मत्स्य, या मछली जलीय

Submitted by Hindi on Sat, 08/27/2011 - 14:12
मत्स्य, या मछली जलीय, कशेरुकी तथा द्विपार्श्व सममित प्राणी है। हवेल और सील के अतिरिक्त सभी मछलियाँ जीवनपर्यंत गिल से श्वास लेती हैं। मछलियाँ अनियत तापी प्राणी (cold blooded animals) हैं। इनके शरीर का ताप जल के ताप के समान रहता है। कुछ मछलियाँ अपने शरीर के ताप को वातावरण के ताप से लगभग 5 सेंo अधिक बढ़ा सकती हैं। अधिकांश मछलियाँ अंडज (oviparous) तथा कुछ जरायुज (viviparous) होती हैं। इनका शरीर कठोर शल्कों से ढँका रहता है। स्तनी की तरह मछली में बाल एवं दुग्धग्रंथियाँ नहीं होतीं। प्राय: दीर्घाकृति मछलियाँ मुख्यत: शरीर के तरंगण द्वारा तैरती हैं। इनके मुँह में ऊर्ध्वहनु एवं निम्नहु रहते हैं। इनमें मस्तिष्क एवं मस्तिष्ककोश रहते हैं। प्राचीन वर्गीकरण के अनुसार मछलियाँ मत्स्य वर्ग, या पिसीज़ (pisces) वर्ग, में आती हैं, किंतु आधुनिक प्राणिविदों ने मछलियों को कई वर्गों तथा उपवर्गों में विभक्त किया है।

मछली लंबी एवं कुछ शुंडाकार होती है। इसके शरीर के सिर, घड़ एवं पूँछ तीन भाग होते हैं। प्राय: गिलछद (gill cover) का पश्च किनारा धड़ एवं पूँछ की सीमा माना जाता है। आधुनिक मछलियों में जहाँ रीढ़ समाप्त होती है, वहीं से पूँछ आरंभ होती है। शार्क मछली में रीढ़ पूँछ के ऊपरी भाग तक जाती है। मछली में पख (fin) होते हैं, जिनके अर (ray) रीढ़दार या कोमल तथा शाखित होते हैं।

मछली में मध्य पख (median fin) और युग्म पख (paired fin), दो प्रकार के पख, होते हैं। मध्य पख के अंतर्गत पृष्ठीय पख, पुच्छ (caudal) पख तथा गुदा (anal) पंख आते हैं। पृष्ठीय पख एक या एक से अधिक होता है। इस पख के दो भाग होते हैं, रीढ़दार तथा कोमल। पूँछ पर एक या अधिक पुच्छ पख होता है। गुदा पख गुदाद्वार पर रहता है और शायद ही कभी एक से अधिक होता है। युग्म पख दो जोड़ा होते हैं। इनके अंतर्गत अंस (pectoral) पख तथा श्रोणी (pelvic) पख आते हैं। ये क्रमश: अग्रपादों (fore limbs) तथा पश्चपादों (hind limbs) का प्रतिनिधित्व करते हैं। सामान्यत: अंस पंख सिर के ठीक पीछे स्थित रहता है, किंतु श्रोणी पख धड़ के पिछले किनारे से लेकर अंस पंख के नीचे तक, कहीं भी स्थित हो सकता है। युग्म पंख शरीर के संतुलन एवं गति में मदद करते हैं। गुदा पख गति को स्थिर रखने का कार्य करता है। मछली को आगे की ओर नोदन करने तथा गति करने का कार्य पुच्छ पख द्वारा होता है।

दरारों में रहनेवाली मछलियों में युग्म पंख नहीं होते। उड़नेवाली मछलियों के युग्म पख दृढ़ एवं अधिक चौड़े होते हैं। पुच्छ पख से जलसतह का धक्का देने से उड़नेवाली मछलियों में उड़ान शक्ति उत्पन्न होती है। समुद्री रॉबिन (sea robin) अंस पख का उपयोग कर चलती है।

अस्थिल (bony) मछलियों की अनेक जातियों की पहचान में शल्क मदद करता है, क्योंकि प्रत्येक जाति की मछलियों में शल्क की कतारों की संख्या निश्चित होती है। कुछ मछलियों पर खुरदरा, कंकतौभ शल्क (otenoid scale) तथा कुछ पर चिकना चक्राभ (cycloid) शल्क होता है। आद्य मछलियों के शल्क भारी और प्लेट (plate) की तरह होते हैं, जिन्हें गैनॉइड (ganoid) शल्क कहते हैं। शार्क मछलियों में शल्क दाँत की तरह होते हैं, जिन्हें पट्टाभ (placoid) शल्क कहते हैं। त्वचा की कोशिकाओं (pockets) से शल्क वृद्धि करते हैं। वृद्धि वलय के द्वारा चि्ह्रत होती है। ये वलय मछली की आयु के निर्णायक हैं।

पाचक संस्थान-


इस संस्थान के अंतर्गत मुख, दंतयुक्त हनु, जीभ, ग्रसनी, ग्रसिका (gullet) आमाशय, आंत्र, जठर निर्गम, अंधनाल (pyloric caecum), यकृत, अग्न्याशय, प्लीहा, बृहद् आंत्र और गुदा आते हैं।

मांसाहारी मछलियों का मुँह लंबा तथा हनु (jaw) लंबे एवं तीक्ष्ण दाँतों से युक्त होते हैं। शाकाहारी मछलियों का मुँह छोटा तथा हनु कुतरनेवाले दाँतों से युक्त होते हैं। कवचीय प्राणियों को खानेवाली मछलियों के दाँत चर्बणाक होते हैं। चूषक मछलियों के ओठ लंबे तथा मुख दंतहीन रहता है। मुँह स्वतंत्रतापूर्वक खुलता है। मुखगुहा के उत्तल पार्श्व में लघु तथा दृढ़ दंडों की कतार रहती है। इन दंडों को गिल कर्षणी (gill rakers) कहते हैं। यह कतार खाद्य को, ग्रसिका के मुख के संमुख तक पहुँचने एवं निगल लिये जाने तक, मुखगुहा से बाहर निकालने में बाधा डालती है। ग्रसिका साधारण नली है, जिसका मुख पेशीय नियंत्रण द्वारा बंद रहता है। इस कारण बहुत थोड़ा पानी आमाशय में जाता है।

मछली का आमाशय सामान्यत: अंग्रेजी के यू (U) अक्षर के आकार का, अथवा अंधकोश (blind sac), होता है। आमाशय की दीवारों में जठरग्रंथियाँ होती हैं। आमाशय का व्यास ग्रसिका एवं आंत्र दोनों से अधिक होता है। भोजन की आदत के अनुरूप आमाशय अलग अलग प्रकार के होते हैं। कुछ मछलियों में आमाशय सीधा एवं साधारण होता है। बहुत सी मछलियों में नली के आकार के परिवर्ती संख्यावाले अंधकोश होते हैं, जिनके कार्य अनिश्चित हैं। आमाश्य से आंत्र के निर्गम पर जठर निर्गमी अंधनाल लगा रहता है।

मांसाहारी मछलियों की आंत्र छोटी होती है और उसमें केवल एक या दो चक्कर (loop) रहते हैं, जबकि शाकाहारी मछलियों की आंत्र लंबी एवं कुंडलित होती है और उसमें कई चक्कर होते हैं। आंत्र का प्रारंभ आहार नाल की वलय सदृश मोटाई वाली दीवार से तथा यकृत से आनेवाली वाहिनी के प्रवेश स्थान से चि्ह्रत रहता है। विभिन्न मछलियों में यकृत का विस्तार और रंग विभिन्न होता है। यकृत में प्राय: पित्ताशय रहता है और अग्न्याशय से आई हुई एक छोटी ग्रंथि इसमें न्यूनाधिक अंत:स्थापित रहती है।

ग्रसिका से भोजन आमाशय में पहुँचता है और जठर रसों की अभिक्रिया के बाद यह तरल रूप में आंत्र में प्रविष्ट होता है। यहाँ रक्त के द्वारा तरल खाद्य का अवशोषण होता है।

श्वसन तंत्र-


ह्‌वेल, सील तथा अन्य जलीय स्तनियों को छोड़कर सभी मछलियाँ गिल से श्वास लेती हैं। ग्रसनी (pharynx) के प्रत्येक ओर गिल रहते हैं। मुँह में भरा जल गिल को गीला करता हुआ क्लोम दरारों (branchial clefts) द्वारा बाहर बह जाता है। गिल का रक्त अर्ध पारगम्य झिल्ली द्वारा पानी से पृथक रहता है तथा इस झिल्ली से गैसीय विनिमय होता है। परासरण (osmosis) द्वारा जल भी झिल्ली के आर पार जा सकता है। पानी में घुले हुए ऑक्सीजन से मछली का रक्त गिल द्वारा ऑक्सीजनति (oxygenated) हो जाता है। गिल में रक्त का प्रवाह, गिल के बाहर पानी के प्रवाह की विपरीत दिशा में होता है। इस प्रकार घुले हुए ऑक्सीजन का अधिक से अधिक अवशोषण होता है। ऑक्सीजनित रक्त अपवाही वाहिनियों (efferent vessels) द्वारा एकत्र किया जाता है और इन्हीं के द्वारा वह शरीर में भेजा जाता है। पृष्ठ धमनियों (dorsal aorta) द्वारा रक्त शरीर के अन्य भागों में जाता है।

परिसंचरण तंत्र (Circulatory System)-


गिल के निचले सिरों के ठीक पीछे हृदय रहता है। मछली के हृदय में तीन या चार कोष्ठ होते हैं। शिरारुधिर, जो संपूर्ण शरीर से एकत्र होता है, शिरा कोटर (sinus venosus), अलिंद (auricle) तथा मोटी दीवारवाले पेशीय निलय (ventricle) में जाता है। निलय के संकुचन द्वारा रक्त आगे बढ़ता है और अंत में मुख्य धमनी के आधार में स्थित बल्ब (bulb) में पहुँच जाता है। यहाँ से हृदय की अधर महाधमनी (ventral aorta) तथा अभिवाही क्लोम (afferent branchia) के द्वारा संपूर्ण रक्त गिल में पहुँचा जाता है। गिल में ऑक्सीजनीकरण होने के बाद, रक्त अपवाही (efferent) वाहिनियों द्वारा सिर में तथा पृष्ठ महाधमनी (dorsal aorta) द्वारा शरीर में जाता है।

तंत्रिका तंत्र तथा ज्ञानेंद्रियाँ (Nervous System and Sense Organs)-


मछली के मस्तिष्क में घ्राण पालि (olfactory lobe), प्रमस्तिष्क गोलार्ध, दृक्‌पालि, अनुमस्तिष्क, अग्रमस्तिष्क एवं पश्चमस्तिष्क होता है। अनुमस्तिष्क शरीर का संतुलन एवं गति का नियंत्रण करता है।

मछलियाँ घ्राणेन्द्रियों पर अत्यधिक निर्भर करती हैं। इनकी घ्राणेन्द्रियाँ लंबी होती हैं और उनकी संरचना पत्ती की तरह की होती है। मस्तिष्क में बड़ी घ्राण पालियाँ होती हैं, जिनके द्वारा मछली गंध का अनुभव करती हैं।

मछलियों की आँख मनुष्य की आँख की तरह होती है। इनकी आँखों का लेंस गोलाकार होता है। लेंस तथा कॉर्नीया (cornea) के मध्य थोड़ा अवकाश रहता है। मछली की आँखें पानी में देखने के लिये अनुकूलित होती हैं। दक्षिण एवं मध्य अमरीका में पाई जानेवाली जलसतह पर तैरनेवाली चार आँखोंवाली मछली की आखें काले दंड द्वारा दो भागों में बँटी रहती हैं। दंड च्ह्रि के नीचे का भाग पानी में देखने के लिये अनुकूलित रहता है। लारवा अवस्था में कुछ मछलियों की दृष्टि खराब होती है। गुफाओं में रहनेवाली मछलियाँ अंधी रहती हैं। प्राय: आँखों पर पलकें नहीं रहतीं, वरन्‌ एक खाँचा तथा त्वचा का तंग वर्तुल वलन (fold) रहता है।

यद्यपि मछली में बाह्य कर्ण नहीं रहता, तथापि प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि मछलियाँ सुन सकती हैं। मछली के आंतरिक कान में झिल्लीमय लेबिरिंथ (labyrinth) में अंतर्लसीका (endolymph) नामक द्रव रहता है। यद्यपि स्तनी की तरह मछली के लेबिरिंथ में कर्णवर्त्त (cochlea) नहीं होता, पर छति (utriculus) होती है जिसमें तीन अर्धवृत्ताकार नलिकाएँ तथा इनकी तुंबिकाएँ (ampullae), गाणिकाएँ (sacculus) और लेगीना (lagena) होते हैं। अर्धवृत्ताकार नलिकाएँ शारीरिक संतुलन ठीक रखती हैं तथा गोणिकाएँ एवं लेगीना सुनने से संबंधित हैं। मछलियों के कुछ समूहों में वायुकोश (air bladder) सूक्ष्म नलिका के द्वारा आंतर कर्ण से जुड़ा रहता है। कुछ मछलियों में वायुकोश वेबर यंत्रावलि (Weberian mechanism) नामक जटिल अस्थि उपकरण से जुड़ा रहता है। यह युक्ति कान में कंपनों का संचार करती है। मछलियों में शिरस्य नाल (cephalic canal) एवं पार्श्वरेखा तंत्र (lateral line system) अद्वितीय ज्ञानेंद्रियाँ हैं। प्राय: पार्श्वरेखा त्वचा में खाँचा या नाल होती है, जिसकी समाप्ति सूक्ष्म तंत्रिकाओं में होती है। अस्थिल मछलियों में यह गलरध्रं की तरह सतह पर खुली रहती है। पार्श्व रेखातंत्र एवं शिरस्थ नाल निम्न आवृत्तिवाले कंपनों को ग्रहण करते हैं। इनसे मछलियों को पानी में होनेवाली सूक्ष्म हलचल का भी ज्ञान हो जाता है।

मछली को स्पर्श का ज्ञान त्वचा द्वारा होता है। स्वादेंद्रिय कुछ मछलियों में मुखगुहा में और कुछ में त्वचा में फैली रहती है। मछली के मस्तिष्क में स्वादकेंद्र बहुत विकसित होता है।

मछली तापपरिवर्तन के प्रति बड़ी संवेदी होती है। शार्क और रे (ray) मछलियों का तापपरिवर्तन का ज्ञान करानेवाला अंग सिर पर जेली से भरी नली में स्थित रहता है।

वायु थैली (Air Bladder)-


अस्थिल मछलियों में यह थैली देहगुहा और मेरुदंड के मध्य में स्थित रहती है। इस थैली की दीवारें प्रत्यक्ष तंतुओं की बनी होती हैं। ऐसा अनुमान है कि संभवत: फुफ्फुस मीन में इस थैली का मौलिक कार्य श्वसन था, क्योंकि इसकी दीवारों में पर्याप्त रक्त वाहिकाएँ हैं तथा इसकी आंतरिक सतह खाँचों (furrows) तथा क्रटकों के कारण बढ़ जाती है। आधुनिक मछलियों में इस थैली का कार्य द्रवस्थैतिक (hydrostatic) है। इस थैली में गैस भरी रहती है।

जनन (Reproduction)-


कुछ मछलियाँ जरायुज होती है और अधिकांश अंडज। समुद्री सूर्यमीन (sunfish) नामक मछली एक बार में 30 करोड़ अंडे देती हैं, किंतु अधिकांश नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार संतुलन बना रहता है। बच्चों की देखरेख करनेवाली मछलियाँ बहुत कम अंडे देती हैं। जरायुज मछलियाँ भी दो तीन से अधिक बच्चे नहीं देतीं।

कुछ मछलियों में प्रवास की नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है, जिसके कारण वे प्रवास द्वारा ऐसे स्थानों पर पहुँचकर अंडे देती हैं जहाँ परिस्थितियाँ उनके बच्चों के अनुकूल होती हैं। प्रवास करनेवाली मछलियाँ अंडे देने के बाद मर जाती हैं, किंतु बच्चे अपने पैतृक निवास को वापस आ जाते हैं (देखें प्रवजन)।

उत्तरी अमरीका की नदियों की सूर्यमीन और ब्लैक बास (black bass) का नर तश्तरी के आकार का गर्त बनाता है। मादा इसी गर्त में अंडे देती है। माता पिता अंडों को स्वच्छ करते हैं तथा अंडों का ऑक्सजनीकरण करते हैं। मछलियों की जातियों में उपर्युक्त कार्य, या तो केवल नर, या केवल मादा करती है।

जो मछलियाँ जनन के लिये युग्मित होती हैं और अंडों की मातृवत देखरेख करती हैं, उनके नर, मादा रंगों द्वारा पहचान लिये जाते हैं। प्राय: नर का रंग मादा की अपेक्षा अधिक चमकीला होता है। नर के पंख बड़े, गुलिकाएँ (tubercles) श्रृंगी, या मुँह लंबा होता है।

अधिकांश मछलियों में निषेचन मादा के शरीर के बाहर होता है। निषेचन की क्रिया अंडा देने के तुरंत बाद होती है, अथवा अंडा देने के साथ साथ होती है। कुछ मछलियों में मादा के शरीर के अंदर ही निषेचन होता है, किंतु ऐसी मछलियों की संख्या बहुत कम है और इनके अंडों से बच्चे भी कम निकलते हैं। कुछ मछलियाँ पूर्णत: जरायुज हैं और स्तनी के अपरा के सदृश इनके भ्रूण के पीतक कोश और गर्भाशय की दीवार में घना संबंध रहता है। अनेक मछलियाँ मुखी गर्भविधि (oral gestation) द्वारा अपने अंडों की रक्षा करती हैं। इस विधि में मछली अंडों को मुँह में उस काल तक रखती है जब तक वे फूट नहीं जाते। समुद्री अश्वमीन (sea horses) तथा नलमीन की मादाएँ अपने नरों की पूँछ के नीचे स्थित भ्रूणधानी में अंडे देती हैं और भ्रूणधानी में ही अंडों से बच्चे निकलते हैं। पैराडाइज़ मीन जल की सतह पर बुलबुलों (bubbles) के घोंसले बनाती है और अपने अंडों को मुँह से उठाकर छोटे बुलबुलों के समूह पर थूक देती है।

जीवनीतिहास-


कुछ मछलियाँ केवल कुछ सप्ताहों में, अथवा कुछ महीनों में, प्रौढ़ हो जाती हैं। कुछ मछलियाँ वर्षों में प्रौढ़ होती हैं, जैसे स्टर्जियन (sturgeon) मछली 20 वर्ष में प्रौढ़ होती है। बड़ी जाति की मछलियाँ अधिक काल में और छोटी जाति की मछलियाँ कम काल में प्रौढ़ होती हैं। प्रौढ़ मछलियों के विस्तार में भी बड़ा अंतर है। फिलीपीन की प्रौढ़ गोवी मछली का विस्तार आधा इंच होता है, जब कि ह्वेलशार्क की लंबाई 40 फुट तक होती है।

कुछ मछलियों की आयु एक वर्ष की है और कुछ की आयु 50 वर्ष तक की होती है। शल्क पर बने वलयों (annuli) की गणना से बहुत सी मछलियों की आयु की गणना की जाती है।

मछली का रंग-


मछलियाँ अनेक रंगों की होती हैं, जिनमें हरा, कालापन लिए भूरा अथवा भूरा, मुख्य रंग है। लाल, पीली, हरी, नीली तथा नारंगी रंग की मछलियाँ भी होती हैं। मछली संपूर्ण एक रंग की हो सकती है, किंतु प्राय: दो या अधिक रंगों के मिलने से मछली के शरीर पर निश्चित च्ह्रि बनते हैं। यह च्ह्रि विशेषकर पीठ पर होते हैं। मछली का तलभाग प्राय: हलका भूरा, सफेद, या चाँदी की तरह चमकीला होता है। मछलियों की दो भिन्न जातियों के रंग भिन्न होते हैं। नर तथा मादा मछली के रंग की चमक में अंतर रहता है।

केवल कुछ सूक्ष्मवर्णक कोशिकाओं के कारण मछलियाँ अनेक रंग प्रदर्शित करती हैं। काले रंग की वर्णककोशिकाएँ प्राय: सभी मछलियों में पाई जाती हैं। काली वर्णककोशिकाओं के कारण मछलियों में काली धारियाँ, हरे तथा रंग की परिष्कृत वर्णबहुलता एवं छाया रहती है। जब रंगदीप्त कोशिका (iridocyte) अकेली रहती है, तब मछलियाँ सफेद या चाँदी जैसी सफेद दिखाई पड़ती हैं। श्यामवर्णक कोशिका (melanophores) और रंगदीप्त कोशिका में जब पीला वर्णक मिला रहता है, तब हरा रंग बनता है। मछलियों में अवरक्तनील, गुलाबी तथा बैगनी रंग, रंगदीप्त कोशिकाओं तथा रुधिरवर्णक कोशिकाओं (erythrophores) के विभिन्न संयोजनों के कारण होते हैं।

रंग की उपर्युक्त कोशिकाएँ दृकसंवेग, शरीर की क्रियात्मक अवस्था तथा अनेक आंतर स्रावों के कारण संकुचित होती हैं या फैलती हैं। इस क्रिया के कारण जब मछली एक पर्यावरण से दूसरे पर्यावरण में जाती है, तो उसके रंग में परिवर्तन हो जाता है। ऐसा इसलिये होता है कि वर्णककोशिकाओं के वर्णक या तो तारे की आकृतिवाली कोशिका में बिखर जाते हैं, अथवा कोशिका के केंद्र में एक बिंदु के रूप में एकत्र हो जाते हैं। रंगपरिवर्तन से मछलियाँ शत्रुओं से अपनी रक्षा करती हैं।

रंग केवल सौंदर्यवृद्धि एवं छद्मावरण का ही कार्य नहीं करते, बल्कि मछली के शरीर की रक्षा भी करते हैं। मेलैनिन (melanin) मस्तिष्क पर केंद्रित रहता है और प्रकाश किरणों के हानिकारक प्रभाव से मस्तिष्क की रक्षा करता है। शरीर के पेरिटोनियल (peritoneal) स्तर का कालावर्णक अंतरांग की रक्षा करता है। शाकाहारी मछलियों में काला पेरिटोनियम वनस्पति ऊतकों को पचाने वाले एंज़ाइमों (enzymes) की रक्षा करता है। कुछ विषैली मछलियाँ विशिष्ट प्रकार से रंगीन होती हैं, पर ऐसे उदाहरण विरल हैं। विशेष प्रजनन के द्वारा चमकीले रंग की मछलियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं। प्राचीन काल में चीनियों तथा जापानियों ने सुनहरी मछलियों की नस्ल को विशेष प्रजनन द्वारा विभिन्न चमकीलें रंगों में उत्पन्न किया था।

संदीप्ति (Luminescence)-


समुद्री मछलियों में ठंढा प्रकाश रहना साधारण घटना है। त्वचा अथवा शल्क में संदीप्तिवाली ग्रंथियाँ रहती हैं। ये ग्रंथियाँ प्रकाश उत्पन्न करनेवाली कोशिकाओं से बनी होती हैं। इन कोशिकाओं के पीछे परावर्तक और सामने लेंस लगा रह सकता है। मछलियाँ इच्छानुसार, रह रहकर प्रकाश फेंकती हैं। प्रत्येक जाति की मछली में प्रकाश का स्थान पृथक्‌ पृथक्‌ होता है। गहराई में रहने वाली समुद्री मछलियों में प्रकाश देने वाले अंग सिर, पेट, अथवा बगल में, समूह में, अथवा पंक्तियों में रहते हैं। मछलियों में रहनेवाले ठंढे प्रकाश के उद्देश्य का ठीक ठीक अभी तक पता नहीं है। मछली अपने प्रकाश द्वारा छोटे छोटे खाद्य प्राणियों को तथा विपरीत लिंगवाली मछली को अपनी ओर आकर्षित करती है।

ध्वनि-


मछलियाँ शांत प्राणी नहीं हैं। इनके द्वारा उत्पन्न कोलाहल को कई गज दूर से सुना जा सकता है। ध्वनि उत्पन्न करनेवाले अंग भिन्न भिन्न होते हैं। कैटफिश में वायुकोश की गैस आगे और पीछे की ओर जाती हैं, जिससे कमी हुई झिल्ली में कंपन होता है। प्रजनन ऋतु में मछलियाँ बार बार तीव्र ध्वनि करती हैं।

पारिस्थितिकी (Ecology)-


मछलियों में जल में रहने योग्य लगभग सभी आदतें पाई जाती हैं। ये ठंढे समुद्रों, ठंढी पहाड़ी झीलों और नदियों तथा उष्ण कटिबंधी समुद्रों में पाई जाती हैं। 43सेंo तापवाले जलस्रोतों में भी मछलियाँ पाई जाती है। मछलियों की कई जातियाँ किनारे से दूर खुले समुद्र में रहती हैं और कई जातियाँ समुद्र की अधिकतम गहराई में, जहाँ बिल्कुल अंधेरा रहता है, रहना पसंद करती है। मछलियों का निवास अपतृण (weed), शैवाल तथा चट्टानों की दरारों में होता है और वे पत्थरों के नीचे या बीच में छिपती हैं। कुछ मछलियाँ बालू, पंक और बजरी में बिल बनाती हैं। कुछ मछलियाँ रात्रिचर होती हैं, किंतु अधिकतर दिन में ही आहार प्राप्त करती हैं।

आर्थिक महत्व-


मछलियाँ भोजन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ साथ वसा और मोती प्राप्त करने के लिये भी महत्वपूर्ण हैं। तालाबों में रहनेवाली मछलियाँ जल को स्वच्छ रखने में बड़ी सहायक सिद्ध होती हैं। कुछ मछलियाँ खाद के लिये भी उपयोगी हैं। कॉड और हैलिबट (halibut) मछली के यकृत से निकाला गया तेल औषध के रूप में काम में आता हैं। मछलियों के शल्क भी उपयोगी हैं, इनसे नकली मोती बनाया जाता है। अनेक मछलियों से प्राप्त तेल चमड़ा पकाने, इस्पात पर पानी चढ़ाने (tempering) और साबुन बनाने के काम में आता है। मछली की हड्डियों और सिर से मुर्गियों, सूअरों तथा पशुओं के लिये उपयोगी खाद्य पदार्थ बनाया जाता है।

उत्तर प्रदेश की मछलियाँ


संसार में अनुमानत: 25,000 प्रकार की मछलियाँ हैं। इनमें 1000 प्रकार की मछलियाँ ही भारत के खारे और मीठे जलों में पाई जाती हैं। उत्तर प्रदेश में केवल मीठे जलवाली मछलियाँ ही नदियों, तालाबों, पोखरों, नहरों, झीलों इत्यादि जलाशयों में पाई जाती हैं। ये लगभग 200 किस्म की होंगी। इन्हें हम निम्न वर्ग में विभक्त कर सकते हैं :

कार्प-


इसके अंतर्गत रोहू (Labeo rohita), कतला (Catlacatla), नैन (Cirrhina Mrigala), करोंच (Labes Calbasu), सिंघरी (Barbus Carana) की महाशेर (Barbus tor) हैं।

कैट फिश (Cat fish)-


इन मछलियों में महाशेर (Barbus putitora), पढ़िन (Wallago Attu), टैंगन (Mystus aor), मांगुर (Clarius batrachus), सिंधी (Heteropneustes fossilis) हैं।

पर्च की तरह डॉरसल फ़िन (fin) वाली मछलियाँ-


इनके अंतर्गत खलीशा या कोलिसा (Trichogaster fasciatus), कोई (Anabas Scandavs) तथा चांदा (Ambasis spp)।

मरेल-


इसके अंतर्गत सील (Ophencephalus striatns) और लाय (Ophucephalus punctatus) हैं।

फैदरवेम्स-


इसके अंतर्गत फोली (Dotopterus notopterus) और मोह (Dotopterus chitala) हैं।

हेरिंग-


इसके अंतर्गत हिलसा (Hilsa ilisha) और चिलवा (Chela Bacaila) हैं।

गारफिश-


इसके अंतर्गत कौवा (Belone Cancilla) है।

स्नोट्राउट-


इसके अंतर्गत असला (Oreinus mollesworthir) है।

लोचेज-


इसमें गेयया सिंधी (Botia dario) है।

ग्लोब फिश-


इसके अंतर्गत झुकोहा (Tetradon Cutcutia) है।

स्घाइनोईल-


इसके अंतर्गत बनिया (Masdacembelus armatus) है।

मडी ईल-


इसके अंतर्गत कुचिया (Aniphiprous Cuchia) है।

इन मछलियों का कुछ विशेष विवरण नीचे दिया जा रहा है :

1. रोहू-


प्रांत में सर्वाधिक लोगों द्वारा पसंद की जानेवाली, मीठे पानी में पालने योग्य, यह मछली प्राय: सभी नदियों, बंधों तथा झीलों में पाई जाती है। यह सेहरेदार मछली है, जिसका मुँह गोल होता हैं। यह पानी के मध्य भाग में रहती है तथा वहाँ पाए जानेवाले छोटे छोटे जीवों को खाती है। यह बहते पानी में अंडे देती है।

2. कतला-


इसका मुँह बुलडॉग कुत्ते से अधिक मिलता है तथा यह बहुत शीघ्र बढ़नेवाली होती है। यह लगभग तीन फुटों तक बढ़ जाती है। पानी की सतह पर पाए जानेवाले कीड़े मकोड़ों से यह अपना भोजन प्राप्त करती है। यह रोहू की भाँति अंडे देती है तथा खाने के लिये पंसद की जाती है। यह मीठे पानी में पाली जा सकती है।

3. नैन-


इसका मुँह चौड़ा और छोटी छोटी दो मूँछे होती हैं। शरीर का रंग हलका सुनहला होता है और आँखे हिरन की तरह चमकदार होती हैं, जिनके कारण इसका नाम मृगल रखा गया है। यह प्रांत के पूर्वी ज़िलों में अधिकता से पाई जाती है। रोहू तथा कतला की भाँति यह अंडे देती है और खाने के लिये पसंद की जाती है।

4. करौंच-


काले रंग की यह मछली खाने के लिये पसंद नहीं की जाती। यह विशेषकर प्रांत के कंकरीले पथरीले भागों में मिलती है। यह धरातल पर पाए जानेवाले कीटाणुओं को खाती है तथा अन्य मछलियों की भाँति यह प्रजनन करती है। तालाबों में सुगमता से पाली जा सकती है।

5. सिंधरी-


यह कार्प जाति की मछलियों में छोटी मछली है, लगभग एक फुट तक बढ़ जाती है। यह प्राय: सभी जगह छिछले तालाबों में पाई जाती है। इसका भोजन अधिकतर मलेरिया मच्छर के अंडे बच्चे इत्यादि हैं। इसलिये मलेरिया की रोकथाम के लिये यह प्रयोग में लाई जाती है। यह रुके पानी में अंडे देती है।

6. महाशेर-


यह प्रांत में साधारणतया पाई जानेवाली मछलियों में नहीं है। यह साफ एवं ठंढे पानी में रहनेवाली मछली है, जो गंगा नदी के ऊपरी भागों में तथा बुंदेलखंड के कुछ बंधों में पाई जाती है। यह मांसाहारी मछली है। यह अधिक भागों में नहीं मिलती तथा काफी मँहगी बिकती है।

7. पढ़िन-


मीठे पानी में लाई जानेवाली मछलियों में यह सबसे खतरनाक तथा मांसाहारी मछली है। भक्षण की विशेष प्रकृति के कारण इसे मीठे पानी का शार्क कहते हैं। यह चार फुट तक बढ़ती है। यह रुके या बहते दोनों पानी में प्रजनन करती हैं। यह बिना सेहरे की मछली है। इसका मुँह बहुत चौड़ा होता है। तथा इसमें बहुत से नुकीले तथा तेज दाँत होते हैं। मुसलमान इसे धार्मिक कारणों से नहीं खाते हैं। यह तालाबों में पालने योग्य नहीं है, क्योंकि यह और मछलियों के बच्चों को खा जाती है।

8. टेगरा-


यह बिना सेहरे की मछली है और इसकी खास पहचान इसका वसा पख (adiporc fin) है, जो ऊपरी हिस्से के पिछले भाग में होता है। यह अधिकतर नदियों में पाई जाती है और नदियों में ही प्राय: अंडे देती है। खानेवाले भी इसे काफी पसंद करते हैं, इसलिये दाम भी अच्छे मिल जाते हैं।

9. मांगुर-


यह मछली अधिकतर छिछले पानी में पाई जाती है। यह एक फुट तक बढ़ती है तथा वायुमंडल में सांस लेती है। यह मांसाहारी है। दवा के रूप में उपयोगी होने के कारण यह बहुत मँहगी बिकती है।

10. सिंधी-


यह बिना छिलके की गहरे लाल रंग की मछली है, जिसके चार जोड़ा मूँछे होती हैं और पेक्टोरल फिन में कांटे होते हैं। इन कांटों को ये अपने शत्रुओं से बचने के लिये प्रयोग में लाती हैं। यह छिछले गंदे पानी में पाई जाती है और वायुमंडल में सांस लेती है। यह एक फुट तक बढ़ती है तथा कम दाम में बिकती है।

11. खुदार-


यह सेहरेदार मछली है, जो छोटे छोटे तालाबों में पाई जाती है तथा पांच इंच तक बढ़ती है। यह मच्छरों के बच्चे खाने में विशेष रुचि लेती है, इसलिये इसका उपयोग मलेरिया की रोकथाम के लिये अधिक किया जाता है। इसके बदन के ऊपर की रंगीन धारियों के कारण इसको जलजीवशाला में पाला जाता है।

12. कोइर-


यह सेहरेदार मछली है, जो लगभग 8½ इंच तक बढ़ती है और छोटे तालाबों में, जिनका तल कीचड़, कंकड़ का होता है, पाई जाती है। यह मांसाहारी मछली है। इसकी विशेषता यह है कि वायुमंडल से हवा ले सकती है।

13. चांदा-


यह छोटे छिछले तालाबों में अधिक पाई जाती है, इसके छिलके मुलायम तथा छूट जानेवाले होते हैं। यह तीन या चार इंच तक बढ़ती है और देखने में पारदर्शक तथा चमकदार मालूम होती है। यह भी मच्छरों के अंडे तथा बच्चे खाती है, इसलिये मलेरिया उन्मूलन में प्रयुक्त की जाती है।

14. गिरई-


यह सेहरेदार मछली है, जो छिछले गंदे पानी में पाई जाती है और वायुमंडल से हवा प्राप्त कर सकती है। यह घिरे पानी में अंडे देती है और अपने बच्चों की बहुत देख भाल करती है। यह मांसाहारी है और औषध के रूप में प्रयुक्त होती है।

15. मोह तथा पतरा-


ये भी सेहरेदार मछलियाँ हैं तथा अन्य मछलियों की अपेक्षा बगल से अधिक दबी होती हैं। इनका ऊपर का फिन नाम मात्र को होता है और नीचे का फिन पूँछवाले फिन से मिला रहता है। ये भी मांसाहारी मछलियाँ हैं और लगभग 16 इंच तक बढ़ती हैं। ये नदियों तथा तालाबों दोनों में पाई जाती हैं।

16. हिल्सा-


ऐसे तो यह समुद्र की मछली है, मगर अंडे देने के लिये यह नदियों में आ जाती है। अक्टूबर से नदियों में इसकी चढ़ाई आरंभ होती है। यह प्राय: एक फुट तक बढ़ती है। यह बगल से दबी रहती है तथा इसका बदन बड़ा चिकना होता है और निचला भाग काँटेदार होता है।

17. चिलवा-
यह छोटी जाति की सेहरेदार मछली है, जो लगभग सात इंच तक बढ़ जाती है। इसका बदन बड़ा चमकदार होता है और निचला भाग काँटेदार होता है। यह सुखाकर खाद बनाने के काम में आती है। यह सस्ती किस्म की मछली है।

18. कौवा-


इसकी केवल एक जाति तराई के तालाबों में विशेष रूप से पाई जाती है। यह लगभग एक फुट तक बढ़ जाती है। इसके ऊपर के भाग का रंग हरा होता है। तथा पेट की तरफ सफेद होता है। इसका शरीर अंडाकार होता है। आगे के दोनों जबड़े लंबे हो जाते हैं, जो चोंच की तरह आगे बढ़े रहते हैं। इसका ऊपर का फिन पूँछ के पास होता है। इसकी आकृति कुछ कुछ टारपीडो की तरह होती है। यह जलजीवशाला में भी पाली जाती है।

19. असला-


इसकी शक्ल ट्राउट की तरह होती है। यह लगभग 1½ फुट तक बढ़ती है। यह स्वच्छ जल में 1,000 फुट तक की ऊँचाई तक पाई जाती है। यह हरद्वार में काफी संख्या में मिलती है।

20. नेपाली गेट या सिंधी-


इसका लंबा शरीर आगे की तरफ गोलाकार तथा पीछे की तरफ बगल से दबा होता है। यह लगभग तीन इंच तक की होती है। यह भी तराई की धाराओं में पाई जाती है। इसकी पूँछ पर रंग बिरंगे छल्लों की आकृतियाँ बनी रहती हैं, जिससे यह बड़ी सुंदर दिखाई पड़ती है तथा जलजीवशाला में पाली जाती है।

21. फुकचा-


यह एक छोटी जाति की मछली है। इसका पीठ का भाग काफी चौड़ा होता है और पीछे जाकर एकदम पतला हो जाता है। यह लगभग सात इंच तक लंबी होती है।

उपर्युक्त विवरण से यह भली भाँति स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में जल का विस्तृत भंडार होने के कारण अनेक प्रकार की उपयोगी और खाने योग्य मछलियाँ पाई जाती हैं। [गुप्तार कृष्ण सरवाही]

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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