मनुष्य का विकास

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मनुष्य का विकास चार्ल्स डार्विन की 'ओरिजिन ऑव स्पीशीज़' नामक पुस्तक के पूर्व साधारण धारणा यह थी कि सभी जीवधारियों को किसी दैवी शक्ति (ईश्वर) ने उत्पन्न किया है तथा उनकी संख्या, रूप और आकृति सदा से ही निश्चित रही है। परंतु उक्त पुस्तक के प्रकाशन (सन्‌ 1859) के पश्चात्‌ विकासवाद ने इस धारणा का स्थान ग्रहण कर लिया और फिर अन्य जंतुओं की भाँति मनुष्य के लिये भी यह प्रश्न साधारणतया पूछा जाने लगा कि उसका विकास कब और किस जंतु अथवा जंतुसमूह से हुआ। इस प्रश्न का उत्तर भी डार्विन ने अपनी दूसरी पुस्तक 'डिसेंट ऑव मैन' (सन्‌ 1871) द्वारा देने की चेष्टा करते हुए बताया कि केवल वानर (विशेषकर मानवाकार) ही मनुष्य के पूर्वजों के समीप आ सकते हैं। दुर्भाग्यवश धार्मिक प्रवृत्तियोंवाले लोगों ने डार्विन के उक्त कथन का त्रुटिपुर्ण अर्थ (कि वानर स्वयं ही मानव का पूर्वज है) लगाकर, न केवल उसका विरोध किया वरन्‌ जनसाधारण में बंदरों को ही मनुष्य का पूर्वज होने की धारणा को प्रचलित कर दिया, जो आज भी अपना स्थान बनाए हुए है।

यद्यपि डार्विन मनुष्य विकास के प्रश्न का समाधान न कर सके, तथापि इन्होंने दो गूढ़ तथ्यों की ओर प्राणिविज्ञानियों का ध्यान-आकर्षित किया : (1) मानवाकार कपि ही मनुष्य के पूर्वजों के संबंधी हो सकते हैं और (2) मानवाकार कपियों तथा मनुष्य के विकास के बीच में एक बड़ी खाईं है, जिसे लुप्त जीवाश्मों (fossils) की खोज कर के ही कम किया जा सकता है।

यह प्रशंसनीय है कि डार्विन के समय में मानव के समान एक भी जीवाश्म उपलब्ध न होते हुए भी, उसने भूगर्भ में छिपे ऐसे अवशेषों की उपस्थिति की भविष्यवाणी की जो सत्य सिद्ध हुई।

विकासकाल का निर्धारण-


मानवाकार सभी जीवाश्म भूगर्भ के विभिन्न स्तरों से प्राप्त हुई हैं। अतएव मानव विकास काल का निर्धारण इन स्तरों (शैल समूहों) के अध्ययन के बिना नहीं हो सकता। ये स्तर पानी के बहाव द्वारा मिट्टी और बालू से एकत्रित होने और दीर्घ काल बीतने पर शिलाभूत होने से बने हैं। इन स्तरों में जो भी जीव फँस गए, वो भी शिलाभूत हो गए। ऐसे शिलाभूत अवशेषों को जीवाश्म कहते हैं। जीवाश्मों की आयु स्वयं उन स्तरों की, जिनमें वे पाए जाते हैं, आयु के बराबर होती है। स्तरों की आयु को भूविज्ञानियों ने मालूम कर एक मापसूचक सारणी तैयार की है, जिसके अनुसार शैलसमूहों को चार बड़े खंडों अथवा महाकल्पों में विभाजित किया गया : आद्य (Archaean), पुराजीवी (Palaeozoic), मध्यजीवी (Mesozoic) और नूतनजीवी (Cenozoic) महायुग। इन महाकल्पों को कल्पों में विभाजित किया गयाहै तथा प्रत्येक कल्प एक कालविशेष में पाए जानेवाले स्तरों की आयु के बराबर होता है। इस प्रकार आद्य महाकल्प एक [ कैंब्रियन पूर्व (Pre-cambrian)], पुराजीवी महाकल्प छह [ कैंब्रियन (Cambrian), ऑर्डोविशन, (Ordovician), सिल्यूरियन (Silurian), डिवोनी (Devonian), कार्बोनी (Carbniferous) और परमियन (Permian)], मध्यजीवी महाकल्प तीन [ ट्राइऐसिक (Triassic), जूरैसिक (Jurassic) और क्रिटैशस (Cretaceous)] और नूतनजीव महाकल्प पाँच [ आदिनूतन (Eocene), अल्प नूतन (Oligocene), मध्यनूतन (Miocene), अतिनूतन (Pliocene) और अत्यंत नूतन (pleistocene)] कल्पों में विभाजित हैं (देखें सारणी)।

जीवाश्म की आयु का निर्धारण-


शैल समूहों से जीवाश्मों की केवल समीपतर्वी आयु का ही पता चल पाता है। अतएव उसकी आयु की और सही जानकारी के लिये अन्य साधनों का उपयोग किया जाता है। इनमें रेडियोऐक्टिव कार्बन, (1414, या C14), की विधि विशेष महत्वपूर्ण है जो इस प्रकार है : सभी जीवधारियों (पौधे हों या जंतु) के शरीर में दो प्रकार के कार्बन कण उपस्थित होते हैं, एक साधारण, का12 (C12), और दूसरा रेडियाऐक्टिव, का14 (C14)! इनका आपसी अनुपात सभी जीवों में (चाहे वे जीवित स्थित हों या मृत) (constant) रहता है। कार्बन14, वातावरण में उपस्थित नाइट्रोजन14 के अंतरिक्ष किरणों (cosmic rays) द्वारा परिवर्तित होने से, बनता है। यह कार्बन14 वातावरण के ऑक्सीजन से मिलकर रेडियाऐक्टिव कार्बन डाइऑक्साइड का14 औ2 (C14O2) बनाता हैं, जो पृथ्वी पर पहुँचकर प्रकाश संश्लेषण द्वारा पौधों में अवशोषित हो जाता है और इनसे उनपर आश्रित जंतुओं में पहुँच जाता है। मृत्यु के बाद कार्बन14 का अवशोषण बंद हो जाता है तथा उपस्थित कार्बन14 पुन: नाइट्रोजन14 में परिवर्तित होकर वातावरण में लौटने लगता है। यह मालूम किया जा चुका है कि कार्बन14 का आधा भाग 5,720 वर्षों में नाइट्रोजन14 में बदल पाता है। अतएव जीवाश्म में कार्बन14 की उपस्थित मात्रा का पता लगाकर, किसी जीवाश्म की आयु का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस विधि में कमी यह है कि इसके द्वारा केवल 50 हजार वर्ष तक की आयु जानी जा सकती है।

भूवैज्ञानिक कल्पों की सारणी


वर्ष लाख में

कल्प

महाकल्प

जन समूहों की अवधि

10

अत्यंतनूतन

(Pleistocene)

नूतनजीव (Cenozoic)

अपृष्ठवंशी (Invertebrates)

मत्स्य (Fishes)

जलस्थल चर (Amphibians)

सरीसृप (Reptiles)

पक्षी (Birds)

स्तनी (Mammals)

मनुष्य

150

अतिनूतन

(Pliocene)

350

मध्यनूतन

(Miocene)

450

अल्पनूतन

(Oligocene)

700

आदिनूतन

(Eocene)

मध्यजीवी (Mesozoic)

1,400

क्रिटेशस

(Cretaceous)

1,700

जूरैसिक

(Jurassic)

1950

ट्राइऐसिक

(Triassic)

2,200

परमियन

(Permian)

पुराजीवी (Palaeozoic)

2,750

कार्बनी

(Carboniferous)

3,200

डिवोनी

(Devonian)

3,500

सिल्यूरिन

(Silurain)

4,200

ऑर्डोविशन

(Ordovician)

5,200

कैंब्रियन

(Cambrain)

आद्य महायुग (Archaean)

 

30,000

पूर्व-कैंब्रियन

(Pre Cambrian)



मनुष्य के जीवित संबंधी--मनुष्य के पूर्वजों की अन्य कोई जाति अब जीवित नहीं है। वर्तमान जंतुओं में जो समूह उनके निकट संबंधी होने का दावा कर सकता है, उसे प्राइमेटीज़ (primates, नरवानर-गण) कहते हैं। यह स्तनियों का एक समूह है। मानव विकास के अध्ययन में प्राइमेटीज़ का संक्षिप्त विवरण आवश्यक हो जाता है। प्रख्यात जीवाश्म विज्ञानी, जीदृ जीदृ सिंपसन (G. G. Simpson), के अनुसार प्राइमेटीज का वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते हैं :

टार्सियर-


टार्सियर की केवल एक जाति होती है, जो पूर्वी एशिया के द्वीपों में पाई जाती है, परंतु इसके जीवाश्म यूरोप और अमरीका में भी पाए जाते हैं, जो इनके विस्तृत वितरण के द्योतक हैं।

लीमर-


ये मैडागैस्कर द्वीप पर ही पाए जाते हैं और वृक्षवासी होते हैं। भोजन की खोज में ये बहुधा भूमि पर भी आ जाते हैं। ये सर्वभक्षी (omnivorous) होते हैं।

लोरिस-


ये उष्ण कटिबंधीय अफ्रीका और एशिया में पाए जाते हैं। छोटे और समूर-दार (furry) होने के कारण ये लोकप्रिय, पालतू जंतु माने जाते हैं।

नवीन संसार के वानर--इनमें निम्नलिखित जातियाँ हैं :

मार्मोसेट-


मार्मोसेट उष्णकटिबंधीय अमरीका में पाया जाता है। यह वृक्षवासी और सर्वभक्षी होता है।

सीबस-


ये उष्णकटिबंधीय अमरीका में पाए जानेवाले वृक्षवासी वानर हैं, जो मानवाकार कपियों की भाँति साधनों या करण का उपयोग करते हैं।

एलूएटा-


एलूएटा मध्य अमरीका के पनामा नहर के समीप बैरो कोलैरैडो (Barrow Colarado) नामक द्वीप पर पाए जाते हैं। ये वानर संसार में सबसे अधिक शोर मचानेवाले जंतु हैं। इनमें कुछ सामाजिक प्रवृत्तियाँ भी पाई जाती हैं।

प्राचीन संसार के वानर--इनमें नीचे लिखी जातियाँ हैं :

बैबून-


बैबून अफ्रीका और दक्षिणी एशिया में रहते हैं। ये माप में भेड़ियें के बराबर होते हैं। इनकी थूथन लंबी और कुछ छोटी होती है।

मकाक-


मकाक की विभिन्न जातियाँ जिब्राल्टर, उत्तरी अफ्रीका, भारत, मलाया, चीन और जापान में पाई जाती हैं। ये वृक्षवासी, चतुर और परिश्रमी जंतु होते हैं।

मानवाकार कपिगण-


मानवाकार कपि के अंतर्गत चार बृहत्‌ कपि, गिब्बन, ओरांग, ऊटान, गोरिल्ला और चिंपैंज़ी, आते हैं। (देखें नर-वानर-गण, ओरांग ऊआन, गोरिल्ला तथा चिंपैंज़ी)।

यद्यपि बृहत्‌ कपियों और मनुष्य में अनेक समानताएँ अवश्य पाई जाती हैं, फिर भी इन्हें मनुष्य का पूर्वज कहना सर्वथा त्रुटिपूर्ण होगा, क्योंकि जहाँ मनुष्य तथा इन कपियों में समानताएँ मिलती हैं, वहाँ उनमें और पूर्व वानरों में भी कुछ मिलता हैं। इतना ही नहीं, बृहत्‌ कपि अपने अनेक गुणों में मनुष्य से अधिक विशिष्ट हैं। अतएव हम समानताओं के आधार पर केवल इतना ही कह सकते हैं कि बृहत्‌ कपि और मनुष्य के पूर्वज प्राचीन काल में एक रहे होंगे।

वे विशेष गुण, जिन्होंने मनुष्य के विकास को प्रोत्साहित किया, निम्नलिखित हैं :

स्वभावत: खड़े होकर चलना-


यद्यपि कुछ बृहत्‌ कपि भी बहुधा खड़े हो लेते हैं, परंतु स्वभावत: खड़ा होकर चलनेवाला केवल मनुष्य ही है। इस गुण के फलस्वरूप मनुष्य के हाथ अन्य कार्यों के लिये स्वतंत्र हो जाते हैं। खड़े होकर चलने के लिये उसकी अस्थियों की बनावट और स्थिति आंतरिक अंगों की स्थितियों में फेर बदल हुए। पैर की अस्थियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। अँगूठा अन्य उँगलियों की सीध में आ गया तथा पैरों ने चापाकार (arched) होकर थल पर चलने और दौड़ने की विशेष क्षमता प्राप्त कर ली। ये गुण मनुष्य की सुरक्षा और भोजन खोजने की क्षमता में विशेष रूप से सहायक सिद्ध हुए।

त्रिविम दृष्टि (Stereoscopic Vision)-


चेहरे पर आँखों का सामने की ओर अग्रसर होना टार्सियर जैसे पूर्व वानरों में प्रारंभ हो चुका था, पर इसका पूर्ण विकास मनुष्य में ही हो पाया। इसके द्वारा वह दोनों आँख एक ही वस्तुपर केंद्रित कर न केवल उसका एक ही प्रतिबिंब देख पाता है, वरन्‌ उसके त्रिविम आकार (three dimensional view) की विवेचना भी कर सकता है। इस विशेष दृष्टि द्वारा उसे वस्तु की दूरी और आकार का ही सही अनुमान लग पाता है तथा वह अधिक दूर तक भी देख पाता है।

संमुख अंगुष्ठ (Opposible Thumb)-


संमुख अंगुष्ठ का अर्थ है, अंगुष्ठ को अन्य उंगलियों की प्रतिकूल स्थिति में लाया जा सकना। इस स्थिति में अंगुष्ठ अन्य उंगलियों के सामने आकर और साथ मिलकर वस्तुओं में पकड़ सकने में सफल हो पाता है। यह गुण जंतु समूह में केवल प्राइमेट गणों में, वस्तुओं की परीक्षण हेतु मुख के समुख लाने से, प्रारंभ हुआ तथा मनुष्य में उसका इतना अधिक विकास हुआ कि आज मनुष्य का हाथ एक अत्यंत संवेदनशील और सूक्ष्मग्राही यंत्र बन गया है। ऐसे हाथ की सहायता से मनुष्य अपनी मानसिक शक्तियों को कार्य रूप सृष्टि का सबसे प्रतिभाशाली प्राणी बन पाने में सफल हुआ है। यह कहना कि संमुख अंगुष्ठ ने ही मानव मस्तिष्क के संवर्धन में योगदान किया है, अतिशयोक्ति ने होगी।

इस प्रकार विकास की दिशा में जो पहला परिवर्तन मनुष्य में हुआ वह प्रथम पैरों पर सीधा खड़े होने के लिये तथा द्वितीय हाथों से वस्तुओं को भली प्रकार पकड़ सकने के लिये रहा होगा। हाथ में हुए परिवर्तन ने उसे उपकरण बनाने की ओर प्रोत्साहित किया होगा और उपकरणों ने आक्रमण कर शिकार करने, या अपनी सुरक्षा करने, की भावना उसमें उत्पन्न की होगी। आक्रमण के बाह्य साधन की उपलब्धि के फलस्वरूप उसके आक्रमणकारी अंगों (दाँत, जबड़े और संबंधित मुख या गर्दन की मांसपेशियों) में ्ह्रास और स्वयं हाथों में विशेषताएँ प्रारंभ हुई होंगी। हाथ के अधिक क्रियाशील होने पर, मस्तिष्क संवर्धन स्वाभाविक ही हुआ होगा। संक्षेप में, मानव विकास में तीन मुख्य क्रम रहे होंगे : पहला पैरों का, दूसरा हाथों का और तीसरा मस्तिष्क का विकास।

मनुष्य और वानर में भेद-


साधारणतया मनुष्य और वानर, विशेषकर मानवाकार वानर, अपनी शारीरिक रचनाओं में समान हैं : समान अस्थियाँ, अंग, मांसपेशियाँ और यहाँ तक कि रक्तसमूह (blood group) भी। परंतु सूक्ष्म परीक्षण पर अनेक अंतर भी मिलते हैं, जो मुख्यत: मनुष्य के खड़े होकर दो पैरों पर चलने के कारण हैं। उदाहरणार्थ, कपियों के प्रतिकूल मनुष्य की टाँगे हाथों से अपेक्षाकृत लंबी होना, कूल्हे की अस्थि के आकार और स्थिति में परिवर्तन, पैरों के अँगूठों का अन्य उँगलियों की सीध में आना तथा स्वयं पैरों का चापाकार हो जाना आदि। इन गुणों के अतिरिक्त मनुष्य का मस्तिष्क अन्य सभी कपियों से बड़ा है। जहाँ कपियों की कपालगुहा का आयतन 350-450 घन सेंटीमीटर है, वहाँ मनुष्य का 1200-1500 घन सेंमीo तक है। उसका अपेक्षाकृत सपाट चेहरा, घटित तथा ठुड्डी युक्त जबड़ा और प्रत्यक्ष नाक उसे मानवी रूप प्रदान करते हैं। होठों के आंतरिक भाग का बाहर दिखाई पड़ना, कानों की बारियों का मुड़ा होना, बालों का संपूर्ण शरीर पर न होना, रदनक दाँत (canine teeth) का होना, ऐसे अन्य गुण हैं जो मनुष्य को कपियों से दूर ले जाते हैं।

मानव विकास के प्रमाण जीवाश्म-


मनुष्य विकास का प्रत्यक्ष प्रमाण केवल उसके जीवाश्मों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। डार्विन के समय से अबतक प्राइमेटों के जो जीवाश्म प्राप्त हुए हैं, उन्हें दो मुख्य भागों में संगृहीत कर सकते हैं : अवानरीय और वानरीय।

अवानरीय प्राइमेटों के जीवाश्मों का प्रारंभ क्रिटैशस और आर्टनूतन कल्पों में होता है। यद्यपि अभी तक ये यूरोप और उत्तरी अमरीका में ही पाए गए हैं, तथापि ऐसा अन्य स्थानों में निरीक्षण के अभाव के कारण है, न जीवाश्मों के। उपर्युक्त दो स्थानों में सीमित होने के कारण ये प्रारंभिक जीवाश्म आज के आद्य प्राइमेट टार्सियर से मिलते जुलते हैं।

आदिनूतन कल्प के बाद प्राइमेटों का विकास पृथ्वी के दो भागों में विभक्त हो गया। नवीन संसार (उत्तरी और दक्षिणी अमरीका) में विकास प्लेटीराइन (platyrrhine, चिपटी नाकवाले अर्थात्‌ वानर) और प्राचीन संसार (अफ्रीका और एशिया) में कैटाराइन (catarrhine, उभरी और निचले रध्रंयुक्त नाकवाले अर्थात्‌ मानवाकार कपि) की दिशाओं में अग्रसर होने लगा। प्रारंभिक मानवाकार कपियों के जीवाश्मों को निम्नलिखित क्रम में अध्ययन किया जा सकता है :

पैरापिथीकस (Parapithecus)-


इस जीव का पता मिस्र में प्राप्त अल्पनूतन कल्प के केवल जबड़ों द्वारा ही लगा है। यद्यपि इसका दंत सूत्र (formula) आधुनिक मानवाकार कपियों के समान था, तथापि जबड़े की बनावट अभी भी टार्सियर जैसी ही थी, जो उसके टार्सियर जैसे पूर्वज से वंशागत होने की ओर संकेत करती है।

प्रोप्लियोपिथीकस (Propliopithecus)-


प्रोप्लियोपिथीकस का भी मिस्र के अल्पनूतन युग से प्राप्त हुए एक जबड़े द्वारा ही पता लगा है। अनुमानत: यह छोटे गिब्बन के बराबर था और मानवाकार की दिशा में पैरापिथीकस से एक पग आगे था।

यद्यपि उपर्युक्त दोनों जीवाश्म, केवल जबड़ों के रूप में ही होने के कारण मानव विकास पर अधिक प्रकाश नहीं डालते, फिर भी उनसे निम्नलिखित दो बातों का बोध अवश्य होता है :

(1) अल्पनूतनयुग जैसे पुरातन काल में ही मानवाकार कपि उपस्थित थे तथा (2) मानवाकार कपि का विकास टार्सियर जैसे प्राइमेट से बिना वानर की अवस्था में गुजरे ही हुआ है।

वानर मानवाकार कपियों से आद्य माने जाते हैं, अतएव मनुष्य की विकास श्रृंखला में वानर अवस्था का अनुपस्थित होना आशा के प्रतिकूल सा जान पड़ता है; परंतु उपर्युक्त जीवाश्म अत्यंत आद्य होते हुए भी वानरों के कोई लक्षण नहीं प्रस्तुत करते, अपितु उनमें मानवाकार कपियों के गुण प्राप्त होते हैं।

ड्रायोपिथीकस (Dryopithecus)-


ड्रायोपिथीकस के मध्यनूतन युगीन जीवश्म प्राचीन संसार के कई भागों में प्राप्त हुए हैं। इसके चर्वणक (molar teeth) के चर्वण धरातल की प्रतिकृति गिब्बन, बृहत्‌ कपि और मनुष्य में भी पाई जाती है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि ड्रायोपिथीकस संभवत: मनुष्य सहित सभी मानवाकार कपियों के सामान्य पूर्वज थे।

लिम्नोपिथीकस (Limnopithecus)-


पूर्वी अफ्रीका के मध्यनूतन युगीन स्तरों में पाया गया जीवाश्म वर्तमान गिब्बन से काफी मिलता जुलता है। गिब्बन की भाँति इसके रदनक दंत (canine teeth) लंबे थे और बाहु यद्यपि अपेक्षाकृत छोटे थे, फिर भी वानरों के अनुपात में लंबे थे। अतएव इन्हें वानर और मानवाकार कपि के बीच का कहा जा सकता है।

प्राकॉन्सल (Proconsul)-


प्रोकॉन्सल का जीवाश्म कीनिया (अफ्रीका) में प्रारंभिक मध्यनूतन युग के स्तरों से प्राप्त किया गया। इनका मुख वानरों का सा, परंतु दंत प्रतिकृति मानवाकार कपियों जैसी थी। नितंबास्तियों से इनके थलगामी (न कि वृक्षवासी) होने का भास होता है। संभवत: ये वनमानुष और गोरिल्ला के पूर्वज रहे होंगे।

मध्यनूतन युग के कपियों में केवल ड्रायोपिथीकस को ही मानव विकास की दिशा की ओर अग्रसर कहा जा सकता है, क्योंकि इसके दाँतों के दंताग्रो (cuspo) का प्रतिरूप यद्यपि वर्तमान मनुष्य में नहीं, तो उनमें अवश्य पाया जाता है जो वर्तमान मनुष्य के पूर्वज समझे जाते हैं। इस सत्य में यदि तनिक संशय रह जाता है, तो वह यह कि ड्रायोपिथीकस के रदनक मनुष्य से कहीं अधिक लंबे हैं और मनुष्य और मनुष्य के पूर्वज में इतने लंबे रदनक (जब कि स्वयं मनुष्य में ये इतने छोटे होते हैं) संभव नहीं जान पड़ते। सच तो यह है कि मध्यनूतन युग के स्तरों में पाए जानेवाले सभी जीवाश्मों में रदनक लंबे, नुकीले और निकले हुए हैं, जो मानवविकास का लक्षण नहीं है।

ओरियोपिथीकस (Oreopithecus)-


ओरियोपिथीकस का जीवाश्म इटली में टस्कनी की कोयले की खानों के अतिनूतनयुगीन स्तरों से प्राप्त किया गया। इसका छोटा मुँह, ्ह्रासमान रदनक तथा जबड़ों का आकार वानरों से दूर और मानवाकार कपियों के समीप था। अपने दाँतों की बनावट में यह स्वयं मनुष्य के समान था। यद्यपि इसकी नितंबास्थियाँ वानर के समान थीं, तथापि मेरुदंड की अग्रिम कशेरुकाओं की बनावट से उसके खड़े होकर चलने का संकेत मिलता है। अतएव यदि उपर्युक्त अनुमान सही है, तो हमें ओरियोपिथीकस में नूतन-जीव-महाकल्प के प्रारंभिक मानव का प्रथम दर्शन मिलता है।

आस्ट्रैलोपिथीकस (Australopithecus)-


1924 ईo में रेमंड डार्ट (Raymond Dart) को दक्षिणी अफ्रीका के टॉग्स (Taungs) नामक स्थान से कई ऐसी खोपड़ियाँ प्राप्त हुईं जो मानवाकार थीं। डार्ट ने उन्हें आस्ट्रैलोपिथीकस का नाम दिया। आस्ट्रैलोपिथीकस का अर्थ है, दक्षिण में पाया जानेवाला कपि, अतएव इसका ऑस्ट्रलिया देश से कोई संबंध नहीं है। 1936 ईo में दक्षिणी अफ्रीका के ही स्टर्कफॉण्टीन (Sterkfontein) नामक स्थान से रॉबर्ट ब्रूम (Robert Broom) ने ऑस्ट्रैलोपिथीकस के अन्य जीवाश्म अत्यंतनूतन युग के स्तरों से प्राप्त किए। आद्य मानव के सभी जीवाश्म इसी युग से प्राप्त किए गए हैं, अतएव इसे मानव विकास का युग कहा जाता है। आस्ट्रैलोपिथीकस का जीवाश्म इस युग के अन्य सभी जीवाश्मों में अधिक मानवाकार था। यहाँ तक कि इसके कुछ लक्षण मनुष्य से भी मिलते थे; उदाहरणार्थ, खोपड़ी की मेरुदंड पर अग्रिम स्थिति (उसके खड़े होकर चलने का द्योतक), ललाट का गोलाकार होना, भौं-अस्थियों के भारी होते हुए भी उभार का न होना, जबड़े की आकृति, कृंतकों (incisors) का छोटा तथा कम नुकीला होना (यद्यपि रदनक लंबे थे), कूल्हे की इलियम (ilium) नामक अस्थि का चौड़ा होना तथा अन्य बहुत से गुणों में आस्ट्रैलोपिथीकस मनुष्य के इतने निकट था कि उसे मानव परिवार, 'होमिनिडी' (Hominidae), में समाविष्ट करना स्वाभाविक हो जाता है। कपालगुहा के आयतन (600 घन सेंमीo) में अवश्य ही वह मनुष्य (कपालगुहा का आयतन 1,000 घन सेंमीo) से पिछड़ा था और विशद विचार रखनेवाले इस गुण को अत्यधिक महत्व देते हैं, परंतु जो भी मनुष्य का पूर्वज होगा, उसकी कपाल गुहा वर्तमान मनुष्य से अवश्य कम रहेगी। ऑस्ट्रैलोपिकस में यह बात महत्व की है कि उसकी कपालगुहा का आयतन मनुष्य से कम होते हुए भी वर्तमान मानवाकार कपियों से अधिक था।

फिर भी ऑस्ट्रैलोपिथीकस के मनुष्य के पूर्वज होने में एक शंका रह ही जाती है और वह है युग की। यह सर्वविदित है कि जिस युग में ऑस्ट्रैलोपिथीकस था, उसमें उससे अधिक विकसित मानव उपस्थित थे। अतएव मनुष्य का पूर्वज होने के लिये ऑस्ट्रैलोपिथीकस की उपस्थिति और पहले होनी चाहिए थी।

होमोहैबिलिस (Homohabilis)-


पूर्वी अफ्रीका के टैंगैन्यीका (Tanganyika) स्थान से होमोहैबिलिस नामक कुछ विकसित मानव आकृति का जीवाश्म प्राप्त हुआ। इसके आविष्कर्ता थे एलo एसo बीo लीके (L. S. B. Leakey), पीo वीo टोबियास (P. V. Tobias) तथा जेo आरo नेपियर (J.R. Napier)। इस मानव की लंबाई 4 फुट और हाथ अधिक विकसित थे, जो उपकरण और झोपड़ी बना सकने की उसकी क्षमता की ओर संकेत करता है। उसकी कपालगुहा का आयतन लगभग 680 घन सेंमीo (ऑस्ट्रैलोपिथीकस से अधिक) है।

पिथिक्थ्रैपस (Pithicanthropus) या जावा का मानव-

सेना के सर्जन डाo युजीन दुब्वा (Eugene Dubois) को अपने विद्यार्थी काल से ही यह विश्वास था कि मनुष्य का जन्मस्थान एशिया में संभवत: जावा (Java) में था। अपनी धारणा की पुष्टि के लिये वे जावा गए और वहाँ के अत्यंतनवीन युग की चट्टानों से कुछ अस्थियाँ प्राप्त कीं, जिन्हें उन्होंने 1894 ईo में पिथिक्थ्रैपस (अथवा जावा का मानव) के नाम से वर्णित किया। इस जीवाश्म की कपालगुहा 900 घन सेंमीo थी, जो ऑस्ट्रैलोपिथीकस से अधिक और मनुष्य से कुछ ही कम थी। जाँघ की हड्डी से इसके सीधे होकर चलने का भी आभास होता है।

साइनैन्थ्रपास (Sinanthropus) या चीन का मानव-


चीन में पीकिंग से लगभग 40 मील दक्षिण पश्चिम की ओर चाऊकुटीम (Choukouteim) नामक गाँव के, अत्यंतनूतन युग के, मध्यवर्ती स्तरों से एक और मानव जीवाश्म 1927 ईo में प्राप्त हुआ, जिसे साइनैन््थ्रपाॉस (या चीन का मानव) कहा गया। जावा और चीन के मानवों की अत्यधिक समानताओं के कारण दूसरे को पहले की एक जाति समझा जाता है और बहुधा उसे पिथिकैन्थॉपस पिकिनेन्सिस (Pithicanthropus pekinensis) का नाम दिया जाता है। इस मानव की कपालगुहा (आयतन 900 से 1,300 घन सेंमीo) मनुष्य के समान थी तथा इसके जीवाश्मों के साथ पत्थर के अनेक औजार (उपकरण) प्राप्त हुए। इनसे इनमें उद्योगों (आगे देखिए) के प्रचलन का पता चलता है। आसपास कोयले के कण प्राप्त होने से उनके अग्निप्रयोगी, तथा कई लंबी हड्डियों की चिरी दशा में पाए जाने से उनके मानव भक्षी होने का संकेत मिलता है।

हाइडेल्बर्ग मानव (Heidelberg Man)-


सन्‌ 1907 में जर्मनी में हाइडेल्बर्ग नामक स्थान में अत्यंतनूतन युग के प्रारंभिक स्तरों से एक जबड़ा प्राप्त हुआ, जिसके दाँत वर्तमान मनुष्य के समान थे। ठुड्डी का अभाव था, अत: स्पष्ट है कि यह पूर्णत: मनुष्य नहीं बन पाया था।

स्वांसकोंब मानव (Swanscombe Man)-


सन्‌ 1935 और 36 में एo टीo मार्स्टन (A. T. Marston) को इंग्लैंड के स्वांसकौंब नामक स्थान में मानव कपाल की भित्तिकास्थि (parietal) की दो हड्डियाँ प्राप्त हुईं। यद्यपि इन अस्थियों की मोटाई मनुष्य की भित्तिकास्थि से अधिक थी, तथापि कपालगुहा का आयतन लगभग 1,300 घन सेंमीo (मनुष्य के समान) हो गया था। गुहा के साँचे से यह भी अनुमान लगता है कि मस्तिष्क के धरातल का परिवलन भी बहुत कुछ मनुष्य जैसा ही था।

स्टीनहाइम मानव (Steinheim Man)-


सन्‌ 1933 में जर्मनी के स्टीनहाइम नामक स्थान में एक पूर्ण खोपड़ी प्राप्त हुई जिसका काल स्वांसकोंब मानव के समान था। रचना द्वारा यह पिथिक्थ्रैपस और मनुष्य के बीच की कड़ी प्रतीत होती है। इसका कपालगुहा का आयतन 1,000 घन सेंमीo, भौं की अस्थि घटित तथा जबड़े बहुत कुछ मनुष्य जैसे थे।

नियेंडरथल मानव (Neanderthal Man)-


सन्‌ 1856 में जोहैन कार्ल फ्यूलरोटे (Johanne Karle Fuhlrotee) नामक स्थान में मानव जीवाश्म प्राप्त हुआ, जिसे निर्येडरथाल मानव का नाम दिया गया। बाद में लगभग 100 ऐसे ही जीवाश्म संसार के अन्य भागों (फ्रांस, बेल्जियम, इटली, रौडेज़िया, मध्य एशिया, चीन और जापान तक) में मिले। यद्यपि निर्येडरथाल के मानव होने में अब तनिक भी संदेह नहीं है, फिर भी इसके सदृश अस्थियों वाले चेहरे से पुशता का ही भास होता है--भौं की अस्थियाँ उभरी जबड़े बड़े (यद्यपि दाँत सर्वथा मनुष्य समान) तथा ठुड्डी का अभाव था। इसमें कुछ ऐसे भी गुण थे जो वर्तमान मनुष्य के नहीं मिलते, जैसे कपालगुहा के आयतन का 1,600 घन सेंमीo (मनुष्य से अधिक) होना और चर्वण दंत गुहिका का बहुत बड़ा होना। इतना ही नहीं उसकी नितंबास्थियाँ (limb bones) मोटी, टेढ़ी और बेडौल थीं, जिससे इसके लड़खड़ा कर चलने का भास होता है। अतएव एक ओर जहाँ इसमें मनुष्य के अनेक गुण थे, तो दूसरी ओर कई बड़ी भिन्नताएँ भी थीं। अतएव, नियेंडरथाल मानव को मनुष्य विकास की मुख्य शाखा की केवल एक उद्भ्रांत उपशाखा ही मान सकते हैं। अंतिम हिमयुग (आगे देखें) में इस मानव के अवशेषों का न मिलना यह संकेत करता है कि मनुष्य के आगमन पर या तो ये नष्ट कर दिए गए, या संकरण (hybridization) द्वारा उसी के परिवार में विलीन हो गए।

सामाजिक व्यवस्था में नियेंडरथाल मानव अब तक के सब मानवों से आगे थे। इनमें अपने मृतकों को गाड़ने की प्रथा थी ओर इनके औजार उच्चतम थे।

नियेंडरथाल सदृश अन्य अफ्रीकी तथा एशियाई मानव-


सन्‌ 1921 में उत्तरी रोडीज़िया (अफ्रीका) से, 1931-32 में जावा की सोलो (Solo) नदी के पास से और सन्‌ 1953 में सल्दान्हा, (Saldanha), अफ्रीका, से मानवाकार खोपड़ियाँ श्प्राप्त हुईं, जिन्हें क्रमश: रोडीज़िया, सोला और सल्दान्हा मानवों का नाम देते हैं।

ये सभी मानव अपने अधिकांश लक्षणों में नियेंडरथाल मानव सदृश थे, यद्यपि कपालगहा के आयतन में वे नियेंडरथाल से कम, अर्थात्‌ मनुष्य सदृश, ही थे। उपर्युक्त उपलब्धियों से यह पता चलता है कि नियेंडरथाल मानव का विस्तार विस्तृत था।

क्रोमैग्नॉन मानव (Cromagnon Man)


आधुनिक मानव--दक्षिणी फ्रांस में क्रोमैग्नॉन नामक स्थान से वर्तमान मनुष्य के निकटतम पूर्वजों के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। इन्हें क्रोमैग्नॉन मानव, अथवा 'आधुनिक मानव', कहा जाता है। इनकी अस्थियों से न केवल इनके लंबे, सुडौल, सुदृढ़ और बुद्धिमान होने का आभास होता है, वरन्‌ वर्तमान यूरोपीय जातियों से इन्हें पृथक्‌ कर सकना अत्यंत कठिन हो जाता है। चित्रकला इनमें उन्नति पर थी।

विकास क्रम -- होमोहैबिलिस (Homohabilis)


सह आविष्कर्ता जॉन नेपियर (John Napier) के मतानुसार (1964 ईo) मनुष्य का विकास पॉच अवस्थाओं से होकर गुजरा है : (1) प्रांरभिक पूर्वमानव (early prehuman), कीनियापिथीकस (अफ्रीका से प्राप्त) और (भारत से प्राप्त) रामापिथीकस (Ramapithecus) के जीवाश्मों द्वारा जाना जाता है। ये मानव संभवत: मनुष्य के विकास के अति प्रारंभिक अवस्थाओं में थे। (2) बाद के पूर्व मानव (late prehuman), का प्रतिनिधित्व अफ्रीका से प्राप्त ऑस्ट्रैलोपिथीकस (Australopithecus) करता है, (3) प्रारंभिक मनुष्य को अफ्रीका से ही प्राप्त होमोइहैबिलिस द्वारा जाना जाता है, (4) उत्तरभावी मनुष्य (late human), के अंतर्गत होमोइरेक्टस (Homo-erectus), अथवा जावा और चीन के मानव, आते हैं और (5) वर्तमान मनुष्य (modern human), का प्रथम उदाहरण क्रोमैग्नॉन मानव में प्राप्त होता है। होमोइरेक्टस के बाद विकास दो शाखाओं में विभक्त हो गया। पहली शाखा का नियेंडरथाल मानव में अंत हो गया और दूसरी शाखा क्रोमैग्नॉन मानव अवस्था से गुजरकर वर्तमान मनुष्य तक पहुंच पाई है। संपूर्ण मानव विकास मस्तिष्क की वृद्धि पर ही केंद्रित है। यद्यपि मस्तिष्क की वृद्धि स्तनी वर्ग के अन्य बहुत से जंतुसमूहों में भी हुई, तथापि कुछ अज्ञात कारणों से यह वृद्धि प्राइमेटों में सबसे अधिक हुई। संभवत: उनका वृक्षीय जीवन मस्तिष्क की वृद्धि के अन्य कारणों में से एक हो सकता है।

आद्य मानव उद्योग-


जिस प्रकार उपर्युक्त जीवाश्मों द्वारा मानव शरीर (अस्थियों) के विकास का अध्ययन किया जाता है, उसी प्रकार विभिन्न मानवों द्वारा छोड़े करणोंश् (औजारों, implements) द्वारा उनकी सभ्यता के विकास का अध्ययन किया जा सकता है। ये औजार मानव जीवाश्म के साथ, या आस पास, पाए गए हैं और मानव-मस्तिष्क के विकास के साथ इनमें भी विकास हुआ है। प्रारंभिक औजार भोंडे (crude) और पत्थर के टुकड़े मात्र थे, परंतु बाद में ये सुदृढ़ और उपयोगी होते गए।

हिमयुग मानव


हिमयुग

 

मानव जीवाश्म

आधुनिक :--

चतुर्थ वुर्म (Wurm)

एक लाख वर्ष पूर्व

तृतीय अंतर्हिम युग :-

सवा दो लाख वर्ष पूर्व

तृतीय रिस (Riss)

सवा तीन लाख वर्ष पूर्व

द्वितीय अंतर्हिम युग :--

छह लाख वर्ष पूर्व

द्वितीय मिंडेल (Mindel)

सात लाख वर्ष पूर्व

प्रथम अंतर्हिम युग :--

प्रथम गुंज (Gunj)

दस लाख वर्ष पूर्व

ऐतिहासिक काल

नवप्रस्तर

अंतिम

माध्यमिक

पुराप्रस्तर काल

प्रारंभिक

आधुनिक मानव (मनुष्य)

क्रोंमैग्नॉन मानव

नियेंडरथाल मानव

हाईडेल्बर्ग मानव

चीन मानव

जावा मानव

स्वांस्कोंब मानव

ऑस्ट्रैलोपिथिकस



ये औजार केवल अत्यंतनूतन युग में ही मिलते है, अतएव इनके काल का ज्ञान उन हिमनदी कल्पों से भी लगाया जाता है जो इस (अत्यंतनूतन) युग में पड़ चुके हैं। भिन्न भिन्न समय पर पाए गए उपकरणों को एक उद्योग का नाम देते हैं। यह नाम किसी यूरोपीय स्थान के नाम पर आधारित है। औजार उद्योग के आधार पर अत्यंतनूतन युग को तीन कालों में विभक्त कर सकते हैं : (1) पुराप्रस्तर काल, (2) मध्यप्रस्तर काल तथा (3) नवप्रस्तर काल।

पुराप्रस्तर काल-


पुराप्रस्तर काल को चार अन्य कालों में विभक्त कर सकते हैं (1) प्रारंभिक, (2) निचला, (3) मध्य और (4) उत्तर काल।

(1) प्रारंभिक काल--अत्यंतनूतन युग के प्रारंभ में जो औजार प्राप्त होते हैं, वे पत्थरों के भोंडे टुकड़ों के रूप में हैं। बहुधा यह संदेहमय जान पड़ता है कि ये मनुष्य द्वारा ही गढ़े गए होंगे।

(2) निचला काल--इस काल में निम्नलिखित उद्योग पाए गए हैं :

(क) ऐबिविलियन (Abbevillian) उद्योग--यह उद्योग प्रथम हिमनदीय कल्प से प्रथम अंतराहिमनदीय कल्प (interglacial period) तक पाया जाता है तथा इसमें बड़ी और भोंडी कुल्हाड़ियाँ बनाई जाती थीं।

(ख) एक्यूलियन (Acheulian) उद्योग--एक्यूलियन उद्योग अंतिम अंतराहिमनदीय कल्प तक फैला था और इसमें हाथ से काम में लाई जानेवाली कुल्हाड़ियाँ अधिक कौशल से बनाई जाती थीं।

(ग) लेवैलिओसियन (Levalliosian) उद्योग--यह उद्योग तीसरे हिमनदीय कल्प में स्थापित हुआ और इसमें औजार पूरे पत्थरों से नहीं, वरन्‌ उनसे चिप्पड़ उतारकर बनाए जाने लगे। इस उद्योग के काल में चीन के, और संभवत: जावा के, मानव रहा करते थे।

अतिनूतन (Pliocene) यूग के, संभवत: मानव निर्मित, ये प्रस्तर अवशेष इंग्लैंड के केंट प्रदेश में प्राप्त हुए थे।

(3) मध्य काल--इस काल का उद्योग इस प्रकार है :


यह उद्योग तृतीय हिमनदीय कल्प से अंतिम, अर्थात्‌ चतुर्थ हिमनदीय कल्प, के प्रारंभिक काल तक फैला था। इस उद्योग में हस्त कुल्हाड़ियों का स्थान अन्य औजारों ने ले लिया था, जो पत्थरों के बड़े बड़े चिप्पड़ उतार कर बड़े कौशल से बनाए जाते थे। यह उद्योग काल निर्येडरथाल मानव काल माना जाता है।

(4) उत्तर काल--यह काल अंतिम हिमनदीय कल्प के अंतिम चरण में पाया जाता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित उद्योग संमिलित हैं :

(क) ऑरिग्नेशियन (Aurignacian) उद्योग--ऑरिग्नेशियन उद्योग उत्कृष्ट नमूनों तथा उच्च कला कौशल का परिचायक है। पत्थर के अतिरिक्त इस काल में हड्डी, सींग, हाथीदाँत आदि का उपयोग गले के हार तथा अन्य शारीरिक आभूषण निर्माण के लिये किया जाता था। गुफा चित्रकारी तथा शिल्प कला इस काल में प्रारंभ हो चुकी थी।

(ख) सोलूट्रियन (Solutrean) उद्योग--इस उद्योग के समय पत्थरों से चिप्पड़ काटकर नहीं, वरन्‌ उन्हें दबाकर, निकाले जाते थे। इनसे उत्कृष्ट भाला फलक बनाए जाते थे।

(ग) मैग्डेलिनियन (Magdalenian) उद्योग--इस उद्योग काल में पत्थरों के औजारों के साथ साथ बारहसिंघों के सींग से अन्यान्य प्रकार के औजार बनाए जाते थे, जैसे हारपून (तिमि भेदने के लिये), बरछों के फलक तथा भाला फेंकनेवाले उपकरण आदि। चित्रकारी में विभिन्न रंगों का उपयोग कर जंतुओं के चित्र बनाए जाते थे। यूरोप [ फ्रांस और पाइरेनीज (Pyreness)] में ऐसी अनेक कला कृतियाँ अब भी मौजूद हैं।

मध्यप्रस्तर काल-


अंतिम हिमनदीप कल्प के अंत होने या गरम जलवायु के वापस आने तक के काल को मध्यप्रस्तर काल कहा जाता है। यह अल्पकालीन (transitory) युग कहा जाता है। इस समय तक मनुष्य सभ्य हो चला था। यद्यपि कृषि तथा पशुपालन का प्रारंभ अभी नहीं हुआ था और मानव अब भी घूम घूमकर पशुओं का शिकार किया करता था। शीतकाल में पाए जानेवाले अधिकांश जंतु इस काल में या तो नष्ट हो गए थे, या प्रवास कर गए थे। अमरीका में आनेवाले प्रथम मानव इसी युग के थे। पत्थर के औजार सूक्ष्म तथा विचित्र आकार के थे।

नवप्रस्तर काल-


यह अंतिम और वर्तमान युगश् है। पत्थर के औजार यद्यपि इस युग (के प्रारंभ) में भी बनाए जाते थे, परंतु कृषि और पशुपालन इस युग की विशेष घटनाएँ थीं। अनाज रखने के लिये मिट्टी के बरतन बनाए जाते थे, जिनकी आयु का अनुमान उनकी बनावट और उनके भागों के अनुपात की भिन्नता से सरलता से जाना जा सकता है। सूअर, गाय, भेड़ और बकरी का पालन प्रारंभ हो चुका था। इस युग के प्रारंभ काल का निश्चित पता नहीं चलता, परंतु यह निश्चित है कि 4,000 वर्ष ईसा से पूर्व इस युग की स्थापना भलीभाँति हो चुकी थी। संभवत: इस युग की सभ्यता का श्रीगणेश मिस्र, मेसोपोटामिया, उत्तरी पश्चिमी भारत तथा इन भागों की बृहत्‌ नदियों, जैसे नील, दजला (Tigris), फरात (Euphrates) और सिंध की घाटियों में हुआ।

वनस्पति और जंतु का पूर्ण उपयोग करने के पश्चात्‌ मनुष्य का ध्यान खनिज पदार्थों की ओर गया। सर्वप्रथम ताँबे का उपयोग किया गया, परंतु शीघ्र ही यह मालूम हो गया कि धातुओं के मिश्रण से वस्तुएँ अधिक कड़ी बनाई जा सकती हैं। लगभग 3,000 वर्ष ईसा पूर्व काँसे (ताँबे और टिन के मिश्रण) का प्रयोग प्रारंभ हुआ। 1,400 वर्ष ईसा पूर्व इस्पात का उपयोग होने लगा, जो अब तक चला आ रहा है।

मनुष्य का भविष्य-


स्पष्ट है कि मस्तिष्क की वृद्धि पर ही मनुष्य के संपूर्ण विकास का बल रहा है। यह वृद्धि अब भी हो रही है या नहीं, यह कहना कठिन है, परंतु जितना कुछ विकास हो चुका है उसके आधार पर मानव और लुप्त सरीसृपों (डाइनोसॉरिया, इक्थियोसॉरिया आदि) के विकास से तुलनात्मक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। लुप्त सरीसृपों का शरीर भीमकाय (भार 40-60 टन तक) हो गया था। फलस्वरूप बृहत्‌ शरीर की आवश्यकताओं को अपेक्षाकृत छोटा मस्तिष्क पूरा न कर सका और ये जंतु क्रमश: लुप्त होते गए। इसके प्रतिकूल मनुष्य में शरीर के अनुपात में अपेक्षाकृत मस्तिष्क कहीं बड़ा हो गया है, अतएव मनुष्य के मस्तिष्क की अधिकांश शक्ति शारीरिक आवश्यकताओं (भोजन, सुरक्षा आदि) को पूरा कर लेने के बाद भी शेष रह जाती है। यह शक्ति मनुष्य अपने सुख साधनों को एकत्रित करने तथा विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों को प्राप्त करने में लगा रहा है। इनमें विनाश के भी बीज निहित हैं। मनुष्य का भविष्य, अर्थात वह रहेगा अथवा सरीसृपियों की भाँति पृथ्वी रूपी रंगमंच पर अपना अभिनय समाप्त करके सदा के लिये लुप्त हो जाएगा, यह उसके विनाशकारी औजारों की शक्ति और उनके उपयोग पर निर्भर करता है। यदि उसका लोप हुआ, तो वह इस निष्कर्ष की पूर्ति करेगा कि प्रकृति में किसी जंतु के शरीर और मस्तिष्क विकास में समन्वय होना आवश्यक है। ऐसा न होने पर उस जंतु का भविष्य में अस्तित्व सदा अनिश्चित ही रहेगा।

[कृष्णप्रसाद श्रीवास्तव]

Hindi Title


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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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