नाव का पुल

Submitted by Hindi on Thu, 08/18/2011 - 12:13
नाव का पुल बड़े बड़े नदी नालों में, जहाँ पक्के पुल नहीं होते, लोग नावों या बजरों से पार उतरते हैं, किंतु यदि यातायात अधिक होता है, तो इनसे काम नहीं चलता। लगातार यातायात चालू रखने के लिए इनपर निर्भर नहीं रहा जा सकता। बड़े बड़े पक्के पुल बनाने में तो बहुत समय और धन लगता है; तात्कालिक आवश्यकताओं के लिए, और बड़े बड़े पुलों के निर्माण में सहायता पहुँचाने के लिए भी नदियों में तैरते हुए अस्थायी पुल बनाए जाते हैं। मुगलकाल में तैरते हुए पुलों की क्षमता की जाँच के लिए कभी कभी उनके ऊपर हाथी लड़ाए जाया करते थे। सन्‌ 1857 के भारतीयय स्वतंत्रता संग्राम के बाद देश भर में प्रभावशाली नियंत्रण रखने के लिए अंग्रेजी सेना को आवागमन के अच्छे साधनों की विशेष आवश्यकता प्रतीत हुई, और सन्‌ 1860 ई. में पंजाब में विशेषकर बहुत से अस्थायी पुल बने।

विशेषकर जब बहाव तेज हो, तब नदियों पर तैरता हुआ या अस्थायी पुल बनाने के लिए नावों के पाए बहुत अच्छे रहते हैं, वशतें कि वे जमीन पर न टिक जाएँ। इसलिए इन्हें भी भली भाँति फिट करना होता है। प्रत्येक नाव में पर्याप्त उत्प्लावकता होनी चाहिए ताकि वह अपने ऊपर आनेवाले अधिकतम भार को भी सँभाल सके। ऊपरी पट्टी या पेरज से फुट सवा फुट नीचे तक डूबी होने पर नाव द्वारा विस्थापित जल के भार में से नाव का भार कम करके नाव की उत्प्लावकता ज्ञात की जाती है। परिकलित उत्प्लावकता का केवल 10 प्रतिशत ही उपलब्ध समझना चाहिए, और अशांत जल में इससे भी कुछ कम। नाव के पुल पर आनेवाले भार की गणना करते समय चल भार का ड्योढ़ा नहीं किया जाता। अचल भार और चल भार का कुल योग उपलब्ध उत्प्लावकता से कम होना चाहिए।

प्रत्येक नाव में लंबाई की दिशा में एक काठी धरन बीचों बीच लगाई जाती है, जिसपर सड़क थामनेवाले लट्ठे रखे जाते हैं। काठी का ऊपरी तल पेरज से कुछ ऊँचा होना चाहिए और उसकी लंबाई, सड़क की चौड़ाई से दो फुट अधिक होनी चाहिए। नार्वे प्राय: काफी पास पास रखी जाती हैं, किंतु यदि 20 टन या अधिक क्षमतावाली नार्वे हों और उनपर रखने के लिए पर्याप्त लंबे लट्ठे उपलब्ध न हों, तो छोटे छोटे लट्ठे कैचियों की शकल में जोड़कर एक नाव के पेरज के ऊपर एक धरन लगानी होती है। कभी कभी नावों के स्थान पर बड़े बड़े पीपे लगाए जाते हैं। ऐसा पुल पीपों का पुल कहलाता है। यह नाव के पुल से अच्छा होता है, किंतु महँगा पड़ता है। दोनों के निर्माण का सिद्धांत एक ही है।

तैरता हुआ पुल, चाहे वह नावों का हो या पीपों का, अथवा ब्रजरों का, अपने स्थान रहे, इसके लिए लंगर लगाए जाते हैं, अथवा प्रत्येक पाया एक मजबूत तार या जंजीर से, जो नदी के आरपार कसी रहती है, बाँध दिया जाता है। यदि धारा कम चौड़ी है, तो प्रत्येक पाए में दो दो तार बाँधे जाते हैं और वे तार दोनों पर मजबूत खूँटों से बाँध दिए जाते हैं। दृढ़ या पंकिल तल में लंगर काम दे जाते हैं। प्राय: प्रत्येक दूसरे पाए में धारा के ऊपर की ओर लंगर डाला जाता है, किंतु तेज धारा हो तो लंगर प्रत्येक पाए में डालना चाहिए। धारा के नीचे की ओर भी थोड़े से लंगर डालने चाहिए, ताकि उधर से चलनेवाली तेज हवा का प्रभाव पुल पर न पड़े। अच्छी पकड़ के लिए लंगर की डोरी की लंबाई धारा की गहराई की दस गुनी और न्यूनतम 90 फुट होनी चाहिए। लंगर का वजन, पुल की प्रति फुट लंबाई के लिए, 10 से 20 पाउंड तक होना चाहिए। जहाँ उपयुक्त लंगर न हों वहाँ लकड़ी के कटघरे बनाकर उन्हें ईंट, पत्थर या कंकड़ से भर देना चाहिए।

चलभार जब पुल पर चढ़ता है, या उससे उतरता है, तब पुल पर विशेष जोर पड़ता है। इसलिए किनारे के पायों में सबसे अधिक मजबूत और बड़ी नावें चुनकर लगानी चाहिए। यदि तट के पास पानी की गहराई इतनी कम हो कि पाया तैरता न रह सके, तो किनारे का भाग घोड़ियों के ऊपर रखना चाहिए, या तख्तों की ढाल बना देनी चाहिए, अथवा तैरनेवाले भाग तक मिट्टी की भराई कर देनी चाहिए। यदि नदी के अचानक ही जलतल बहुत ऊँचा या नीचा हो जाया करता है, तो किनारों पर विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है। ऐसी दशा में समंजनीय ऊँचाईवाली घोड़ियाँ, अथवा कम ऊँचाईवाले तिरेदे लगाकर उनपर सड़क बनाई जाती हैं।

यदि नदी नौपरिवहन के काम आती है, तो पुल के एक पार से दूसरे पार नावें लाने ले जाने के लिए पुल में एक अंतराल रखने की आवश्यकता होती है। इसके लिए पुल के एक या दो गाले अलग से बजरे के समान बनाए जाते हैं, जो आवश्यकता पड़ने पर जोड़े या काटकर अलग किए जा सकते हैं। जंगम बजरे में दोनों ओर विशेष रूप से छोटे छोटे लट्ठे होते हैं, जो उसे पुल से जोड़ दिया करते हैं।

संसार में सबसे बड़ा तैरता हुआ पुल सिएटल में वाशिंगटन झील पर 1939 ई. में बना था। इसके 350 फुट लंबे, 59 फुट चौड़े और 14 फुट गहरे पीपे प्रबलित कंक्रीट के बने हैं, जिनके पर्दे और दीवारें सब आठ आठ इंच मोटी है।(बसंतसिंह )

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