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जनसत्ता, 26 अप्रैल 2012
नदी जोड़ परियोजना की वजह से ना तो मुजफ्फरपुर के लीची में कोई मिठास आ जाएगी और ना ही मधुबनी के आमों में वो रस जिसके लिए ये दोनों जाने जाते हैं। इनका रस और मिठास इनके अपने ही नदियों के पानी से आएगा जिसके किनारे ये अपना फल देते हैं। इस नदी जोड़ परियोजना से राजस्थान में धान की फसलें लहलहाने नहीं लगेंगी। इसी नदी जोड़ परियोजना के बारे में बताते संजय मिश्र।
यानी बारिश और तापक्रम के अलावा मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्व उस क्षेत्र की वनस्पति के स्वरूप को निर्धारित करते हैं। यही कारण है कि कमला नदी के छारण से पटे मधुबनी जिले के आम के स्वाद का मुकाबला मुजफ्फरपुर जिले के बगीचों का आम नहीं कर पाता है। मधुबनी जिले की मिट्टी का तल मोटे तौर पर कमला द्वारा हिमालय से लाई गई गाद से बना है। स्वाभाविक रूप से यहां की वनस्पति पर इसका असर होगा। यही वजह है कि मैदानी इलाके में भी विभिन्न इलाकों की प्राकृतिक छटा में अंतर होता है। नतीजतन, लोगों के मिजाज में अंतर पैदा होने के साथ ही उस सांस्कृतिक क्षेत्र की एकरूपता के बीच विविधता के दर्शन होते हैं। नदी जोड़ योजना इस संतुलन पर चोट करेगी।
मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजतन, जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते हैं। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों के खेती का तरीका बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र के लोग कभी मकई और अरहर की फसल लेते थे, पर अब यह इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहां अब भी आंदोलन चल रहा है। पहले यह इलाका तीन फसली था, अब बमुश्किल दो फसल हो पाती हैं। यानी अर्थतंत्र पर सीधा प्रहार। योजनाएं कैसे ‘इको-सिस्टम’ या पारिस्थितिकी बदल देती हैं इसे कमला-बलान नदी के सिलसिले में देख सकते हैं। कभी इस नदी में डॉल्फिन बड़ी संख्या में लुका-छिपी करती थीं। आज इनके दर्शन मुश्किल। वजह है फरक्का बैराज।
नदी जोड़ो परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म देगी। ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर योजना के तहत कोसी इलाके में कितने ही लोग बेघर हुए हैं। इनकी संख्या कम है, फिर भी दरभंगा और सहरसा में कई स्वयंसेवी संगठन इनकी रहबरी में उग आए हैं। इनका मुख्य काम दूर दिल्ली के पत्रकारों को इस इलाके में बुलाना और उनसे पीड़ितों के संबंध में मानवीय पहलू वाली खबर छपवाना। इन रिपोर्टों की एवज में विदेशी अनुदान ऐंठे जाते हैं। हैरानी होगी कि इन बाहरी रिपोर्टरों को खबर लेने में जो खर्चा आता है, उसे भी विदेशी एजेंसियों से एनजीओ वाले वसूल लेते हैं और पत्रकारों को पता तक नहीं चलता। स्थानीय पत्रकारों से परहेज किया जाता है।
नदी जोड़ो योजना के अमल में आने के बाद पानी के बंटवारे का मसला अलग से चिंता पैदा करेगा। अनुमान लगाया जा सकता है कि देश भर में इस तरह के कितने झंझट फैलेंगे। योजना की विशाल लागत के लिए निजी कंपनियां आएंगी। वे भारत सरकार पर कितना असर डालेंगी, उसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजतन, जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते हैं। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों के खेती का तरीका बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र के लोग कभी मकई और अरहर की फसल लेते थे, पर अब यह इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहां अब भी आंदोलन चल रहा है।
नदियों को जोड़ने के सपने दिखाने वाली महत्त्वाकांक्षी योजनाएं अपने साथ जो पेचीदगियां लाएंगी, उनका भान फिलहाल अधिकतर लोगों को नहीं है। सवाल है कि क्या बाढ़ सचमुच इतनी बुरी है? क्या नदियों वाले इलाके के लोग बाढ़ नहीं चाहते? जल-जमाव से मुक्त होने के बाद क्या वे पश्चिमी भारत के लोगों की तरह ज्वार-बाजरा उपजाने के लिए लालायित होंगे? क्या राजस्थान चावल उत्पादक राज्य बन कर इठलाएगा? नदियां जोड़ी जाएंगी तो जमीन की प्रकृति बदलेगी। इसे कोई रोक नहीं पाएगा। इसका असर वहां रहने वाले लोगों पर होगा। बिहार में मुजफ्फरपुर लीची के लिए मशहूर है। आसपास के जिलों में भी लीची के बाग लगाए जाते हैं। लेकिन वहां उत्पाद की मात्रा और आकार के साथ-साथ स्वाद भी बदल जाता है। शाही लीची का स्वाद मुजफ्फरपुर जिले की मिट्टी और पानी से तय होता है और इसके पीछे बूढ़ी गंडक नदी का हाथ है। यहां की मिट्टी के रासायनिक तत्व बूढ़ी गंडक पर आश्रित हैं, क्योंकि जिले में मिट्टी का स्तर इसी नदी ने बनाया है। वह अपने साथ उद्गम इलाके की मिट्टी बहा कर लाती है।यानी बारिश और तापक्रम के अलावा मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्व उस क्षेत्र की वनस्पति के स्वरूप को निर्धारित करते हैं। यही कारण है कि कमला नदी के छारण से पटे मधुबनी जिले के आम के स्वाद का मुकाबला मुजफ्फरपुर जिले के बगीचों का आम नहीं कर पाता है। मधुबनी जिले की मिट्टी का तल मोटे तौर पर कमला द्वारा हिमालय से लाई गई गाद से बना है। स्वाभाविक रूप से यहां की वनस्पति पर इसका असर होगा। यही वजह है कि मैदानी इलाके में भी विभिन्न इलाकों की प्राकृतिक छटा में अंतर होता है। नतीजतन, लोगों के मिजाज में अंतर पैदा होने के साथ ही उस सांस्कृतिक क्षेत्र की एकरूपता के बीच विविधता के दर्शन होते हैं। नदी जोड़ योजना इस संतुलन पर चोट करेगी।
मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजतन, जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते हैं। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों के खेती का तरीका बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र के लोग कभी मकई और अरहर की फसल लेते थे, पर अब यह इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहां अब भी आंदोलन चल रहा है। पहले यह इलाका तीन फसली था, अब बमुश्किल दो फसल हो पाती हैं। यानी अर्थतंत्र पर सीधा प्रहार। योजनाएं कैसे ‘इको-सिस्टम’ या पारिस्थितिकी बदल देती हैं इसे कमला-बलान नदी के सिलसिले में देख सकते हैं। कभी इस नदी में डॉल्फिन बड़ी संख्या में लुका-छिपी करती थीं। आज इनके दर्शन मुश्किल। वजह है फरक्का बैराज।
नदी जोड़ो परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म देगी। ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर योजना के तहत कोसी इलाके में कितने ही लोग बेघर हुए हैं। इनकी संख्या कम है, फिर भी दरभंगा और सहरसा में कई स्वयंसेवी संगठन इनकी रहबरी में उग आए हैं। इनका मुख्य काम दूर दिल्ली के पत्रकारों को इस इलाके में बुलाना और उनसे पीड़ितों के संबंध में मानवीय पहलू वाली खबर छपवाना। इन रिपोर्टों की एवज में विदेशी अनुदान ऐंठे जाते हैं। हैरानी होगी कि इन बाहरी रिपोर्टरों को खबर लेने में जो खर्चा आता है, उसे भी विदेशी एजेंसियों से एनजीओ वाले वसूल लेते हैं और पत्रकारों को पता तक नहीं चलता। स्थानीय पत्रकारों से परहेज किया जाता है।
नदी जोड़ो योजना के अमल में आने के बाद पानी के बंटवारे का मसला अलग से चिंता पैदा करेगा। अनुमान लगाया जा सकता है कि देश भर में इस तरह के कितने झंझट फैलेंगे। योजना की विशाल लागत के लिए निजी कंपनियां आएंगी। वे भारत सरकार पर कितना असर डालेंगी, उसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।