मुक्त सागर

Submitted by Hindi on Wed, 08/31/2011 - 13:43
मुक्त सागर शब्द का प्रयोग उस विवृत समुद्र के लिए किया जाता है जो विश्व के अधिकतर भाग में विस्तृत (तरंगित) है। इस विवृत सामुद्रिक जल से समुद्र के उन भागों को विलग समझा जाता है जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय विधि में सामुद्रिक पट्टी (maritime belt), जलडमरूमध्य एवं खाड़ी कहा जाता है, जो वास्तव में समुद्र का अंग तो अवश्य हैं किंतु मुक्त सागर का अंग नहीं। अत: विश्व के प्रत्येक भाग का नमकीन सिंधुजल जो सब राष्ट्रों की नौकाओं एवं जलपोतों द्वारा स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त हो सकता है, वह मुक्त सागर है। उदाहरणार्थ अटलांटिक महासमुद्र, प्रशांत महासागर, हिंद महासागर, आर्कटिक एवं एंटार्कटिक महासागर आदि। किंतु यदि यह नमकीन सिंधुजल किसी एक अथवा एक से अधिक तटीय राष्ट्र की सीमाओं से घिरा हो तो वह साधारणतया मुक्त सागर न कहलाएगा, उदाहरणार्थ अरल सागर मुक्त सागर नहीं अपितु सोवियत राष्ट्र भूमि क्षेत्र में होने के नाते सोवियत राष्ट्र भूमि का अंग है और रूसी क्षेत्राधिकार में है। इस संदर्भ में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि विश्व के बहुत से सिंधु जल ऐसे भी हैं जिनके बारे में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वे मुक्त सागर के भाग हैं अथवा क्षेत्रीय जल के, जैसे बाल्टिक सागर, श्वेत सागर, मेडीटेरेनियन सागर आदि आदि।

अंतर्राष्ट्रीय विधि के अंतर्गत मुक्त सागर की स्वतंत्रता अथवा उन्मुक्तता से अभिप्राय यह है कि विवृत समुद्र किसी भी एक राष्ट्र अथवा राज्य की प्रभुसत्ता के अधीन किसी भी अर्थ अथवा अंश में नहीं हो सकता। स्पष्टतया मुक्त सागर किसी भी राष्ट्र के क्षेत्राधिकार में नहीं होता अत: किसी भी राज्य को यह अधिकार नहीं है कि वह मुक्त सागर के लिए अपना विधान, प्रशासन या पुलिस प्रणाली लागू कर सके। यह भी अधिकार किसी राज्य को नहीं कि वह मुक्त सागर के थोड़े भाग पर भी आधिपत्य स्थापित कर सके। उपर्युक्त विशेषताओं के विद्यमान होने के कारण रोमन विधि में मुक्त सागर के लिए रेस एक्स्ट्रा कमरशियम (res extra commercium) तथा अंग्रेजी भाषा में ओपेन सी (open sea) या हाई सी (high sea) शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

मुक्त सागर की उन्मुक्तता (स्वतंत्रता) से यह निष्कर्ष संगत न होगा कि यदि मुक्त सागर पर किसी राज्य का प्रभुत्व नहीं है तो वहाँ अराजकता का साम्राज्य है। किसी राष्ट्रविशेष की अनधिकृत चेष्टाओं वा असंगत महत्वाकांक्षाओं को संयमित करने के लिए एवं अराजकता की संभावना को दृष्टि में रखते हुए मुक्त सागर को अंतर्राष्ट्रीय विधि का महत्वपूर्ण विषय माना गया है। 1930 ईसवी के हेग संहिताकरण संमेलन में मुक्त सागर संबंधी नियमों को भी संहित किया गया। तत्संबंधी नियमों और उपनियमों को विस्तृत रूप कंवेंशन ऑन हाई सीज़, (Convention on High seas) जेनेवा में 29 अप्रैल, 1958 को दिया गया।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यदि अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में नौवाहन अधिकार पर कोई सीमाएँ न थीं। किंतु 15 वीं एवं 16 वीं शताब्दियों में महत्वपूर्ण सामुद्रिक अन्वेषणों के परिणामस्वरूप सामुद्रिक शक्ति से परिपूर्ण राज्यों ने मुक्त सागर के कई अंशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना आरंभ कर दिया। उदाहरण के रूप में स्पेन ने प्रशांत महासागर एवं मेक्सिको की खाड़ी पर, ग्रेट ब्रिटेन ने नेरो समुद्र तथा नॉर्थ सागर पर और पुर्तगाल ने हिंद महासागर पर अपना प्रभुत्व प्रतिपादित किया। अंतर्राष्ट्रीय विधि के प्रकांड पंडित ग्रोशियस ने इन दावों का प्रतिभापूर्ण शब्दों में खंडन किया। उनकी आपत्तियाँ निम्नलिखित दो सिद्धांतों पर आधारित थीं -

(1) विवृत सागर किसी भी राष्ट्रविशेष की संपदा नहीं हो सकता क्योंकि किसी राष्ट्र में यह क्षमता नहीं कि वह समुद्र को वास्तविक रूप में अधिकृत कर सके;

(2) प्रकृति किसी को भी इस विशेषाधिकार से सुसज्जित नहीं करती कि वह उन वस्तुओं को भी अपना सके जो सर्वप्रयोगार्थ एवं अनंत हैं।

ग्रोशियस के विचारों का स्थायी प्रभाव विधिविशेषज्ञों एवं विद्वानों पर पड़ा। इसके अतिरिक्त व्यावहारिक रूप में पारस्परिक हितों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रों को भी यह सिद्धांत उपयोगी सिद्ध हुआ। फलस्वरूप नियमित रूप से मुक्त सागर की स्वतंत्रता का सिद्धांत विकसित हो चला।

वर्तमान काल में मुक्त सागर की स्वतंत्रता के निम्नलिखित आशय हैं -


(1) मुक्त सागर किसी राज्यविशेष की प्रभुसत्ता के अधीनस्थ नहीं हो सकता;

(2) सब राष्ट्रों को पूर्णरूपेण मुक्त सागर में नौवाहन संचरण का अधिकार है। इससे कोई अंतर नहीं कि वे पोत युद्धपोत हैं, अथवा वाणिज्यपोत अथवा नागरिक या सार्वजनिक पोत;

(3) साधारणतया किसी भी राष्ट्र को यह अधिकार नहीं कि वह किसी अन्य पोत पर जो उसकी पताका न लहराते हों अपना क्षेत्राधिकार मुक्त सागर में उस पोत पर प्रतिपादित करे;

(4) कोई राष्ट्र साधारणतया उस जलयान पर क्षेत्राधिकार प्रतिपादित कर सकता है यदि वह जलयान ऐसी समुद्री पताका धारण किए हो जिसके कारण राष्ट्र को ऐसा अधिकार प्राप्त हो सके;

(5) हर राष्ट्र एवं उसके नागरिकों को यह अधिकार है कि वे मुक्त सागर में सबमेरीन तार तथा तैल की पाइपलाइन बिछा सके, मत्स्य उद्योग, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रयोगों के लिए;

(6) प्रत्येक वायुयान को मुक्त सागर के ऊपर उड़ान करने की पूर्ण स्वतंत्रता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि युद्धकाल में मुक्त सागर की स्वतंत्रता कुछ अंशों में नियमों द्वारा सीमित कर दी जाती है। फलत: युध्यमान राज्यों में कुछ विस्तार हो जाता है। उदाहरणार्थ युध्यमान राज्य को यह अधिकार है कि वह तटस्थ राज्यों के जलपोतों का निरीक्षण वा खोज (तलाशी) कर सके इस आशय से कि वे विनिषिद्ध सामग्री ले जाकर तटस्थता के नियमों की अवहेलना तो नहीं कर रहे हैं।

यह उल्लेखनीय है कि मुक्त सागर विषय की महत्ता नित्यप्रति नूतन वैज्ञानिक उपलब्धियों एवं अनुसंधानों के कारण बढ़ती जा रही है। बहुत से महत्वपूर्ण प्रश्न, जैसे समुद्रतल एवं महाद्वीपीय समुद्रतल से बहुमूल्य खनिज एवं मोती निकालने का विषय, मुक्त सागर के नीचे की भूमि को मुक्त सागर के समकक्ष मानने का विषय एवं परिमाणुक व थर्मोन्यूक्लियर प्रयोगों से संबंधित समस्याएँ अंतर्राष्ट्रीय विधिशास्त्रियों के संमुख समाधानार्थ उपस्थित हैं। [श्रद्धाकुमारी]

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संदर्भ
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