नौशक्ति संयंत्र तथा उपसाधित्र

Submitted by Hindi on Fri, 08/19/2011 - 11:25
नौशक्ति संयंत्र तथा उपसाधित्र (Marine power plants and accessories) इंजन चालित जहाजों के आरंभिक काल में सभी नौकाएँ पैडल चक्रों द्वारा ही चलाई जाती थीं, लेकिन प्रणोदित्र (propeller) का आविष्कार हो जाने के बाद से समुद्री जहाजों में पैडलचक्रों का प्रयोग बंद हो गया, फिर भी नदियों में चलनेवाली नौकाओं में अब भी इनका प्रयोग होता है। लकड़ी के प्लवों (floats) की बनावट के अनुसार पैडलचक्र दो प्रकार के होते हैं : (1) अरीय प्लव (स्थिर पैडल) युक्त चक्र और (2) पंखनुमा चल प्लव (अस्थिर पैडल) युक्त चक्र (चित्र 10 और 11) अरीय प्लव तो चक्र की परिधि के ऊपर त्रैज्य दिशा में पक्के कसे होते हैं। इन्हें कसने की तरकीब चित्र के कोने पर दिखाई है। पंखनुमा प्लव अपनी चूल पर थोड़ा घूमकर आवश्यकतानुसार तिरछे भी हो जाते हैं। अरीय प्लर्वों में यह दोष है कि पानी से ऊपर उठते समय वे कुछ पानी अपने साथ भी ले जाते हैं, जिसे उठाने में इंजन की शक्ति का थोड़ा अपव्यय होता है। दूसरा दोष यह है कि पैडल चक्र के चक्कर के केवल थोड़े से भाग में वे लगभग ऊर्ध्वाधर स्थिति में रह पाते हैं। इसमें ही वे पानी पर अच्छी ताकत लगा सकते हैं। पंखनुमा प्लव अपने त्रैज्य संयोजक दंडों की सहायता से, जो चक्र के वक्ष से संबंधित रहते हैं, आवश्यकतानुसार अपनी चूल पर घूमकर अपने कोण को बदलकर, जब तक वे पानी में रहते हैं उसपर पूरा दबाव डालते हैं। बाहर निकलने पर वे अपने साथ अधिक पानी भी नहीं उठाते।

पैडल चक्रों को चलानेवाले इंजन  पैडल चक्रों को चलानेवाले घुरे नौकाओं के बच भाग में आड़े लगाए जाते हैं और नौका के मध्य में दो इंजन इस प्रकार लगाए जाते हैं कि यदि चाहें तो दोनों इंजन मिलकर दोनों ही पैडलचक्रों को एक साथ चलाएँ और चाहें तो असंबद्ध होकर केवल अपने अपने ही पैडलचक्र को यथेच्छा, एक आगे और दूसरा पीछे की तरफ चलाकर, आवश्यकतानुसार नौका की दिशा को बदल दें या पैतरा बदली करें। ऐसा कर सकने के लिए दोनों इंजनों के धुरों बीच में जहाँ मिलते हैं, वहाँ एक धुरे के सिरे को पनालीदार (w) (splined) बनाकर उसपर सरकती हुई, चालक चर्खी (sheave) लगा देते हैं। जब दोनों को एक साथ चलाना होता है तब वह चर्खी सरककर दूसरे धुरे पर बनी एक क्रैंक पिन में फँस जाती है। यह प्रयुक्ति चित्र 12. में स्पष्ट दिखाई है। पैडल चक्रों की छोटी नौकाओं को चलाने के लिए खड़े इंजन तो अपने झोंके के कारण अनुपयुक्त होते ही है और आड़े इंजन बहुत जगह घेरते हैं; अत: इनके लिए 19वीं शताब्दी में कई विशेष प्रकार के इंजन बनाए गए थे, जो ऊँचे भी नहीं थी और अधिक जगह भी नहीं घेरते थे। इन इंजनों में स्टपुल इंजन (Stuple engine), डायैगोनैल इंजन (Diagonal engine), औसिलेटिंग इंजन (Oscillating engine), पेन का ट्रंक इंजन (Penn's Trunk engine) और माउड्स्ले का रिटर्न कनेक्टिंर्ग रॉड इंजन (Moudslay's Return Connecting Rod Engine) मुख्य हैं (देखें भाप इंजन)।

पेंच प्रणेदित्र के सिद्धांत और क्रिया (Principles and action of screw propeller)  आधुनिक जहाजों को चलाने के लिए उनके पिछले सिरे पर जो पंखेनुमा यंत्र लगाया जाता है उसे प्रणोदित्र अथवा प्रणोदी पेंच कहते हैं। इसकी आकृति पंखेनुमा दिखाई देती हैं, लेकिन क्रिया ठीक चूड़ीदार पेंच के समान ही होती है। यह पंखेनुमा पेंच समुद्र के पानी में चूड़ी सी काटता हुआ जहाज को लेकर आगे बढ़ जाता है।

प्रणोदित्र दिखाया है। पेंच के ऊपर तो हमें चूड़ियों की पूरी वेष्ठनें दिखाई पड़ती हैं, लेकिन इन पंखों में नहीं दिखाई पड़तीं, क्योंकि प्रत्येक पंखुड़ी, एक बहुत बड़े (pitch) पिचवाले अभिकल्पित पेंच की पतली सी अंगोडी (slice) की एक त्रैज्य फाँक हैं। साधारण पेंच में जैसे जैसे चूड़ी की गलियों की संख्या बढ़ती हैं उसकी लीड (lead) की लंबाई भी उसी अनुपात से बढ़ जाती है। प्रणोदित्र की पंखुड़ियों का वक्र भी एक बहुत बड़ी लीड में फिट होता हुआ बनाते हैं। अत: यदि कोई पंखा छोटी लीड का है तो उसे लंबे फासले को तय करने के लिए अधिक चक्कर लगाने पड़ेंगे और यदि वह बड़े लीड का है तो वह कम चक्करों में ही उस फासले को तय कर सकता है। जिस प्रकार ठोस पेंच और लीड के हिसाब से चक्कर लगाने पर एक निश्चित फासला तय कर लेता है, पानी में चलनेवाला यह पंखेनुमा पेंच वैसा ही नहीं कर सकता, क्योंकि पानी तरल पदार्थ होने के कारण इधर उधर वह जाता है। इस प्रकार जहाज की चाल में जो कमी आ जाती है उसे प्रणोदित्र का सर्पण या सरक (slip) कहते हैं।

सर्वप्रथम जब प्रणोदित्र का आविष्कार हुआ, उस समय जहाजी इंजीनियरों के सामने उसे तेज चाल से चलाने की समस्या आई। पैंडल चक्रों को चलानेवाले इंजन बहुत ही धीमे (gears) की सहायता लेनी पड़ी। बाद में द्रुत गति से चलनेवाले खड़े इंजन बन जाने और फिर टरबाइन तथा डीजल इंजनों का प्रयोग आरंभ हो जाने से यह समस्या हल हो गई।

प्रणोदित्र संचालन  प्रणोदित्र के ठीक प्रकार से काम करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पंखे पानी में पूरी तरह से डूबे रहें। अत: उसे चलानेवाले धुरे भी जहाज के पीछे की तरफ किसी उपयुक्त प्रकार के छेद में से होकर उसके फ्रेम और आवरण के बाहर निकले रहें। यह जल-तल-रेखा से काफी नीचे होता है। उन छेदों की परिधि और धुरों की परिधि के बीच ऐसा प्रबंध भी होता है कि समुद्र का पानी उसमें से जहाज में न घुसने पाए। इस काम के लिए अनेक प्रकार की युक्तियों बनाई गई हैं जिनमें से एक में दिखाई गई है। साधारण युक्तियों में धुरा गरम भी हो जाता है, अत: इसमें तेल भरकर चलाने का प्रर्वध और विशेष अवसरों पर गरम पानी से ताप कम करने का प्रबंध भी किया गया है। जिन जहाजों में दो या तीन प्रणोदित्र लगाए जाते हैं उनमें बगली प्रणोदित्रों के धुरों की खोलों को सहारा देने के लिए जहाज के बाजू के फ्रेम में उचित प्रकार से ब्रैकेट लगाकर, उनमें खोलों को स्थिरता से बाँधकर प्रणोदित्र का धुरा चलाया जाता है।

प्रणोदित्र का नोद (Thrust of propeller)  प्रणोदित्र घूमते समय जब पानी को चीरकर जहाज को आगे की तरफ ढकेलता है, उस समय उसकी प्रतिक्रिया के रूप में उसी परिमाण का नोद आगे की तरफ मुड़ता है, जिससे बेयरिंगों (bearings) के बहुत ही शीघ्र घिस जाने तथा पुर्जों के स्थानच्युत हो जाने का डर रहता है। अत: प्रणोदी धुरे की पिछली खोल, जिसमें से वह धुरा पीछे की तरफ बाहर निकला रहता है, और इंजन अथवा टरबाइन के बीच एक बॉक्सनुमा नोदक बेयरिंग लगा दिया जाता है, जिसके भीतर की तरफ खाँचों में धुरे पर बनी कई कालरें (collar) सही सही बैठी रहती हैं और वे सब मिलाकर प्रणोदी पंखे से आनेवाले नोद को सह लेती हैं। इस प्रकार के एक बेयरिंग बॉक्स की खंड-परिच्छेद-मय (port section) आकृति चित्र 15. में दिखाई है। बेयरिंग के खाँचों में, धुरे की कालरों के दोनों तरफ, मुलायम पीतल के बने अर्धचंद्राकार अस्तरपट्ट डाल दिए जाते हैं और ऊपर से उनपर तेल चुआने का प्रबंध रहता है। कई नोदक बेयरिंग बॉक्सों में तेल की नाँद नीचे की तरफ बनी होती है, जिसमें धुरे की कॉलरें खंडश: डूबी हुई चला करती हैं। इनमें लगे अस्तरपट्ट घोड़े की नाल की आकृति के होते हैं।

प्रणोदित्रों को चलनेवाले इंजन- वाष्प टरबाइनों के आविष्कार के पहिले तक, प्रणोदित्रों को चलाने के लिए ऊपर की तरफ सिलिंडरोंवाले खड़े वाष्प इंजन काम में लाए जाते थे, जो अक्सर चतुष्संयोजी (quadruple compound) प्रकार के हुआ करते थे। जहाजों में प्रत्येक प्रणोदित्र को चलाने के लिए दो दो इंजन एक जोड़े में लगाए जाते हैं। जब जहाज का परिभ्रमण हो या दिशा बदलनी हो तब उन दो में से केवल एक का ही प्रयोग किया जाता है। जहाज को तेजी से आगे चलाते समय दोनों इंजन मिलकर एक प्रणोदित्र को चलाते है (देखे वाष्पइंजन)।

वाष्प टरबाइन - प्रणोदित्रों को चलाने के लिए आजकल टरबाइनों का रिवाज बढ़ता जा रहा है, क्योंकि ये कई बातों में इंजनों से भी अधिक सुविधाजनक तथा सस्ते पड़ते हैं। वैसे इनमें इंजनों की अपेक्षा वाष्प का खर्चा प्रति अश्वशक्ति अधिक होता है। चित्र 16, में एक प्रणोदित्र युक्त छोटे जहाज में एक उच्च दाब और एक अल्प दाब के टरबाइनों का जोड़ा उनके संघनित्र सहित दिखाया है। टरबाइन बड़ी तेजी से घूमनेवाला यंत्र है, इधर प्रणोदित्र से दक्षतापूर्वक काम लेने के लिए उसे टरबाइन की अपेक्षा काफी मंद गति से चलाना पड़ता है। अत: प्रणोदित्र की चाल मंद करने के लिए बीच में छोटी और बड़ी गरारी लगाना आवश्यक हो जाता है। टरबाइन की धुरी पर छोटा पिनियन (pinion) और प्रणोदित्र के धुरे पर बड़ा पिनियन लगाया जाता है (देखें टरबाइन)।

किसी जहाज में कहाँ कहाँ टरबाइन बैठाए जाऐं यह, बात उस जहाज के आकार एवं प्रकार पर निर्भर करती है। सब से सरल तरीका तो यह है कि एक प्रणोदित्र के लिए कम से कम एक टरबाइन तो अवश्य ही होना चाहिए। दूसरा तरीका यह है कि उच्चदाब और अल्पदाब के टरबाइन का जोड़ा संघनित्र सहित प्रत्येक प्रणोदित्र के साथ लगाए जाए। इस प्रबंध में बॉयलर में से आनेवाला ताजा वाष्प पहले उच्चदाब के टरबाइन में और फिर अल्पदाब के टरबाइन में काम करने के बाद संघनित्र में जाकर विसर्जित हो जाएगा। इस प्रबंध में उत्पादित शक्ति का इस प्रकार से समविभाजन किया जाता है कि प्रत्येक टरबाइन का जोड़ा एक एक प्रणोदित्र को गियर के माध्यम से दोनों तरफ स्वतंत्रतापूर्वक चला सके। कई जहाजों में, जिनमें तीन प्रणोदित्र होते हैं, उच्चदाब की टरबाइन तो बीच के प्रणोदित्र को चलाता है और दोनों बाजुओं में लगे अल्पदाब टरबाइन बगली प्रणोदित्रों को चलाते हैं।

एक बहुत बड़े जहाज के टरबाइनों का विन्यास जिसमें 60,000 अश्व शक्ति से चलनेवाले चार प्रणादित्र लगे हैं। इनमें प्रत्येक प्रणोदित्र के लिए, जहाज के आगे की ओर तो उच्च और मध्यदाब के टरबाइन लगे हैं, जिनके पीछे की तरफ नोदक धुरे की चाल मंद करने के लिए गीयर बॉक्स हैं और उनके भी पीछे की तरफ अल्पदाब के दो दो टरबाइन हैं और इनके भी पीछे नोदक बेयरिंग बॉक्स और नोदक धुरों के पिछले भाग हैं, जो प्रणोदित्र पंखों से संबद्ध रहते हैं। जहाज को पीछे की तरफ चलाने के लिए, अर्थात्‌ टरबाइनों की चाल पलटने के निमित्त, दो अल्पदाब के टरबाइनों के बीच में एक छोटा सा उच्चदाब का टरबाइन और लगा दिया जाता है, जिसकी पंखुड़ियाँ उल्टी दिशा में लगी होती हैं और इसमें उल्टी दिशा से ही वाष्प प्रविष्ट करता है । जब जहाज आगे चलता है तब इस टरबाइन में वाष्प काम नहीं करता और इसकी पंखुड़ियाँ (blades) निर्वातन में ही चलती रहती हैं। पीछे की तरफ जहाज चलाते समय जब और सब टरबाइन बंद हो जाते हैं तभी इसे वाष्प द्वारा चलाया जाता है (देखें टरबाइन)

इंजनों और टरबाइनों का संयुक्त प्रयोग  टरबाइनों के प्रयोग के आरंभिक काल में, और आजकल भी, कई बड़े बड़े जहाजों में संयोजी इंजनों (compound engines) के साथ साथ टरबाइनों का भी प्रयोग किया जाता है। जब जहाज पूरी रफ्तार से आगे चलता है तब तो टरबाइन और इंजन दोनों ही मिलकर काम करते हैं, लेकिन जब जहाज को उल्टा चलाना होता है तब टरबाइन का संबंध धुरे से काट दिया जाता है। ऐसा करते समय अल्पदाब के सिलिंडर में काम करने के बाद वाष्प, टरबाइन में जाकर काम करने के बदले सीधे संघनित्र में चला जाता है। इसमें जहाज का मध्यवर्ती प्रणोदित्र तो उच्चदाब, मध्यदाब और अल्पदाब के त्रिप्रसारीय संयोजी इंजन द्वारा चलाया जाता है और अल्पदाब के सिलिंडर में काम कर चुकने के बाद वाष्प लगभग नौ पाउंड प्रतिवर्ग इंच की दाब पर, बाजुओं में लगी टरबाइनों को चलाता है, जिससे बाजुओं के प्रणोदित्र चलते हैं। फिर बाद में यह वाष्प संघनित्र में जाकर विसर्जित हो जाता है। जिन बड़े जहाजों की रफ्तार 16 नॉट प्रति घंटा से नीची हो उन्हीं में इंजन और टरबाइनों का संयुक्त विन्यास उपयोगी हो सकता है। इससे ऊँची रफ्तारवाले जहाजों के लिए तो पूर्णतया टरबाइनों का प्रयोग ही लाभदायक रहता है।

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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