नौइंजीनियरी

Submitted by Hindi on Fri, 08/19/2011 - 10:49
नौइंजीनियरी नौकाओं के निर्माण तथा उनके संचालन की कला बहुत पुरानी है। इसकी चर्चा प्राचीनतम साहित्य में पाई जाती है।

इतिहास  यद्यपि आर्य जाति के प्राचीन ग्रंथों का एक बड़ा भाग लुप्त हो गया है, किंतु वेद पुराणादि जितने भी प्राचीन ग्रंथ इस समय उपलब्ध हैं उनके अध्ययन से सिद्ध होता है कि वैदिक काल में भी भारतीय लोग सदृढ़ जहाज बनाकर समुद्रपार के सुदूर देशों में व्यापार तथा दिग्विजय के लिए जाया करते थे। 'युक्तिकल्पत'रु नामक एक प्राचीन ग्रंथ में तो नौकाओं तथा जहाजों के दस दस भेद भी बताए गए हैं। भोजराज के समय में लिखित एक ग्रंथ में काष्ठों का वर्गीकरण करके बताया है कि नौकानिर्माण के लिए से काष्ठ अधिक उपयुक्त होंगे। महाभारत के आदि पर्व में विदुर द्वारा स्थापित एक नौका के लिए 'सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्‌' कहकर उसके यंत्रचालित होने का भी संकेत किया है।

यूरोपीय इतिहास से भी पता चलता है कि 18वीं शती के अंतिम भाग तक जहाज लकड़ियों को धातु की कीलों और पत्तियों से जोड़कर ही बनाए जाते थे और समुद्र में पालों की सहायता से हवा की शक्ति द्वारा संचालित किए जाते थे। 1784 ई. में जब जेम्स वॉट ने अपना द्विक्रियात्मक पंप इंजन बना लिया, तब वहाँ के लोगों का ध्यान जहाजों में वाष्प की शक्ति का प्रयोग करने की तरफ गया और क्रमश: उनका ढाँचा भी पूर्णतया इस्पात का बनाया गया। वस्तुत: नौकाओं पर इंजनों के प्रयोग के प्रयास तो 18वीं शती से ही होने लगे थे। वाष्पइंजनचालित नौकाओं का संक्षिप्त विकासक्रम निम्न प्रकार है :

1698 ई. में प्रोफेसर पॉपेन (Papain) और लाइपसिट्स (Leibnits) के बीच हुए एक पत्रव्यवहार से विदित होता है कि एक नौका में सेवरी (Savery) का पंप इंजन लगाकर उसके पैडल चक्र को पानी की धारा के बल से चलाने का प्रयत्न किया गया था। इस प्रयोग के समय प्रो. पॉपेन भी उपस्थित थे, लेकिन यह प्रयोग असफल रहा।

1707 ई. में स्वयं प्रो. पॉपेन ने मार्बर्ग में एक नौका पर सेवरी का पंप इंजन लगाकर सफलतापूर्वक उसका संचालन किया, लेकिन मल्लाहों ने इसका घोर विरोध किया और उस नौका पर आक्रमण भी किया, जिसमें पॉपेन की जान मुश्किल से बची।

1736 ई. में जॉनथैन हल्स (Jonathan Hulls) ने 'स्टीमटग' नामक नौका पर न्यूकोमेन (Newcomen) का वायुमंडलीय इंजन लगाकर, उसके पैडल चक्रों को रस्सों द्वारा घुमाने का प्रयत्न किया, लेकिन वह प्रयोग भी असफल रहा।

1783 ई. में फ्रांस के मॉर्क्विस ड जूफ्व्रा (Morquis de Jouffroy) ने 150 फुट लंबी तथा 16 फुट चौड़ी नौका पर वॉट का एक क्रियात्मक इंजन लगाकर उसके 14 फुट व्यास के पैडल चक्र को चलाया। लेकिन फ्रांस की सरकार से प्रोत्साहन न मिलने के कारण यह प्रयोग भी असफल रहा।

1787 ई. में फिलाडेल्फिया के जॉन फिच (John Fitch) ने नौका ने वॉट के एक क्रियात्मक इंजन द्वारा उसके पैडल को चलाकर तीन चार मील प्रति घंटे की गति से संचालन किया, लेकिन कई व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण वे असफल रहे। इसके पश्चात्‌ 1796 ई. में उन्होंने एक प्रकार का स्क्रूप्रोपेलर बनाकर वॉट के एकक्रियात्मक इंजन द्वारा नौका चलाने का प्रयत्न किया, लेकिन इंजन अनुपयुक्त होने के कारण प्रोपेलर को एक समान बल से गति नहीं मिली अत: यह प्रयोग भी असफल रहा। वास्तव में 1752 ई. में बेर्नूली (Bernoulli) ने ही स्क्रूप्रोपेलर का आविष्कार किया था, लेकिन उसे चलाने के लिए उपयुक्त प्रकार का इंजन न मिलने पर प्रयास असफल रहा।

1788 ई. में स्कॉटलैंड के मिलर (Miller), टेलर (Taylor), और साइमिंग्टन (Symington) नामक इंजीनियरों ने 25 फुट लंबी और 7 फुट चौड़ी नौका पर एकक्रियात्मक, चार इंच व्यास के सिलिंडरों से युक्त, दो इंजन लगाकर पैडल चक्र को चलाया, जिससे पाँच मील प्रति घंटा की रफ्तार भी प्राप्त की, लेकिन दोनों इंजनों का समकालन (synchronisation) ठीक न होने के कारण प्रयोग असफल रहा।

उपर्युक्त विवरण में हम देखते हैं कि 18वीं शताब्दी में इंजनों द्वारा नौकाओं को चलाने के जितने भी प्रयोग हुए, लगभग असफल रहे, क्योंकि इंजन की बनावट एकदिश क्रियात्मक होने के कारण उसकी चाल में स्थिरता नहीं आने पाती थी।

1801 ई. में साइमिंग्टन ने शारलॉट डंडैस (Charlotte Dundas) नामक नौका बनाकर उसे फोर्थ (Forth) और क्लाइड (Clyde) नहर में चलाया, जिसका पैडलचक्र वॉट के बनाए द्विक्रियात्मक इंजन से चलता था। यही सर्वप्रथम प्रयोग है, जो सफल समझा जाता है।

1807 ई. में न्यूयार्क के राबर्ट फुल्टन (Robert Fulton) ने क्लेरमाँ (Clermont) नामक नौका बनाई, जिसकी लंबाई 133 फुट, चौड़ाई 18 फुट और गहराई 9 फुट थी। इस पर बोल्टन और वॉट (Boulton and Watt) का बनाया एक द्विक्रियात्मक इंजन लगाया था, जिसके सिलिंडर का व्यास दो फुट और स्ट्रोक चार फुट था। पैडलचक्र के चलने पर नौका की गति पाँच मील प्रति घंटा हो जाती थी। यह प्रयोग भी सफल रहा।

1812 ई. में इंग्लैंड के हेनरी बुल (Henry Bull) ने अपने पूर्ववर्ती इंजनों के समस्त दोषों को सुधारकर, तीन अश्वशक्ति का द्विक्रियात्मक इंजन बनाया। इसे 30 टन भारी, 40 फुट लंबी और फुट चौड़ी कॉमेट नामक नौका पर लगाया। इस नौका ने ग्लासगो ओर ग्रीनक के बीच कई वर्षों तक यात्रियों के ले आने, ले जाने का काम किया। यह प्रयोग इतना सफल रहा कि 1814 ई. में इसी नमूने की पाँच नौकाएँ और बनीं, फिर उनकें कुद सुधारकर 1820 ई. में 20 नौकाएँ तैयार की गई। फिर तो इनकी बनावट तथा इंजनों में अनेक महत्वपूर्ण सुधार कर ग्लास्गो नगर के रॉबर्ट नेपियर ऐंड संस ने व्यापारिक ढंग एक से एक कारखाना खोलकर 1840 ई. तक 1,325 नौकाएँ बना डालीं। इनमें और भी अधिक सुधार कर अन्य कारखानेदारों ने 1888 ई. तक 1930 समुद्री जहाज तथा नौकाएँ बना लीं। आरंभ में इनपर जो पैडलचक्र लगाए जाते थे उनके त्रिज्यीय दिशा में स्थिर पैडल लगाए जाते थे; बाद में इन्हें सुधारकर पंखनुमा अस्थिर पैडल लगाए गए।

वॉट के द्विक्रियात्मक इंजन में भी कई ऐसे दोष थे जिनके कारण नौकासंचालन में बड़ी असुविधा होती थी। आरंभिक काल में स्टीफेंसन के वाल्व गतियंत्र का भी उपयोग हुआ, लेकिन जब ज्वायज़ (Joys) के वाल्व गतियंत्र का आविष्कार हुआ तो नौसंचालन के लिए इसका उपयोग बड़ा सुविधाजनक सिद्ध हुआ। नौकाओं पर जगह की कमी के कारण उपर्युक्त प्रकार के आड़े इंजन बड़े असुविधा जनक रहते थे, अत: लोगों ने कई प्रकार के खड़े इंजनों का भी आविष्कार किया। 1850 ई. तक इंग्लैंड में जितने भी जहाज या नौकाएँ बनीं उनके पैडलचक्रों को चलाने के लिए बगली लीवर युक्त इंजनों की ही प्रधानता थी, जो जहाजी कामों के लिए साधारण बीम इंजन के ही परिष्कृत रूप थे। इसके बाद, ग्रासहॉपर नामक एक विशेष प्रकार के बीम इंजन का आविष्कार हुआ, जो अपने पूर्ववर्त्ती आड़े इंजनों की अपेक्षा कम जगह घेरता था। इसके बाद 1827 ई. में उत्तरी अमरीका के रॉबर्ट स्टिवेंसन ने एक 'वॉकिंग बीम' नामक इंजन का निर्माण किया जिसके सिलिंडरों का व्यास इंच और स्ट्रोक 8 फुट था। इसका पैडलचक्र प्रति मिनट 24 चक्कर लगाता था।

1840 ई. में स्टपुल (Stuple) इंजन और 1885 ई. में डायगोनैल (Diagonal) इंजन का आविष्कार हुआ जो जहाजों पर बहुत ही कम जगह घेरते थे। डाइगनल इंजन में जाइस के वाष्प गतियंत्र का उपयोग होता था।

1850 ई. में दोलक (Oscillating) इंजन का आविष्कार हुआ, जिसका सिलिंडर स्थिर रहने के बदले दो चूलों पर झूमा करता था। इस इंजन ने इतनी सफलता दिखाई कि पुरानी नौकाओं पर, एक शताब्दी बाद, अब भी यह कभी कभी देखने को मिल जाता है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पेंन का ट्रंक इंजिन (Penn's Trunk Engine) और मूड्स्ले का रिटर्न कनेक्टिंग रॉड (Moudslay's Return Connecting Rod) इंजन का आविष्कार हुआ । आरंभ में तो इनसे पैडलचक्र ही चलाए जाते थे लेकिन इनकी अनुदैर्घ्य लंबाई इतनी छोटी और सुविधाजनक बन गई कि इन्हें नौकाओं पर आड़ा लगाकर स्क्रूप्रोपेलर भी बड़ी आने लगा। क्रमश: यह इंजन इतना विकसित हो गया कि इसके द्वारा 9,000 अश्व शक्ति तक प्राप्त की जाने लगी और यह संयोजी प्रकार (compound) के त्रिप्रसारीय भी बनने लगे।

वास्तव में इंजनों के संयुक्तीकरण का विचार जेम्स वॉट के दिमाग में भी था, लेकिन लंदन के ऑर्थर उल्फ (Arthur Woolf) ने 1804 ई. में अपने बनाए एक इंजन पर 40 पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब की वाष्प से ही सर्वप्रथम सफल प्रयोग किया। संयुक्तीकरण की इस प्रयुक्ति को डब्ल्यू. मैकनॉट (W. Mc Naught) ने 1845 ई. में और भी परिष्कृत किया। 1854 ई. में रैनडॉल्फ एवं एल्डर (Randolph and Elder) नामक अंग्रेजी जहाज निर्माता ने स्क्रूप्रोपेलर युक्त अपने ब्रैंडन (Brandon) नामक समुद्री जहाज पर संयुक्तीकरण का सफल प्रयोग किया जिसकी वाष्प दाब 22 पाउंड प्रति वर्ग इंच थी। इसके बाद 1870 ई. तक सभी जहाजों पर संयुक्त इंजन लगाए जाने लगे। इनकी वाष्प दाब 60 पाउंड प्रति वर्ग इंच तक होती थी।

1874 ई. में ए. सी. कर्क (A. C. Kirk) ने अपने स्क्रूप्रोपेलर युक्त प्रापूटिस (Propoutis) नामक जहाज पर त्रिप्रसार (triple expansion) इंजन लगाया, जिसके सिलिंडरों का व्यास क्रमश: 23 इंच, 41 इंच और 62 इंच था तथा उनका स्ट्रोक 42 इंच था। यह इंजन एक मानक प्रकार के जहाजी इंजन के रूप में समझा जाने लगा। 1880 ई. में इन इंजनों की वाष्प दाब 100 पाउंड प्रति वर्ग इंच, 1890 ई. में 160 पाउंड प्रति वर्ग इंच और 1900 ई. में 200 पाउंड प्रति वर्ग इंच तक बढ़ गई।

इधर अंतर्दहन इंजनों का प्रयोग नौकाओं पर आरंभ हो जाने के कारण और डीज़ल इंजन जहाजों पर सुविधाजनक सिद्ध हो जाने के कारण, वाष्प और अंतर्दहन इंजनों में प्रतिद्वंद्विता बढ़ने लगी। अत: वाष्प इंजनों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए, अल्पदाब सिलिंडर के आगे वाष्प टरबाइन लगाना आरंभ हो गया। 1894 ई. में ही टरबाइनों के आविष्कार पारसन्स ने स्क्रू प्रोपेलर युक्त एक जहाज पर स्वनिर्मित टरबाइन लगाया। इस जहाज की लंबाई 100 फुट, चौड़ाई 9 फुट और भार, टन था। इसका टरबाइन अकेले ही जहाज के स्क्रूप्रोपेलर को बड़ी दक्षता से चलाता था, लेकिन इसमें इंजन की अपेक्षा प्रति अश्व शक्ति अधिक वाष्प खर्च होता था। अत: अन्य बड़े जहाजों में खड़े त्रिप्रसार इंजनों की क्षमता बढ़ाने के लिए इंजन के सहायक रूप में ही टरबाइन, जिसमें अल्पदाब सिलिंडर से निकला हुआ वाष्प ही काम करता था, लगाया जाने लगा।

1914 ई. में 'ब्रिटैनिक' नामक जहाज में चार सिलिंडर युक्त, त्रिप्रसार इंजन लगाया गया, जिसके सिलिंडर क्रमश: 54 इंच, 84 इंच और 97 इंच व्यास के तथा 75 इंच स्ट्रोक युक्त थे और इसके बॉयलर की वाष्प दाब 230 पाउंड प्रति वर्ग इंच थी। इसके सिलिंडरों में 16,000 सूचित अश्व शक्ति (I. H. P.) उत्पादित कर तथा नोदक धुरों को 77 चक्कर प्रति मिनट चलाने के बाद, अल्प दाब सिलिंडरों से निकला हुआ वाष्प 9 पाउंड प्रति वर्ग इंच की दाब पर मध्यवर्ती एक पारसन्स टरबाइन को चलाता था, जिससे 18,000 धुरीय अश्व शक्ति (shaft horse power) 170 चक्कर प्रति मिनट पर प्राप्त हो जाती थी। 1930 ई. तक टरबाइनों में गियरबक्स (gear box) लगाकर प्रणोदित्र युक्त बड़े बड़े जहाजों को बिना इंजनों की सहायता से, केवल टरबाइनों द्वारा ही चलाया जाने लगा।

अब तो जहाजी बॉयलर भी इतने उन्नत हो गए हैं कि जलनालिका बायलरों से 575 पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब का वाष्प, जिसका ताप लगभग 3990 सें. होता है, 2,00,000 पाउंड प्रति घंटा तक प्राप्त किया जा सकता है (देखें बॉयलर)। आधुनिक जहाजी वाष्प इंजन भी अब इतने शक्तिशाली बनाए जाने लगे हैं कि उनके द्वारा चतुष्प्रसार क्रम के प्रत्येक सिलिंडर से 1,000 से लेकर 3,000 तक अश्वशक्ति प्राप्त की जा सकती है।

विंटरथर (Winterthur) की सुल्ज़र ब्रदर्स (Sulzer Brothers) नामक फर्म जहाजी उपयोगों के लिए इस प्रकार के डीजल इंजन बनाती है जिनकी प्रत्येक इकाई में 1,000 अश्व शक्ति उत्पन्न करनेवाले 10 सिलिंडर तक होते हैं। ये दोहरे स्ट्रोक की विधि से काम करते हैं (देखें डीज़ल इंजन)।

सं. ग्रं. सैमुएल स्माइल्ज : लाइब्ज़ ऑव इंजीनियर्स; प्रो. जैमिसन : स्टीम इंजन ऐंड बायलर्स; प्रो. थर्स्टन : हिस्ट्री ऑव स्टीम इंजन।

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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