मूल अधिकार (fundamental rights)

Submitted by Hindi on Wed, 08/31/2011 - 16:13
मूल अधिकार (fundamental rights) प्रत्येक देश के लिखित अथवा अलिखित संविधान में नागरिक के मूल अधिकार को मान्यता दी गई है। ये मूल अधिकार नागरिक को निश्चात्मक (positive) रूप में प्राप्त हैं तथा राज्य की सार्वभौम सत्ता पर अंकुश लगाने के कारण नागरिक की दृष्टि से ऐसे अधिकार विषर्ययात्मक (negative) कहे जाते हैं। मूल अधिकार का एक दृष्टांत है 'राज्य नागरिकों के बीच परस्पर विभेद नहीं करेगा '। प्रत्येक देश के संविधान में इसकी मान्यता है।

इंग्लैड का संविधान अलिखित है। अत: उस देश में अमरीका की भाँति कोई कोड या संहिता नहीं बनी हुई है। पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि इंग्लैड के नागरिकों को मूल अधिकार प्राप्त नहीं हैं। इनके बिना गणतंत्र का कोई अधिकार ही नहीं रह जायगा। इंग्लैड में व्यक्तिगत अधिकार का आधार इस अर्थ में (negative) है कि किसी भी व्यक्ति को इस बात का अधिकार एवं स्वतंत्रता है कि जब तक वह देश के साधारण कानून का उल्लंघन न करे, वह कोई भी काम करने को स्वतंत्र है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता न्यायालय द्वारा (writs प्रादेशों) के जरिए सुरक्षित रहती है। किंतु इंग्लैड में यद्यपि न्यायालय सरकार की ज्यादती से नागरिकों की रक्षा करता है, तथपि उन्हें विधानमंडल के आघात से नहीं बचा सकता। अन्य शब्दों में हम कह सकते है कि इंग्लैड में मूल अधिकार की मान्यता संसद की मर्जी पर है, क्योंकि पार्लिमेंट सर्वोपरि होने के कारण आवश्यकता पड़ने पर मूल अधिकार में परिवर्तन कर सकती है या इसके अस्तित्व को ही समाप्त कर सकती है। अत: इंग्लैड में कोई अधिकार वास्तव में मूल अधिकार नहीं कहा जा सकता। मैगना कार्टा(magna carta) तथा बिल ऑव राइट्स (bill of rights) ने कॉमन लॉ की घोषणा की; किंतु ये कार्यपालिका (executive) पर लागू थे, पार्लिमेंट पर नहीं। इंग्लैड में न्यायालय की विधान (legsilation) की समीक्षा करने क अधिकार नहीं है। पर कार्यपालिका के विरूद्ध न्यायालय भी व्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा रक्षक है। (देखिए 'ईशुग्लियी बनाम नाइजीरिया सरकार (1931), 35 सी. डब्लू. एन., 755 पी. सी.)।

अमेरिका में नागरिक के मौलिक अधिकार की रक्षा न्यायालय के हाथ में है अर्थात्‌ न्यायालय विधान-निर्मातृ-परिषद से भी ऊपर है। अत: राज्य की सुरक्षा के नाम पर उस देश का विधानमंडल किसी नागरिक के व्यक्तिगत अधिकार का अपहरण नहीं कर सकता। (देखिए, थार्न हिल बनाम अलबामा (1940) 314, यू. एस. 252, 263)।

अमेरिका में विधान परिषद् के द्वारा साधारण रूप में नागरिक के मौलिक अधिकारों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। ऐसा परिवर्तन तभी संभव है, यदि देश के मौलिक विधान में परिवर्तन लाया जाय। किंतु ऐसा करने के लिये समस्त राज्यों की सहमति अनिवार्य है। आयरलैंड के संविधान (1937) में पार्लिमेंट एवं न्यायालय को परस्पर एक दूसरे के ऊपर न होने देकर एक मध्यम मार्ग अपनाया है।

भारत का संविधान लिखित है। ब्रिटिश पार्लिमेंट की प्रणाली के बहुतेरे सिद्धांत यद्यपि इसमें अंतर्भुक्त हैं, फिर भी इसने कानून बनाने के प्रसंग में पार्लिमेंट के एकनिष्ठ आधिपत्य को स्वीकार नहीं किया है। बल्कि इसमें अमरीकी विधान का प्रभाव परिलक्षित होता है। (देखिए, गोपालन बनाम स्टेट ऑव मद्रास 1950 एस. सी. आर. 88 (247) ) भारत के संविधान के तृतीय अव्याय में वर्णित धाराओं में व्यक्तिगत अधिकार की लिखित गारंटी और समाज के सामूहिक हित के मध्य स्पष्ट रूप से संतुलन लाने का प्रयास किया गया है। विधान की 14, 15, 17, 18, 20 एवं 24 धाराएँ राज की कार्यपालिका तथा विधायिका (executive and legislature) दोनों पर अनिवार्य रूप से लागू हैं। अत: भारत के न्यायालय उक्त अधिकारों की अवहेलना होने पर संबंधित कानून को अमान्य घोषित करने में सक्षम होंगे। किंतु धारा 21 ( जीवन एवं व्यक्तिगत स्वंतंत्रता ), धारा 22 द्वारा निर्धारित विकल्प को छोड़, पूर्णात: विधायिका (legislature) की परिधि के अंतर्गत है। ये अधिकार नागरिक को कार्यपालिका के विरूद्ध उपलब्ध होंगे, किंतु कानून द्वारा निर्धारित सीमा के अंदर ही।

संविधान की धारा 19 उन व्यक्तिगत अधिकारों की गांरटी देता है जिन्हें कार्यपालिका तथा विधायिका अनिवार्य रूप से मानने को बाध्य है; किंतु राज्य की सुरक्षा, सर्वजनिक शांति, समाज की नैतिकता इत्यादि कितने ही विकल्प हैं जो अधिकारियों को उपलब्ध हैं।

मौलिक अधिकार के प्रभेद


व्यक्तिगत समत-भारतीय संविधान के 14 वें अनुच्छेद में निर्देश किया गया है कि कानून के समक्ष सब व्यक्ति बराबर हैं तथा सभी को समान रूप से कानून का संरक्षण प्राप्त होगा। पर कानून के समक्ष समता का अर्थ यह नहीं कि सब लोग बराबर हैं। इसका अर्थ यह है कि जन्म, जाति, वर्ण आदि के कारणों से किसी को कानून के समक्ष विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होंगे एवं देश का साधारण कानून सबों पर एक समान लागू होगा। विधिवेत्ता जेनिंग्स के शब्दों में इसका अर्थ यह है कि वयस्क एवं साधारण ज्ञान के प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं अथवा अपने विरूद्ध मामला चलाने का अधिकार समान रूप से होगा तथा जाति, धर्म, धन, सामाजिक मर्यादा अथवा राजनीतिक प्रभाव के कारण् इस अधिकार में कोई परिवर्तन नहीं होगा किंतु प्रत्येक राज्य में इस सिद्धांत के कई विकल्प होते हैं, जो राष्ट्रों के पारस्परिक सौहार्द्र एवं राजनीतिक कारणों पर आधारित हैं। यथा, किसी देश का राजा या राजदूत दूसरे देश में जाने पर वहाँ के साधारण कानून से परे है।

विभेद-भारतीय संविधान के 15 वें अनुच्छेद में कहा गया है कि धर्म, जाति, वर्ण, जन्म आदि कारणों से राज्य नागरिकों में परस्पर विभेद नहीं करेगा तथा इन कारणों से कोई भी नागरिक साधारण सामाजिक अधिकार-यथा दूकान, होटल, सार्वजनिक कूप, घाट, सड़क धर्मशाला आदि, जो राज्य के द्रव्य से निर्मित हुए हैं या सर्वसाधारण के उपयोग के लिये उत्सर्ग किए गए हैं, के उपयोग से वंचित न होगा।

सार्वजनिक सेवा में समान अवसर-भारतीय संविधान के 16वें अनुच्छेद में निर्देश है कि राज्य द्वारा नियुक्ति में सभी नागरिकों को समान अवसर मिलेगा। कोई भी नागरिक धर्म वर्ण, जाति, लिंग आदि कारणों से सरकारी सेवा में नियुक्ति के लिये अनुपयुक्त नहीं होगा। चूँकि भारतीय संविधान के निर्माण के पहले हरिजन, अनुसूचित जाति एवं जन जाति के लोग ऐसी सुविधा से वंचित थे तथा शिक्षा की कमी के कारण निकट भविष्य में वे विकसित एवं शिक्षित वर्ग के समकक्ष न हो सकेंगे, अत: उक्त सिद्धांत के विकल्प के रूप में उन वर्गों के लिये आरक्षण (reservation) दिया गया है।

अस्पृश्यता निवारण- संविधान के 17वें अनुच्छेद के अनुसार अस्पृश्यता, किसी भी रूप में, त्याज्य मानी गई है एवं इससे उत्पन्न सामाजिक अक्षमता को अपरध माना गया है।

उपाधि-संविधान के 18वें अनुच्छेद के अनुसार सैनिक अथवा शैक्षणिक विशेषता के अतिरिक्त और किसी भी प्रसंग में राज्य द्वारा किसी नागरिक को कोई उपाधि नहीं दी जायगी। यह भी निर्देश दिया गया है कि भारत का कोई नागरिक किसी अन्य राष्ट्र से उपाधि ग्रहण नहीं करेगा1 कोई व्यक्ति, जो भारत का नागरिक नहीं है, किंतु राज्य के अंतर्गत किसी ऑफिस में नियुक्त होकर वेतन पा रहा है, वह भी राष्ट्रपति के आदेश के बिना किसी विदेशी राज्य से उपाधि नहीं लेगा। कोई व्यक्ति, (भारत का नागरिक हो या अन्य राष्ट्र का) जो राज्य के अंतर्गत किसी लाभवाले पद या न्यास पर प्रतिष्ठित है, राष्ट्रपति की अनुमति के बिना किसी दूसरे राज्य से कोई उपहार या उपाधि ग्रहण नहीं करेगा और न कोई पद ही लेगा।

संविधान के 19वें अनुच्छेद में प्रत्येग नागरिक को निम्नलिखित अधिकार दिए गए हैं:-


(1) भाषण करने एवं विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता।

(2) शांतिपूर्वक नि:शस्त्र होकर सभा में संमिलित होने की स्वतंत्रता।

(3) समिति अथवा संघ के निर्माण का अधिकार।

(4) निर्बाध गति से समस्त भारत में भ्रमण की स्वतंत्रता।

(5) भारत के किसी भी राज्य में रहने तथा आवास होने की स्वतंत्रता।

(6) संपत्ति का स्वतंत्रतापूर्वक क्रय विक्रय एवं संरक्षण।

(7) वाणिज्य का व्यवसाय की स्वतंत्रता।

उक्त अधिकार 'सप्त स्वातंत्रय ' के नाम से विदित है।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता सार्वजनिक हित में व्याघात न पहुँचाने पाये, इसलिये उक्त अनुच्छेद में विकल्प लगा दिए गए हैं कि राज्य सार्वजनिक हित में आवश्यकता पड़ने पर उन अधिकारों में समुचित प्रतिबंध लगा सकता है। इंग्लैंड में भी, जहाँ नागरिक के मौलिक अधिकार की वैधानिक गांरटी नहीं हैं, यही स्थिति है। किसी भी आधुनिक राज्य में परिपूर्ण अथवा निर्बाध वैयक्तिक अधिकार का अस्तित्व संभव नहीं है।(देखिए, लिभरसिज बनाम ऐंडरसन (1942) ए. सी. 206 (261) )।

अमरीका में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी के बावजूद उक्क्त प्रतिबंध है। (देखिए सिउक बनाम यूनाइटेड स्टेट्स (1919) 249 यू. एस. 47)

भारतीय संविधान ने भी स्वीकार किया है कि किसी व्यक्ति को अव्याहत (absolute) स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती, क्योंकि इससे समाज में अराजकता एवं अशांति फैल सकती है। इसी से दृष्टि से व्यक्ति स्वतंत्रता पर उपयुक्त हद तक अंकुश लगाने का अधिकार सरकार को दिया गया है। किंतु न्यायालय को भी इस बात का निर्णय देने का अधिकार है कि सरकार द्वारा लगाए प्रतिबंध कहाँ तक उपयुक्त हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यथोचित प्रतिबंध उस उद्देश्य के अनुपात में होना चाहिए, जिसे विधान सीाा ने अपना लक्ष्य बनाया है तथा उद्देश्य से अधिक नहीं होना चाहिए। (देखिए, सुबोध गोपाल बनाम बिहारी लाल (1951) 55, सी, डब्लू. एन. 433)।

निम्नलिखित विषयों के प्रसंग में राज्य बोलने तथा लिखने की वैयक्तिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगा सकता है:

(1) अपवचन (libel and slander) से व्यक्ति की रक्षा।

(2) अश्लीलता के प्रचार से समाज का बचाव।

(3) न्याय के मार्ग में अवरोध पर रोक।

(4) देश में आंतरिक अशांति अथवा स्थापित सरकार को बलात्‌ उलटने के विरूद्ध राष्ट्र की रक्षा।

(5) अपराध को प्रोत्साहन देने के लिये दंड।

(6) देश के बाहर के हमलों से राष्ट्र की सुरक्षा।

अन्यान्य राष्ट्रों के साथ भारत की मैत्री के विच्छेंद की चेष्टा एव न्यायालय की मानहानि के कारण भी राज्य वैकक्तिक स्वतत्रता में हस्तक्षेप कर सकता है।

पिकेटिंग- अमरीका में शांतिपूर्ण ढ़ग से पिकेटिंग करना, बोलने तथा विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता के अंतर्गत माना गया है। किंतु यदि पिकेटिंग में हिंसा को स्थान मिले, यह विद्वेष से किया जा रहा हो या इसका लक्ष्य अवैधानिक हो जाय तो पिकेटिंग का अधिकार लुप्त हो जाता है। भारत में इस विषय का कानून अभी निश्चित नहीं हो पाता है। पर ऐसा संभव दिखता है कि राज्य शांतिपूर्ण पिकेटिंग को भी अवैध घोषित कर देगा, यदि इससे शांति भंग होने की संभावना दीख पड़े या पिकेटिंग से अन्य लोगों के मौलिक अधिकार पर आघात पहुँचे।

सभा में एकत्र होने की स्वतंत्रता- अमरीका के विधान के प्रथम संशोधन में कहा गया है कि कांग्रेस कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगी जिससे शांतिपूर्वक सभा में इकट्ठा होने के जनाधिकार में कमी को जाय। इंग्लैड में भी प्रत्येक व्यक्ति को अन्य किसी भी व्यक्ति से मिलने तथा सभा में संमिलित होने की स्वतंत्रता है, यदि ऐसा करने में देश के कानून का उल्लंघन न होता हो।पबलिक ऑर्डर ऐक्ट, 1936 के अनुसार जनसाधारण की सभा या जूलूस में अवैध शस्त्र लेकर जाना मना है। भारतीय संविधान में परस्पर मिलने की स्वतंत्रता है, पर इस पर निम्नलिखित अंकुश लगाए गए है:

(1) बैठक शांतिपूर्ण हो।

(2) बैठक नि:शस्त्र हो।

एवं (3) बैठक जनहित की दृष्टि से अवांछित न हो।

संपत्ति- भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार की संपत्ति अर्जित करने का अधिकार है। उपार्जित संपत्ति को बेचने की भी उसे पूर्ण स्वतंत्रता है। राज्य को अधिकार है कि भिन्न भिन्न प्रकार की संपत्ति की परिभाषा करे। सर्वसाधारण एवं पिछड़े वर्ग के हित के लिये सरकार संपत्ति के हस्तांतरण पर यथोचित प्रतिबंध लगा सकती है।

व्यवसाय की स्वतंत्रता- व्यवसाय की स्वतंत्रता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका चुनने, व्यवसाय वाणिज्य करने की स्वतंत्रता रहे। राज्य केवल जनहित की दृष्टि से ही इस पर प्रतिबंध लगाए। किंतु अपनी मर्जी के अनुसार कोई जहाँ चाहे, वहाँ व्यवसाय नहीं कर सकता। किसी व्यक्ति को किसी व्यवसाय में एकाधिकार नहीं है। कचहरी में वकालत करने का स्वाभाविक या अखंड अधिकार किसी वकील को नहीं हैं। बार काउन्सिल के नियमों का वह कायल है। उसे लाइसेंस भी लेना पड़ता है।

भारतीय संविधान के 20वें अनुच्छेद में निर्देश है कि किसी को कानून द्वारा निश्चित अपराध के लिये ही दोषी घोषित किया जायगा एवं उस अपराध के लिये निर्धारित दंड से अधिक दंड उसे नहीं दिया जायगा। एक ही अपराध के लिये किसी पर दुबारा अभियोग नहीं लाया जायगा और न उसे दंडित किया जायगा। कोई भी अभियुक्त अपने विरूद्ध साक्ष्य देने को बाध्य नहीं होगा।

संविधान के 21वें अनुच्छेद में व्यक्ति के जीवन एवं उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और 22वें अनुच्छेद में किसी की गिरफ्तारी तथा स्वतंत्रता के अपहरण के विरूद्ध निर्देश दिया गया है। दासता तथा असहाय व्यक्तियों के शोषण पर भी रोक लगाई गई है। (देखिए अनुच्छेद 23,24) भारत धर्मनिपेक्ष राष्ट्र है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता है। केवल सार्वजनिक सुरक्षा, नैतिकता एवं जनस्वास्थ्य की दृष्टि से इस अधिकार पर किंचित्‌ अंकुश लगाया गया है।

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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