मलेरिया प्रोटोज़ोआ संघ

Submitted by Hindi on Sat, 08/27/2011 - 16:04
मलेरिया प्रोटोज़ोआ संघ की अनेक परजीवी जातियों द्वारा उत्पन्न रोग है। मनुष्य में केवल प्लैज़मोडियम (Plasmodium) वंश के सदस्य ही यह रोग उत्पन्न करते हैं। ये जीव मानव शरीर के अचल ऊतक कोशों (यकृत के मृदूतक कोश) में खंडविभाजन अवस्था पूर्ण कर रक्त के लोहिताणुओं पर आक्रमण करते हैं और फलस्वरूप आवर्ती ज्वर, तिल्लीवृद्धि और रक्तक्षीणता उत्पन्न होती है। इन जीवों का संवाहन ऐनोफेलीज़ जाति की मादा मच्छर करती है (देखें मच्छर)।

मलेरिया विश्व के सबसे पुराने रोगों में एक है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में जाड़ा देकर आनेवाले अँतरिया ज्वर का उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि कछुवे की पीठ सी कड़ी और बढ़ी हुई तिल्ली के कारण उदर का वाम भाग फूल आता था। हथौड़ा, ठंढा जल और चूल्हा लिए तीन प्रेत, सर दर्द, जड़ैया और ज्वर उत्पन्न करते हैं, ऐसी कल्पना प्राचीन चीन में की गई थी। मिस्र के मंदिरों में उत्कीर्ण आलेखों से इस रोग का संकेत मिलता है। ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व रोमन एंपेडोक्लीज़ (Empedocles) ने सिसली स्थित सेलिनस के दलदलों से जल की निकासी का प्रबंध कर मलेरिया को भगाया था। इसी युग में हिपॉक्रेटीज़ ने मलेरिया को विशद वर्णन प्रस्तुत किया और दलदलों के विषाक्त जल को इसका कारण बताया। ईसा की प्रथम शताब्दी में कॉलुमेला (Columella) ने अच्छे सुझाव दिए कि घर दलदल के पास नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसमें कीट पतंगे पैदा होते हैं और ये कीचड़ तथा सड़ती हुई गंदगी से विष लेकर आते हैं तथा मनुष्य को काटकर गंदे रोग दे जाते हैं। अथर्ववेद में मच्छरों को शत्रु बताया गया है और उनके विनाश के लिये उसमें औषधियों का उल्लेख है। अनेक विजय अभियान, कृषि योजनाएँ और रूमानी संकल्प इस मलेरिया के कारण असफल हो गए। सिकंदर की मृत्यु और रोमन साम्राज्य के विघटन का दोष भी इसी रोग के माथे मढ़ा जाता है और इसी रोग के कारण पनामा नहर का निर्माण रुक गया था।

मलेरिया इतालवी शब्द है, जिसका अर्थ है दूषित वायु (मैल = दूषित, एरिया = वायु)। मध्ययुग में रूढ़िवादी चिकित्सक दूषित वायु को ही मलेरिया का कारण मानते थे और उन दिनों यूरोप में इसके भीषण आक्रमण होते थे। इस असहाय अवस्था से मानव की रक्षा करने के लिये सर्वप्रथम मलेरिया की एक औषधि अवतीर्ण हुई, जिसका नाम है सिंकोना। पेरू के वाइसराय, चिंकान के काउंट की पत्नी को मलेरिया हुआ था, जिसे पेरूवासी चिकित्सकों ने देशी औषधि से अच्छा कर दिया। यह देशी औषधि थी एक वृक्ष की छाल। पेरू से पादरी दल यह 'ज्वर वृक्ष' रोम लाया और इसका नाम काउंटेस के नाम पर 'सिकोना' रखा गया। आरंभ में इस औषधि का धार्मिक विरोध हुआ। प्रोस्टेस्टैंट दल ने 'पोपी चूर्ण' नाम देकर इसे धोखा बताया। कहते हैं, ऑलिवर क्रॉमवेल इसी कारण मर गया कि कोई भी अंग्रेज डाक्टर पोपी चूर्ण देने को तैयार न था। गुप्त ओषधि के रूप में इसका उपयोग होता था और ज्वर विशेषज्ञ रॉबर्ट टैलबर ने इसी से अपार धन और यश कमाया। उसके रोगियों में चार्ल्स द्वितीय और स्पेन की रानी भी शामिल थे।

भारत में 1804 ईo में एक सर्जन जेम्स जॉन्सन थे और इनका रोगी सिंकोना चूर्ण देने से मर गया। बस जॉन्सन साहब ने फतवा दे दिया कि सिंकोना बेकार है, पुराना इलाज रेचन, स्वेदन और रक्तस्रवण ही ठीक है। अगले 35 वर्षों तक सिंकोना का उपयोग नहीं हुआ। दो फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने सिंकोना का सत्‌ कुनैन ढूँढ़ निकाला और शीघ्र ही संसार में अनेक स्थानों पर कुनैन के कारखाने खुल गए। सिंकोना की माँग बढ़ी, उसकी खेती का प्रयास होने लगा और डच लोगों को इसकी खेती में सफलता प्राप्त हुई। जावा में सिंकोना की खेती को सफलता मिली। द्वितीय महायुद्ध से पूर्व जावा में प्रति वर्ष दो करोड़ टन सिंकोना की छाल उत्पन्न होती थी।

सन्‌ 1880 में अल्जीरिया में फ्रांसीसी वैज्ञानिक लेबरान ने मलेरिया के परजीवी ढूँढ निकाले। 1894 ईo में मैंसन ने कहा कि शायद मच्छरों द्वारा मलेरिया का संवाहन होता है और मलेरिया विष से पीड़ित मच्छर जब पानी में गिरकर मर जाते है, तक यह दूषित जल पीने से मलेरिया होता है। 1889 ईo और 1893 ईo में स्मिथ और किलबोर्न ने सिद्ध किया कि रोग के प्रसार में कीट आवश्यक हैं। 1898 ईo में भारत में रोनाल्ड रॉस ने पक्षी मलेरिया के चक्र का उद्घाटन किया। इन्होंने क्यूलेक्स जाति के मच्छरों में पक्षी मलेरिया का मैथुनी चक्र देखा। इधर इटली में विधिवत्‌ वैज्ञानिक अनुसंधानों के फलस्वरूप बैतिस्ता ग्रासी, बिगनामी और बैस्टियानेली ने सिद्ध कर दिया कि मानवी मलेरिया चक्र ऐनोफेलीज़ जाति के मच्छरों में चलता है। यही नहीं, वे प्रयोगशाला में संक्रमित मच्छरों द्वारा स्वस्थ व्यक्ति में मलेरिया उत्पन्न करने में सफल हो गए।

इस प्रकार सिद्ध हो गया कि प्रोटो जोआ संघ तथा स्पोरोज़ोआ वर्गीय प्लैज़मोडियम वंश के एककोशीय जीव मलेरिया के परजीवी हैं। इस वंश की अनेक जातियों में से प्लाo मलेरी (लेवरान, 1891 ईo) चौथिया (quartan) ज्वर उत्पन्न करता है, प्लाo वाइवेक्स (ग्रासी और फेलेट्टी, 1890 ईo) सुदम्य तृतीयक, या पारी का ज्वर, और प्लाo फासिल्सपैंरम (केल्श, 1897 ईo) दुर्दंम्य तृतीयक (मैलिग्नैंट टर्शियन) ज्वर तथा प्लाo ओवेल (स्टीफेंस, 1922) भी एक प्रकार का तृतीयक मलेरिया उत्पन्न करता है।

औषधि अनुसंधान-


परजीवी की शोध के साथ ही औषधि तथा रोकथाम के उपायों की खोज भी चलती रही। 1891 ईo में पॉल अर्लिख ने बताया कि मेथिलीन ब्ल्यू का मलेरिया पर कुछ प्रभाव होता है। अर्लिख ने रसायन चिकित्सा की नींव रखी। प्रथम महायुद्ध के समय जब जर्मनी को कुनैन मिलने में कठिनाई हुई, तो नई मलेरियानाशक ओषधियों की शोध आरंभ हो गई। 1924 ईo में शूलमान ने प्लास्मोचिन, 1930 ईo में किकुथ और उनके सहयोगियों ने क्वीनाक्रीन (मेपाक्रीन) तैयार की। दूसरे महायुद्ध में जब जावा पर जापानियों का कब्जा हो गया तो मित्र राष्ट्रों को कुनैन मिलना बंद हो गया। फिलीपीन से सिंकोना के चुने हुए बीज खेती के लिये दक्षिणी अमरीका लाए गए। इस प्रकार सिंकोना पूर्व की यात्रा कर घर लौट आया। 1944 ईo में ब्रिटिश वैज्ञानिक कुर्ड, डेवी और रोज़ ने 4,888 वें यौगिक की परीक्षा की और 'पालूड्रीन' सी सफल ओषधि पा गए। इसी परंपरा में नीवाक्वीन, डाराप्रिम, क्लोरीक्वीन और कामाक्वीन का जन्म हुआ और ये ओषधियाँ मलेरिया के उपचार में ही नहीं वरन्‌ रोकथाम में भी सक्षम सिद्ध हुईं।

यह सिद्ध होने पर कि मलेरिया प्रसार में मच्छर दोषी हैं, मच्छरों के विनाश और उनके दंश से बचने के उपाय प्रारंभ हुए। जल की निकासी, रुके हुए जल पर लार्वा नाशक ओषधियों का छिड़काव, लार्वा लक्षक मछलियों का उपयोग, मच्छरदानी, मच्छर भगानेवाले धूप और क्रीमों का उपयोग तथा अन्य उपायों का व्यवहार होने लगा। जब पॉल मूलर ने डीo डीo टीo का आविष्कार किया, तो मलेरिया संघर्ष का दृष्टिकोण ही बदल गया। मलेरिया उन्मूलन की चेष्टा आरंभ हो गई। डीo डीo टीo के साथ ही अन्य कीटनाशक, यथा गेसास्केन पाईथ्रोम, क्लोरडेन, लिंडेन, डीलड्रिन आदि, मैदान में आए। डीo डीo टीo संसर्गी कीटविष है और मलेरिया उन्मूलन में इसका उपयोग मच्छर विनाश से अधिक मलेरिया चक्र तोड़ने के उद्देश्य से होता है। मादा ऐनोफेलीज़ रक्तपान कर कमरे के अँधेरे कोने में दीवार पर विश्राम करती हैं और यहाँ डीo डीo टीo छिड़का हो, तो कुछ समय बाद यह मलेरिया संवाहिका मर जाती है और इस प्रकार मलेरिया चक्र टूट जाता है।

मलेरिया का प्रसार-


मलेरिया संसार के सभी भागों में होता है, किंतु विशेष रूप से उष्ण कटिबंध में। भारत में मलेरिया उन्मूलन का कार्यक्रम लागू होने से पूर्व प्रति वर्ष एक करोड़ व्यक्ति आक्रांत होते थे और 10 लाख मौतें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसी के कारण होती थीं। अनुमान है कि 1943 ईo में संसार में 30 करोड़ मनुष्यों को मलेरिया हुआ, जिसमें से 30 लाख मर गए। सुदम्य तृर्तीयक, या पारी का बुखार, सबसे अधिक व्यापक है, दुर्दम्य तृतीयक खतरनाक होता है और चौथिया भूमध्यसागरीय क्षेत्र में सीमित है। मलेरिया प्रसार की महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं : ऐनोफैलीज़ मच्छर, परजीवी भंडार (रोगी), मलेरिया प्रभाव्य मानव समूह, अनुकूल जलवायु, वर्षा, व्यवसाय, आर्थिक अवस्था, कृषि, युद्ध देशांतरण आदि।

मलेरिया परजीवी-


ये परजीवी मनुष्य, बंदर, पक्षी, और सरीसृप में पाए जाते हैं। मानवी मलेरिया की ऊपर चर्चा की जा चुकी है। इन जीवों के दो जीवनचक्र होते हैं : एक मनुष्य में, अमैथुनी चक्र, और दूसरा मच्छर में, मैथुनी चक्र। मच्छर के दंश से आए बीजाणु (spores) ऊतकों में विश्राम करने के बाद लोहिताणुओं में प्रवेश करते हैं। यहाँ ट्रोफोज़ोआइट (trophzoite, पोष बीजाणु) के रूप में आगे विकास होता है, और अंत में अनेक नन्हें खंडों में विभाजित होने पर खंडप्रसू (schizont) बनता है। अब लोहिताणु फट जाता है और खंडज (merozoite) नए लोहिताणुओं पर आक्रमण करते हैं। इस प्रकार परजीवी की संख्यावृद्धि होती रहती है। विभिन्न परजीवियों के अमैथुनीचक्र में थोड़ा अंतर होता है और कुछ में वृद्धिकाल में एक प्रकार का विषाक्त रंजक भी बनता है। एक चक्र पूरा होने पर जब लोहिताणुओं का नाश होता है, तब ज्वर आता है।

मैथुनी चक्र--कुछ खंडप्रसू यौन रूप, या युग्मक जनकाणु रूप, धारण करते हैं और ये रूप जब रक्तपान कर रहे मच्छर के पेट में जाते हैं, तो मैथुनीचक्र आरंभ होता है। नर मादा युग्मक जनकों का संयोग होकर, ऊकिनीट बनता है, जो रेंगकर मच्छर के आमाशय की दीवार के बाह्य तल पर घर बनाता है। इसे युग्मकपुटी कहते हैं। इसमें विभाजन प्रक्रिया द्वारा बड़ी संख्या में बीजाणु बनते हैं। अंत में पुटी फट जाती है और बीजाणु मच्छर की लालाग्रंथि में घुस जाते हैं। अब यह मच्छर स्वस्थ मनुष्य को काटता है, और स्वभाव के अनुसार दंश स्थल में थूक भी देता है। उसकी लार में परजीवी बीजाणु भरे होते हैं। ये बीजाणु स्वस्थ मनुष्य में नया अमैथुनी चक्र आरंभ करते हैं।

मच्छर--मच्छर संसार के सभी भागों में रहते हैं। मलेरिया संवाहक ऐनोफेलीज़ की 35 उपजातियाँ हैं। भारत में एo फ्युनेसटस, एo क्युलिसीफेसीज़, एo स्टीफेनसाई, एo मैकुलेटस और एo मिनिमस जातियाँ मलेरिया संवाहक हैं। मच्छर के जीवनचक्र का भी विस्तार से अध्ययन किया गया है। ऐनोफेलीज़ के साथ ही क्यूलेक्स मच्छर भी बड़ी संख्या में मिलते हैं और इन दोनों मच्छरों को पहचानने के तरीकों का उल्लेख किसी भी मलेरिया संबंधी पुस्तक में देखा जा सकता है। मच्छर के जीवन की चार अवस्थाएँ होती हैं : अंडे, लार्वा, प्यूपा और वयस्क मच्छर (देखें मच्छर), और इन सभी का अध्ययन मलेरिया विनाश कार्यक्रम के लिये आवश्यक है।

मलेरिया ज्वर-


मच्छर काटने के दस दिन बाद सुदम्य तृतीयक ज्वर आता है। इसमें एक दिन का अंतर देकर बुखार आता है और चार घंटे तक रहता है। चौथिया ज्वर दंश के 20 दिन बाद प्रकट होता है और दो दिन का अंतर देकर ज्वर आता है। दुर्दम्य तृतीयक अनियमित और प्रति दिन चढ़नेवाला ज्वर है। बहुधा यह निमोनियाँ, बेहोशी या अतिसार के रूप में भी प्रकट होता है।

मलेरिया ज्वर हलकी सर्दी से आरंभ होता है, फिर तेज जाड़ा लगता है, दाँत किटकिटाते हैं, कँपकँपी का दौरा होता है, त्वचा छूने पर बर्फ सी ठंढी लगती है, पर ताप 40 डिग्री सेंटीग्रेड (104फाo) तक या उससे भी अधिक हो जाता है। तबीयत घबराती है, जी मचलाता है। ठंड का वेग घटता है और शुष्क दाह आरंभ होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि बदन में आग लगी है। उन्माद सी अवस्था, अतृप्त प्यास, सिर में धमधमाहट, लाल आँखें, और अनाप शनाप बक झक के लक्षण प्रगट होते है। सहसा तापहर पसीने की फुहार छूटती है, शय्या और वस्त्र भीग जाते हैं, ताप घटता है और रोगी सो जाता है। कुछ समय तक शांति रहती है, फिर नया आक्रमण होता है। अनेक आक्रमणों के बाद रक्तक्षीणता और तिल्ली की वृद्धि होती है।

तीव्र मलेरिया अनेक रूपों में मिलता है : (1) प्रमस्तिष्कीय (cerebral)--इसमें बेहोशी, लकवा, दौरा आदि के लक्षण रहते हैं, (2) शीत ज्वर--इसमें मानसिक आघात के लक्षण रहते हैं, (3) हृदीय--इसमें दु:श्वास, श्यामता, रक्त परिसंचरण की धात आदि लक्षण रहते हैं, (4) आमाशयांत्रिक--इसमें विशूचिका या आमाशय्व्राण के लक्षण रहते हैं, (5) उदरीय--इसमें उदर स्थित अंगों के रोगों के लक्षण रहते हैं, (6) परप्यूरिक--इसमें त्वचा तथा अन्य अंगों में रक्तस्राव होता है तथा (7) वृक्कीय--इसमें मूत्र में ऐल्बूमेन तथा वृक्क रोग के लक्षण रहते हैं।

मलेरिया का निदान--रक्त में मलेरिया परजीवी की उपस्थिति, ज्वर के आक्रमण का रूप, लक्षणसमूह, रक्त में श्वेत रुधिर कणिकाओं की संख्या में, ह्रास, रक्तक्षीणता, तिल्ली की वृद्धि आदि निदान में सहायक होते हैं।

प्रतिरक्षा-


मलेरिया के आक्रमणों के प्रति मलेरिया के क्षेत्र के निवासियों में निम्न श्रेणी की प्रतिरक्षा उत्पन्न होती है, पर इसका रूप स्पष्ट नहीं है।

बचाव तथा उपचार-


मलेरिया उन्मूलन के लिये मच्छरों का विनाश, तथा मच्छरों और मानव के संपर्क में रुकावट के उपाय किए जाते हैं। शरीर में औषधि द्वारा बचाव संभव है। पहले कुनैन की टिकिया खाते थे, पर इससे बधिरता, त्वचा की विवर्णता, पाचन की गड़बड़ी आदि कुप्रभाव होते थे। युद्ध के बाद नई औषधियाँ सक्षम सिद्ध हुई हैं। इनमें पैलूड्रिन, लाल रुधिर कणिकाओं में प्रवेश करने से पूर्व ही, परजीवी को नष्ट कर देती है। उपचार में कुनैन और मेपाक्रीन दुर्दम्य तृतीयक के युग्मक जनक को छोड़ सभी अवस्थाओं पर असर करती हैं; पामाक्वीन युग्मक जनक का संहार करती है। क्लोराक्विन, नीवाक्विन, पैलूड्रिन और कामाक्विन तीव्र गति से क्रिया करनेवाली मलेरिया नाशक औषधियाँ हैं।

उन्मूलन -


सफल चिकित्सा और प्रबल कीटनाशकों ने मानव को मलेरिया के उन्मूलन की ओर अग्रसर किया। 1945 ईo में वेनिज़्वीला में प्रथम राष्ट्रीय उन्मूलन कार्यक्रम आरंभ हुआ। इटली ने इसका अनुसरण किया। 1955 ईo में पॉल रसेल और एमिलो पांपाना द्वारा प्रेरित, विश्वव्यापी मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम विश्व स्वास्थ्य संगठन के तत्वाधान में आरंभ हुआ। विगत दस वर्षों से मलेरिया लुप्त हो चला है।

कुछ मच्छरों ने डीo डीo टी विष का प्रतिरोध कर परेशानी पैदा कर दी है। वैज्ञानिकों ने यह ज्ञात किया है कि मच्छर के प्रतिरोध का कारण उसमें वर्तमान डीo डीo टीo नाशक एंजाइम है और अब वे इसका प्रतिकार ढूँढ़ रहे हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने तो इस शोध के सिलसिले में मच्छरों में कृत्रिम गर्भाधान कराने में सफलता प्राप्त की है। मलेरिया, मच्छर और मानव का त्रिकोणात्मक युद्ध अब अपने आखिरी चरण में हैं और हमारे प्रयास शिथिल न हुए तो विजय दूर नहीं है।

[भानुशंकर मेहता]

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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