नौनिवेश या गोदी

Submitted by Hindi on Fri, 08/19/2011 - 11:40
नौनिवेश या गोदी जहजों के ठहरने के स्थान को कहते हैं। यदि स्थान पूरी तरह घिरा हुआ नहीं है, बल्कि उसका मुख समुद्र से आने जाने के लिए सदा खुला रहता है, तो उसके लिए 'बेसिन' नाम अधिक उपयुक्त है, यद्यपि यह नाम सर्वव्यापी नहीं है। गोदियों के मुख पर फाटक या कोठियाँ लगी होती हैं, जिससे उनमें यथेच्छ तल तक पानी रखा जा सके। जिस गोदी में पानी प्राय: एक ही तल तक रहता है, वह सजल गोदी कहलाती है तथा जिस गोदी में से पानी बिलकुल खाली किया जा सकता है, वह सूखी गोदी कहलाती है। सूखी गोदी में जहाज निरीक्षण करने या मरम्मत करने के लिए लाए जाते हैं। सूखी गोदी का ही एक रूप तिरती गोदी है। यह तैरते हुए बड़े बड़े पीपों की संरचना होती है, जो भीतर पानी भरकर, या खाली करके, नीची या ऊँची की जा सकती है और जहाज उसपर रखकर पानी के ऊपर उठाया जा सकता है।

जिन पत्तनों में प्रकृतिप्रदत्त सुरक्षित और गहरा विशाल बेसिन होता है, ज्वारभाटा कम आता है और समुद्र में तेज धाराएँ नहीं होतीं, वहाँ सजल गोदी की आवश्यकता नहीं होती, जैसे न्यूयॉर्क में। किंतु सूखी या तिरती गोदी सभी बड़े आधुनिक पत्तनों का अनिवार्य अंग होती है।

सजल गोदी- समुद्रतट या नदीतट पर प्राकृतिक या गहरी खोदी हुई उपखाड़ी होती है, जिसके किनारे जहाजों में माल लादने या उतारने के लिए पक्के घाट या प्लैटफार्म बने होते हैं। यदि ये तट के समांतर होते है, तो पार्श्वघाट या धक्का कहलाते हैं। और यदि जल में प्रवेश करते हुए तट के लंबवत्‌अथवा अन्य किसी कोण पर बने होते हैं, तो पाए कहलाते हैं। घाट, धक्के या पाए सजल गोदी के मुख्य अंग हैं। कभी कभी तिरते घाट भी बनाए जाते हैं, जो ज्वार भाटे के साथ ऊँचे नीचे हो सकते हैं। ये चल पुलों द्वारा अचल घाटों से जुड़े रहते हैं।

गोदी की दीवारें बहुत मजबूत बनाई जाती हैं। ये प्राय: (1) धन कंक्रीट की, (2) अखंड कंक्रीट की, (3) संपीडित वायु द्वारा गलाई गई कोठियों की, (4) प्रबलित कंक्रीट में पेंदायुक्त ढोलों की, या (5) स्थूणों, ढोलों आदि की मिश्रित दीवारें होती हैं। इनके ऊपर प्राय: ग्रैनाइट की शीर्षिका (coping) अवश्य रहती है। आजकल जहाज प्राय: बक्सनुमा बनते हैं। उनकी दीवारें सीधी खड़ी रहती हैं या कभी कभी ऊपर की ओर भीतर को झुकी रहती हैं। इसलिए घाट की दीवारें सामने की ओर बिल्कुल खड़ी या लगभग खड़ी बनाई जाती हैं, ताकि जहाज घाट के बिल्कुल पास तक आ सकें और नौभार चढ़ाने उतारनेवाली क्रेनों की पहुँच के भीतर हो सके।

दीवारें पुश्तों की भाँति बनाई जाती हैं, जिनकी पीछे की सतह ढालू या सीढ़ीदार रहती है। इनकी नीवें काफी चौड़ी होती हैं, ताकि नीचे मिट्टी पर उसकी क्षमता से अधिक भार न पड़े। नींव पीछे की ओर कुछ ढालू भी रखी जाती है, ताकि भराई का दबाव पड़ने पर दीवार की ओर खिसक न जाए। दीवार के अचल भार तथा पीछे की भराई की ठेल का ध्यान रखकर दीवारों का अभिकल्पन किया जाता है। इनकी औसत मोटाई, ऊँचाई की चौथाई से कम नहीं होती, प्राय: एक तिहाई रखी जाती है। आधार पर चौड़ाई ऊँचाई की आधी से लेकर दो तिहाई तक होती है। दीवार में लगभग 50-50 फुट पर जलछिद्र रखे जाते हैं, ताकि जब सामने पानी का तल नीचा हो तब पीछे का पानी निकल सके।

गोदीद्वार तथा जलपाश  जहाँ ज्वार भाटा बहुत ऊँचा (15 से अधिक) आता है, वहाँ बड़े बड़े बेसिन घेरकर प्राय: बंद कर लिए जाते हैं और पानी एक ही तल पर बनाए रखने के लिए बड़े बड़े फाटक लगा दिए जाते हैं। ज्वार के बाद जब भाटा आरंभ होता है, तब ये फाटक बंद कर दिए जाते हैं, जिससे गोदी में पानी ऊँचा रह जाता है। इस प्रकार की गोदियां, 'बंद गोदियाँ कहलाती हैं। प्रवेशद्वारा के फाटक में दो पल्ले होते हैं, जो बंद होने पर एक उठी हुई देहल के ऊपर परस्पर मिल जाते हैं। द्वार काफी लंबा होता है। इसकी दीवारों में चौड़े चौड़े खाँचे होते हैं, जिसमें पल्ले खुलकर घुस जाते हैं। जब फाटक बंद होता है, तब उसपर पड़नेवाली पानी की ठेल रोकने के लिए भी दीवारें पुश्तों का काम करती हैं।

ये फाटक केवल थोड़े समय के लिए ही, अर्थात्‌ जब ज्वार आता है तभी, खोले जा सकते हैं। इसलिए सीमित आवागमन ही हो सकता है। इच्छानुसार आवागमन संभव के लिए द्वारा बहुत लंबा बनाया जाता है और इसके दोनों सिरों पर फाटक लगाए जाते हैं। इससे बीच में एक जलपाश बन जाता है  उसी प्रकार का जैसा नहरों में झीलों के निकट यातायात के लिए होता है। जलपाश महँगे तो होते हैं और द्वार की अपेक्षा जगह भी घेरते हैं, किंतु दिन रात काम आ सकते हैं। इसलिए आधुनिक बड़े पत्तनों में प्राय: ये ही बनाए जाते हैं। इनमें इकहरे फाटक यदि होते भी हैं, तो केवल सहायक द्वार्रों के रूप में ही।

जलपाश का पानी ऊँचा या नीचा करने के लिए बगली दीवारों में बड़े बड़े जलकपाट (sluice gates) या पुलियाँ होती हैं। आधुनिक बड़े जलपाशों में प्राय: बीच में भी एक फाटक होता है, जिससे जलपाश के दो भाग किए जा सकते हैं और उनमें छोटे छोटे जहाज रखे जा सकते हैं। जहाँ प्रवेशद्वारा पर बहुत ही ऊँचा ज्वार आता है या भीषण लहरें उठती हैं, वहाँ फाटकों की रक्षा के लिए उनसे विपरीत दिशा में खुलनेवाला एक फाटक बाहर की ओर लगा दिया जाता है। यह तूफानी फाटक कहलाता है।

गोदी के फाटक लकड़ी या इस्पात के होते हैं। हरितहृत्‌ (greenheart), जर्रह, या अन्य भारी और कठोर लकड़ी इनमें लगाई जाती है। लोहे पर खारे पानी का बुरा प्रभाव पड़ता है और यदि उसमें मलजल मिला हो, तो और भी अधिक। इसलिए इस्पात के फाटक लगभग 30 वर्ष ही चलते हैं, जबकि लकड़ी के लगभग 50 वर्षों तक चल जाते हैं। लकड़ी के फाटकों का भार भी कम होता है। लिवरपूल गोदी का फाटक 90 फुट चौड़ा और फुट ऊँचा है। इसका हरिहृत्‌ का एक पल्ला वजन में केवल 165 टन है, जबकि लंदन के 80 फुट चौड़े, फुट ऊँचे फाटक का इस्पात का एक पल्ला 185 टन का है। लकड़ी के फाटकों की लागत इस्पात के फाटकों की अपेक्षा लगभग 50 प्रतिशत अधिक होती है :

द्वारकोठियों या कैसन  ये फाटकों से अच्छे समझे जाते हैं, क्योंकि इनको स्थान देने के लिए दीवारों में बड़े बड़े खाँचे रखने की आवश्यकता नहीं रहती। कोठियों में बगल में और नीचे की ओर हरितहृत्‌ का संपर्कपृष्ठ बना होता है, जिसपर रबर लगा होता है ताकि द्वार में ठीक फिट होकर यह पानी रोक दे। आवश्यकतानुसार इनका भार कम ज्यादा करने के लिए इनके भीतर पानी की टंकियाँ बनी रहती हैं औैर उन्हें या खाली करने के लिए पंप, वाल्व आदि लगे रहते हैं। द्वारकोठियाँ दो प्रकार की होती हैं :

(1) तिरती कोठियाँ- ये चौकोर भी हो सकती हैं, किंतु अधिकतर जहाजों की आकृति जैसी होती हैं। इनमें कोई निर्दिष्ट चालन व्यवस्था नहीं होती, बल्कि तैराकर यथास्थान ले जाई जाती हैं। क्षुब्घ मौसम में, या तीव्र धारा में, इन्हें सँभालना आसान नहीं होता।

(2) पारगामी कोठियाँ- ये चौकोर होती हैं और निर्दिष्ट चालनव्यवस्था के अनुसार दो प्रकार की होती हैं  सरकनेवाली कोठियों में लकड़ी के गुटके लगे रहते हैं, जिनके बल वे चिनाई के ऊपर बने रास्ते पर खिसकाकर यथास्थान पहुँचाई जाती हैं। दूसरे प्रकार की पहिएवाली कोठियाँ होती हैं, जो देहल पर लगी पटरियों पर चलती हैं। कभी पहिए फर्श पर और पटरियाँ कोठियों में लगी होती है। पारगामी कोठियाँ जब द्वार खोलने के लिए खिसकाई जाती हैं, तब वे दीवार के भीतर बनी लंबी लंबी झिर्रियों में घुस जाती हैं।

सूखी गोदियों में एक या अधिक जहाज अंदर लाकर, फाटक बंद करके पंपों द्वारा पानी निकाल देने का प्रबंध रहता है। इसकी दीवारों और पेंदे पर जलाभेद्य पदार्थ, जैसे कंक्रीट-सहित ईंट की चिनाई या ग्रैनाइट मुखाई, का अस्तर किया रहता है। जहाँ ऊँचे ज्वार भाटे आया करते हैं, वहाँ कभी कभी उनका लाभ उठाकर ज्वार के समय जहाज अंदर ले आते हैं, और भाटे के बाद फाटक बंद कर देते हैं। इस प्रकार पंप द्वारा पानी निकालने की आवश्यकता नहीं रहती।

जहाजों के निर्माण, निरीक्षण और मरम्मत आदि के लिए सूखी गोदियाँ सभी जगह आवश्यक समझी जाती हैं और इनके अभिकल्प के समय भावी विस्तार की गुंजाइश भी रखी जाती है। सूखी गोदी की उपयोगिता इस दृष्टि से आँकी जाती है कि उसमें लंबे से लंबा कितना बड़ा जहाज आ सकता है। बंबई की गोदी, जो सन्‌ 1914 में चालू हुई, 1,000 फुट लंबी, 100 फुट चौड़ी और 34 फुट 9 इंच गहरी है। यह उस समय संसार की गोदियों में दूसरे नंबर पर थी। इसके पहले ही सन्‌ 1913 में, लिवरपूल की 1,050 फुट 4 इंच लंबी, 12 फुट चौड़ी और 43 फुट 11 इंच गहरी, ग्लैड्स्टन गोदी तैयार हो चुकी थी। अब केपटाउन की 1,212 फुट 6 इंच लंबी, 148 फुट चौड़ी और 45 फुट गहरी सूखी गोदी, जो सन्‌ 1945 में चालू हुई है, संसार में सबसे बड़ी है।

तिरती गोदियों को उठाने की सामर्थ्य 300 टन से 1,00,000 टन तक होती है। द्वितीय विश्वमहायुद्ध के पहले कैंपबेल डिज़ाइन बहुत प्रचलित थी, जिसके अनुसार सदैंप्टन में विशालतम अटलांटिक लाइनरों (liners) और युद्धपोतों को स्थान देने के लिए 60,000 टन की तिरती गोदी बनी। बाद में तो और भी बड़ी बड़ी गोदियों की आवश्यकता का अनुभव हुआ। पोर्टस्मथ की 54,000 टन की 'ऐडमिरेल्टी'' तिरती गोदी 859 फुट 6 इंच लंबी और भीतर भीतर 129 फुट 6 इंच चौड़ी है। यह पानी में 38 फुट डूबनेवाला जहाज उठा सकती है। द्वितीय विश्वयुद्ध में बमनवर्षा द्वारा नष्ट हुई सिंगापुर की गोदी का स्थान लेने के लिए 50,000 टन की 857 फुट 8 इंच लंबी, 126 फुट 6 इंच चौड़ी और कुल 40 फुट गहरी गोदी बंबई में 1947 ई. में तैयार की गई, जो बाद में माल्टा पहुँचाई गई।

तिरती गोदियाँ बड़ी सरलता और तेजी से तैयार की जा सकती हैं, स्थानांतरित की जा सकती हैं और स्थितविशेष के अनुकूल ढाली जा सकती हैं। इसलिए ये जहाजों की आपत्कालीन मरम्मत के लिए सुखी गोदियों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान्‌ होती हैं। किंतु लोहे या इस्पात की होने के कारण ये 30-40 वर्ष से अधिक नहीं चलतीं। इनके लिए सुरक्षित स्थान भी चाहिए और अधिक गहराई भी। जहाँ 500 फुट लंबे, 55 फुट चौड़े और 28 फुट डूबकर चलनेवाले जहाज के लिए 520 फुट लंबी, 60 फुट चौड़ी और 30 फुट गहरी सूखी गोदी पर्याप्त होगी, वहाँ तिरती गोदी जहाज के नीचे जाने के लिए 20 फुट गहराई और लेगी; और यदि 15-20 फुट ऊँचा ज्वार भाटा आता है (जो बहुत सामान्य है), तो तिरती गोदी के लिए लगभग 70 फुट गहरा पानी चाहिए। यदि कुदरती गहराई इतनी नहीं है, तो तलकर्षण द्वारा इतनी करनी पड़ेगी। सामान्य परिस्थितियों में यह कठिन ही नहीं, प्राय: असंभव है। हाँ, तिरती गोदी की लंबाई चौड़ाई जाहज की लंबाई चौड़ाई से अधिक होनी अनिवार्य नहीं है, केवल उसकी उत्थापन क्षमता जहाज के वजन से अधिक होनी चाहिए।

तिरती गोदियाँ कई प्रकार की होती हैं। कुछ में दोनों और दीवारें होती हैं, कुछ में केवल एक और। दोनों और दीवारवाली गोदियों में बक्से जैसी, काबला-योज्य खंडोंवाली और पीपा खंडों वाली (रेनी द्वारा आविष्कृत) गोदियों का बहुत प्रचलन है। काबलायोज्य खंडोंवाली आधुनिक गोदी में बक्स जैसी गोदी के सभी गुण हैं।

यह बड़ी गोदियों में सबसे अच्छी होती है। इसमें लगभग एक सी लंबाई के तीन खंड होते हैं, जो सब एक सीध में जोड़े जा सकते हैं, रखे जाते हैं, और उनपर दोनों ओर दो दीवारें काबलों द्वारा कस दी जाती हैं। इनमें कुछ पीपे निकालकर, शेष पीपों के ऊपर दीवारों के बीच लंबाई की दिशा में रखे जा सकते हैं। हवाना की स्पेनी सरकार के लिए सर्वप्रथम बनाई गई, हवाना प्रकार की गोदी में दो खड़ी दीवारें होती हैं, जिनके बीच में पीपे रखकर काबलों से जोड़ दिए जाते हैं। इनमें से कोई भी पीपा निकालकर शेष के ऊपर रखा जा सकता है। यह टाइप अब प्राचीन हो गई है।

एक ओर दीवारवाली गोदी की दो किस्में प्रसिद्ध हैं। अपतट गोदी 1884 ई. में पेटेंट हुई थी। इसकी दीवार तट के के साथ कब्जे लगे गडंरों द्वारा जुड़ी होती है। गोदी दो खंडों में होती है और एक खंड दूसरे के ऊपर रखा जा सकता है। एक ही ओर दीवार होने के कारण इसमें जहाज तीन ओर से चढ़ाए जा सकते हैं। दूसरी किस्म की गोदी निक्षेप गोदी कहलाती है, जो सन्‌ 1877 में पेटेंट हुई थी। इसमें दीवार तो लंबी होती है, किंतु नीचे पीपों के बीच बीच जगह रहती है, अर्थात्‌ दीवार में पीपे इस प्रकार लगे होते हैं जैसे हाथ में उँगलियाँ। इन पीपों पर रखा हुआ जहाज तट पर बने हुए स्थूणों के जंगले के ऊपर रखा जा सकता है और गोदी खाली की जा सकती है। यह भी दो खंडों में होती है, जो एक दूसरे के ऊपर रखे जा सकते हैं। स्थिरता के लिए ये खंड कब्जों से लगे समांतर दंडों के द्वारा एक तिरती उलड़ी, या रोकलीवर, से जुड़े रहते हैं।

गोदी उपकरण- ये पोत परिवहन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। आधुनिक पत्तनों में इनकी पर्याप्त व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। इनका उद्देश्य यह है कि समुद्र से आसानी से पोत आ जा सकें, उन्हें पर्याप्त तथा सुरक्षित घाट मिले, नौभार तेजी से चढ़ाने उतारने की सुविधा हो, घाटों पर नौभार लाने और वहाँ से ले जाने की तथा आवश्यकता हो तो उसे गोदाम में रखने की, समुचित व्यवस्था हो। इन सुविधाओं में सुधार कर देने से प्राय: गोदियों के विस्तार में होनेवाला बहुत सा खर्च बचाया जा सकता है।

नौभार से निपटने की विधियाँ विभिनन पत्तनों में भिन्न भिन्न होती हैं। कहीं पर माल घाट पर उतारकर सीधे रेलगाड़ियों में, या अन्य गाड़ियों में, लाद दिया जाता है। कहीं पर बड़े जहाजों से माल छोटे जहाजों पर उतार लिया जाता है। कहीं कहीं ये दोनों तरीके अपनाए जाते हैं।

सामान्य नौभार के लिए प्राय: प्रत्येक निकास स्थल पर तीन तीन टन के एक एक डॉक क्रेन लगाए जाते हैं। अधिकांश गट्ठरों का औसत वजन प्राय: 30 हंडरवेट होता है। इससे भारी बोझ उठाने के लिए 10 से 20 टन क्षमतावाले तिरते क्रेन का प्रयोग करना अच्छा रहता है। लगभग 2,000 टन सामान्य नौभार प्रति दिन उठाने की व्यवस्था अच्छी समझी जाती है।

प्रशासन - पत्तनों का प्रशासन भी विविध प्रकार का होता है। फ्रांस और इटली में पत्तन राज्यनियंत्रित होते हैं। लंदन, लिवरपूल, ग्लासगो और न्यूयॉर्क के पत्तनों में स्वायत्तशासन व्यवस्था है। ग्रेट ब्रिटेन के बहुतेरे पत्तन पहले रेलवे के नियंत्रण में थे। ब्रिस्टल, ऐंटवर्प, फिलाडेल्फिया और बाल्टिमोर में पत्तनों पर नगरपालिकाओं या महापालिकाओं का नियंत्रण है। अनेक अप्रधान पत्तनों में निजी नियंत्रण ही है।

नियंत्रण अधिकारी कोई भी हो काम सबका एक सा ही है, अर्थात्‌ गोदी संरचनाओं और मशीनों का निर्माण और मरम्मत कराना, पहुँच मार्ग की खुदाई तथा सफाई कराना, भग्नपोत निकालना, प्रकाश की व्यवस्था करना, कुलियों और छोटे जहाजवालों को लाइसेंस देना, गोदी कर्मचारियों पर नियंत्रण रखना, महसूल भाड़ा आदि नियत करना तथा वसूली करना और पुलिस रखना आदि। सामान्य प्रशासन के लिए बहुधा एक बोर्ड बना दिया जाता है, जो अलग-अलग कामों के लिए अलग-अलग समितियाँ नियुक्त कर देता है। पत्तन का सारा संचालन एक गोदी प्रबंधक के अधीन होता है। इसके पास पर्याप्त कर्मचारी होते हैं, जिनमें एक मुख्य इंजीनियर, एक शाहबंदर (harbour master), यातायात प्रबंधक और इनके अधीनस्थ विभागों के कर्मचारी होते हैं।

पत्तन संचालन के लिए राजस्व, वहाँ संरक्षण और स्थान पानेवाले पोतों से महसूल और प्रभार आदि के रूप में वसूल किया जाता है। ये प्रभार अनेक प्रकार के हो सकते हैं, किंतु ये सब प्राय: पोतों के पंजीकृत टनमान के आधार पर ही निर्धारित किए जाते हैं।(विश्वंभरप्रसाद गुप्त)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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