Source
परिषद साक्ष्य, नदियों की आग, सितंबर 2004
आजादी के बाद आज तक की सरकार बाढ़ और सुखाड़ क्षेत्र को घटा नहीं पायी है। देश में अब तक बने सारे बांध बाढ़ और सुखाड़ से मुक्ति के नाम पर बने हैं। पर एक भी बांध ने अपना वादा पूरा नहीं किया है। इसलिए भारतीय जनता को नदियों को जोड़ने के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। हमारा समाज जुड़कर कुछ पानी बचाने आदि का काम करेगा, तो अच्छा रहेगा, उसी से अकाल-बाढ़ रुकेगा, सबको पानी मिलेगा। सब जगह सभी मिलकर पानी बचाएं, जहां समाज ने ऐसा किया, वहां अच्छे परिणाम मिले। नदी जोड़ने की योजना 1 अप्रैल, 2002 को पारित हुई जलनीति का ही क्रियान्वयन है। ‘राष्ट्रीय जल नीति’ की भूमिका में जल को व्यापार की वस्तु मान लिया गया है। इस नीति के पैरा 13 में पानी का मालिकाना, पट्टेदारी, परिवहन और निर्माण निजी कंपनी को देने का निर्णय नदियों को जोड़ना ही तो है।
नदियों को जोड़ने का मालिक बनने के लिए विश्व बैंक, आइएमएफ, बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक हाथ से हमारे देश को देंगी और दूसरे हाथ में कंसल्टेंसी मशीनों के नाम पर वापस लेंगी। केवल इतना ही नहीं ब्रूट एग्रीमेंट डब्ल्यूटीओ के आदेशानुसार नदियों का मालिकाना और पट्टेदारी सब कुछ हासिल करेंगे। इसलिए नदियों को जोड़ने की वकालत करने से पहले हमें यह समझना होगा कि देश की नदियों को जोड़ने के लिए हमें कर्ज देने वाले लोग न केवल हमारे परंपरागत जल प्रबंधन ढांचे को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि इस बहाने पूरी सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
ये सब हमारी नयी गुलामी के नये रास्ते हैं। यह जीवन के आधार पानी पर नियंत्रण की गुलामी है। जब पानी के लिए पैसा नहीं होगा, तब बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी मर्जी के मुताबिक एग्रीमेंट लिखवायेंगी। होना तो यह चाहिए कि नदियों को जोड़ने की बहस से पहले राज्यों के मुख्यमंत्रियों को जोड़ने की बहस चलनी चाहिए। किसको कितना पानी देकर जोड़ा जायेगा, यह सब तय हो जाये। तब हमें नदियों को जोड़ने का चरित्र समझ में आयेगा।
यह समझना होगा कि आजादी के समय केवल 232 गांव बेपानी थे, तो 2003 में 1,53,000 गांव बेपानी कैसे बने? नदियों के जुड़ने से सबको पानी कैसे मिलेगा? सुखाड़ और बाढ़मुक्त हम कैसे बनेंगे? इसका स्पष्ट जवाब किसी के पास नहीं है। हमारा समाज चुनाव में अभी तक वोटों से बंटता था, लेकिन अब नदियों की जोड़ परियोजना से भी बंटेगा। जिस नदी के जुड़ने का ज्यादा कर्जा जल्दी मिलेगा, वहां की नालियों में पैसे का पानी जल्दी बहेगा।
दूसरी तरफ भूखे और प्यासे लोग उस बहनेवाले पानी को देखेंगे और फिर जगह-जगह अनेक लड़ाइयां शुरू होंगी। इन लड़ाइयों को मिटाने के लिए एक अलग तरह की न्यायपालिका बनेगी। यह न्यायपालिका नदी के ऊपर और नीचे के ग्रामीणों के झगड़े को देखेगी। किसको कितना पानी मिलेगा? उनके लिए जगह-जगह मीटर होंगे। इससे पानी का बाजार गर्म बनेगा। आज तो यह एक काल्पनिक जैसी चीज लगती है, ठीक वैसे ही जैसे पांच साल पहले बोतल बंद पानी की बिक्री लगती थी। पर आज तो हमारे देश का पांच प्रतिशत समाज बोतलबंद पानी खरीद कर पी रहा है। नदियों को जोड़ने का भी यही हाल होगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसे साकार करने में जुटी हुई हैं।
अतः नदियों का जुड़ना, सबको पानी पिलाना नहीं, बल्कि सबके पानी को छीनकर एक के हाथ में सारा पानी पहुंचाना है। नदियों का जुड़ना अभी बहुत सारे राजनेताओं के लिए आकर्षक और दुधारू गाय की तरह है। 30-40 साल से कई नदियों को जोड़ने के झगड़े सैकड़ों-करोड़ों खर्च करके अधूरे पड़ जाते हैं। नेता पहले इन्हें जोड़कर उनके लाभ दिखाकर आगे की बात करते, तो समाज मान जाता, लेकिन अब तो समाज को संगठित होकर इसका विरोध करना ही उचित लग रहा है। यदि सरकार की थोड़ी-सी समझदारी है, तो वह सामुदायिक जल, जंगल, जमीन के संरक्षण के प्रयासों को प्रोत्साहन दे। जब समाज स्वयं मिलकर जल, जंगल बचाने का काम करेगा, तभी सभी नदियों में पानी बहेगा।
पैदावार, रोजगार बढ़ेगा और संपूर्ण राष्ट्र सुखी, समृद्ध और पानीदार बनेगा। समाज के अपने प्रयास ही टिकते हैं, चलते हैं। छोटी-छोटी कोशिश और छोटे-छोटे काम समाज को जोड़ते हैं। समाज जुड़ेगा, तो धरती की हरियाली और पैदावार बढ़ेगी तथा सभी नदियां पहले की तरह ही जुड़ी रहेंगी। नदियों का अपना चरित्र होता है। नदियों को सड़कों और टेलीफोन की लाइनों की तरह जोड़ने की बात नहीं की जा सकती। सड़क और टेलीफोन लाइन निर्जीव हैं, पर नदियां सजीव हैं, नदियों का अपना जीवनकाल होता है। जीवन की जरूरतें होती हैं। नदियों के जीवन का चरित्र सब कुछ अलग-अलग है। इसकी विविधता को जोड़ना भविष्य के लिए पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय लिहाज से एक गंभीर खतरा पैदा करना है। नदियों के जीन-बैंक का संतुलन बिगड़ जायेगा और असाध्य बीमारियां जन्म लेंगी।
बाढ़ से मुक्ति के लिए नदियों को जोड़ना समझ में नहीं आता। नदियों के जुड़ने से तो बाढ़ आती है। भारत का सबसे हीराकुंड बांध कटक डेल्टा 5000 वर्ग मील बाढ़ क्षेत्र से मुक्त करने का वादा 1957 में कर चुका था। आज तक यहां बाढ़ क्षेत्र का एक इंच भी कम नहीं हुआ, वरन बढ़ता ही जा रहा है। इस बांध के बनने से 300 से अधिक गांव डूबकर बेघर हो गये और बांध के निर्माण के 45 वर्ष के बाद भी बाढ़ क्षेत्र नहीं घटा। आज नदियों में पानी की जो स्थिति है, वह केवल बरसात के दिनों में ही फ्लश फ्लड की तरह बहती है। शेष दिनों में जब पानी की जरूरत होती है, तब सूखी रहती है। नदियों को जोड़ने के लिए जो बांध बनेंगे, उसका चरित्र भी हीराकुंड जैसा ही होगा। नदियों के जुड़ने से बाढ़ और सुखाड़ के क्षेत्रों को लाभ पहुंचाने का भ्रम नहीं पालना चाहिए।
आजादी के बाद आज तक की सरकार बाढ़ और सुखाड़ क्षेत्र को घटा नहीं पायी है। देश में अब तक बने सारे बांध बाढ़ और सुखाड़ से मुक्ति के नाम पर बने हैं। पर एक भी बांध ने अपना वादा पूरा नहीं किया है। इसलिए भारतीय जनता को नदियों को जोड़ने के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। हमारा समाज जुड़कर कुछ पानी बचाने आदि का काम करेगा, तो अच्छा रहेगा, उसी से अकाल-बाढ़ रुकेगा, सबको पानी मिलेगा। सब जगह सभी मिलकर पानी बचाएं, जहां समाज ने ऐसा किया, वहां अच्छे परिणाम मिले। रूपारेल, अरवरी नामक नदियां फिर से बहने लगीं। इन नदियों का बेसिन सुखाड़-बाढ़ मुक्त बन गया। यहां 1995-96 की अतिवृष्टि के बावजूद बाढ़ नहीं आयी। इस क्षेत्र में 1998 से बहुत कम वर्षा हुई है, तब भी यहां सुखाड़ नहीं है। यहां का समाज सुखी और समृद्ध है। सबको पीने का पानी मिल रहा है। खेती, उद्योग सब यथावत् चल रहे हैं। यह सब समाज के जुड़ने से ही संभव हुआ है। अतः नदियों को नहीं, समाज को नदियों से जोड़ना चाहिए। तभी हमारा भविष्य सुरक्षित होगा।
नदियों को जोड़ने का मालिक बनने के लिए विश्व बैंक, आइएमएफ, बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक हाथ से हमारे देश को देंगी और दूसरे हाथ में कंसल्टेंसी मशीनों के नाम पर वापस लेंगी। केवल इतना ही नहीं ब्रूट एग्रीमेंट डब्ल्यूटीओ के आदेशानुसार नदियों का मालिकाना और पट्टेदारी सब कुछ हासिल करेंगे। इसलिए नदियों को जोड़ने की वकालत करने से पहले हमें यह समझना होगा कि देश की नदियों को जोड़ने के लिए हमें कर्ज देने वाले लोग न केवल हमारे परंपरागत जल प्रबंधन ढांचे को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि इस बहाने पूरी सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
ये सब हमारी नयी गुलामी के नये रास्ते हैं। यह जीवन के आधार पानी पर नियंत्रण की गुलामी है। जब पानी के लिए पैसा नहीं होगा, तब बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी मर्जी के मुताबिक एग्रीमेंट लिखवायेंगी। होना तो यह चाहिए कि नदियों को जोड़ने की बहस से पहले राज्यों के मुख्यमंत्रियों को जोड़ने की बहस चलनी चाहिए। किसको कितना पानी देकर जोड़ा जायेगा, यह सब तय हो जाये। तब हमें नदियों को जोड़ने का चरित्र समझ में आयेगा।
यह समझना होगा कि आजादी के समय केवल 232 गांव बेपानी थे, तो 2003 में 1,53,000 गांव बेपानी कैसे बने? नदियों के जुड़ने से सबको पानी कैसे मिलेगा? सुखाड़ और बाढ़मुक्त हम कैसे बनेंगे? इसका स्पष्ट जवाब किसी के पास नहीं है। हमारा समाज चुनाव में अभी तक वोटों से बंटता था, लेकिन अब नदियों की जोड़ परियोजना से भी बंटेगा। जिस नदी के जुड़ने का ज्यादा कर्जा जल्दी मिलेगा, वहां की नालियों में पैसे का पानी जल्दी बहेगा।
दूसरी तरफ भूखे और प्यासे लोग उस बहनेवाले पानी को देखेंगे और फिर जगह-जगह अनेक लड़ाइयां शुरू होंगी। इन लड़ाइयों को मिटाने के लिए एक अलग तरह की न्यायपालिका बनेगी। यह न्यायपालिका नदी के ऊपर और नीचे के ग्रामीणों के झगड़े को देखेगी। किसको कितना पानी मिलेगा? उनके लिए जगह-जगह मीटर होंगे। इससे पानी का बाजार गर्म बनेगा। आज तो यह एक काल्पनिक जैसी चीज लगती है, ठीक वैसे ही जैसे पांच साल पहले बोतल बंद पानी की बिक्री लगती थी। पर आज तो हमारे देश का पांच प्रतिशत समाज बोतलबंद पानी खरीद कर पी रहा है। नदियों को जोड़ने का भी यही हाल होगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसे साकार करने में जुटी हुई हैं।
अतः नदियों का जुड़ना, सबको पानी पिलाना नहीं, बल्कि सबके पानी को छीनकर एक के हाथ में सारा पानी पहुंचाना है। नदियों का जुड़ना अभी बहुत सारे राजनेताओं के लिए आकर्षक और दुधारू गाय की तरह है। 30-40 साल से कई नदियों को जोड़ने के झगड़े सैकड़ों-करोड़ों खर्च करके अधूरे पड़ जाते हैं। नेता पहले इन्हें जोड़कर उनके लाभ दिखाकर आगे की बात करते, तो समाज मान जाता, लेकिन अब तो समाज को संगठित होकर इसका विरोध करना ही उचित लग रहा है। यदि सरकार की थोड़ी-सी समझदारी है, तो वह सामुदायिक जल, जंगल, जमीन के संरक्षण के प्रयासों को प्रोत्साहन दे। जब समाज स्वयं मिलकर जल, जंगल बचाने का काम करेगा, तभी सभी नदियों में पानी बहेगा।
पैदावार, रोजगार बढ़ेगा और संपूर्ण राष्ट्र सुखी, समृद्ध और पानीदार बनेगा। समाज के अपने प्रयास ही टिकते हैं, चलते हैं। छोटी-छोटी कोशिश और छोटे-छोटे काम समाज को जोड़ते हैं। समाज जुड़ेगा, तो धरती की हरियाली और पैदावार बढ़ेगी तथा सभी नदियां पहले की तरह ही जुड़ी रहेंगी। नदियों का अपना चरित्र होता है। नदियों को सड़कों और टेलीफोन की लाइनों की तरह जोड़ने की बात नहीं की जा सकती। सड़क और टेलीफोन लाइन निर्जीव हैं, पर नदियां सजीव हैं, नदियों का अपना जीवनकाल होता है। जीवन की जरूरतें होती हैं। नदियों के जीवन का चरित्र सब कुछ अलग-अलग है। इसकी विविधता को जोड़ना भविष्य के लिए पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय लिहाज से एक गंभीर खतरा पैदा करना है। नदियों के जीन-बैंक का संतुलन बिगड़ जायेगा और असाध्य बीमारियां जन्म लेंगी।
बाढ़ से मुक्ति के लिए नदियों को जोड़ना समझ में नहीं आता। नदियों के जुड़ने से तो बाढ़ आती है। भारत का सबसे हीराकुंड बांध कटक डेल्टा 5000 वर्ग मील बाढ़ क्षेत्र से मुक्त करने का वादा 1957 में कर चुका था। आज तक यहां बाढ़ क्षेत्र का एक इंच भी कम नहीं हुआ, वरन बढ़ता ही जा रहा है। इस बांध के बनने से 300 से अधिक गांव डूबकर बेघर हो गये और बांध के निर्माण के 45 वर्ष के बाद भी बाढ़ क्षेत्र नहीं घटा। आज नदियों में पानी की जो स्थिति है, वह केवल बरसात के दिनों में ही फ्लश फ्लड की तरह बहती है। शेष दिनों में जब पानी की जरूरत होती है, तब सूखी रहती है। नदियों को जोड़ने के लिए जो बांध बनेंगे, उसका चरित्र भी हीराकुंड जैसा ही होगा। नदियों के जुड़ने से बाढ़ और सुखाड़ के क्षेत्रों को लाभ पहुंचाने का भ्रम नहीं पालना चाहिए।
आजादी के बाद आज तक की सरकार बाढ़ और सुखाड़ क्षेत्र को घटा नहीं पायी है। देश में अब तक बने सारे बांध बाढ़ और सुखाड़ से मुक्ति के नाम पर बने हैं। पर एक भी बांध ने अपना वादा पूरा नहीं किया है। इसलिए भारतीय जनता को नदियों को जोड़ने के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। हमारा समाज जुड़कर कुछ पानी बचाने आदि का काम करेगा, तो अच्छा रहेगा, उसी से अकाल-बाढ़ रुकेगा, सबको पानी मिलेगा। सब जगह सभी मिलकर पानी बचाएं, जहां समाज ने ऐसा किया, वहां अच्छे परिणाम मिले। रूपारेल, अरवरी नामक नदियां फिर से बहने लगीं। इन नदियों का बेसिन सुखाड़-बाढ़ मुक्त बन गया। यहां 1995-96 की अतिवृष्टि के बावजूद बाढ़ नहीं आयी। इस क्षेत्र में 1998 से बहुत कम वर्षा हुई है, तब भी यहां सुखाड़ नहीं है। यहां का समाज सुखी और समृद्ध है। सबको पीने का पानी मिल रहा है। खेती, उद्योग सब यथावत् चल रहे हैं। यह सब समाज के जुड़ने से ही संभव हुआ है। अतः नदियों को नहीं, समाज को नदियों से जोड़ना चाहिए। तभी हमारा भविष्य सुरक्षित होगा।