मरुस्थल में पानी की कहानी

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जनसत्ता (रविवारी), 23 सितंबर 2013
जल संचय की आधुनिक तकनीक अपनाने के बावजूद राजस्थान के थार मरुस्थल में पानी का संकट बरकरार है। जल संरक्षण की परंपरागत प्रणालियों की उपेक्षा की वजह से स्थिति और नाज़ुक होती जा रही है। इस कठिनाई से निजात पाने का सही तरीका क्या हो सकता है? बता रहे हैं शूभू पटवा।

थार मरुस्थल में पानी के प्रति समाज का रिश्ता बड़ा ही आस्था भरा रहा है। पानी को श्रद्धा और पवित्रता के भाव से देखा जाता रहा है। इसीलिए पानी का उपयोग विलासिता के रूप में न होकर, जरूरत को पूरा करने के लिए ही होता रहा है। पानी को अमूल्य माना जाता रहा है। इसका कोई ‘मोल’ यहां कभी नहीं रहा। थार में यह परंपरा रही है कि यहां ‘दूध’ बेचना और ‘पूत’ बेचना एक ही बात मानी जाती है। इसी प्रकार पानी को ‘आबरू’ भी माना जाता है। बरसात के पानी को संचित करने के सैकड़ों वर्षों के परंपरागत तरीकों पर फिर से सोचा जाने लगा है। राजस्थान का थार मरुस्थलीय क्षेत्र में सदियों से जीवन रहा है। यहां औसतन 380 मिलीमीटर बारिश होती है। इस क्षेत्र में जैव विविधता भी अपार रही है। जहां राष्ट्रीय औसत बारह सौ मिलीमीटर माना गया है, वहीं राजस्थान में बारिश का यह औसत करीब 531 मिलीमीटर है। क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान समूचे देश में सबसे बड़ा राज्य है और इसका दो-तिहाई हिस्सा थार मरुस्थल का है। इसी थार मरुस्थल में जल संरक्षण की परंपरागत संरचनाएं काफी समृद्धशाली रही हैं। जब तक इनको समाज का संरक्षण मिलता रहा, तब तक इन संरचनाओं का बिगाड़ा न के बराबर हुआ और ज्यों-ज्यों शासन की दखलदारी बढ़ी, त्यों-त्यों समाज ने हाथ खींचना शुरू कर दिया और इस तरह वे संरचनाएं जो एक समय जीवन का आधार थीं, समाज की विमुखता के साथ ये ढांचें भी ध्वस्त होते गए या बेकार मान लिए गए। इन ढांचों या संरचनाओं को फिर से अस्तित्व में लाने की जरूरत या इच्छाशक्ति कहीं बची नहीं। यह संयोग ही समझिए कि अब पिछले कुछ सालों से इस ओर ध्यान गया है और बरसात के पानी को संरक्षित करने के उपायों को फिर से खंगाला जाने लगा है।

एक समय था जब ‘पाइप वाटर’ को ही पीने योग्य समझा जाता था। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जब पदारूढ़ हुए तो उन्होंने पांच टेक्नोलॉजी मिशन शुरू किया। सैम पित्रोदा, जो उनके सलाहकार थे, ने दिल्ली में कुछ लोगों की बैठक बुलाई। जयराम रमेश जो इस समय केंद्रीय मंत्री हैं, तब सैम पित्रोदा के साथ टेक्नोलॉजी मिशन में थे। यह लेखक उन कुछ लोगों में से एक था, जो पानी पर चर्चा के लिए पित्रोदा जी की बुलाई बैठक में उपस्थित था। राजस्थान को लेकर जब चर्चा चली तो इस लेखक ने बरसाती पानी का उपयोग पेयजल के रूप में किए जाने की बात कही। तब सैम पित्रोदा न केवल चौंके, बल्कि उनका स्पष्ट मत था कि पाइप वाटर ही सुरक्षित है। पर, हम सभी जानते हैं कि वह पानी हर एक कंठ को तर नहीं कर सकता। आज स्वयं राजस्थान सरकार (और भारत सरकार भी) बरसात के पानी का संग्रहण करने पर बल दे रही है। यह इसलिए कि सतही जल, नदी जल, भूजल वगैरह इस क्षेत्र की पूरी आबादी की प्यास नहीं बुझा सकता।

जल के समुचित उपयोग के लिए राज्य सरकार ने फरवरी 2010 में एक ‘जल नीति’ जारी की। अलबत्ता यह बताना कठिन है कि इसमें पेयजल के लिए कैसे और कितने पुख्ता प्रावधान हैं। बेशक सिंचाई प्रणालियों के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों का प्रावधान रहता है। इस तरह की जानकारियाँ हैं कि नर्मदा और इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता में बढ़ोतरी होती रहे और सिंचाई प्रबंधन सुदृढ़ हो। ठीक इसके उलट पेयजल की दृष्टि से देखें तो एक उदाहरण से स्थिति साफ हो जाती है। पेयजल का समूचा प्रबंधन जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के पास है। राज्य स्तर से लेकर डिवीजन और जिला स्तर तक जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का संजाल (नेटवर्क) फैला हुआ है। यही संजाल पेयजल के लिए उत्तरदायी है। लेकिन क्या इस संजाल के पास पानी है। इस विभाग के पास पेयजल के स्रोत के तौर पर सतही जल और भूगर्भ का जल है। पिछले दशक में बीकानेर, जोधपुर और जैसलमेर के कोई दो हजार गांव पेयजल के अभाव में सांसत में थे। ये सभी गांव नहर के पानी से जोड़ दिए गए थे और नहर में पर्याप्त पानी नहीं था। यही स्थिति शहरी और कस्बाई क्षेत्रों की है। तब अनुमान लगाया गया था कि कोई सत्रह लाख लोग पेयजल संकट से त्रस्त थे। इन क्षेत्रों में पशुधन भी बहुलता से मिलता है और इसको भी प्यास तो लगती ही है।

यह हकीक़त है कि नहर के मुहाने पर बसे गाँवों की प्यास भी उसके पानी से नहीं बुझ पाती। बीकानेर जिले में एक गांव का नाम है- बेरियांवाली। इस गांव के बाशिंदे तब तक प्यासे नहीं थे जब तक उनकी परंपरागत जल प्रणालियां मौजूद थीं। जब नहर का पानी ‘पाइप लाइन’ से घर में आया तो परंपरागत तरीके उपेक्षित होने लगे। इधर ऐसा हुआ और उधर नहर के पानी पर भी भरोसा नहीं रहा कि वह समय पर और जरूरत भर के लिए मिलेगा कि नहीं। लोग ठगे रह गए। ऐसा थार मरुस्थल के उन गाँवों में देखा जा सकता है, जो जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के जलापूर्ति से जुड़ सके हैं।

राजस्थान में जल संरक्षणजिस बेरियावाली गांव की हमने चर्चा की है, वहां कभी 350 के लगभग कुइयां-बेरियां थीं। थार मरुस्थल में ग्रामीण जन अपनी जरूरत के आधार पर जल संभरण की विधियां विकसित करते रहे हैं। बेशक अलग-अलग स्थानों पर इनकेनाम भी अलग-अलग हैं। कहीं ये बेरियां हैं, तो कहीं कुइयां या उकेरियां। इनके निर्माण में भी स्थानीय संसाधनों को ही काम में लिया जाता रहा है। इन्हें पक्का करने के लिए गांव में ही चूना मिल जाता है। चूल्हे की राख (आजकल की तरह गैस या कैरोसीन नहीं) खींप, सिणिया (मरुस्थल की घासें, जो जंगल में उग आती हैं और बहुतायत में मिलती हैं) भी इन कुइयों-बेरियों के निर्माण में काम आते हैं, तो जिस बेरियांवाली गांव की 350 बेरियों की बात हमने की, वे पंद्रह से पच्चीस फुट गहरी होती हैं। गांव के लोग अपनी समझ और ज्ञान के आधार पर ऐसा भूखंड चिन्हित करते हैं, जहां कुछ ही गहराई में भूतल चट्टानी पर्त हो। बरसात के पानी को ऐसे ही भूखंड पर एकत्र कर लिया जाता है और वहां बनाई बेरियों या कुइयों में वह पानी भर जाता है। नीचे कुछ ही गहराई में चट्टानी परत होने से पानी का भंडारण होने लगता है। ये बेरियां, कुइयां या उकेरियां समुदाय की भी होती है और निजी भी। ऊपर से इनका मुंह देसी तकनीक से बने ढक्कन से बंद कर दिया जाता है। बरसात के इस पानी को ‘पालर पानी’ कहा जाता है और समुदाय के लोग अपनी जरूरत के अनुसार इन स्रोतों से पानी की आपूर्ति करते रहे हैं।

थार मरुस्थल में पानी के प्रति समाज का रिश्ता बड़ा ही आस्था भरा रहा है। पानी को श्रद्धा और पवित्रता के भाव से देखा जाता रहा है। इसीलिए पानी का उपयोग विलासिता के रूप में न होकर, जरूरत को पूरा करने के लिए ही होता रहा है। पानी को अमूल्य माना जाता रहा है। इसका कोई ‘मोल’ यहां कभी नहीं रहा। थार में यह परंपरा रही है कि यहां ‘दूध’ बेचना और ‘पूत’ बेचना एक ही बात मानी जाती है। इसी प्रकार पानी को ‘आबरू’ भी माना जाता है। महाकवि रहीम ने इसी मरुस्थल में पानी के प्रति ऐसा पवित्र रिश्ता देख कर यह पद रचा होगा-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरैं, मोती, मानस, चून।


पानी के साथ आबरू को जोड़कर मरुस्थल में ही देखा जा सकता है। तभी तो पानी की बर्बादी यहां के पुरखों के स्वभाव में कभी रही नहीं। यहां के लोगों में एक ओर पानी के सीमित और संयमित इस्तेमाल के भाव रहे हैं, वहीं एक ही पानी का दोहरा-तिहरा उपयोग भी होता रहा है। नहाने में जो पानी काम में आया, वह-बह कर किसी नाली या कीचड़ का रूप नहीं लेता। नहाने में काम आया पानी भी नाली में न बहकर किसी बरतन में एकत्र कर लिया जाता है। फिर वहीं पानी कपड़े धोने, घर में पोंछा लगाने, गाय-बैल की सफाई करने में इस्तेमाल होता रहा है। इसी तरह हाथ धोते हुए, मुंह धोते हुए भी वह पानी कहीं बह कर अन्यत्र नहीं जाता। वह किसी पौधे, किसी पेड़ दरख्त के तने में ही समाता रहा है। तभी थार मरुस्थल में पानी का तोड़ा नहीं रहा। अलबत्ता, हम कह ही चुके हैं कि पानी यहां विलासिता नहीं, उपयोग सदुपयोग का सबब रहा है।

एक ओर पानी के प्रति पवित्रता का ऐसा रिश्ता और दूसरी ओर बरसात की एक-एक बूंद को सहेज लेने, संग्रहीत कर लेने की पुख्ता और कभी नष्ट न होने वाली प्रणाली ने पानी के संकट से इस थार क्षेत्र को सदा बचा कर रखा। हमने बेरियां, उकेरियां और कुइयां का जिक्र किया। ठीक इसी तरह ताल, तालाब, कुआं, बावड़ी की परंपरा भी थार मरुस्थल में काफी समृद्धशाली रही है। पक्के और बड़े मकानों, हवेलियों के छत का पानी किसी ‘कुंड’ या ‘टांके’ में एकत्र कर लेने की परंपरा भी यहां रही है।

ऊँट पर थैले में पानी ढोने की जुगतथार मरुस्थल के कितने ही गांव, नगर या बस्तियां ऐसी हैं, जिनके नाम के साथ सर शब्द जुड़ा है। यह ‘सर’ शब्द पानी के ही किसी स्रोत का संकेत देता है। इस ‘सर’ शब्द से ही यह पता चलता है कि अमुक स्थान पर पानी का कोई स्रोत-सरोवर, कुआं, जोहड़ या बावड़ी रहा होगा।

गाँवों में जहां भी वर्षा जल संचयन के ऐसे स्रोत रहे हैं, उनका निर्माण किसी राज्य व्यवस्था से न होकर समाज द्वारा होता रहा है। यह समाज का अपना अभिक्रम होता था और तकनीक भी इनकी अपनी। इसी देशज समझ और निर्माण की देसी सामग्री से जल संचयन के ऐसे ढांचे खड़े कर लिए गए कि उन्नत विज्ञान और प्रौद्योगिकी भी इनके सामने बौनी लगने लगे। मरुस्थल या रेगिस्तान तो धोरों की धरती है। जहां रेत ही रेत हो, जो कई लश्करों को निगल जाए, वहां ऐसे निर्माणों के लिए स्थल चयन काफी महत्वपूर्ण होता है। लेकिन, स्थानीय बड़े-बुजुर्ग अपने पारंपरिक ज्ञान से यह काम बड़ी सहजता से कर लेते थे। रेत में भी पानी की एक-एक बूंद को सहेज लेना इस चयन की खूबी होती थी।

इसी आधार पर जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर में ऐसे विशाल सरोवर बन सके, जो आज भी अपने पूरे वैभव के साथ देखने को मिल जाएंगे। ताल की ज़मीन पर बने-खुदे तालाबों- सरोवरों के चारों ओर ‘आगोर’ या ‘पायतान’ छोड़े जाते थे। तालाब तक पानी के पहुंचने के ये स्थल ‘कैचमेंट’ होते थे। इनके प्रति भी लोगों के मनों में पवित्रता बोध रहता था। इन आगारों, पायतानों या कैचमेंट क्षेत्र में जूते पहनकर जाना वर्जित होता था।

मल-मूत्र उत्सर्जन या थूकना भी लोग पाप मानते थे और यह सब किसी की जबरन थोपी गई व्यवस्था नहीं थी। अपनी ही अक्ल और समझ के साथ यह व्यवस्था चलती थी। प्राचीन अभिलेख बताते हैं कि किसी कारण अगर कोई चूक हो जाती तो इसके लिए दंड विधान था। यह व्यवस्था अब टूट गई है। परंपरागत प्रणालियां टूट रही हैं। कानून-कायदे किताबों की जिल्द में कैद हैं। खुद शासन भी उनकी ओर उपेक्षा से देखने लगा है। बगलें झांकने लगा है। कहीं इन कानून-कायदों को तोड़ गया है तो कहीं ‘गली’ निकाल ली गई है। पिछले कुछ वर्षों के अनुभव और अध्ययन बताते हैं कि वर्षा के पानी के संचय से पेयजल आपूर्ति में कितनी मदद मिली है, पर यह सब हमारी स्थाई ‘याद’ के सबब नहीं बन पाए हैं।

पानी की कुइयांएक अनुमान बताता है कि एक हेक्टेयर क्षेत्र पर एक सौ मिलीमीटर वर्षा हो और वह पानी रोक लिया जाए तो दस लाख लीटर पानी संचित हो सकता है। इसी प्रकार पांच लाख हेक्टेयर ज़मीन पर बरसात का पानी पड़े और वह संचित कर लिया जाए तो ढाई करोड़ लोगों को पूरे साल भर पचास लीटर पानी मिल सकता है। घरों की पक्की छतों पर पानी घर में ही कुंड बना कर एकत्र करने की परंपरा यहां सदा रही है। आज समूचे सरकारी भवनों की छतों का क्षेत्रफल निकालें तो उन छतों पर बरसा पानी एकत्र हो जाए, जो जरा कल्पना करें कि कितना ज्यादा पानी होगा। पेयजल की समस्या केवल राजस्थान की नहीं, पूरे देश की है।

राजस्थान में जलसंचय की समृद्ध परंपरा रही है। कई क्षेत्रों में ऐसे तालाब-सरोवर हैं, जिनका वास्तुशिल्प, स्थापत्य शिल्प देखकर आश्चर्य होता है। बावड़ियों में तो वास्तुकला दोगुनी हो उठती है। जोधपुर, बूंदी, जयपुर की बावड़ियां कला के जीवंत नमूने हैं। जयपुर के जयगढ़ दुर्ग की बावड़ी का बखान किसी कलम की बड़ी खूबी हो सकता है। जोधपुर की तापी बावड़ी की बुलंदियां आज भी बेताज प्रतीत होती हैं। जैसलमेंर का अमर सागर तालाब और उसी में बनी सात सुंदर बेरियां जल संकलन की उम्दा तकनीक की कहानी खुद बयान करती हैं। तालाब का पानी जब समाप्त हो जाता है तो बेरियों का संरक्षित जल प्यास बुझाने के काम आता है। हमारा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और उन्नत प्रौद्योगिकी कितनी भी आगे हो, लेकिन अमर सागर तालाब की तकनीक को भी समझना जरूरी है। बरसाती पानी के संचयन के इन सोचे-समझे उपायों-प्रणालियों के सामने कोई भी प्रणाली हमारी प्यास बुझा पाने में अक्षम दिखाई दे रही है। हमें अपनी ही परंपरा में झांककर देखने की जरूरत है।

प्रबंधन जरूरी


वैसे तो इस भूमंडल पर बहुत सारा पानी है। लेकिन, उपलब्ध जल का 97 फीसद हिस्सा समुद्री और लवणीय है। बाकी जल मीठा है, लेकिन पानी रूप में यह दशमलव सात फीसद है। बाकी बर्फ है। द्रव रूप में जो पानी उपलब्ध है, उसमें से दशमलव छह फीसद भूतल पर और बाकी दशमलव एक फीसद नदी और झीलों का पानी है। बारिश से भी पानी मिलता है। समूची धरती पर हर साल दस से बारह हजार मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी बारिश से मिलता है। भारत में बारिश के पानी का अनुपात चार सौ मिलियन हेक्टेयर मीटर है।

भारत में अगर पचास लीटर पानी प्रतिव्यक्ति रोज़ाना की खपत मानें तो 1.5 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी की जरूरत है। आबादी की घटत-बढ़त के आधार पर पानी की घटत-बढ़त देखी जा सकती है। तथ्य बताते हैं कि वास्तव में पानी की कमी का संकट उतना नहीं है, जितना इसके प्रबंधन, संरक्षण और संयमित उपयोग को लेकर है। पेयजल की कोई सुसंगत नीति जहां जरूरी है, वहीं आम सहमति भी जरूरी है। वर्षा, भूजल, नद-जल के रूप में मिलने वाला पानी समुचित उपाय और प्रणाली के जरिए ही पीने योग्य बनाया जा सकता है। पानी के एक-एक बूंद के प्रति हमारा भाव कैसा है, इसी पर सब कुछ निर्भर करता है।

जैसलमेर की अमर सागर झीलवैज्ञानिक भी अब मानने लगे हैं कि बरसाती पानी का सुसंगत इस्तेमाल करने और इसके समुचित संरक्षण से ही जल समस्या का समाधान संभव है।