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राष्ट्रीय सहारा, 02 दिसम्बर, 2017
कुछ माह पूर्व मध्य प्रदेश के लगभग सभी दाल व्यापारी हड़ताल पर चले गये थे क्योंकि सरकार उन पर ‘‘एमएसपी” के मुताबिक दाल खरीदने का दबाव बना रही थी। प्याज को लेकर भी ऐसी तस्वीर सामने आ चुकी है। मंदसौर की घटना के बाद राज्य सरकार द्वारा प्याज का समर्थन मूल्य 8 रु. प्रति किलो घोषित किया गया लेकिन अव्यवस्था और कालाबाजारी के कारण किसानों को उस वक्त भी 4 रु. का भाव ही मिला। प्रति वर्ष गन्ना किसानों को भुगतान की समस्या आती है। पेराई में लेट-लतीफी के कारण उत्पादन की उचित कीमत नहीं मिल पाती
पाँच तिमाहियों से जारी गिरावट के थमने के बाद 6.3 फीसद की आर्थिक वृद्धि दर उत्साहजनक है। लेकिन कृषि, वानिकी और मत्स्य क्षेत्र में वृद्धि दर 2.3 से घटकर 1.7 फीसद पर आना चिंतनीय है। हालाँकि वित्त मंत्री द्वारा आगामी तिमाहियों में वृद्धि दर में तेजी की उम्मीद से कृषक वर्ग को राहत मिली है। लेकिन प्राकृतिक-कृत्रिम कारणों से किसान परेशान ही रहे हैं। पिछले दिनों देश भर के लगभग 187 किसान संगठन राष्ट्रीय राजधानी के संसद मार्ग पर अपनी मांगों को लेकर आंदोलनरत रहे। इससे कुछ ही पहले पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आदि राज्यों में कर्जमाफी एवं ‘समर्थन’ मूल्य में वृद्धि की मांग पर किसान संघर्षरत रहे।इसी बीच, अलग-अलग राज्यों से कई अप्रिय घटनाएँ भी सामने आईं। मंदसौर में पुलिसिया गोली से छह किसानों की मौत कृषि समुदाय को हतोत्साहित करने वाली घटना रही। इस घटना के बाद राज्य सरकार द्वारा भले ही ‘एमएसपी’ से कम कीमत पर व्यापार को अपराध, राज्य के सभी नगर पालिकाओं और नगर निगम में किसान बाजार की स्थापना, दूध के लिये अमूल प्रणाली की वकालत समेत कृषि उत्पाद लागत एवं विपणन आयोग का गठन आदि की घोषणाएँ की गईं। लेकिन समय रहते यदि उनकी समस्याएँ सुन ली गई होतीं तो शायद 6 जान समेत अरबों के नुकसान से बचाव संभव था। महाराष्ट्र में भी कुछ ऐसा ही हुआ। किसानों का प्रदर्शन जब हिंसक हुआ तो सरकार द्वारा कर्जमाफी की त्वरित घोषणा हुई। बड़ा सच है कि महाराष्ट्र के किसान लम्बे समय से परेशान रहे हैं। भीषण सूखे और सर्वाधिक किसान आत्महत्या के बाद एक बार फिर विदर्भ क्षेत्र मौत का गवाह बना है। यवतमाल समेत इस क्षेत्र में लगभग 40 किसानों की मौत जहरीली अवैद्य कीटनाशकों की वजह से हो चुकी है।
चिंता का विषय
इससे इतर जीएम फसलों के इस्तेमाल की सामयिक वकालत, आयात-निर्यात में सब्सिडी आदि की सिफारिशें भी किसानों की चिंता बढ़ाती रही हैं। अर्जेंटीना में आहुत विश्व व्यापार संगठन की मंत्री स्तरीय बैठक के विषयों से चिंतित कई सिविल सोसाइटी संगठनों द्वारा सरकार को किसान हितों की रक्षा हेतु ज्ञापन सौंपा गया है। इस बैठक को लेकर भारतीय किसान चिंतित हैं क्योंकि इससे जनसंख्या के लगभग 65 फीसद लोगों के सरोकार जुड़े हैं। वर्ष 2001 के दोहा डेवलपमेंट एजेंडा के तहत वर्ष 2013 तक निर्यात पर दी जाने वाली सब्सिडी यानी ‘एक्सपोर्ट सब्सिडी’ तथा अन्य कृषि संबंधी सहयोग समाप्त करने पर सहमति थोप दी गई थी। भारत ने कृषि को स्थानीय जीवनयापन का सबसे बड़ा माध्यम बताकर विकासशील देशों द्वारा कृषि के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार और वाणिज्य व्यवस्था को विकृत करने की अपनी जिम्मेदारी से दूरी बना लिया था। घरेलू चिंताओं के अलावा, अन्तरराष्ट्रीय स्तर का यह खतरा कृषक समुदाय के लिये चिंता का विषय बना है लेकिन राहतपूर्ण है कि अब तक की सरकारें इन मुद्दों पर समझौता करने से परहेज करती रही हैं।
नेशनल एकाउंट्स डाटा के अनुसार कृषि अपने बुरे दौर से गुजर रही है। सरकारी आंकड़ों की मानें तो प्रतिवर्ष औसतन 15,168 किसान आत्महत्या को मजबूर होते आ रहे हैं। इसमें लगभग 72 फीसद तादाद छोटे किसानों की है जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। आत्महत्या किये किसानों का लगभग 80 फीसद हिस्सा बैंक लोन से दबा पाया गया है। ऐसे तमाम संदर्भों से स्पष्ट है कि खेती-बारी घाटे का सौदा मात्र बनी हुई है। लगभग प्रति वर्ष देखा गया है कि फसल तैयार होने के समय उत्पाद का दाम अत्यंत कम हो जाता है और रोषवश फल एवं मौसमी सब्जियाँ सड़कों पर फेंक दिये जाते हैं जिसका सीधा नुकसान किसानों को उठाना पड़ता है। इस बड़े नुकसान का एकमात्र कारण है कि फल व मौसमी सब्जियों का ‘‘न्यूनतम समर्थन मूल्य” निर्धारित नहीं होता। हैरानी है कि देश में जिन फसलों का ‘एमएसपी’ निर्धारित होता भी है, किसानों को उतना नहीं मिल पाता।
कुछ माह पूर्व मध्य प्रदेश के लगभग सभी दाल व्यापारी हड़ताल पर चले गये थे क्योंकि सरकार उन पर ‘एमएसपी’ के मुताबिक दाल खरीदने का दबाव बना रही थी। प्याज को लेकर भी ऐसी तस्वीर सामने आ चुकी है। मंदसौर की घटना के बाद राज्य सरकार द्वारा प्याज का समर्थन मूल्य 8 रुपये प्रति किलो घोषित किया गया, लेकिन अव्यवस्था और कालाबाजारी के कारण किसानों को उस वक्त भी 4 रुपये का भाव ही मिला। प्रति वर्ष गन्ना किसानों को भुगतान की समस्या आती है। पेराई में लेट-लतीफी के कारण उत्पादन की उचित कीमत नहीं मिल पाती। राज्य द्वारा घोषित ‘एफआरपी’ से भी कम भुगतान की शिकायतें खबरों में रही हैं। सरकार चाहे किसी भी दल की रही हो, खेती-किसानी का उत्साहवर्धन नहीं हो पाया।
हिफाजत के पक्षधर
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भी पक्ष, विपक्ष व तीसरा मोर्चा कृषि रक्षा की पक्षधर हैं। आजादी के बाद उदारीकरण, औद्योगीकरण व अन्य आर्थिक-सामाजिक सुधारों के जरिये उद्योग क्षेत्र का कायाकल्प हुआ। आज भी उद्योगों को घाटे से उबारने के लिये करोड़ों रुपये की सरकारी राहत प्रदत्त है परन्तु कृषि क्षेत्र की कर्जमाफी के प्रस्तावों पर शीर्ष वित्तीय संस्थानों की चिंता बढ़ जाती है। इस क्षेत्र की नजरअंदाजी का ही नतीजा है कि दिनानुदिन खेती का रकबा घट रहा है, गाँवों से पलायन बढ़ रहा है जिससे बेरोजगारी में निरंतर वृद्धि हो रही है। वर्तमान व पूर्व की सरकारों में नीतियाँ जरूर बनीं परन्तु लचर क्रियान्वयन के कारण उद्देश्य नहीं प्राप्त हो सका। फसल बीमा योजना, कृषि सिंचाई योजना, परम्परागत कृषि विकास योजना, किसान संपदा योजना, स्वाइल हेल्थ कार्ड, आदि सरकारी योजनाओं से किसानों के बीच उत्साह का संचार हुआ है, लेकिन सफल क्रियान्वयन बड़ी उपलब्धि होगी।
मुआवजे की हास्यास्पद राशि लाचार किसानों का माखौल है। वे अब तक लागत, समर्थन और उचित मूल्य की मकड़जाल में फँसे हैं जबकि ‘लाभकारी मूल्य’ की तत्काल जरूरत है। यूपी, पंजाब, महाराष्ट्र के लाखों किसानों को कर्जमाफी की राहत जरूर मिली है। लेकिन इसे स्थाई समाधान के रूप में नहीं देखा जा सकता। इस दिशा में कृषि को ‘लाभकारी’ बनाकर ही उन्हें समृद्ध किया जा सकता है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी गति मिलेगी। देश के पास स्वयं का इतिहास है कि 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि की भागीदारी 50 फीसद से ज्यादा थी जो हाल के वर्षों में 15, 16 और 17 के इर्द-गिर्द रही है। सख्त दिशा-निर्देशन में योजनाओं का संचालन, ‘एमएसपी’ के अतिरिक्त 50 फीसद का लाभकारी मूल्य, सरकारी राहत व संबंधित आयोगों में किसानों की उचित भागीदारी से भारतीय कृषि में सुधार की बयार संभव है।
लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।