जल संरक्षण परम्पराओं की प्राचीन तकनीक में पूरी दुनिया में भारत का अपना स्थान है। भारत का हृदय - मध्य प्रदेश भी इस संदर्भ में देश में अपना अहम स्थान रखता है। प्रदेश के मालवा, निमाड़, ग्वालियर, चम्बल, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, महाकौशल और मध्य क्षेत्र में विविध परंपराओं की झलक दिखाई देती है। यहाँ प्रमुख तकनीकी में पहाड़ियों, किलों में जल प्रबंधन, बड़े तालाब, कुएँ, कुण्ड, बावड़ियाँ, बन्धन तो है ही लेकिन कुछ अद्भुत परम्पराएँ भी यहाँ आकर्षण का कारण है। लेकिन अफसोस की बात है कि एमपी में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं पानी परंपराओं के यह खजाने ..!!!
बुरहानपुर में सुरंग बनाकर जल संरक्षण की तकनीक थी जिसका मूल स्रोत पहाड़ियाँ रही हैं। खूनी भण्डारा की मिसाल दुनिया में केवल तेहरान में ही मिलती है। मध्य प्रदेश में कृत्रिम नदियाँ हैं। पानी के बाँध, बंधिया और हवेलियाँ भी हैं। यहाँ मालवा निमाड़ के आदिवासी क्षेत्रों में बिना किसी मोटर या इंजन के पानी को पहाड़ियों पर चढ़ाने की तकनीक ख्यात रही है। इसे पाट प्रणाली के नाम से जाना जाता है । पहाड़ों पर सरोवर बनाए जाते थे ताकि तलहटी में पानी की आवक सदा बनी रहे। यह दृश्य उज्जैन जिले के महिदपुर क्षेत्र के खजुरिया मंसूर ,टिकरिया तथा बड़नगर के पालसोडा से लेकर उमरिया के बांधवगढ़ तक में देखे जा सकते हैं । पन्ना में जल सुरंगें पाई जाती हैं।
पानी तकनीक और संरक्षण परम्पराओं में मध्य प्रदेश का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। स्कन्द पुराण, पानी तकनीक परम्पराओं का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। उज्जैन में ऐसी तकनीक रही है जहाँ वर्षा का पानी लम्बे समय तक शहर में संरक्षित रहता था। यहां सप्तसागर , कुए , बावड़ियां ,कुंडिया आदि से संपूर्ण जल प्रबंधन की परंपरा मौजूद रही है । उज्जैन के कालियादेह में तो अद्भुत पानी परंपरा है । यहां शिप्रा नदी को एक महल के दरमियान गुजारा गया है । उज्जैन की खूबसूरती का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी जमाने में यहां 9 नदियां बहती थी । अब पौराणिक नदी शिप्रा यहां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है ..!!
पानी का संचय करने के मामले में सदियों से मध्य प्रदेश का पुरातन समाज अनेक समृद्ध परम्पराओं को आजमाता रहा है। पहले जब अखबार, टीवी और रेडियो जैसे जनसंचार माध्यम नहीं हुआ करते थे, रियासत के राजा पानी संचय परम्परा को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष तरह के सिक्के जारी किया करते थे। इसमें तालाब, नहरें, मछलियाँ, खेती और वृक्ष चिन्हित रहते थे।
इसका मकसद साफ था- ‘समृद्धि और विकास के लिए पानी संचय हेतु वृक्ष लगाएँ और तालाब बनाएँ।’ उज्जैन जिले में क्षिप्रा नदी में 2300 से 2600 साल पुराने इस तरह के सिक्के अभी भी मिल रहे हैं।
दसवीं और ग्यारहवीं सदी के दरम्यान राजा भोज ने दीवारें बनाकर एशिया की सबसे बड़ी झील बना दी थी। आज के इंजीनियरों को भी अचम्भित करने वाली इस झील की क्षतिग्रस्त दीवारें अभी भी देखी जा सकती हैं।
प्रेम के खण्डहर माण्डव में पानी और समाज की कई प्रेम कहानियाँ आपको सदियों पुराने गीतों के साथ सुनाई देगी।आज का बहुचर्चित रूफ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम की तकनीक सैकड़ों साल पहले माण्डव के शासक आजमा चुके थे। म.प्र. का माण्डव तो जल संचय परम्पराओं की दुनिया में इसलिए भी अहम स्थान रखता है, क्योंकि तत्कालीन समाज ने आज के इस तथ्य को झुठला दिया था कि सभ्यताएँ नदी किनारे ही बसती हैं।
माण्डव में कोई नदी नहीं बहती है, लेकिन सात सौ सीढ़ी, रानी रूपमती का महल, जहाज महल, सूरज कुण्ड, मुंज सागर, तवेली महल, बाज बहादुर का महल, रेवाकुण्ड, सागर तालाब से लेकर तो नीलकंठेश्वर महादेव सहित जर्रा-जर्रा वर्षा जल को संचित करने की प्रेरणा देता है।
सदियों पुराने किले भी एक खास तरह की परम्परा के किरदार रहे हैं। भोपाल के पास बसे इस्लाम नगर के किले में एक अष्टकोणीय कुएँ से पहले पानी चड़स के माध्यम से ऊपर बने हौज में एकत्रित होता था। इसके बाद वह सुन्दर शैली में महल के बीच बने कुण्डों में ले जाया जाता था, जहाँ माण्डव व कालियादेह महल शैली की परम्पराओं के दर्शन होते हैं। इस किले की दूसरी विशेषता यह है कि सुरक्षा व जल संरक्षण की दृष्टि से यहाँ नहरें व बाँध बनाकर किले को चारों ओर से पानी से घेरा गया। इसे ‘कृत्रिम’ नदी भी कहा जा सकता है। बड़वानी जिले के सेंधवा और महिदपुर के किले में भी जल प्रबंधन की यह परंपरा रही है। महिदपुर में सीना ताने खड़े चोपड़े तो अकाल का भी मुकाबला कर चुके हैं ।
विदिशा के हैदरगढ़ में मोतिया तालाब में एकत्रित बूँदों को ढाई किलोमीटर के सफर के बाद किले में बने दो कुण्डों में एकत्रित किया जाता था। इन्हें डोयले कहते हैं। इसमें तत्कालीन समाज ने नहर प्रणाली का उपयोग किया था। इसी तरह उज्जैन के लेकोड़ा में एक हजार साल पुराने शृंखलाबद्ध तालाब आज भी मौजूद हैं। यह बुन्देलखण्ड के चन्देल राजाओं की शैली में तैयार किए गए थे।बौद्धकालीन साँची के स्तूपों में नाली संरचना के साथ पहाड़ी पर आई बूँदों को एकत्रित किया जाता रहा। बुरहानपुर के पास असीरगढ़ की पहाड़ी पर बने किले में भी तालाब में नालियों के माध्यम से पानी एकत्रित किया जाता रहा।
प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इन्दौर कभी बावड़ियों के शहर के रूप में पहचाना जाता था। यहाँ लगभग सौ बावड़ियाँ थीं। इस शहर में नदी को पाल बाँधकर रोका जाता था। यहाँ सिरपुर, बिलावली, पिपल्यापाला सहित अनेक तालाब जल प्रणाली के मूल रहे हैं। यहां बीच शहर से दो नदियां बहती थी । अंग्रेज इंदौर को पेरिस के नाम से पुकारते थे ।देवास में माता टेकरी पर आई बूँदों को देवी सागर, भवानी सागर, मेंढकी तालाब और मीरा तालाब में रोका जाता था। राजगढ़ के नरसिंहगढ़ की पहाड़ियों पर आए पानी को झील बनाकर रोका गया। यहां के कोटरा में तो गुफाओं के पीछे अदृश्य तालाब के किस्से आज भी सच लगते हैं। यहाँ के किला अमरगढ़ का गोमुख सदियों से पानी की अविरल धारा दे रहा है।
जबलपुर में पाटन क्षेत्र में पानी की हवेलियाँ आज भी देखी जा सकती हैं। यहाँ के रानी ताल, संग्राम सागर, गंगा सागर, भंवरताल, महानदी तालाब के साथ जुड़े किस्से आज भी यहाँ का समाज बड़े चाव से सुनता है। इस शहर में 52 तालाब हुआ करते थे, जो हमारे प्रदेश की समृद्ध रही पानी संचय परम्परा की श्रेष्ठ मिसाल है।ओरछा के बावन किले और बावन बावड़ियाँ तथा सागर, टीकमगढ़ और खजुराहो के तालाब की प्रसिद्धि को कौन नहीं जानता है। रीवा जिले में 6 हजार तालाब हुआ करते थे जिनमें से आज अनेक अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुके हैं। सतना, रीवा सहित विन्ध्य में पानी रोकने की संरचानाओं को बन्धिया और बाँध के नाम से जाना जाता है। सीधी जिले में मोघा बहुतायत में मिलते हैं। सतना जिले के गोरसरी में तो ढाई सौ साल पुरानी उस पानी परम्परा को आज भी देखा जा सकता है जिसे आज के पानी तकनीशियन रीज टू वैली के नाम से जानते हैं।
मध्य प्रदेश के प्रायः हर जिले में अनूठी पानी परंपरा मौजूद रही है । उनके अवशेष अभी देखे जा सकते हैं । कहीं-कहीं तो थोड़ा सा प्रयास करने पर उनका जीर्णोद्धार भी किया जा सकता है । जरूरत इस बात की है कि मध्य प्रदेश का जल संसाधन विभाग नोडल एजेंसी बनके हर जिले की पुरानी पानी परंपराओं का जायजा ले और उनके संरक्षण का अपने स्तर पर प्रयास करें ।