था। धनी लोग विशाल हवादार भवनों में रहते थे और निर्धन गंदे मोहल्ले की छोटी-छोटी झोपड़ियों में।
समाज की इकाई परिवार था। विध्यनुसार प्रत्येक व्यक्ति की केवल एक पत्नी हो सकती थी और उसी की संतान को परिवारिक संपत्ति उत्तराधिकार में मिलती थी। फेरओ भी इस नियम के अपवाद नहीं थे। लेकिन समृद्ध पुरुष अनेक उपपत्नियाँ रखते थे। मिस्री समाज के प्रत्येक वर्ग में भाई बहिन के विवाह की प्रथा थी, इसलिये पति पत्नी में बाल्यावस्था से ही स्नेह संबंध रहता था। समाज में स्त्रियों को अत्यंत प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। मैक्समूलर के अनुसार किसी अन्य जाति ने स्त्रियों को उतना उच्च वैधानिक सम्मान प्रदान नहीं किया जितना मिस्रियों ने।
मिस्रियों के आर्थिक जीवन का आधार कृषिकर्म था। वे मुख्यत: गेहूँ, जौ, मटर, सरसों, अंजीर, खजूर, सन तथा अंगूर और अन्य अनेक फलों की खेती करते थे। मिस्र में कृषिकर्म, अपेक्षया आसान था। बिना हल चलाए भी मिस्री किसान कई फसलें पैदा कर सकते थे। सिंचाई व्यवस्था का आधार नील नदी थी। किसानों को उपज का 10 से 20 प्रतिशत भाग कर के रूप में देना होता था। कर, खाद्यान्न आदि के रूप में दिए जाते थे। दूसरा प्रमुख उद्यम पशु-पालन था। उनके प्रमुख पालतू पशु थे गाय, भेड़, बकरी, और गधा। असीरिया और नूबिया से वे देवदारु, हाथीदाँत और आबनूस का आयात करते थे और इनसे अपने फेरओ और सामंतों के लिये बहुमूल्य फर्नीचर बनाते थे। वे कई प्रकार के जलपोत बनाने की कला में भी कुशल थे। चमड़े और खालों से वे भाँति भाँति के वस्त्र और ढाल इत्यादि तथा पेपाइरस पौधे से कागज, हलकी नावें, चप्पलें, चटाईयाँ, और रस्सियाँ आदि बनाते थे। उत्तम कोटि के लिनन वस्त्रों की बहुत माँग थी। मिस्रियों के इन उद्योग धंधों को झाँकी उनके रिलीफ चित्रों में सुरक्षित है।
मिस्र निवासी अति प्राचीन काल से बहुदेववादी थे। उन्होंने अपने देवताओं की कल्पना प्राय: मनुष्यों अथवा पशुपक्षियों अथवा मिलेजुले रूप में की। उनके अधिकांश देवता प्राकृतिक शक्तियों के दैवी रूप थे। सूर्य, चंद्र तथा नील नदी को ही नहीं वरन् झरनों, पर्वतों, पशुपक्षियों, लताकुंजों, वृक्षों और विविध वनस्पतियों तक को वे दैवी शक्ति से अभिहित मानते थे। आकाश की कल्पना उन्होंने नूत नाम की दैवी अथवा हथौर नाम की दैवी गौ के रूप में की थी। मेंफिस का प्रमुख देवता टा: किसी प्राकृतिक शक्ति का दैवीकरण न होकर कलाओं और कलाकारों का संरक्षक था। सूर्य की उपासना मिस्र में लगभग सभी जगह विभिन्न नामों और रूपों में होती थी। उत्तरी मिस्र में उसकी पूजा का मुख्य केन्द्र ओन (यूनानियों का हेलियोपोलिस)नाम का स्थान था। यहाँ उसे रे कहा जाता था और उसकी कल्पना पश्चिम की ओर गमन करते हुए वृद्ध पुरुष के रूप में की गई थी। थीबिज में उसका नाम एमन था। दक्षिणी मिस्र में उसका प्रमुख केन्द्र एडफू नामक स्थान था। वहाँ उसकी उपासना बाज पक्षी के रूप में होरुस नाम से होती थी। संयुक्त राज्य की स्थापना होने पर सूर्य के इन विभिन्न रूपों को अभिन्न माना जाने लगा और उसका संयुक्त नाम एमन-रे लोकप्रिय हो गया। उसका प्रतीक 'पक्षयुक्त सूर्चचक्र' मिस्र का राजचिह्न था। मिस्रियों के विश्वास के अनुसार सबसे पहले उसी ने फेरओं के रूप में शासन किया था। सूर्यदेव के आकाशगामी हो जाने पर पृथ्वी पर उसके प्रतिनिधि फेरओं राज्य करने लगे। इनमें सबसे पहला स्थान ओसिरिस को दिया गया है। यद्यपि कहीं-कहीं उसको सूर्य का पुत्र भी कहा गया है, तथापि वह मूलत: नील नदी, पृथ्वी की उर्वर शक्ति तथा हरीतिमा का दैवीकरण प्रतीत होता है। एक नरेश के रूप में वह अत्यंत परोपकारी और न्यायप्रिय सिद्ध हुआ। शासनकार्य में उसे अपनी बहिन और पत्नी आइसिस से बहुत सहायता मिली। उसके दुष्ट भ्राता सेत ने उसकी धोखे से हत्या कर दी। बाद में आइसिस ने होरुस नामक पुत्र को जन्म दिया। उसका पालन-पोषण उसने मुहाने वाले प्रदेश में गुप्त रूप से किया। युवावस्था प्राप्त करने के बाद होरुस ने घोर संघर्ष करके सेत को पराजित किया और अपने पिता के अपमान और वध का प्रतिशोध लिया।
मध्य राज्य युग में ओसिरिस का महत्व बहुत बढ़ा और यह माना जाने लगा कि प्रत्येक मृतात्मा परलोक में ओसिरिस के न्यायालय में जाती है। वहाँ औसिरिस अपने 42 अधीन न्यायाधीशों की सहायता से उसके कर्मो की जाँच करता है। जो मृतात्माएँ इस जाँच में खरी उतरती थीं उन्हें यारूलोक में स्वर्गीय सुखों का उपभोग करने के लिये भेज दिया जाता था और जिनका पार्थिव जीवन दुष्कर्मों से परिपूर्ण होता था उन्हें घोर यातनाएँ दी जाती थीं।
साम्राज्य युग में पुजारी वर्ग अत्यंत धनी और सत्ताधारी हो गया। इससे मध्य राज्य युग में धर्म और सदाचार में जो घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुआ था वह टूट गया। अब स्वयं धर्म के संरक्षक भोग-विलास का जीवन व्यतीत करने लगे। 'देवताओं' के मनोरंजक के हेतु नियुक्त देवदासियाँ वस्तुत: उनका ही मनोरंजन करती थीं। अब उन्होंने मृतकों को परलोक का भय दिखाकर यह दावा करना शुरू किया कि अगर वे चाहें तो अपने जादू के जोर से पापिष्ठों को भी स्वर्ग दिला सकते हैं। इतना ही नहीं, वे खुले आम ऐसे पापमोचक प्रमाणपत्र बेचते थे। इन प्रमाणपत्रों की तुलना मध्यकालीन यूरोप में ईसाई पादरियों द्वारा बेचे जानेवाले पापमोचक प्रमाणपत्रों (इंडल्जेंसेज) से की जा सकती है। मिस्री धर्म की यह वह अवस्था थी जब 1375 ई. पू. में अमेनहोतेप चतुर्थ मिस्र का अधीश्वर बना। उसने प्रारंभ से ही पुजारी वर्ग में फैले भ्रष्टाचार और राजनीति पर उनके अवांछनीय प्रभाव का विरोध किया और एटन नामक एक नये देवता की उपासना को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। उसकी प्रशंसा में उसने अपना नाम भी अख्नाटन रख लिया। एटन मूलत: सूर्यदेव रे का ही नाम था। लेकिन अख्नाटन ने उसे केवल मिस्र का ही नहीं, समस्त विश्व का एकमात्र देवता बताया। क्योंकि एटन निराकार था, इसलिये अख्नाटन ने उसकी मूर्तियाँ नहीं बनवाईं। लेकिन जनसाधारण उसकी महिमा को हृदयंगम कर सके, इसलिये उसने 'सूर्यचक्र' को उसका प्रतीक माना। एटन की उपासना में न बहुत अधिक चढ़ावे की आवश्यकता थी, न जटिल कर्मकांड, तंत्रमंत्र और पुजारियों की भीड़ की। केवल हृदय से एटन के आभार को मानना और उसकी स्तुति करते हुए श्रद्धा के प्रतीक रूप कुछ पत्र, पुष्प और फल चढ़ाना पर्याप्त था। उसके परलोकवाद में नरक की कल्पना नहीं मिलती क्योंकि वह यह सोच भी नहीं सकता था कि दयालु पिता एटन किसी को नारकीय पीड़ाएँ दे सकता है।
अख्नाटन ने प्रारंभ में अन्य देवताओं के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार किया किंतु पुजारियों के उग्र विरोध पर उसने अन्य देवताओं के मंदिरों को बंद करवा दिया। उनके पुजारियों को निकाल दिया, अपनी प्रजा को केवल एटन की पूजा करने का आदेश दिया और सार्वजनिक स्मारकों पर लिखे हुए सब देवताओं के नाम मिटवा दिए। लेकिन अख्नाटन के विचार और कार्य उसके समय के अनुकूल नहीं थे। इसलिये उसकी मृत्यु के साथ उसका धर्म भी समाप्त हो गया। उसके बाद, उसके दामाद तूतेनखाटन ने पुराने धर्म को पुन: प्रतिष्ठित किया, पुजारियों के अधिकार लौटा दिए, और अपना नाम बदलकर तूतेनखामेन रख लिया।
मिस्र की प्राचीन लिपि चित्राक्षर लिपि (हाइरौग्लाइफिक) कही जाती है। 'हाइरोग्लाइफ' यूनानी शब्द है। इसका अर्थ है 'पवित्र चिह्न'। इस लिपि में कुल मिलाकर लगभग 2000 चित्राक्षर थे। इनमें कुछ चित्रों में मनुष्य की विभिन्न आकृतियाँ आदि है। ये चिह्न तीन प्रकार के हैं: भावबोधक, ध्वनिबोधक तथा संकेतसूचक। चित्राक्षरों को बनाते समय वस्तुओं के यथार्थ रूप को अंकित करने का प्रयास किया जाता था, इसलिये इसे लिखने में बहुत समय लगता था। इस कठिनाई को दूर करने के लिये प्रथम वंश के शासनकाल में ही मिस्रियों ने एक प्रकार की द्रुत अथवा घसीट (हाइरेटिक) लिपि का विकास कर लिया था। मिस्रियों ने प्राचीन राज्य युग में 24 अक्षरों की एक वर्णमाला का आविष्कार करने में भी सफलता प्राप्त की थी। उन्होंने वर्णमाला को भावबोधक और घ्वनिबोधक चित्रोें से सहायक रूप में प्रयुक्त किया, स्वतंत्र माध्यम के रूप में नहीं। आठवीं श्ताब्दी ई. पू. के लगभग मिस्रियों ने 'हाइरेटिक लिपि' से भी शीघ्रतर लिखी जानेवाली लिपि का आविष्कार किया जिसे 'डिमाटिक' कहा जाता है। यह एक प्रकार की शार्टहैंड लिपि कही जा सकती है।
मिस्र में प्राचीन राज्य काल से ही पेपाइरस (नरकुल के गूदे से बना कागज) लिखने का सामान्य साधन था। चर्मपत्रों को तथा मृद्भांडों के टुकड़ों को भी लिखने के लिये काम में लाया जाता था। उन पर चित्राक्षर नरकुल की लेखनी से भी बनाए जाते थे और ब्रुश से भी।
मिस्री साहित्य प्रकृत्या व्यावहारिक था। उनकी अधिकांश कृतियाँ ऐसी हैं जो किसी न किसी व्यावहारिक उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये लिखी गई थीं। इसीलिये वे महाकाव्यों, नाटकों और यहाँ तक कि साहित्यक दृष्टि से आख्यानों की भी रचना कभी नहीं कर पाए। उनके जिन आख्यानों की चर्चा की गई है, वे सब साम्राज्य युग के अंत तक केवल जनकथाओं के रूप में प्रचलित थे। उनको कभी पृथक् साहित्यिक कृतियों के रूप में लिपिबद्ध नहीं किया गया। पिरेमिड युग की विशिष्ट धार्मिक रचनाएँ पिरेमिड टेक्सट्स हैं। इनमें मृतक संस्कार में काम आने वाले वे मंत्र, पूजागीत और प्रार्थनाएँ आदि सम्मिलित हैं जिन्हें मृत फेरओ के पारलौकिक जीवन को संकट रहित करने के लिये उसके पिरेमिडों की भित्तियों पर उत्कीर्ण कर दिया जाता था। इनसे ही कालांतर में 'कॉफिन टेक्सट्स' तथा 'बुक ऑव दि डेड' का विकास हुआ। शेष साहित्य भी प्रकृत्या व्यावहारिक है। उदाहरणार्थ इम्होतेप, केगेम्ने तथा टा:होतेप इत्यादि मंत्रियों ने अपने अनुभवजनित ज्ञान को लेखबद्ध किया। ये कृतियाँ 'नीतिग्रंथ' कहलाती हैं। मध्य राज्ययुगीन रचनाओं में 'मुखर कृषक का आवेदन', 'इपुवेर की भविष्यवाणी' 'एमेनम्हेत का उपदेश' तथा 'वीणावादक का गान' प्रमुख हैं।
विज्ञान के केवल उन्हीं क्षेत्रों में मिस्रियों की रुचि थी जिनकी व्यावहारिक जीवन में आवश्यकता पड़ती थीं। जिज्ञासा के सीमितश् होने के बावजूद उन्होंने कुछ क्षेत्रों में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। उदाहरणार्थ उन्होंने ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति का काफी सही अंदाज करके आकाश का मानचित्र बना लिया था। सौर पंचांग का आविष्कार उनकी महत्वपूर्ण सफलता थी। गणित के मुख्य नियम जोड़, घटाना और भाग व्यापार और प्रशासन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये काफी पहले आविष्कृत हो चुके थे। लेकिन गुणा से वे अंत तक अपरिचित रहे। इसका काम वे जोड़ से चलाते थे। शून्य और दशमलव विधि से भी वे अपरिचित थे। बीजगणित और रेखागणित की प्राथमिक समस्याओं को हल करना उन्हें आ गया था, लेकिन विषम चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने में दिक्कत का अनुभव करते थे। वृत्त, अर्द्धगोलाक और सिलिंडर का क्षेत्रफल निकालने में काफी सफलता प्राप्त कर ली थी। भवनों की आधारयोजना बनाने में वे असाधारण रूप से कुशल थे। उनके कारीगर स्तंभों और मेहरातों के प्रयोग से परिचित थे। चिकित्साशास्त्र में भी उन्होंने पर्याप्त प्रगति कर ली थी।
मिस्रियों के लिये कला उनके राष्ट्रीय जीवन को अभिव्यक्त करने का माध्यम थी। इसका सर्वोत्तम प्रमाण उनके पिरेमिड हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि मिस्री नरेशों ने इन्हें राज्य की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ने पर जनता को रोजगार देने के लिये बनवाया था। लेकिन यह असंभव लगता है। जिस समय ये पिरेमिड बनाए गए थे मिस्र समृद्ध देश था, इसलिये इनका निर्माण आर्थिक संगठन के दौर्बल्य का कारण माना जा सकता है, परिणाम नहीं। वास्तव में मिस्रियों ने पिरेमिडों की रचना अपने राज्य और उसके प्रतीक फेरओं की अनश्वरता और गौरव को अभिव्यक्त करने के लिये की थी। अगर फेरओं अमर थे तो उनकी मृत देह की सुरक्षा और उसके निवास के हेतु उनकी महत्ता के अनुरूप विशाल और स्थायी समाधियों का निर्माण आवश्यक था। हेरोडोटस के अनुसार गिजेह के 'विशाल पिरेमिड' को एक लाख व्यक्तियों ने बीस साल में बनाया था। यह तेरह एकड़ भूमि में बना है और 480 फुट ऊँचा तथा 755 फुट लंबा हैं। इसमें ढाई ढाई टन भार के 23 पाषाणखंड लगे हैं। ये इतनी चतुरता से जोड़े गए हैं कि कहीं कहीं तो जोड़ की चौड़ाई एक इंच के हजारवें भाग से कम है।
साम्राज्य युग में मिस्री वास्तुकला का प्रदर्शन मंदिरों का निर्माण में हुआ। पिरेमिडों के समान ये मंदिर भी प्राय: कठोरतम पाषाण से बनाए गए है और अत्यंत विशाल है। कानार्क का मंदिर संभवत: विश्व का विशालतम भवन है। यह 1300 फुट (लगभग चौथाई मील) लंबा है। इसका मध्यवर्ती कक्ष 170 फुट लंबा और 338 फुट चौड़ा है। इसकी छत छह पंक्तियों मेें बनाए गए 136 स्तंभों पर टिकी है जिनमें मध्यवर्ती बारह स्तंभ 79 फुट ऊँ चे हैं और उनमें से प्रत्येक के शीर्षभाग पर सौ व्यक्ति खड़े हो सकते हैं। मिस्री नूबिया में निर्मित आबू सिंबेल का मंदिर वस्तुत: एक गुहामंदिर है। यह 175 फुट लंबा और 90 फुट ऊँचा है। इसके मध्यवर्ती कक्ष की छत 20 फुट ऊँचे 8 स्तंभों पर आधारित है जिनके साथ ओसिरिस की 17 फुट ऊँची मूर्तियाँ बनी है। लक्सोर का मंदिर अमेनहोतेप तृतीय ने बनवाया था। किंतु वह इसे पूरा नहीं कर पाया।
वास्तुकला के समान विशालता, सुदृढ़ता और रूढ़िवादिता भी मिस्री मूर्तिकला की विशेषताएँ थीं। राजाओं की मूर्तियाँ अधिकांशत: कठोर पाषाण से विशाल आकार और भाव-विहीन मुद्रा में बनाई जाती थीं। उन्हें प्राय: कुर्सी पर पैर लटका कर मेरुदंड को सीधा किये और हाथों को जाँघों पर रखे बैठने की मुद्रा में अथवा हाथ लटकाए बायाँ पैर आगे बढ़ाकर चलने की मुद्रा में दिखाया गया है। थटमोस तृतीय और रेमेसिस द्वितीय की मूर्तियाँ तो आकाश को छूती लगती है। खेफे के पिरेमिड के सामने स्थित विशाल 'स्फिक्स्' नामक मूर्ति संभवत: विश्व की विशालतम मूर्ति है। इसका शरीर सिंह का है और सिर फेरओ खफ्रेे का। इन सबसे भिन्न हैं अख्नाटन के काल में बनी कुछ मूर्तियाँ जिनमें स्वयं अख्नाटन और उसकी रानी नफ्रोतीति की मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके निर्माता कलाकार पुरानी परंपराओं के बंधनों से मुक्त थे। ऐसी कुछ मूर्तियाँ सामान्य जनों की भी मिली हैं। इनमें काहिरा संग्रहालय में सुरक्षित प्राचीन राज्य के एक ओवरसियर की काष्ठश् की प्रतिमा, जिसका केवल सिर अवशिष्ट है, बहुत प्रसिद्ध है। यह 'शेख की मूर्ति' नाम से विख्यात है। लूब्रे संग्रहालय की 'लिपिक की मूर्ति' भी अत्यंत प्राणवान् प्रतीत होती है।
मिस्र में मंदिरों और मस्तबाओं (समाधियों) में रिलीफ चित्र बनाने वाले कलाकारों की भी बहुत माँग थी। ऐसी मूर्तियाँ बनाते समय अंकित वस्तु की लंबाई चौड़ाई तो आसानी से दिखा दी जाती थी, लेकिन मोटाई अथवा गोलाई दिखाने में दिक्कत होती थी। इसलिये उनके रिलीफ चित्रों में काफी अस्वाभाविकता आ गई है। लेकिन इस दोष के बावजूद मिस्री रिलीफ चित्र दर्शनीय हैं और प्राचीन मिस्री सभ्यता और रीति रिवाजों पर ज्ञानवर्द्धक प्रकाश डालते हैं।
मिस्र की चित्रकला के अधिकांश नमूने नष्ट हो चुके है, लेकिन जो शेष हैं, धार्मिक और राजनीतिक रूढ़ियों से अप्रभावित लगते हैं। ऐसा लगता है, मिस्र में चित्रकला का जन्म पिरेमिड युग में हो जाने पर भी विकास काफी बाद में हुआ। इसलिये यह कला धर्म की परिधि से बाहर रह गई। मिस्री चित्रकला के उपलब्ध नमूनों में सर्वोत्तम अख्नाटन के समय के हैं। चित्रकला के अतिरिक्त साम्राज्ययुगीन मिस्री अन्य अनेक ललित कलाओें में भी दक्ष हो चुके थे। तूतेनखामेन की 1922 ई. में उत्खनित समाधि से अब से लगभग 3300 वर्ष पूर्व छोड़े गए बहुमूल्य काष्ठ, चर्म और स्वर्ण निर्मित फर्नीचर उपकरण, आबनूस और हस्तिदंत खचित बाक्स, स्वर्ण और बहुमूल्य पाषाणों से सज्जित रथ, स्वर्णपत्रमंडित सिंहासन, श्वेत पाषाण के सुंदर भांड तथा जरी के सुंदर शाही वस्त्र, उपलब्ध हुए हैं। इनसे साम्राज्ययुगीन मिस्र की कला की प्रगति और वैभव का पता चलता है।
सं. ग्रं.- श्रीराम गोयल : विश्व की प्राचीन सभ्यताएँ, पृ. 307-84। [श्री राम गोयल]
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संदर्भ
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